मनुष्य की उत्पत्ति कैसी होती है? विस्तार से बताईये।

मनुष्य की उत्पत्ति कैसी होती है? विस्तार से बताईये।

मनुष्य की उत्पत्ति में जब स्त्री-पुरुष मैथुन करते है। उस समय पुरुष के शरीर से वीर्य निकलता है। जिसमे अशंख्य शुक्र होते है। ये शुक्र स्त्री के रज के साथ मिलकर, वायु के द्वारा जब जरायु में प्रवेश करता है तो उसी समय जीव अपने कर्मों के वशीभूत हो उस शुक्र के साथ गर्भाशय में प्रविष्ट कर जाता है। रज और वीर्य से लिप्त यह शुक्र माता के गर्भाशय में नाभि के बीच बीज रूप में स्थित हो जाता है। जिसे कलल कहते है। 

यही कलल पाँच दिन के बाद बुदबुद के रूप में परिणत होता है। इस समय इसका आकार पके हुए अनार के दाने जैसा होता है। 

दस दिन तक आते आते बदरीफल यानी बेर के समान कठोर होता है और इसके बाद अंडे का आकार लेता है। फिर सबसे पहले भ्रूण का मस्तिष्क बनना शुरू होता है।

फिर पंद्रह दिन के बाद वह बुदबुद, पलल भाग को प्राप्त होता है अर्थात मांस और रुधिर से व्यप्त वह बुदबुद मांस का पिंड बन जाता है। 

पच्चीस दिन में उसमे अंकुर निकलता है।

एक महीने में इस अंकुर के पांच भाग हो जाते है यही पांच भाग-बाद में ग्रीवा, सिर, कंधे, पृष्ठवंश तथा उदर में विभक्त हो जाते है। 

इस तरह बढ़ते हुए दूसरा महीना पूर्ण होने पर वह मनुष्य के से आकार को पाता है जैसे हाथ-पाँव आदि अंगों को निकालना। 

तीसरे महीने पूर्ण होने तक अंगुली, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिन्ह, तथा अन्य छिद्र आदि अवयव प्रकट हो जाते है।

चार महीने बीत जाने तक मांसादि सात धातुएं पैदा हो जाती है एव सब अव्यवों की संधि का भेद ज्ञात होने लगता है अर्थात उसके हाथ-पैर आदि स्पष्ट दिखने लगते है। 

पांचवे महीने में मुंह, नाक, कान तथा अँगुलियों में नख प्रकट हो जाते है और उस जीव को भूख-प्यास लगाने लगती है।


छ: महीना के भीतर दांतों के मसूड़े, जिह्रा, तथा कानों के छिद्र प्रकट होते है और माता के गर्भाशय झिल्ली से लिपटकर दाहिने कोख में धुमने लगता है। 
छठे महीने में गर्भ की झिल्ली से आच्छादित होकर दाहिने कुक्षि में भ्रूण गर्भ के भीतर भ्रमण करने लगता है। इस दौरान माता जो भी खाती है, जीव उसी खाद्य पदार्थ से वृद्धि पाता है।
उस समय उस जीव की स्थिति सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुंडलाकार अवस्था में मुड़े रहते है। इस अवस्था तक जीव के पैर ऊपर और सिर नीचे रहता है तथा पीठ और ग्रीवा कुंडली के आकार में रहती हैं। इस समय वह हिल-डुल नहीं पाता। जैसे पिंजरे में बंद पक्षी पीड़ा पाता है, ठीक वैसे ही जीव मां के गर्भ में पीड़ा पाता है।
इस समय में जीव, माता के गर्भ में मल-मूत्र के साथ, जहां अन्य प्रकार के कृमि और सूक्ष्म जीव भी पल रहे होते हैं, उन्हीं के साथ शयन करता है। फिर अगले तीन महीने कई प्रकार के कष्टों का सामना करता है।
कई पदार्थों और कृमियों से पूर्ण उदर में जीव, उन कृमियों के काटने से कष्ट सहता है और कई बार बेहोश होता है। मां जो भी कड़वा, कसैला, तीखा या नमक युक्त भोजन करती है, उसके स्पर्श से जीव के कोमल अंगों को कष्ट होता है।

सातवे महीने में ज्ञानशक्ति, गुदा, लिंग, अंडकोष, उपस्थ तथा शरीर की सन्धियां स्पष्ट प्रकट हो जाती है। इसी महीने अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरण शक्ति प्राप्त होती है। जिससे उस जीव को सैकड़ों जन्म का स्मरण हो जाता है। जिससे वह बैचेन हो उठता है। आपको जानकर हैरानी होगी लेकिन गुरुड़ पुराण के अनुसार, जीव गर्भ में ही अपनी सात माह की अवधि में ज्ञान पाकर वैराग्य से परिपूर्ण होकर श्री विष्णु की प्रार्थना करने लगता है। उनके चरणों में शरण पाने की विनती करता है। लेकिन जैसे ही धरती की वायु छूती है वह सब भूलकर फिर से माया के मोह में उलझ जाता है।
वह भगवान का नाम जपता है और अपने पूर्व जन्म के पापों को याद करता हुआ क्षमा याचना करता है। फिर सातवें महीने में जीव को ज्ञान प्राप्ति होने लगती है, जिससे उसके अंदर भय पनपने लगता है। इस बात का भय कि इस उदर से बाहर जाते ही वह ईश्वर को भूल जाएगा।

