अथ मण्डपविधानं वेदीनिर्वर्तनं च

#अथ मण्डपविधानं वेदीनिर्वर्तनं च ।।

अंकुरार्पणतः पश्चात् द्वितीयेऽहनि शोभने ।
कृत्वा वास्तुबलिं सर्व-मंडपानि प्रसाधयेत् ।। 1 ।।

नांदीमंगलतः पूर्वं, दिवसेषु कियत्स्वपि।
यष्ट्राहूय च सम्मान्य, प्रार्थितो याजकोत्तमः ।। 2 ।।

सज्जयित्वोपकरणं, याजको यज्ञसिद्धये ।
सम्यक्शांतिविधिं कृत्वा, कारयेन्मंडपादिकम् ।। 3 ।।

खात्वा विशोध्य संपूर्य, समीकृत्य पवित्रिते ।
भूभागे मंडपं कार्यं, पूगक्षीरद्रुमादिभिः ।। 4 ।।

जिनधामाग्रतो मूल-वेदीमंडपमिष्यते।
त्र्यादित्रिवद्र्धिष्णु-चतुर्विंशत्यंतकरप्रमम् ।। 5 ।।

तन्मध्ये नवमे भागे, वेदी निर्वत्र्यते बुधैः ।
 एकाद्यष्टांत्यहस्तैः सा, प्रमिता वेदिकाष्टधा ।। 6 ।।

क्रमान्नंदा सुनंदा च, प्रबुद्धा सुप्रभाभिधा ।
मंगला कुमुदा च स्याद्विमला पुंडरीकिका ।। 7 ।।

सा सर्वाष्टविधा वेदी, स्वस्वव्याससमायतिः ।
 भवेद् व्यासषडंशोच्चा, चतुरस्त्रेशदिक्प्लवा ।। 8 ।।

तास्विष्टा वेदिका काचिद्विधेयामेष्टिकादिभिः ।
तन्निर्माणविधिः सर्वस्तद्विधौ वर्णयिष्यते ।। 9 ।।

तस्याश्चतुर्दिक्षुहस्त-विस्तारायामगाधकम् ।
चतुरस्रं चतुर्मात्र, मेखलात्रयकुंडकम् ।। 10 ।।

तत्पुरस्ताच्चतुद्र्वारं, चतुरस्रं सभाह्नयम् ।
सप्तद्वात्रिंशदाद्यंत-हस्तप्रमितमंडपम् ।। 11 ।।

मूलवेद्याः प्रतीच्यां तु, दीक्षाग्रहणमंडपम् ।
 उचितायामविष्कंभं, स्याच्चतुस्तंभसंभृतम् ।। 12 ।।

ईशानदिशि तन्मूल-वेदीमंडपतो भवेत्।
मंडपं तत्समं वेदी-कर्णमात्राध्वसंगतम् ।। 13 ।।

ग्रामस्येशानदिशि वा जन्माभिषवमंडपम् ।
तत्समं कारयेद्धीमान्देशकालानुरोधतः ।। 14 ।।

तत्रैव मंडपे प्रत्यक्प्रदेशे ब्रह्मभागतः ।
चतुरस्रं चतुःस्तंभं, सर्वावयवसुंदरम् ।। 15 ।।

जलनिर्गमनोपेतं, वेदिकापरिवेष्टितम् ।
उचितायामविष्कंभं, भवेत्स्नपनमंडपम् ।। 16 ।।

तत्र या वेदिका सैव, भवेदीशानवेदिका ।
ब्रह्मांशात्पुरतः कार्या, कलशन्यासवेदिका ।। 17 ।।

तन्मंडपात्प्रतीच्यां तु, विधेयं होममंडपम् ।
ततोपि च प्रतीच्यां स्या-दंकुरारोपलक्षणम् ।। 18 ।।

तयोस्तु लक्षणं सर्वं, तत्प्रयोगेभिधास्यते ।
क्वचित्तत्रोचितोद्देशे, भवेच्छान्तिकमंडपम् ।। 19 ।।

सुप्रभावेदिकायोग्यं, तन्मध्ये सैव वेदिका ।
पूर्वाद्यष्टदिशास्वेत-द्वेद्याः सोमदिशि क्रमात् ।। 20 ।।

नवग्रहाणां होमार्थं, नवकुंडानि कल्पयेत् ।
चतुरस्रमथाश्वत्थ-दलाभं चार्धचंद्रकम् ।। 21 ।।

त्रिकोणं वर्तुलं पंच-कोणं षट्कोणकं तथा ।
अष्टकोणं धनूरूप-मथाहीन्द्रदिगंतरे ।। 22 ।।

नवग्रहाणामेकं स्यादप्कुंडं चतुरस्रकम् ।
सर्वं तु हस्तमात्रं स्याद्धनुःसार्धकरप्रमम् ।। 23 ।।

धनुषश्चार्धचंद्रस्य, व्यासो हस्तत्रिभागतः ।
विमानस्य चतुर्दिक्षु, चतुरस्राणि कल्पयेत् ।। 24 ।।

कुंडानि मंडपं योग्यं, तत्प्रत्यक्सिद्धविष्टरम् ।
एवं प्रागेव निर्माप्य, समस्तं मंडपादिकम् ।। 25।।

नांदीदिनात्तृतीयेऽन्हि, कृत्वा शांतिकसंविधिम् ।
सन्मान्य शिल्पिनः कृत्वा, वास्तुदेवबलिं ततः ।। 26 ।।

