श्री कृष्ण की बहन माँ विंध्यवासिनी
कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना..............🌺♦️🌹🌺♦️🌹
(श्री कृष्ण की बहन माँ विंध्यवासिनी)
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब वसुदेव जी लौट आये, तब नगर के बाहरी और भीतरी सब दरवाजे अपने-आप पहले की तरह बंद हो गये। इसके बाद नवजात शिशु के रोने की ध्वनि सुनकर द्वारपालों की नींद टूटी। वे तुरंत भोजराज कंस के पास गये और देवकी को सन्तान होने की बात कही। कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहट के साथ इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। द्वारपालों की बात सुनते ही झटपट पलँग से उठ खड़ा हुआ और बड़ी शीघ्रता से सूतिका गृह की ओर झपटा। इस बार तो मेरे काल का ही जन्म हुआ है, यह सोच कर वह विह्वल हो रहा था और यही कारण है कि उसे इस बात का भी ध्यान न रहा कि उसके बाल बिखरे हुए हैं। रास्ते में कई जगह वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा। बंदीगृह पहुँचने पर सती देवकी ने बड़े दुःख और करुणा के साथ अपने भाई कंस से कहा- ‘मेरे हितैषी भाई! यह कन्या तो तुम्हारी पुत्रवधू के सामान है, स्त्री जाति की है, तुम्हें स्त्री की हत्या कदापि नहीं करनी चाहिए।
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भैया! तुमने द्वेषवश मेरे बहुत-से अग्नि के समान तेजस्वी बालक मार डाले। अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो। अवश्य ही मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ। मेरे बहुत-से बच्चे मर गये हैं, इसलिए मैं अत्यन्त दीन हूँ। मेरे प्यारे और समर्थ भाई! तुम मुझ मन्दभागिनी को यह अंतिम सन्तान अवश्य दे दो।' श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! कन्या को अपनी गोद में छिपा कर देवकी जी ने अत्यन्त दीनता के साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था।
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उसने देवकी जी को झिड़ककर उनके हाथ से वह कन्या छीन ली। अपनी उस नन्हीं-सी नवजात भान्जी के पैर पकड़कर कंस ने उसे बड़े ज़ोर से एक चट्टान पर दे मारा। स्वार्थ ने उसके हृदय से सौहार्द को समूल उखाड़ फेंका था। परन्तु श्रीकृष्ण की वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथ से छूटकर तुरंत आकाश में चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथों में आयुध लिये हुए दीख पड़ी। वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणों से विभूषित थी। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा - ये आठ आयुध थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंट की सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति करने लगे। उस समय देवी ने कंस से कहा- ‘रे मूर्ख! मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्म का शत्रु तुझे मारने के लिए किसी स्थान पर पैदा हो चुका है।
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अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकों की हत्या न किया कर। कंस से इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वी के अनेक स्थानों में विभिन्न नामों से प्रसिध्द हुईं। देवी की यह बात सुनकर कंस को असीम आश्चर्य हुआ। उसने उसी समय देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और बड़ी नम्रता से उनसे कहा।
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देवी विंध्यवासिनी और श्रीकृष्ण का नाता .......................
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भगवान् श्रीकृष्ण की परदादी मारिषा एवं सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) दोनों ही नाग जनजाति की थीं। भगवान श्री कृष्ण की माता का नाम देवकी था। भगवान श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं। श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है इसीलिए उनका अन्य नाम कृष्णानुजा है।इसका अर्थ यह की वे भगवान श्रीकृष्ण की बहन थीं।
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इस बहन ने श्रीकृष्ण की जीवनभर रक्षा की थी............
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श्रीमद्भागवत पुराण की कथा अनुसार देवकी के आठवें गर्भ से जन्में श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस से बचाने के लिए रातोंरात यमुना नदी को पार गोकुल में नन्दजी के घर पहुंचा दिया था तथा वहां यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा के जेल में ले आए थे। बाद में जब कंस को देवकी की आठवीं संतान के जन्म का समाचार मिला तो वह कारागार में पहुंचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर पटककर जैसे ही मारना चाहा, वह कन्या अचानक कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुंच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित कर कंस के वध की भविष्यवाणी की और अंत में वह भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
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कहते हैं कि योगमाया ने यशोदा के गर्भ से जन्म लिया था। इनके जन्म के समय यशोदा गहरी निद्रा में थीं और उन्होंने इस बालिका को देखा नहीं था। जब आंख खुली तो उन्होंने अपने पास पुत्र को पाया जो कि कृष्ण थे। हालांकि गर्गपुराण के अनुसार भगवान कृष्ण की मां देवकी के सातवें गर्भ को योगमाया ने ही बदलकर कर रोहिणी के गर्भ में पहुंचाया था, जिससे बलराम का जन्म हुआ। बाद में योगमाया ने यशोदा के गर्भ से जन्म लिया था। इन्हीं योगमाया ने कृष्ण के साथ योगविद्या और महाविद्या बनकर कंस, चाणूर और मुष्टिक आदि शक्तिशाली असुरों का संहार कराया, जो कंस के प्रमुख मल्ल माने जाते थे।
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श्रीमद्भागवत पुरा में देवी योगमाया को ही विंध्यवासिनी कहा गया है जबकि शिवपुराण में उन्हें सती का अंश बताया गया है।
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शक्तिपीठों में से एक .......................
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भारत में विंध्यवासिनी देवी का चमत्कारिक मंदिर विंध्याचल की पहाड़ी श्रृंखला के मध्य (मिर्जापुर, उत्तर) पतित पावनी गंगा के कंठ पर बसा हुआ है। प्रयाग एवं काशी के मध्य विंध्याचल नामक तीर्थ है जहां मां विंध्यवासिनी निवास करती हैं। यह तीर्थ भारत के उन 51 शक्तिपीठों में प्रथम और अंतिम शक्तिपीठ है जो गंगा तट पर स्थित है। यहां तीन किलोमीटर के दायरे में अन्य दो प्रमुख देवियां भी विराजमान हैं। निकट ही कालीखोह पहाड़ी पर महाकाली तथा अष्टभुजा पहाड़ी पर अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। हालांकि कुछ विद्वान इस 51 शक्तिपीठों में शामिल नहीं करते हैं लेकिन 108 शक्तिपीठों में जरूर इनका नाम मिलता है।
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शिव पुराण अनुसार मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है। सती होने के कारण उन्हें वनदुर्गा कहा जाता है। कहते हैं कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, लेकिन विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है।
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मान्यता अनुसार सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। यहां लोग सिद्धि प्राप्त करने के लिए साधना करने आते हैं जहां संकल्प मात्र से साधकों को सिद्धि प्राप्त होती है। मार्कण्डेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा अनुसार ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से साधना और उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।
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