आठवे महीना आते आते शरीर का प्रत्येक अवयव केशों सहित मस्तक तथा अंगों की पृथक पृथक सभी चीजे पूर्ण हो जाती है और प्रसव काल तक अपने पूर्व जन्म के याद को याद करते हुए तरह तरह की बातों से उद्देग होकर इधर उधर हिलता डोलता रहता है। उस समय तक विवेक संपन्न होकर भगवान की स्तुती करता रहता है। 

नवें महीने में प्रसवकाल के समय जीव सिर निचे करके वायु के द्वारा ढकेलने जानेपर माता के उदर से बाहर आता है। जैसे ही वह जीव उदर से बाहर आता है। वायु की पहली स्पर्शता के साथ उसका समस्त ज्ञान विलुप्त हो जाता है और वह जोर जोर से रोने लगता है। वह वेदना से मूर्छित हो जाता है। चेतना आने पर वह शून्य अवस्था में अपने को देखता है।


गर्भ में जीव- स्त्री, पुरुष और नपुंसक का भेद, किस कारण होता है? 

जब पुरुष का शुक्र और स्त्री का रज गर्भाशय में नली के द्वारा स्त्री के गर्भ में प्रवेश करता है उस समय गर्भाशय की नली रक्त से युक्त होता है यही रक्त उस जीव की योनि को निर्धारित करता है अगर शुक्र अधिक रक्त युक्त होता है तो संतान पुत्री यदि शुक्र कम रक्त युक्त हुए तो संतान पुत्र होता है अगर शुक्र सामान भाग में रक्त युक्त हो तो पैदा होने वाला संतान नपुंसक होता है।        

औरत का गर्भ धारण
एक औरत गर्भ धारण करती है, क्योंकि दो दो अलग-अलग भौतिक शरीर में बनी दो भौतिक कोशिकाएं जिनमें पुरुष शुक्र व स्त्री अंडाणु संयुग्मित होता हैं और औरत के गर्भ में भौतिक-शरीर धीरे-धीरे बढऩे लगता है।

प्राणी कैसे चुनता है गर्भ?
जीव हमेशा एक शरीर की तलाश में रहता है; उसकी तलाश इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अपना जीवन कितना सचेतन होकर जिया था।

वह मिल जाता है। लेकिन उसके पास चयन के लिए कुछ विकल्प होते हैं। उसके पास शरीर चुनने का विकल्प कितना होगा, यह 

यह एक कर्म आधारित विकल्प है। एक प्राणिक-शरीर के लिए यह विकल्प एक खास दिशा में, एक खास गर्भ की ओर, एक खास शरीर में जाने की स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होता है। 

वह स्वाभाविक झुकाव हमेशा महसूस कर सकते हैं; आज आप जिस भौतिक शरीर में जीवित हैं,  उस भौतिक शरीर में भी कुछ खास लोगों को पाने का स्वाभाविक रुझान हमेशा बना रहता है, क्योंकि आपके कर्म ही उस तरह के हैं। 

जब आपके पास भौतिक-शरीर नहीं होता, तो यह और भी ज्यादा अचेतन तरीके से होता है, लेकिन तब भी, जो कर्म-तत्व आप लिए फिरते हैं, वह एक खास तरह के शरीर की तलाश करता है। तो जैसे ही उसे वह खास शरीर मिल जाता है, तो यह अभौतिक प्राण की जीवंतता गर्भ के भीतर भौतिक शरीर की गुणवत्ता को बढ़ाने लगता है।

क्या गर्भ में बच्चे के शरीर निर्माण का काम मां का होता है?

नहीं, ऐसा देखा गया है कि एक कमजोर व कुपोषित मां, या फिर सडक़ों पर काम करने वाली मां एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। दूसरी तरफ, संपन्न परिवार की अच्छी सेहत वाली औरत जो हर चीज का ख्याल रखा गया है और वह एक कमजोर बच्चे को जन्म देती है। 

अतः हम ऐसा कह सकते हैं कि उस प्राणिक-शरीर की जीवंतता या ऊर्जा या कंपन की वजह से ही ऐसा होता है, जिसने उस खास शरीर को चुना है। 
अतः शिशु शरीर में इसी वजह से इस तरह का फर्क दिखाई देता है। प्राणिक-शरीर के पास जिस तरह की जीवंतता है, वही तय करती है कि वह किस तरह का शरीर बनाती है। 

तो शरीर के सृजन का काम सिर्फ मां का ही नहीं होता। मां का शरीर तो गर्भ के लिए वातावरण तैयार करता है। परंतु वहां जिस तरह का प्राणी आया है, एक हद तक वह भी इसे बनाता है।

कब प्रवेश करता है प्राण गर्भ में?