विचित्रवसनैः सर्व-मंडपानि प्रसाधयेत् ।
ध्वजैश्च सल्लकीरंभास्तंभैरपि दलस्रजा ।। 27 ।।

चतुद्र्वारोध्र्वकोणस्थ-शुभ्रकुंभाष्टकेन च।
तोरणैर्भूरिसौंदर्य-नानारत्नांशुकांचितैः ।। 28 ।।

प्रलंबमुक्तालंबूष-हारस्रक्तारकोत्करैः ।
भूरिपुष्पोपहारेण, चारुचंदनचर्चया ।। 29 ।।

मुक्तास्वस्तिकविन्यासै, रंगावलिविशेषकैः ।
कलशादर्शभृंगार-यवारैश्च विरूढकैः।। 30 ।।

दर्भमालिकया धूप-घटैरन्यैश्च मंगलैः।
मंडपं भूषयेत् सर्वं, बुधः चित्तप्रसत्तये।। 31 ।।

एवं विधीयते यच्च, मंडपस्य प्रसाधनम् ।
तदेव हि बुधाः प्राहु-र्यज्ञशालाप्रवेशनम् ।। 32 ।।
वैदिक बिहारी जी नीतीश✍️🙏🙏
अंकुरारोपण विधि करने के बाद दूसरे दिन शुभमुहूर्त में वास्तुबलि-वास्तुपूजा करें, सर्वमंडप अलंकृत करें। नांदीमंगल विधि से पूर्व प्रतिष्ठा कराने वाले यजमान, प्रतिष्ठाचार्य भी यज्ञसिद्धि के लिये सर्व उपकरण तैयार करके प्रथम ही शांतिविधि-शांतिविधान करावें पुनः मंडप, वेदी आदि के निर्माण करावें। मंडप बनाने के स्थल में भूमि खोदकर उसका शोधन करके पुनः उसे भर देवें व समान-समतल कर देवें। ऐसे पवित्र स्थान में क्षीर-वृक्ष, उदुंबर आदि लकड़ियों से मंडप तैयार करावें।

जिनमंदिर के सामने मूलवेदी मंडप बनवावें, वह मंडप तीन, छह, नव, बारह इस तरह वृद्धि करे चैबीस हाथ प्रमाण। इतना लंबा, चैड़ा होना चाहिये। इसके नीचे में नवमें भाग में वेदी बनावें, वह आठ हाथ ही होवे।

प्रतिष्ठासारोद्धार में लिखा है- ‘‘कम से कम तीन हाथ का मंडप होना चाहिये और एक हाथ की वेदी बनाना चाहिये यह संक्षेप विधि है और अधिक विधि करनी हो तो तीन-तीन हाथ बढ़ाते जाना अर्थात् छह हाथ का मंडप और दो हाथ की वेदी करना। इस तरह सबसे अधिक चैबीस हाथ का मंडप (36 फुट लगभग) और आठ हाथ की वेदी बनाना चाहिये यह विस्तार विधि करने के समय जानना।’’

इस वेदी के आठ भेद हैं- नंदा, सुनंदा, प्रबृद्धा, सुप्रभा, मंगला, कुमुदा, विमला और पुंडरीका। वेदी का जो व्यास हो उतनी ही लंबाई होनी चाहिये और व्यास के छठे भाग प्रमाण ऊंचाई हो, वेदी चैकोन होवे और ईशान दिशा में होवे। इन आठ वेदियों में से कोई भी एक वेदी कच्ची ईंटों से बनवावें। इस वेदी को बनवाने की सर्वविधि ‘वेदी विधान’ के प्रकरण में कही जाएगी।

इस वेदी की चारों दिशाओं में एक हाथ लंबा और एक हाथ चैड़ा और एक हाथ गहरा इस प्रकार चैकोन कुंड बनावें जिसमें तीन कटनी होवें। उसके सामने चार द्वारों वाला चैकोन ऐसा सभामंडप बनवावें, यह सभा मंडप सात हाथ से लेकर बत्तीस हाथ पर्यंत होना चाहिये। मूलवेदी और पश्चिम में दीक्षामंडप बनवावें। यह मंडप योग्य लंबा, चैड़ा और चार खंभों से सहित होना चाहिये।। 1 से 12।।

ईशान दिशा में मूलवेदी मंडप के समान ही मंडप बनाना चाहिये, यह मंडप वेदी के ईशान कोण से लेकर नैऋतकोणपर्यंत, जो वेदी का प्रमाण है, उतना होना चाहिये।

नगर की ईशान दिशा में देश, काल के अनुसार जन्माभिषेक मंडप बनवावें। वह भी उपर्युक्त प्रमाण वाला होना चाहिये। इस मंडप के ब्रह्मभाग-पश्चिमभाग में चैकोन, सुंदर, पानी निकलने के साधन से सहित ऐसी वेदी से युक्त, चार खंभे वाला यथायोग्य लंबा ऐसा स्नपन-अभिषेक मंडप बनवावें। इस मंडप में जो वेदी है, उसे ‘ईशानवेदी’ कहते हैं।

ब्रह्मांश के सामने कलश स्थापित करने के लिये एक वेदिका बनावें। इस मंडप की पश्चिम दिशा में होम मंडप बनावें और उसके भी पश्चिम में अंकुरारोपण मंडप तैयार करवावें। इस होम मंडप और अंकुरार्पण मंडप के सर्वलक्षण उन-उन की प्रयोगविधि में कहा जावेगा। इन दोनों मंडपों के निकट यथायोग्य स्थान में शांतिविधिमंडप होना चाहिये।

