स्वर परिवर्तन प्राणायाम द्वारा

स्वर परिवर्तन 
प्राणायाम द्वारा 
    
क) अनुलोम-विलोम / नाड़ीशोधन

योग की पद्धति में प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य चित्त की स्थिरता पाना है । पूर्वोक्त चतुर्विध प्राणायाम ध्यान के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं। अब स्वास्थ्य उपयोगी प्राणायाम की कुछ विधियाँ बताई जाती हैं।

हठयोग में प्राणायाम को स्वास्थ्य एवं शारीरिक बल प्राप्ति का अनूप साधन माना गया है । हठयोग में वर्णित प्राणायाम की विधियाँ विविध रोगों के उपचारों के लिये उपयोगी मानी जाती हैं । सूर्यभेदी प्राणायाम या स्वर परिवर्तन प्राणायाम रोग निवारण के लिये अत्यन्त उपयोगी है । 

इस प्रकार भस्त्रिका, शीतली, उज्जायी, भ्रामरी आदि कई प्राणायाम की विधियाँ हैं जो स्वास्थ्य के लिये उपयोगी हैं। इनसे रोग पास नहीं फटकते और कई रोगों का निवारण भी होता है।

प्रायः मनुष्य एक समय पर एक नासिका से श्वास लेता है । जब वह दाहिनी नासिका से श्वास-प्रश्वास करता है, उसे सूर्य - स्वर (इडा नाड़ी/गंगा स्वर) और जब श्वास-प्रश्वास बाईं नासिका से चलता है तो उसे चन्द्र-स्वर (पिगला नाड़ी/यमुना स्वर) कहते हैं । जब दोनों नासिकाओं से श्वास-प्रश्वास चलता है तो उसे सुषुम्णा/सरस्वती स्वर कहते हैं ।

सूर्यस्वर एवं चन्द्रस्वर क्रमशः एक-एक घण्टा चलते हैं । सूर्यस्वर ऊष्ण और चन्द्रस्वर शीतल माना जाता है । हठयोग में विधान है कि सूर्यस्वर चलते समय व्यायाम, भोजन, क्रीड़ा आदि कार्य जिनमें शक्ति की अपेक्षा हो, करने चाहिये । चन्द्रस्वर चलते शीतलता की अपेक्षा रखने वाले कार्य करने चाहिये जैसे शान्तिवार्ता । 

सुषुम्णा-स्वर आत्मचिन्तन, ध्यान, प्रभुभक्ति के लिये अति उपयुक्त माना जाता है । इसलिये योगाभ्यास समय नाड़ी शुद्धि का विधान किया गया है ताकि सुषुम्णा स्वर चालित हो जाए । नाड़ी शोधन प्राणायाम को अनुलोम-विलोम व स्वर परिवर्तन प्राणायाम भी कहते हैं ।

योगाभ्यास समय सर्वप्रथम नाड़ी-शोधन प्राणायाम करना चाहिये , तदुपरान्त अन्य प्राणायाम करें।

(क) नाड़ी शोधन/ अनुलोम-विलोम प्राणायाम 

इसकी विधि इस प्रकार है : अभीष्ट आसन में बैठ कर सर्वप्रथम बाईं नासिका से 3-4 बार श्वास-प्रश्वास करें और फिर दाईं नासिका से 3-4 श्वास प्रश्वास करें। 

तत्पश्चात् बाईं नासिका से श्वास लें और दाईं नासिका से श्वास छोड़ें। 

फिर दाईं नासिका से श्वास लें और बाईं नासिका से श्वास छोड़ें। 

ध्यान रखें, नाड़ी शोधन प्राणायाम में कुम्भक नहीं किया जाता। 
उपरोक्त प्रकार से 8 -10 बार यथाक्रम दोनों नासिकाओं से श्वास लेने से सुषुम्णा स्वर जागृत किया जाता है । 

तत्पश्चात् ध्यानोपयोगी प्राणायाम द्वारा ध्यान लगाया जाए । 

नाड़ी शोधन प्राणायाम करते समय अंगूठे एवं अंगुलि से नासिकाओं को दबाने की आवश्यकता नहीं; थोड़े प्रयत्न से इच्छा मात्र से इन नासिकाओं से श्वास चलने लगता है । 

नव अभ्यासी 2-3 दिन अंगूठे एवं अंगुली का प्रयोग नासिकाएँ बन्द करने के लिए कर सकते हैं। 

दोनों नासिकाएँ एक साथ बन्द मत करें ।

अनुलोम-विलोम प्राणायाम समस्त नाडि़यों की एवं रक्त की शुद्धि करता है। सन्धिवात (Rheumatism), कम्पवात (Parkinsonism), हृदयरोग, श्वासरोग, चर्मरोग, स्नायु दुर्बलता (Neuro Problem) नाकारात्मक चिन्तन (Depression) आदि में लाभप्रद हैं। 