देखिए, गर्भ धारण के बाद लगभग चालीस से अड़तालीस दिन तक यह बस एक शरीर ही रहता है। ऐसा कहा जाता है कि जब औरत को गर्भ धारण किए हुए चालीस दिन से ज्यादा हो जाएं, तो उसे गर्भपात नहीं कराना चाहिए, क्योंकि तब तक उसमें प्राण आ चुका होता है। उसके पहले वह एक प्राणी नहीं होता है। शरीर के सिर्फ छोटे आकार की वजह से ही नहीं, बल्कि उस समय तक उसमें प्राण नहीं आया होता। वह बस कोशिकाओं का एक ढेर होता है। अब कोशिकाओं का यह ढेर प्राणी बन जाता है। 

हो सकता है कि अभी तक वह एक इंसान की तरह न हो, लेकिन कई मायनों में वह एक इंसान होता है। भले ही उसका व्यक्तित्व उस तरह से जाहिर न हो, लेकिन जिस तरह से एक बच्चा मां की कोख में पैर मारता है, वह भी हर बच्चे के लिए अलग होता है।





आदित्य: सद्‌गुरु, एक प्राणिक-शरीर जो कमजोर हो चुका है, इससे पहले कि एक भौतिक-शरीर को फि र से धारण करे, वह अपनी जीवंतता को फि र से कैसे हासिल करता है?

सद्‌गुरु: योग क्रिया के जरिए जो एक चीज हम कर रहे हैं - वह है खुद को जीवंत बनाना। यह तमामों दूसरे तरीकों से भी हो सकता है। जंगल में बस टहलना ही आपको जीवंत बना सकता है, अच्छा भोजन आपको पुनर्यौवन दे सकता है। योगाभ्यास आपको पुनर्यौवन दे सकता है। यह एक अलग आयाम है। यह सब तभी होता है, जब आपके पास एक शरीर हो। 

अब, जब आप शरीर छोड़ देते हैं, उसके बाद भी अगर प्राणिक-शरीर बहुत ज्यादा जीवंत है, मान लेते हैं कि मरते वक्त यह भरपूर जीवन में है, तो कुछ समय तक यह दूसरा शरीर हासिल नहीं कर सकता। इसके लिए, प्राणिक-शरीर को एक खास तरह से शांत होने की जरूरत होती है। सिर्फ तभी वह एक नया शरीर धारण कर सकता है। इसीलिए हम कह रहे हैं कि अगर वे किसी दुर्घटना में मरते हैं, तो वे एक लंबे समय तक बिना शरीर के बने रहेंगे, जिसे लोग आम तौर पर भूत-प्रेत कहते हैं।


अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों को प्राप्त महापुरुष तो परकाया-प्रवेश तक करके ऐसा दिखाते आये हैं। इससे यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि आत्मा अजर और अमर है तथा वह अपने प्रारब्ध (पूर्वसंचित कर्मफल) के अनुसार संबंधित मानव, पशु कीट आदि योनियों में जन्म लेता है।
 
श्रीमद्भागवत तथा गरुड़ पुराण (सारोद्धार) आदि में इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है

जीविका गर्भ प्रवेश..

'जीव प्रारब्ध-कर्म वश देह-प्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्य-कण के आश्रित होकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता है।' आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों के आधार पर जीव के पूर्वकर्मानुसार गर्भ प्रवेश का वर्णन इस प्रकार उपलब्ध होता है- 'यह आत्मा जैसे शुभाशुभ कर्म पूर्वजन्म के संचित करता है, उन्हीं के आधार पर उसका पुनर्जन्म होता है और पूर्व देह में संस्कारित गुणों का प्रादुर्भाव इस जन्म में होता है।

जैसा कि योगिराज श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बात की पुष्टि-तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्' सवाक्य से की है। इसी कारण हम संसार में किसी को रूप किसी को सुन्दर, किसी को लंगड़ा, किसी को तुला, किसी को मूक और किसी को कुबड़ा तो किसी को अंधा और किसी को काना देखते हैं। 

इसी कारण कोई जीव किसी महापुरुष के घर जन्म लेता है कोई किसी अधम के घर कोई ऐश्वर्यशाली के घर में लेता है तो कोई अकिंचन कुटीर में पलता है। यह सम्पूर्ण विविधता पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती है, जिसे कि हम 'दैव' भी कहते हैं|

'पूर्वजन्मकृतं कर्म तद् दैवमिति कथ्यते ।' चरक संहिता के शरीर स्थान के चतुर्थ अध्याय में भी इस बात की पुष्टि इस प्रकार है- 'सबसे पूर्व मनरुपी कारण के साथ संयुक्त हुआ| आत्मा धातु गुण के ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है अर्थात अपने कर्म के अनुसार सत्त्व, रज तथा तम- इन गुणों के ग्रहण के लिए अथवा महाभूतों के ग्रहण के लिये प्रवृत्त होता है। 