उपर्युक्त-सुप्रभा वेदी के योग्य उस मध्य में वही वेदी है। इस वेदी की आठों दिशाओं में क्रम से नवग्रह के होम के लिये क्रम से नव कुंड होना चाहिये। 1. सूर्यग्रह का चैकोन कुंड
वैदिक बिहारी जी नीतीश
2. चंद्रग्रह का पीपल के पान के आकार का

3. मंगल ग्रह का अर्ध चंद्राकार

4. बुधग्रह का त्रिकोण

5. गुरुग्रह का वर्तुलाकार

6. शुक्रग्रह का पंचकोण

7. शनिग्रह का षट्कोण

8. राहुग्रह का अष्टकोण और

9. केतुग्रह का धनुषाकार इस प्रकार नवग्रह हवन के लिये नौ कुंड तैयार करवावें और एक जलहोम कुंड बनवावें जो कि चैकोन होवे।

जिस दिन नांदीमंगल विधि की है, उससे तीसरे दिन शांति विधि करे। पुनः सर्वशिल्पि लोगों का सत्कार करके वास्तुबलि नाम से विधि संपन्न करें। सर्वमंडपों को चित्र-विचित्र वस्त्रों से सुसज्जित करें। ध्वजायें लगावें, साल्लकी, केला आदि के स्तंभ खड़े करे, चारों तरफ मालायें लटकावें। मंडप के चारों दरवाजों में दो-दो, ऐसे आठ कुंभों की स्थापना करें। तोरण बांधें, मोतियों का चूर्ण बिखरावें, चंदन के छींटे दिलावें, पुष्पों से सजावें, स्वस्तिक आदि बनवावें और सुंदर-सुंदर रंगोली बनवावें। कलश, दर्पण, भंगार, यवारक-उगे अंकुरे, विरूढ़क-द्विदल धान्य के अंकुर, दाभ की मालायें, धूपघट और अन्य भी मंगल पदार्थों से मंडप को सुशोभित करें। इसे ही विद्वान् लोग ‘यज्ञशाला प्रवेशन’ यह नाम देते हैं ।। 13 से 32।।॥हवन और मेरा जीवन॥ 
हिंदू धर्म में सर्वोपरि पूजनीय वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में हवन की महिमा का विस्तार से वर्णन है। हवन मेरे जीवन के हर काम में सफलता का साथ देता है।
1.मेरे जीवन के प्रत्येक जन्म वर्ष पर हवन हुआ।
2.हमारे नवीन घर के गृह प्रवेश पर हवन हुआ। 
3.मेरे व्यवसाय का आरम्भ हुआ तो हवन हुआ। 
4.पहली बार मेरे केश कटे तो हवन हुआ। 
5.मेरा नामकरण हुआ तो हवन हुआ।
6.मेरा जन्म हुआ तो हवन हुआ। 
7.मेरी शादी हुई तो हवन हुआ। 
8.खुशियाँ आईं तो हवन हुआ। 
9.संकट आया तो हवन हुआ। 
10.बच्चे हुए तो हवन हुआ।
वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों ईश्वर के अनुसार हवन संसार का सर्वोत्तम व पवित्र कर्म है जिसके करने से सुख ही सुख बरसता है।हिन्दू धर्म में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान यह हवन आज प्रायः हमने अपने जीवन से दूर कर दिया है। अतः इसलिये हमारे जीवन में दुःख ही दुःख आ रहा है।विविध यज्ञ कुण्ड✍🙏🙏
हवन कुंड और हवन के नियम 🌺
जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार या कोई शुभ धर्म कृत्य यज्ञ अग्निहोत्र के बिना अधूरा माना जाता है। वैज्ञानिक तथ्यानुसार जहाॅ हवन होता है, उस स्थान के आस-पास रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते है।
शास्त्रों में अग्नि देव को जगत के कल्याण का माध्यम माना गया है जो कि हमारे द्वारा दी गयी होम आहुतियों को देवी देवताओं तक पहुंचाते है।
जिससे देवगण तृप्त होकर कर्ता की कार्यसिद्धि करते है। इसलिये पुराणों में कहा गया है।
"अग्निर्वे देवानां दूतं"
कोई भी मन्त्र जाप की पूर्णता, प्रत्येक संस्कार, पूजन अनुष्ठान आदि समस्त दैवीय कर्म, हवन के बिना अधूरा रहता है।
हवन दो प्रकार के होते हैं वैदिक तथा तांत्रिक
आप हवन वैदिक करायें या तांत्रिक दोनों प्रकार के हवनों को कराने के लिए हवन कुंड की वेदी और भूमि का निर्माण करना अनिवार्य होता हैं.
शास्त्रों के अनुसार वेदी और कुंड हवन के द्वारा निमंत्रित देवी देवताओं की तथा कुंड की सज्जा की रक्षा करते हैं. इसलिए इसे “मंडल” भी कहा जाता हैं.
🌺 हवन की भूमि 🌺
🌼हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. *हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं.
🌼हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.
🌺हवन कुंड की बनावट 🌺
हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “मेखला” कहा जाता हैं।
हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं.
१. हवन कुंड की सबसे *पहली सीधी का रंग सफेद होता हैं.
२. दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं.
३. अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं.
🌼ऐसा माना जाता हैं कि हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं.
१. हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं.
२. दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.
३. तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं.
हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें।
🌼आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं.
🌼हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं.
🌼इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए।
🌺तांत्रिक हवन कुंड 🌺