ग्रीष्मऋतु में 5 मिनिट तक एवं शरद् ऋतु में 10 मिनिट तक करना पर्याप्त है।

(ख) स्वर परिवर्तन प्राणायाम

हठयोग में स्वर परिवर्तन से रोगों के निवारण का भी वर्णन किया गया है । कहा गया है कि श्वास के रोगी (दमा, Asthma) , वात (Gastric Problem) रोगी एवं किसी प्रकार के दर्द से पीडि़त व्यक्ति जब दर्द की पीड़ा या दमा का वेग तीव्र हों, अपने स्वर की जांच करें । जिस नासिका से स्वर चल रहा है, उसे अंगूठे से दबा कर बन्द कर दें और दूसरी नासिका से श्वास-प्रश्वास करना शुरु कर दें , तो 15-20 मिनिट में आराम मिलेगा । लगभग एक महीना ऐसा करने से रोग मुक्त हो जाएंगे । 

तीव्र ज्वर (High Fever) में बाईं नासिका से श्वास लेने और छोड़ने से ज्वर उतर जाता है। अगर ज्वर सर्दी के कारण (अर्थात् नुमोनियाँ) हो तो दाहिनी नासिका से श्वास - प्रश्वास से लाभ होगा क्योंकि बाईं नासिका से लिया तथा छोड़ा हुआ श्वास शीतलता प्रदान करता है।

उच्च रक्त चॉप (High Blood Pressure) के रोगी बांईं नासिका से श्वास लेने और छोड़ने पर तथा  निम्न रक्त चॉप ( Low Blood Pressure) के रोगी दाहिनी नासिका से श्वास लेने और छोड़ने पर राहत महसूस करेंगे।

स्वर परिवर्तन का दूसरा उपाय है - अगर बाईं नासिका से श्वास चल रही है तो बाईं ओर लेटने से, दाईं नासिका से श्वास चलना शुरु हो जाएगा। दांईं ओर लेटने से, बांईं नासिका से श्वास चलना शुरु हो जाएगा ।

(ग) सूर्यभेदी / चन्द्रभेदी प्राणायाम
 
दांईं नासिका से पूरक (Inhalation)
 और बांईं नासिका से रेचक (Exhalation) करने पर सूर्यभेदी प्राणायाम और बांईं नासिका से पूरक और दांईं नासिका से रेचक करने पर चन्द्रभेदी प्राणायाम कहलाता है। 

सूर्यभेदी प्राणायाम शरीर में ऊष्णता और चन्द्रभेदी प्राणायाम शीतलता उत्पन्न करता है। 

सूर्यभेदी एवं चन्द्रभेदी प्राणायाम में कुम्भक भी किया जाता है। 
कुम्भक समय सूर्यभेदी में सूर्य के तेज और चन्द्रभेदी में चन्द्रमा की शीतलता पर ध्यान करना चाहिये। 

एक दिन में ये दोनों प्राणायाम नहीं करने चाहियें।

स्वर परिवर्तन करने से कई रोगों से निदान पाया जा सकता है । दोनों स्वर समान रूप से चलना आरोग्यता का प्रतीक है । इसे सुषुम्णा / सरस्वती स्वर कहा जाता है।

शिव संहिता में कहा गया है ‘कालस्य वंचनार्थाय कर्म कुर्वन्ति योगिनः’ 
अर्थात् काल ( जो मृत्यु एवं बुढ़ापे का प्रतीक है) को चकमा देने के लिये, योगीजन स्वर कर्म करते हैं। दूसरे शब्दों में, प्राणायाम से कुछ समय के लिए बुढ़ापे और मृत्यु को टाला जा सकता है।

श्वास-प्रश्वास करते समय ओ३म् का मानसिक तौर पर जप करें तथा मानसिक चित्रण  (Visualise) करें कि आप रोग मुक्त हो रहे हैं।

आस्तिक जन ईश्वर से निम्न वेद मन्त्रांश के साथ प्रार्थना भी कर सकते हैैं :
यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण।
हे प्रभो! मेरे शरीर में जो त्रुटियां हैं, उन्हें पूरा करो।

पाठकगण इस बात का ध्यान करें कि श्वास परिवर्तन में , श्वास जिस नासिका से ली जाती है, उसी से छोड़ी जाती है।

सूर्यभेदी में, दहिने (Right) नासिका से श्वास ली जाती है और बांईं (Left) से छोड़ी जाती है। 

चन्द्रभेदी में बांई नासिका से श्वास ली जाती है और दांई से छोड़ी जाती है। 

नाड़ी शोधन/ अनुलोम विलोम में  बांई नासिका से श्वास ली जाती है और दांई नासिका से छोड़ी जाती है और फिर  दांई से ही श्वास ली जाती है , बांई से छोड़ी जाती है।

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