आत्मा का जैसा कर्म होता है और जैसा मन उसके साथ है, वैसा ही शरीर बनता है, वैसे ही पृथ्वी आदि भूत होते हैं तथा अपने कर्म द्वारा प्रेरित किए हुए मनरुपी साधन के साथ स्थूल शरीर को उत्पन्न करने के लिए उपादानभूत भूतों को ग्रहण करता है। 

वह आत्मा हेतु, कारण, निमित्त, कर्ता, मन्ता, बोधयिता, बोद्धा, द्रष्टा, धाता, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, विश्वरूप, पुरुषप्रभव, अव्यय, नित्य गुणी, भूतों का ग्रहण करने वाला प्रधान, अव्यक्त, जीवज्ञ, प्रकुल, चेतनावान्, प्रभु, भूतात्मा, इन्द्रियात्मा और अंतरात्मा कहलाता है।'

'वह जीव गर्भाशय में अनुप्रविष्ट होकर शुक्र और शोणित से मिलकर अपने से अपने को गर्भ रूप में उत्पन्न करता है। अतएव गर्भ में उसकी आत्मा संज्ञा होती है।'

‘क्षेत्रज्ञ, वेदयिता, स्पृष्टा, घ्राता, द्रष्टा, श्रोता, रसयिता, पुरुष स्त्रष्टा, गन्ता, साक्षी, धाता, वक्ता इत्यादि पर्यायवाची नामों से, जो ऋषियों द्वारा पुकारा जाता है, वह क्षेत्रज्ञ (स्वयं अक्षय, अचिन्त्य और अव्यय होते हुए भी) देव के संग से सूक्ष्म भूत-तत्व, सत्व, रज, तम, दैव, आसुर या अन्य भाव से युक्त वायु से प्रेरित हुआ गर्भाशय में प्रविष्ट होकर (शुक्र-आर्तव के संयोग होते ही) तत्काल उस संयोग में अवस्थान करता है।







गर्भावस्था : क्या कहता है हमारा धर्म और हमारे शास्त्र?

कहते हैं की अभिमन्यु ने अपनी माँ के गर्भ में ही चक्रव्यूह की रचना को समझ लिया था लेकिन चक्रव्यूह भेदने की क्रिया को जानने के समय उनकी माँ की आँख लग गयी जिस कारण वश जब महाभारत में वह परिस्थितियां आयीं ओ अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदने की कला नहीं आती थी। सुभद्रा हों या कयाधू सभी ने गर्भ से ही अपने शिशु में उत्तम संस्कार डालने का कार्य किया।

स्टेम सेल थेरेपी के बारे में जानें कुछ अहम बातें..



Mythology behind Garbha sanskar Or Pregnancy?
सोलह संस्कारों में भी यह कथित है
हमारे हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है। इनमें से दूसरे स्थान पर है पुंसवन संस्कार। कहते हैं की कोई भी बालक बड़ा होकर किस प्रकार का मनुष्य बनेगा; कैसे आचरण करेगा; कैसा व्यव्हार रखेगा यह सब उसे उसकी माँ से गर्भ के भीतर ही मिलना शुरू हो जाता है।


क्या होता है पुंसवन संस्कार?
पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है। ईश्वर की कृपा को स्वीकार करने तथा उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट के लिए प्रार्थना एंव यज्ञ का कार्य संपन्न किया जाता है। साथ ही यह कामना की जाती है कि वह समय पूर्ण होने पर परिपक्वरुप में उत्पन्न हो।

कैसा होता है मां का भ्रूण से सम्बन्ध
एक मां का अपने बच्चे से कैसा सम्बन्ध होता है इसे शब्दों में समेट पाना तो असम्भव है लेकिन एक महिला के लिए शायद दुनिया का सबसे सुनहरा पल वह होता है जब वह मां बनती है। उससे पहले तो उसे यह एहसास भी नहीं होता कि उसकी ज़िंदगी कितनी अधूरी थी। आजकल की आपाधापी और बिगड़ी हुई जीवन शैली में एक नये जीवन को जन्म देना नई औरतों को बोझ लगता है। पर यह एक बेहद ही खूबसूरत अनुभव है की आप ईश्वर के बाद पृथ्वी पर ऐसी हैं जो एक नये जीवन की कृति करने में सक्षम है।

क्या कहता है गरुण पुराण?
मान्यतानुसार, भगवान विष्णु के परम भक्त गरुण को स्वयं विष्णुजी ने जो सीख दी थी, उसे गरुण पुराण के रूप में भक्त पाते हैं। इस पुराण में जीवन-मृत्यु, स्वर्ग, नरक, पाप-पुण्य, मोक्ष पाने के उपाय आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसके साथ ही गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि शिशु को माता के गर्भ में क्या-क्या कष्ट भोगने पड़ते हैं और वह किस प्रकार भगवान का स्मरण करता है।