🌼वैदिक हवन कुंड के अलावा तांत्रिक हवन कुंड में भी कुछ यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं. *तांत्रिक हवन करने के लिए आमतौर पर त्रिकोण कुंड का प्रयोग किया जाता हैं.
🌺हवन कुंड के प्रकार 🌺
🌼हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.
🌺आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें 🌺
१. अगर अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें.
२. यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें.
३. एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं.
४. दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें.
५. कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें.*
६. यदि आप हवन कुंड बनवाने में असमर्थ हैं तो आप सामान्य हवन करने के लिए चार अंगुल ऊँचा, एक अंगुल ऊँचा, या एक हाथ लम्बा – चौड़ा स्थण्डिल पीली मिटटी या रेती का प्रयोग कर बनवा सकते हैं.
७. इसके अलावा आप हवन कुंड को बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले ताम्बे के या पीतल के बने बनाए हवन कुंड का भी प्रयोग कर सकते हैं.
शास्त्र के अनुसार इन हवन कुंडों का प्रयोग आप हवन करने के लिए कर सकते हैं.
🌼पीतल या ताम्बे के ये हवन कुंड ऊपर से चौड़े मुख के और नीचे से छोटे मुख के होते हैं. इनका प्रयोग अनेक विद्वान् हवन – बलिवैश्व – देव आदि के लिए करते हैं.
८. भविषयपुराण में 50 आहुति का हवन करने के लिए मुष्टिमात्र का निर्देश दिया गया हैं. भविष्यपूराण में बताये गए इस विषय के बारे में शारदातिलक तथा स्कन्दपुराण जैसे ग्रन्थों में कुछ मतभेद मिलता हैं।
🌺हवन के नियम 🌺
🌼#वैदिक या तांत्रिक दोनों प्रकार के मानव कल्याण से सम्बन्धित यज्ञों को करने के लिए हवन में “मृगी” मुद्रा का इस्तेमाल करना चाहिए.
१. हवन कुंड में सामग्री डालने के लिए हमेशा शास्त्रों की आज्ञा, गुरु की आज्ञा तथा आचार्यों की आज्ञा का पालन करना चाहिए.
२. हवन करते समय आपके मन में यह विश्वास होना चाहिए कि आपके करने से कुछ भी नहीं होगा. जो होगा वह गुरु के करने से होगा.
३. कुंड को बनाने के लिए अड़गभूत वात, कंठ, मेखला तथा नाभि को आहुति एवं कुंड के आकार के अनुसार निश्चित किया जाना चाहिए.
४. अगर इस कार्य में कुछ ज्यादा या कम हो जाते हैं तो इससे रोग शोक आदि विघ्न भी आ सकते हैं.
५. इसलिए हवन को तैयार करवाते समय केवल सुन्दरता का ही ध्यान न रखें बल्कि कुंड बनाने वाले से कुंड शास्त्रों के अनुसार तैयार करवाना चाहिए।
🌺हवन करने के फायदे 🌺
१. हवन करने से हमारे शरीर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं.
२. हवन करने से आस – पास का वातावरण शुद्ध हो जाता हैं.
३. हवन ताप नाशक भी होता हैं.
४. हवन करने से आस–पास के वातावरण में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ जाती हैं.
हवन से सम्बंधित कुछ आवश्यक बातें
🌺अग्निवास का विचार 🌺
🌼तिथि वार के अनुसार अग्नि का वास पृथ्वी,आकाश व पाताल लोक में होता है। पृथ्वी का अग्नि वास समस्त सुख का प्रदाता है लेकिन आकाश का अग्नि वास शारीरिक कष्ट तथा पाताल का धन हानि कराता है। इसलिये नित्य हवन, संस्कार व अनुष्ठान को छोड़कर अन्य पूजन कार्य में हवन के लिये अग्निवास अवश्य देख लेना चाहिए।
🌺हवन कार्य में विशेष सावधानियां 🌺
🌼मुँह से फूंक मारकर, कपड़े या अन्य किसी वस्तु से धोक देकर हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करना तथा जलती हुई हवन की अग्नि को हिलाना - डुलाना या छेड़ना नही चाहिए
🌼हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित हो रही अग्नि शिखा वाला भाग ही अग्नि देव का मुख कहलाता है। इस भाग पर ही आहुति करने से सर्वकार्य की सिद्धि होती है।
🌼अन्यथा कम जलने वाला भाग नेत्र - यहाँ आहुति डालने पर अंधापन,
🌼धुँआ वाला भाग नासिका - यहां आहुति डालने से मानसिक कष्ट,
🌼अंगारा वाला भाग मस्तक - यहां आहुति डालने पर धन नाश तथा काष्ठ वाला भाग अग्नि देव का कर्ण कहलाता है।
🌼यहां आहुति करने से शरीर में कई प्रकार की व्याधि हो जाती है। हवन अग्नि को पानी डालकर बुझाना नही चाहिए।
🌼विशेष कामना पूर्ति के लिये अलग अलग होम सामग्रियों का प्रयोग भी किया जाता है।
🌺सामान्य हवन सामग्री ये है 🌺
तिल, जौं, चावल, सफेद चन्दन का चूरा, अगर, तगर, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र, पानड़ी, लौंग, बड़ी इलायची, गोला, छुहारे, सर्वोषधि, नागर मौथा, इन्द्र जौ, कपूर काचरी, आँवला, गिलोय, जायफल, ब्राह्मी तुलसी किशमिश, बालछड़, घी आदि ......
🌺हवन समिधाएँ' 🌺
🌼कुछ अन्य समिधाओं का भी वाशिष्ठी हवन पद्धति में वर्णन है । उसमें ग्रहों तथा देवताओं के हिसाब से भी कुछ समिधाएँ बताई गई हैं। तथा विभिन्न वृक्षों की समिधाओं के फल भी अलग-अलग कहे गये हैं।
🌼यथा-नोः पालाशीनस्तथा। खादिरी भूमिपुत्रस्य त्वपामार्गी बुधस्य च॥ गुरौरश्वत्थजा प्रोक्त शक्रस्यौदुम्बरी मता । शमीनां तु शनेः प्रोक्त राहर्दूर्वामयी तथा॥ केतोर्दभमयी प्रोक्ताऽन्येषां पालाशवृक्षजा॥