क्या है प्रथम मास की बात?
गरुण पुराण में वर्णित तथ्यों के अनुसार, एक महीने में शिशु का मस्तक बन जाता है और फिर दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना होती है। तीसरे महीने में शिशु के उन शारीरिक अंगों को आकार मिलना आरंभ हो जाता है। जैसे कि अंगुलियों पर नाखून का आना, त्वचा पर रोम की उत्पत्ति, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बन जाते हैं।

तीसरे महीने में क्या होता है?
तीसरे महीने के खत्म होने तक तथा चौथे महीने के शुरू होने के कुछ समय में ही त्वचा, मांस, रक्त, मेद, मज्जा का निर्माण होता है। पांचवें महीने में शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है। छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढंककर माता के गर्भ में घूमने लगता है।

छठे महीने में बेहोश भी हो सकता है शिशु
गरुण पुराण के अनुसार छ्ठे महीने के बाद जब शिशु भूख-प्यास को महसूस करने लगता है और माता के गर्भ में अपना स्थान बदलने के भी लायक हो जाता है, तभी वह कुछ कष्ट भी भोगता है। माता जो भी खाद्य पदार्थ ग्रहण करती है वह उसकी कोमल त्वचा से होकर गुजरता है। ऐसा माना गया है कि इन कष्टों के कारण कई बार शिशु माता के गर्भ में ही बेहोश भी हो जाता है।माता जो भी तीखा, मसालेदार या गर्म तासीर वाला भोजन ग्रहण करती है वह बच्चे की त्वचा को कष्ट देता है।

सातवें महीने में इश्वर को याद करता है
माता के गर्भ में पल रहा शिशु जैसे ही अपने सातवें महीने में आता है, उसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। तभी ऐसा माना गया है कि वह अपनी भावनाओं के बारे में सोचता है, यह महज़ एक मान्यता नहीं है। उस समय शिशु यह सोचता है कि अभी तो मैं बेहद कष्टों में हूं लेकिन जैसे ही मैं इस गर्भ से बाहर जाऊंगा तो ईश्वर को भूल जाऊंगा।
गरुड़ पुराण के अनुसार, फिर माता के गर्भ में पल रहा शिशु भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता क्योंकि बाहर जाने से पाप कर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरक आदि प्राप्त होते हैं। इस कारण बड़े दु:ख से व्याप्त हूं फिर भी दु:ख रहित हो आपके चरण का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करूंगा।

नौ महीने तक करता है प्रार्थना
माता के गर्भ में पूरे नौ महीने शिशु भगवान से प्रार्थना ही करता है, लेकिन यह समय पूरा होते ही जब प्रसूति के समय वायु से तत्काल बाहर निकलता है, तो उसे कुछ याद नहीं रहता। साइंस के अनुसार मां के गर्भ से बाहर आने वाले शिशु को काफी पीड़ा का सामना करना पड़ता है जिस कारण उसके मस्तिष्क पर काफी ज़ोर पड़ता है। शायद यही कारण है कि उसे कुछ भी याद नहीं रहता।

गर्भ से बाहर बच्चा ज्ञानरहित
गरुण पुराण के अनुसार प्रसूति की हवा से जैसे ही श्वास लेता हुआ शिशु माता के गर्भ से बाहर निकलता है तो उसे किसी बात का ज्ञान भी नहीं रहता। गर्भ से अलग होकर वह ज्ञान रहित हो जाता है, इसी कारण जन्म के समय वह रोता है। पर धर्मों के आधार पर कही गयी इन बातों का वैज्ञानिक साक्ष्य भी है। इसलिए कहा जाता है की माता पिता और आसपास के माहौल और आचरण का असर बच्चे पर सबसे पहले पड़ता है। तो आप अच्छा साहित्य पढ़िए; अच्छी बातें सुनिए; ध्यान योग कीजिये ताकि होने वाली सन्तान में अच्छे मूल्यों का वास हो।




आपको लगता है (आपको पता है) कि आप गर्भवती हैं! पर जब आप हफ्तों में इसकी गिनती करने की कोशिश करती हैं तो यह बहुत उलझन भरा हो सकता है। यह इसलिए क्योंकि डॉक्टर और दाई (मिडवाइफ) ने आपके "गर्भावस्था के सप्ताह” की गणना परंपरागत तरीके से आपके 40 हफ्ते की निर्धारित तिथि से की है। 

डॉक्टर और दाई आमतौर पर गर्भावस्था के बारे में महीने की बजाय हफ्तों में बात करते हैं, जिससे वे संपूर्ण गर्भावस्था के दौरान आपके शिशु की प्रगति और अपेक्षित माइलस्टोन का मूल्यांकन अधिक सटीकता से कर सकते हैं।

औसत गर्भवास्था कुल 40 हफ्तों (अर्थात 280 दिनों) की मानी जाती है जिसकी शुरुआत आपके अंतिम माहवारी चक्र के पहले दिन से होती है (इसे प्राय: संक्षेप में "LMP” कहा जाता है)।

गर्भावस्था का ज़िक्र आमतौर पर "भ्रूण आयु विकास" के बजाय “गर्भधारण अवधि” के रूप में किया जाता है। जब आप इसपर ध्यान से विचार करते हैं, तो पता चलता है कि औसत गर्भ अवधि फर्टिलाइजेशन के बाद केवल 38 हफ्ते की ही होती है - और इस तरह से अंडोत्सर्ग (ऑव्युलेशन) के समय आप पहले से ही दो हफ्ते की गर्भवती होती हैं।यह कितना आकर्षक है?

पारंपरिक प्रणाली के तहत यह जानने के लिए कि आप कितने हफ्तों से गर्भवती हैं, बस अपनी अंतिम माहवारी की पहली तारीख से आगे गिनती करें।

मेरी गर्भावस्था कितने हफ्तों की है - भ्रूण आयु (या ऑव्युलेशन) सिस्टम के अंतर्गत।

 कभी-कभी डॉक्टर और दाई "भ्रूण आयु" के बारे में बात करते हैं या यह निर्धारित करने के लिए कि आप कितने हफ्तों में गर्भवती हैं, "ऑव्यूलेशन" सिस्टम का उपयोग करते हैं, क्योंकि यह अनुमान लगाना अधिक सटीक होता है न कि इस बात का अंदाजा लगाना कि आपके अंतिम माहवारी के पहले दिन के बाद आपका ऑव्युलेशन लगभग 14 दिनों का हो सकता है।
 भ्रूण आयु आपके शिशु की वास्तविक आयु होती है - अर्थात गर्भाधान में अंडाणु (एग) और शुक्राणु (स्पर्म) के एकसाथ मिलने के बाद से हफ्तों की संख्या।
 अल्ट्रासाउंड और व्यापक रूप से उपलब्ध और अधिक सटीक ऑव्युलेशन टेस्टिंग जैसी तकनीकों के बदौलत, भ्रूण की आयु आसानी से जानी जा सकती है और इस बात का बेहतर अनुमान लगाया जा सकता है कि आपकी गर्भावस्था कितने हफ्ते की है।
 यदि आपका माहवारी चक्र मानक 28 दिनों से अधिक कमम या अधिक है, तो मानक गर्भाधान आयु का उपयोग करने से “तिथियां” इस बात से मेल नहीं खाएंगी कि आपके शिशु की अवस्था वाकई क्या है, इसलिए भ्रूण आयु अधिक सटीक हो सकती है।
ट्राइमेस्टर

गर्भावस्था को प्राय: 3 "ट्राइमेस्टरों” में बांटा जाता है जहां प्रत्येक ट्राइमेस्टर 12 हफ्तों का होता है। यह इसलिए क्योंकि ये उन अनुभवों और आपके शिशु के विकास के अर्थ में गर्भावस्था की 3 बिल्कुल अलग-अलग अवस्थाओं को दर्शाता है जो अनुभव आपको एक गर्भवती स्त्री के रूप में होता है।

आपकी गर्भावस्था कितने हफ्तों तक चलेगी?

 ज्यादातर महिलाएं क्यों जानना चाहती हैं कि उनकी गर्भावस्था कितने हफ्तों की है, इस बात का मुख्य कारण यह है क्योंकि वे अपने शिशु के जन्म की तिथि जानना चाहती हैं।
 शिशु के जन्म की अनुमानित तिथि जानने की पारंपरिक विधि, जिसे नेगल का नियम कहते हैं, अपने अंतिम माहवारी के पहले दिन में 7 दिनों को जोड़ना, फिर महीनें में 9 महीनें जोड़ना है।
 इसलिए, यदि आपकी अंतिम माहवारी 18 नवंबर को शुरू हुई है, तो आपकी नियत तिथि 24 अगस्त होगी, जो लगभग 40 हफ्ते होते हैं। नेगल के नियम के मुताबिक महिलाओं में 28 दिनों की माहवारी अवधि होती है और ऑव्युलेट होती है और 14वें दिन गर्भवती हो जाती है; इसलिए गर्भाधान ऑव्युलेशन के दिन से 38 हफ्ते तक होता है।
 हालांकि, चीजें इतनी आसान नहीं हैं; केवल 3% से 5% मामलों में ही शिशुओं का जन्म अपने निर्धारित तिथि पर होता है, इससे ज्यादातर गर्भवती माताओं को निराशा होती है।
 शिशुओं के जन्म का सबसे सामान्य समय होता है 40 हफ्ते और 3 दिन; इससे पहले जन्म होने की तुलना में निर्धारित तिथि के बाद जन्म होने की संभावना अधिक होती है।
 ज्यादातर पेशेवर यह तर्क देते हैं कि अंतिम माहवारी अवधि की तिथि के बाद 37 से 42 हफ्तों के बीच किसी भी समय स्वस्थ शिशुओं का जन्म हो सकता है।