🌼आर्की नाशयते व्याधिं पालाशी सर्वकामदा। खादिरी त्वर्थलाभायापामार्गी चेष्टादर्शिनी। प्रजालाभाय चाश्वत्थी स्वर्गायौदुम्बरी भवेत। शमी शमयते पापं दूर्वा दीर्घायुरेव च । कुशाः सर्वार्थकामानां परमं रक्षणं विदुः । यथा बाण हारणां कवचं वारकं भवेत । तद्वद्दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिका॥ यथा समुत्थितं यन्त्रं यन्त्रेण प्रतिहन्यते । तथा समुत्थितं घोरं शीघ्रं शान्त्या प्रशाम्यति॥
🌺अब समित (समिधा) का विचार कहते हैं, 🌺
सूर्य की समिधा मदार की, 
चन्द्रमा की पलाश की,
मङ्गल की खैर की,
बुध की चिड़चिडा की,
बृहस्पति की पीपल की,
शुक्र की गूलर की,
शनि की शमी की,
राहु दूर्वा की, और
केतु की कुशा की समिधा कही गई है ।
🌼इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए ।
मदार की समिक्षा रोग को नाश करती है
पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली,
पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली,
गूलर की स्वर्ग देने वाली,
शमी की पाप नाश करने वाली
दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और
🌼कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।
🌼जिस प्रकार बाण के प्रहारों को रोकने वाला कवच होता है, उसी प्रकार दैवोपघातों को रोकने वाली शान्ति होती है। जिस प्रकार उठे हुए अस्त्र को अस्त्र से काटा जाता है, उसी प्रकार (नवग्रह) शान्ति से घोर संकट शान्त हो जाते हैं।
🌼ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
१. वसन्त-शमी
२. ग्रीष्म-पीपल
३. वर्षा-ढाक, बिल्व
४. शरद-पाकर या आम
५. हेमन्त-खैर
६. शिशिर-गूलर, बड़
🌼यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए
🌼विभिन्न हवन सामग्रियाँ और समिधाएं विभिन्न प्रकार के लाभ देती हैं। विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता देती हैं।
🌼प्राचीन काल में रोगी को स्वस्थ करने हेतु भी विभिन्न हवन होते थे। जिसे वैद्य या चिकित्सक रोगी और रोग की प्रकृति के अनुसार करते थे पर कालांतर में ये यज्ञ या हवन मात्र धर्म से जुड़ कर ही रह गए और इनके अन्य उद्देश्य लोगों द्वारा भुला दिए गये।
🌺सर भारी या दर्द होने पर किस प्रकार हवन से इलाज होता था इस श्लोक से देखिये 🌺
श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितलं मनःशिला।। गन्धाश्चा गुरुपत्राद्या धूमं मुर्धविरेचनम्।। 
(चरक सू* 5/26-27)
🌺अर्थात:--
अपराजिता, मालकांगनी, हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेज़पात्र औषधियों को हवन करने से शिरो विरेचन होता है।
परन्तु अब ये चिकित्सा पद्धति विलुप्त प्राय हो गयी है।
🌺रोग और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री 🌺
१. सर के रोग, सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी आदि के लिए ब्राह्मी, शंखपुष्पी, जटामांसी, अगर, शहद, कपूर, पीली सरसो
२. स्त्री रोगों, वात पित्त, लम्बे समय से आ रहे बुखार हेतु बेल, श्योनक, अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम
३. पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु सफेद चन्दन का चूरा, अगर, तगर, अश्वगंधा, पलाश, कपूर, मखाने, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र, लौंग, बड़ी इलायची, गोला
४. पेट एवं लिवर रोग हेतु भृंगराज, आमला, बेल, हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा, गुग्गुल घी, इलायची
५. श्वास रोगों हेतु वन तुलसी, गिलोय, हरड , खैर अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस।
🌺हवन में आहुति डालने के बाद क्या करें 🌺
आहुति डालने के बाद तीन प्रकार के क्षेत्रों का विभाजित करने के बाद मध्य भाग में पूर्व आदि दिशाओं की कल्पना करें. इसके बाद आठों दिशाओं की कल्पना करें. आठों दिशाओं के नाम हैं – 
पूर्व अग्नि, दक्षिण, नीऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा इशान।
🌺हवन की पूर्णाहुति में ब्राह्मण भोजन 🌺
"ब्रह्स्पतिसंहिता" के अनुसार यज्ञ हवन की पूर्णाहुति वस्तु विशेष से कराने पर निम्न संख्या में ब्राह्मण भोजन अवश्य कराना चाहिए।
१. पान - 5 ब्राह्मण
२. पक्वान्न - 10 ब्राह्मण
३. ऋतुफल - 20 ब्राह्मण
४. सुपारी - 21 ब्राह्मण
५. नारियल - 100 ब्राह्मण
६. घृतधारा - 200 ब्राह्मण
हवन यज्ञ आदि से सम्बंधित समस्त जानकारियो के लिये ""यज्ञ मीमांसा किताब का अध्ययन करेंमंत्र- जप , देव पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कुछ विशिष्ट शब्द
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#पूजा पाठ के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए ।
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1👉 पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।

2👉 पंचामृत – दूध ,दही , घृत, मधु { शहद ] तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

3👉 पंचगव्य – गाय के दूध ,घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं।

4👉 षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य ,
आचमन , स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप ,
दीप , नैवैध्य , ,अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन
सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’
कहते हैं।

5👉 दशोपचार – पाध्य ,अर्घ्य ,आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प ,धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं।

6👉 त्रिधातु –सोना , चांदी और लोहा कुछ आचार्य सोना ,चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’
कहते हैं।

7👉 पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा ,
तांबा और जस्ता।

8👉 अष्टधातु – सोना , चांदी, लोहा ,
तांबा , जस्ता , रांगा ,कांसा और पारा।

9👉 नैवैध्य –खीर , मिष्ठानआदि मीठी वस्तुये।

10👉 नवग्रह –सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।

11👉 नवरत्न – माणिक्य , मोती ,मूंगा , पन्ना ,पुखराज , हीरा ,नीलम , गोमेद , और वैदूर्य।

12👉 अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन , केसर ,कस्तूरी ,,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर[ देवपूजन हेतु ]

👉 अगर , लाल चन्दन ,हल्दी , कुमकुम , गोरोचन , जटामासी ,शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु]

13👉 गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।

14👉 पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र ,फल , छाल ,और जड़।

15👉 दशांश – दसवां भाग।

16👉 सम्पुट –मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना।

17👉 भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल
मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए ,जो कटा-फटा न हो।

18👉 मन्त्र धारण –किसी भी मन्त्र
को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुषको अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण
करना चाहिए।

19👉 मुद्राएँ –हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को‘मुद्रा’ कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।

20👉 स्नान –यह दो प्रकार का होता है।बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।

21👉 तर्पण –नदी , सरोवर ,आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर ,हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है। जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो ,वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।

22👉 आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।

23👉 करन्यास –अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।

24👉 हृद्याविन्यास –ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुएमंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं।

25👉 अंगन्यास – ह्रदय ,शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।

26👉 अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं।अर्घ्य पात्र में दूध ,तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है।

27👉 पंचायतन पूजा – इसमें पांच देवताओं – विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजनकिया जाता है।

28👉 काण्डानुसमय – एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर ,अन्य देवता की पूजा करने को ‘काण्डानुसमय’ कहते हैं।

29👉 उद्धर्तन – उबटन।

30👉 अभिषेक – मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को ‘अभिषेक’ कहते हैं।

31👉 उत्तरीय – वस्त्र।

32👉 उपवीत – यज्ञोपवीत [ जनेऊ]।

33👉 समिधा – जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं।समिधा के लिए आक ,पलाश , खदिर , अपामार्ग , पीपल ,उदुम्बर ,शमी , कुषा तथा आम कीलकड़ियों को ग्राह्य माना गया है।

34👉 प्रणव –ॐ।

35👉 मन्त्र ऋषि – जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध किया था ,वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।

36👉 छन्द – मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को ‘छन्द’ कहते हैं।यह अक्षरों अथवा पदों से बनताहै। मंत्र का उच्चारण चूँकि मुख से होता है अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

37👉 देवता – जीव मात्र के समस्त क्रिया- कलापों को प्रेरित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं यह शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है ,अतः देवता का न्यास हृदय में कियाजाता है।

38👉 बीज– मन्त्र शक्ति को उद॒भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं।इसका न्यास गुह्यांग में किया जाता है।

39👉 शक्ति – जिसकी सहायता से
बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व ‘शक्ति’
कहलाता है |उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

40👉 विनियोग– मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

41👉 उपांशु जप – जिह्वा एवं होठों को हिलाते हुए केवल स्वयम को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण को ‘उपांशुजप’ कहते हैं।

42👉 मानस जप – मन्त्र , मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र
का उच्चारण करने को ‘मानसजप’ कहते हैं।

43👉 अग्नि की जिह्वाएँ – अग्नि की 7 जिह्वाएँ मानी गयीहैं , उनके नाम हैं –1. हिरण्या 2. गगना 3. रक्ता 4. कृष्णा 5. सुप्रभा 6.बहुरूपा एवं 7. अतिरिक्ता।

44 👉 1. काली 2.कराली 3. मनोभवा 4. सुलोहिता 5. धूम्रवर्णा 6.स्फुलिंगिनी एवं 7. विश्वरूचि।

45👉 प्रदक्षिणा –देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं।

विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश और सूर्य आदि देवताओं की 4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमायें करनी चाहियें।

46👉 साधना – साधना 5 प्रकार
की होती है – 1.अभाविनी 2. त्रासी 3.
दोवोर्धी 4. सौतकी 5.आतुरी।

[1] अभाविनी – पूजा के साधन
तथा उपकरणों के अभाव से , मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है , उसे‘अभाविनी’ कहा जाता है।

[2] त्रासी –जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है , उसे ‘त्रासी’कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।