श्रीमहाविष्णु को एक बार प्रसन्न मुद्रा में बैठे देखकर वैनतेय नामधारी गरुड़ ने उनसे पूछा, "हे परात्पर। हे परमपुरुष। हे जगन्नाथ। मैं यह जानना चाहता हूं कि जीव किस प्रकार जन्म और मृत्यु का कारण भूत बनता है। किन कारणों से वह स्वर्ग और नरक भोगता है? कैसे वह प्रेतात्मा बनकर कष्ट झेलता है?" इस पर अंतर्यामी श्रीमहाविष्णु ने गरुड़ पर प्रसन्न होकर उनको जन्म-मरण का रहस्य बताया। इस कारण से यह कथा गरुड़ पुराण नाम से लोकप्रिय बन गई।
नैमिशारण्य में वेदव्यास के शिष्य महर्षि सूत ने शौनक आदि मुनियों को यह वृत्तांत सुनाया, "हे मुनिवृंद, वैनतेय ने श्रीमहाविष्णु से प्रश्न किया था कि हाड़-मांस, नसें, रक्त, मुंह, हाथ-पैर, सिर, नाक, कान, नेत्र, केश और बाहुओं से युक्त जीव के शरीर का निर्माण कैसे होता है? श्रीमहाविष्णु ने इसके जो कारण बताए, वे मैं आपको सुनाता हूं।

प्राचीन काल में देवता और राक्षसों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया। परिणामस्वरूप इंद्र ब्रह्महत्या के दोष के शिकार हुए। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे निवेदन किया कि वे उनको इस पाप से मुक्त कर दें। ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या के दोष को चार भागों में विभाजित कर एक अंश स्त्रियों के सिर मढ़ दिया। स्त्रियों की प्रार्थना पर दया होकर ब्रह्मा ने उसके निवारण का उपाय बताया कि स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा।

ब्रह्मा ने कहा कि उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी। रजस्वला के छठे दिन से अठारह दिन तक यदि छठे, आठवें, दसवें, बारहवें, चौदहवें, सोलहवें और अठारहवें दिन वे पति के साथ संयोग करती हैं तो उन्हें पुरुष संतान की प्राप्ति होगी। ऐसा न होकर पांचवें दिन से लेकर अठारह दिन तक विषम दिनों में यानी पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह और सत्रहवें दिन मैथुन क्रिया संपन्न करने पर स्त्री संतान होगी। इसलिए पुत्र प्राप्ति करने की कामना रखनेवाले दम्पतियों को सम दिनों में ही दांपत्य सुख भोगना होगा।

ऋतुमती होने के चार दिन पश्चात अठारह दिन तक के सम दिन में मैथुन से यदि नारी गर्भ धारण करती है, तो गर्भस्थ शिशु की क्रमश: वृद्धि हो सुखी प्रसव होगा। वह शिशु शील, संपन्न और धर्मबुद्धिवाला होगा। रजस्वला के पांचवें दिन स्त्रियों को खीर, मिष्ठान्न आदि मधुर पदार्थो का सेवन करना होगा। तीखे पदार्थ वर्जित हैं। साधारणत: पांचवें दिन के पश्चात आठ दिनों के अंदर गर्भधारण होता है।

गर्भधारण के संबंध में भी कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। शयन गृह में दम्पति को अगरबत्ती, चंदन, पुष्प, तांबूल आदि का उपयोग करना चाहिए। इनके सेवन और प्रयोग से दम्पति का चित्त शीतल होता है। तब उन्हें परस्पर प्रेमपूर्ण रति-क्रीड़ा में पति और पत्नी के शुक्र और श्रोणित का संयोग होता है। परिणामस्वरूप पत्नी गर्भ धारण करती है। क्रमश: गर्भस्थ पिंड शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन प्रवर्धगमान होगा। रति क्रीड़ा के समय यदि पति के शुक्र की मात्रा अधिक स्खलित होती है तो पुरुष संतान होती, पत्नी के श्रोणित की मात्रा अधिक हो जाए तो स्त्री संतान के रूप में गर्भ शिशु का विकास होता है। अगर दोनों की मात्रा समान होकर पुरुष शिशु का जन्म होता है तो वह नपुंसक होगा। गर्भ धारण के रतिक्रीड़ा में स्खलित इंद्रियां गर्भ-कोशिका में एक गोल बिंदु या बुलबुला उत्पन्न करता है।

इसके बाद पंद्रह दिनों के अंदर उस बिंदु के साथ मांस सम्मिलित होकर विकसित होता है। फिर क्रमश: इसकी वृद्धि होती जाती है। एक महीने के पूरा होते-होते उस पिंड से पंच तत्वों का संयोग होता है। दूसरे महीने पिंड पर चर्म की परत जमने लगती है। तीसरे महीने में नसें निर्मित होती हैं। चौथे महीने में रोम, भौंहें, पलकें आदि का निर्माण होता है।

पांचवें महीने में कान, नाक, वक्ष; छठे महीने में कंठ, सिर और दांत तथा सातवें महीने में यदि पुरुष शिशु हो तो पुरुष-चिह्न्, स्त्री शिशु हो तो स्त्री-चिह्न् का निर्माण होता है। आठवें महीने में समस्त अवयवों से पूर्ण शिशु का रूप बनता है। उसी स्थिति में उस शिशु के भीतर जीव या प्राण का अवतरण होता है। नौवें महीने में जीव सुषुम्न नाड़ी के मूल से पुनर्जन्म कर्म का स्मरण करके अपने इस जन्म धारण पर रुदन करता है। दसवें महीने में पूर्ण मानव की आकृति में माता के गर्भ से जन्म लेता है।

प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पांच 'प्राण वायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार नाग, कर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय नामक अन्य पांच वायु भी हैं। इस शरीर में शुक्ल, अस्थियां, मांस, जल, रोम और रक्त नामक छह कोशिकाएं हैं। नसों से बंधित इस स्थूल शरीर में चर्म, अस्थियां, केश, मांस और नख-ये क्षिति या पृथ्वी से सम्बंधित गुण हैं।

मुंह में उत्पन्न होनेवाला लार, मूत्र, शुक्ल, पीव, व्रणों से रिसनेवाला जल-ये आप यानी जल गुण हैं। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य और कांति तेजोगुण हैं यानी अग्नि गुण है। इच्छ, क्रोध, भय, लज्जा, मोह, संचार, हाथ-पैरों का चालन, अवयवों का फैलाना, स्थिर यानी अचल होना-ये वायु गुण कहलाते हैं। ध्वनि भावना, प्रश्न, ये गगन यानी आकाशिस्थ गुण है। कान, नेत्र, नासिका, जिव्हा, त्वचा, ये पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये दीर्घ नाड़ियां हैं।

इनके साथ गांधारी, गजसिंह, गुरु, विशाखिनी-मिलकर सप्त नाड़ियां कहलाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थो का सवेन करता है उन्हें उपरोक्त वायु उन कोशिकाओं में पहुंचा देती हैं। परिणामस्वरूम उदर में पावक के उपरितल पर जल और उसके ऊध्र्व भाग में खाद्य पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इस जटराग्नि को वायु प्रज्वलित कर देती है।

मानव शरीर का गठन अति विचित्र है। इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, बत्तीस दांत, बीस नाखून, सत्ताईस करोड़ शिरोकेश, तीन हजार तोले के वजन की मांसपेशियां, तीन सौ तोले वजन का रक्त, तीस तोले की मेधा, तीस तोले की त्वचा, छत्तीस तोले की मज्जा, नौ तोले का प्रधान रक्त और कफ, मल व मूत्र-प्रत्येक पदार्थ नौ तोले के परिमाण में निहित हैं। इनके अतिरिक्त अंड के भीतर की सारी वस्तुएं शरीर के अंदर समाहित हैं।

इसी प्रकार शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं- ये भुवन शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतीक हैं, जैसे-दायां पैर अतल नाम से व्यवह्रत है, तो एड़ी वितल, घुटना सुतल, घुटने का ऊपरी भाग यानी जांध रसातल, गुह्य पाश्र्व भाग तलातल, गुदा भाग महातल, मध्य भाग पाताल, नाभि स्थल भूलोक, उदर भुवर्लोक, ह्रदय सुवर्लोक, भुजाएं सहर्लोक, मुख जनलोक, भाल तपोलोक, शिरो भाग सत्यलोक माने जाते हैं।

इसी प्रकार त्रिकोण मेरु पर्वत, अघ: कोण, मंदर पर्वत, इन कोणों का दक्षिण पाश्र्व कैलाश वाम पाश्र्व हिमाचल, ऊपरी भाग निषध पर्वत, दक्षिण भाग गंधमादन पर्वत, बाएं हाथ की रेखा वरुण पर्वत नामों से अभिहित हैं।

अस्थियां जम्बू द्वीप कहलाती हैं। मेधा शाख द्वीप, मांसपेशियां कुश द्वीप, नसें क्रौंच द्वीप, त्वचा शालमली द्वीप, केश प्लक्ष द्वीप, नख पुष्कर द्वीप नाम से व्यवहृत हैं। जल समबंधी मूत्र लवण समुद्र नाम से पुकारा जाता है तो थूक क्षीर समुद्र, कफ सुरा सिंधु समुद्र, मज्जा आज्य समुद्र, लार इक्षु समुद्र, रक्त दधि समुद्र, मुंह में उत्पन्न होनेवाला जल शुदार्नव नाम से जाने जाते हैं।

मानव शरीर के भीतर लोक, पर्वत और समुद्र ही नहीं बल्कि ग्रह भी चक्रों के नाम से समाहित हैं। प्रधानत: मानव के शरीर में दो चक्र होते हैं- नाद चक्र और बिंदु चक्र। नाद चक्र में सूर्य और बिंदु चक्र में चंद्रमा का निवास होता है। इनके अतिरिक्त नेत्रों में अंगारक, ह्रदय में बुध, वाक्य में गुरु, शुक्ल में शुक्र, नाभि में शनि, मुख में राहू और कानों में केतु निवास करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर भूमंडल और ग्रह मंडल समाहित है। यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है।


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