[3] दोवोर्धी – बालक , वृद्ध , स्त्री ,
मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा‘दोर्वोधी’ कहलाती है।

[4] सूत की व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें।ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।

[5] रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें 
देवमूर्ति अथवासूर्यमंडल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस परपुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे – ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजनकरे तो इस पूजा को ‘आतुरी’ कहा जाएगा।

47👉 अपने श्रम का महत्व –पूजा की वस्तुए स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन
करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है।अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

48👉 वर्णित पुष्पादि –[1] पीले रंग की कट सरैया , नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के फूल पूजा में नही चढाये जाते।

[2] सूखे ,बासी , मलिन , दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प देवता पर नही चढाये जाते।

[3] विष्णु पर अक्षत , आक तथा धतूरा नही चढाये जाते।

[4] शिव पर केतकी , बन्धुक [दुपहरिया] , कुंद ,
मौलश्री , कोरैया , जयपर्ण , मालती और
जूही के पुष्प नही चढाये जाते।

[5]दुर्गा पर दूब , आक , हरसिंगार , बेल तथा तगर नही चढाये जाते।

[6] सूर्य तथा गणेश पर तुलसी नही चढाई जाती।

[7] चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य पुष्पों की कलियाँ नही चढाई जाती।

49👉 ग्राह्यपुष्प – विष्णु परश्वेत
तथा पीले पुष्प , तुलसी, सूर्य , गणेश
पर लाल रंग के पुष्प , लक्ष्मी पर कमल शिव के ऊपर आक , धतूरा , बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप
से चढाये जाते हैं। अमलतास के पुष्प
तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता।

50👉 ग्राह्य पत्र – तुलसी , मौलश्री ,
चंपा , कमलिनी , बेल ,श्वेत कमल , अशोक ,
मैनफल , कुषा , दूर्वा , नागवल्ली , अपामार्ग ,
विष्णुक्रान्ता , अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं।

51👉 ग्राह्य फल – जामुन ,
अनार ,नींबू , इमली , बिजौरा , केला ,
आंवला , बेर , आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं।

52👉 धूप – अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष
रूप से ग्राह्य है ,यों चन्दन-चूरा , बालछड़ आदि काप्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है।
वैदिक बिहारी जी नीतीश!! 
53👉 दीपक की बत्तियां –
यदि दीपक में अनेक
बत्तियां हों तो उनकी संख्या विषम
रखनी चाहिए ।दायीं ओर के
दीपक में सफ़ेद रंग
की बत्ती तथा बायीं ओर के
दीपक में लला रंग
की बत्ती डालनी चाहिए।

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जाने यज्ञ कुंड 🔥 कितने प्रकार के होते हैं ?

यज्ञ कुंड मुख्यत: आठ प्रकार के होते हैं और सभी  का प्रयोजन अलग अलग होता हैं ।

1. योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।

2. अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।

3. त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।

4. वृत्त कुंड - जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।

5. सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।

6. सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।

7. चतुष् कोणा स्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।

8. पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।
तो आप समझ ही गए होंगे की सामान्यतः हमें
चतुर्वर्ग के आकार के इस कुंड का ही प्रयोग करना हैं । 
ध्यान रखने योग्य बाते :- अब तक आपने शास्त्रीय बाते समझने का प्रयास किया यह बहुत जरुरी हैं । क्योंकि इसके बिना सरल बाते पर आप गंभीरता से विचार नही कर सकते । 

सरल विधान का यह मतलब कदापि नही की आप गंभीर बातों को ह्र्द्यगमन ना करें ।

जप के बाद कितना और कैसे हवन किया जाता हैं ? कितने लोग और किस प्रकार के लोग की
आप सहायता ले सकते हैं ?
 कितना हवन किया जाना हैं ? हवन करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना हैं ?
 क्या कोई और सरल उपाय भी जिसमे हवन ही न करना पड़े ? किस दिशा की ओर मुंह करके बैठना हैं ? 
किस प्रकार की अग्नि का आह्वान करना हैं ? किस प्रकार की हवन सामग्री का उपयोग करना हैं ?
 दीपक कैसे और किस चीज का लगाना हैं ? 
कुछ ओर आवश्यक सावधानी ? आदि बातों के साथ अब कुछ बेहद सरल बाते को अब हम देखेगे । 
वैदिक बिहारी जी नीतीश
जब शाष्त्रीय गूढता युक्त तथ्य हमने समंझ लिए हैं तो अब सरल बातों और किस तरह से करना हैं पर भी
कुछ विषद चर्चा की आवश्यकता हैं ।

 1. कितना हवन किया जाए ?
शास्त्रीय नियम
तो दसवे हिस्सा का हैं ।
इसका सीधा मतलब की एक अनुष्ठान मे
1,25,000 जप या 1250 माला मंत्र जप अनिवार्य हैं और इसका दशवा हिस्सा होगा 1250/10 =
125 माला हवन मतलब लगभग 12,500 आहुति । (यदि एक माला मे 108 की जगह सिर्फ100  गिनती ही माने तो) और एक आहुति मे मानलो 15 second लगे तब कुल 12,500 *
15 = 187500 second मतलब 3125 minute मतलब 52 घंटे लगभग। तो किसी एक व्यक्ति
के लिए इतनी देर आहुति दे पाना क्या संभव हैं ?
2. तो क्या अन्य
व्यक्ति की सहायता ली जा सकती हैं? तो इसका
उतर
हैं हाँ । पर वह सभी शक्ति मंत्रो से दीक्षित हो या अपने ही गुरु भाई बहिन हो तो अति उत्तम हैं । जब यह भी न संभव हो तो गुरुदेव के श्री चरणों मे अपनी असमर्थता व्यक्त कर मन ही मन
उनसे आशीर्वाद लेकर घर के सदस्यों की सहायता ले सकते हैं ।

3. तो क्या कोई और उपाय नही हैं ? यदि दसवां हिस्सा संभव न हो तो शतांश हिस्सा भी हवन
किया जा सकता हैं । मतलब 1250/100 = 12.5 माला मतलब लगभग 1250 आहुति = लगने वाला समय = 5/6 घंटे ।यह एक साधक के लिए
संभव हैं ।

4. पर यह भी हवन भी यदि संभव ना हो तो ? कतिपय साधक किराए के मकान में या फ्लैट में रहते हैं वहां आहुति देना भी संभव नही है तब क्या ? गुरुदेव जी ने यह भी विधान सामने रखा की साधक यदि कुल जप संख्या का एक चौथाई हिस्सा जप और कर देता है संकल्प ले कर की मैं दसवा हिस्सा हवन नही कर पा रहा हूँ । इसलिए यह मंत्र जप कर रहा हूँ तो यह भी संभव हैं । पर इस केस में शतांश जप नही चलेगा इस बात का ध्यान रखे ।

5. स्रुक स्रुव :- ये आहुति डालने के काम मे आते हैं । स्रुक 36 अंगुल लंबा और स्रुव 24 अंगुल लंबा होना चाहिए । इसका मुंह आठ अंगुल और कंठ एक अंगुल का होना चाहिए । ये दोनों स्वर्ण रजत पीपल आमपलाश की लकड़ी के बनाये जा सकते हैं ।
 
6। हवन किस चीज का किया जाना चाहिये ?
· शांति कर्म मे पीपल के पत्ते, गिलोय, घी का ।
· पुष्टि क्रम में बेलपत्र चमेली के पुष्प घी ।
· स्त्री प्राप्ति के लिए कमल ।
· दरिद्र्यता दूर करने के लिये दही और घी का ।
· आकर्षण कार्यों में पलाश के पुष्प या सेंधा नमक से ।
· वशीकरण मे चमेली के फूल से ।
· उच्चाटन मे कपास के बीज से ।
· मारण कार्य में धतूरे के बीज से हवन किया जाना चाहिए ।

7. दिशा क्या होना चाहिए ? साधरण रूप से
जो हवन कर रहे हैं वह कुंड के पश्चिम मे बैठे और उनका मुंह पूर्व
दिशा की ओर होना चाहिये । यह भी विशद व्याख्या चाहता है । यदि षट्कर्म किये
जा रहे हो तो ;
· शांती और पुष्टि कर्म में पूर्व दिशा की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे ।
· आकर्षण मे उत्तर की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे और यज्ञ कुंड वायु कोण में हो ।
· विद्वेषण मे नैऋत्य दिशा की ओर मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण में रहे ।
· उच्चाटन मे अग्नि कोण में मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।
· मारण कार्यों में - दक्षिण दिशा में मुंह और दक्षिण दिशा में हवन कुंड हो ।

8. किस प्रकार के हवन कुंड का उपयोग किया जाना चाहिए ?
· शांति कार्यों मे स्वर्ण, रजत या ताबे का हवन कुंड होना चाहिए ।
· अभिचार कार्यों मे लोहे का हवन कुंड होना चाहिए।
· उच्चाटन मे मिटटी का हवन कुंड ।
· मोहन् कार्यों मे पीतल का हवन कुंड ।
· और ताबे के हवन कुंड में प्रत्येक कार्य में उपयोग किया जा सकता है ।

9. किस नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चाहिए ?
· शांति कार्यों मे वरदा नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चहिये ।
· पुर्णाहुति मे शतमंगल नाम की ।
· पुष्टि कार्योंमे बलद नाम की अग्नि का ।
· अभिचार कार्योंमे क्रोध नाम की अग्नि का ।
· वशीकरण मे कामद नाम की अग्नि का आहवान किया जाना चहिये

: 10. कुछ ध्यान योग बाते :-
· नीम या बबुल की लकड़ी का प्रयोग ना करें ।
· यदि शमशान मे हवन कर रहे हैं तो उसकी कोई भी चीजे अपने घर मे न लाये ।
· दीपक को बाजोट पर पहले से बनाये हुए चन्दन के त्रिकोण पर ही रखे ।
· दीपक मे या तो गाय के घी का या तिल का तेल का प्रयोग करें ।
· घी का दीपक देवता के दक्षिण भाग में और तिल का तेल का दीपक देवता के बाए ओर लगाया जाना चाहिए ।
· #शुद्ध भारतीय वस्त्र पहिन कर हवन करें ।
· यज्ञ कुंड के ईशान कोण मे कलश की स्थापना करें ।
· कलश के चारो ओर स्वास्तिक का चित्र अंकित करें ।
· हवन कुंड को सजाया हुआ होना चाहिए ।

अभी उच्चस्तरीय इस विज्ञानं के
अनेको तथ्यों को आपके सामने आना
बाकी हैं । जैसे की "यज्ञ कल्प सूत्र विधान"क्या हैं । 
जिसके माध्यम से आपकी हर प्रकार की इच्छा की पूर्ति केवल मात्र यज्ञ के माध्यम से हो जाति हैं । पर यह यज्ञ कल्प विधान हैं क्या ? 


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