सोलह वैदिक संस्कार कौन-२ से हैं व इनको करने का क्या प्रयोजन हैं ?

प्रश्न - सोलह वैदिक संस्कार कौन-२  से हैं व इनको करने का क्या प्रयोजन  हैं ?

उत्तर -  मनुष्य की उन्नति के लिए करणीय सोलह वैदिक संस्कार - 
1. गर्भाधान संस्कार - युवा स्त्री-पुरुष उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये विशेष तत्परता से प्रसन्नतापूर्वक गर्भाधान करे।

2. पुंसवन संस्कार - जब गर्भ की स्थिति का ज्ञान हो जाए, तब दुसरे या तीसरे महिने में गर्भ की रक्षा के लिए स्त्री व पुरुष प्रतिज्ञा लेते है कि हम आज ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिससे गर्भ गिरने का भय हो।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार - यह संस्कार गर्भ के चौथे मास में शिशु की मानसिक शक्तियों की वृद्धि के लिए किया जाता है इसमें ऐसे साधन प्रस्तुत किये जाते है जिससे स्त्री प्रसन्न रहें।

4. जातकर्म संस्कार - यह संस्कार शिशु के जन्म लेने पर होता है। इसमें पिता सलाई द्वारा घी या शहद से जिह्वा पर ओ३म् लिखते हैं और कान में 'वेदोऽसि' कहते है।

5. नामकरण संस्कार- जन्म से ग्यारहवें या एक सौ एक या दूसरे वर्ष के आरम्भ में शिशु का नाम प्रिय व सार्थक रखा जाता है। 

6. निष्क्रमण संस्कार - यह संस्कार जन्म के चौथे माह में उसी तिथि पर जिसमें बालक का जन्म हुआ हो किया जाता है। इसका उद्देश्य शिशु को उद्यान की शुद्ध वायु का सेवन और सृष्टि के अवलोकन का प्रथम शिक्षण है।

7. अन्नप्राशन संस्कार - छठे व आठवें माह में जब शिशु की शक्ति अन्न पचाने की हो जाए तो यह संस्कार होता है। 

8. चूडाकर्म (मुंडन) संस्कार - पहले या तीसरे वर्ष में शिशु के बाल कटवाने के लिये किया जाता है। 

9. कर्णवेध संस्कार - कई रोगों को दूर करने के लिए शिशु के कान बींधे जाते है। 

10. उपनयन संस्कार - जन्म से आठवें वर्ष में इस संस्कार द्वारा लड़के व लड़की को यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनाया जाता है। 

11. वेदारम्भ संस्कार - उपनयन संस्कार के दिन या एक वर्ष के अन्दर ही गुरुकुल में वेदों के अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। 

12. समावर्तन संस्कार - जब ब्रह्मचारी व्रत की समाप्ति कर वेद-शास्त्रों के पढ़ने के पश्चात गुरुकुल से घर आता है तब यह संस्कार होता है। 

13. विवाह संस्कार - विद्या प्राप्ति के पश्चात जब लड़का-लड़की भली भांति पूर्ण योग्य बनकर घर जाते है तब दोनों का विवाह गुण-कर्म-स्वभाव देखकर किया जाता है। 
14. वानप्रस्थ संस्कार - जब घर में पुत्र का पुत्र हो जाए, तब गृहस्थ के धन्धे को छोड़ कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाता है। 

15. सन्यास संस्कार - वानप्रस्थी वन में रह कर जब सब इन्द्रियों को जीत ले, किसी में मोह व शोक न रहे तब संन्यास आश्रम में प्रवेश किया जाता है। 

16. अन्त्येष्टि संस्कार - मनुष्य शरीर का यह अन्तिम संस्कार है जो मृत्यु के पश्चात शरीर को जलाकर किया जाता है।

यह संक्षेप में 16 वैदिक संस्कारों का प्रयोजन संक्षेप में बताया है। 
पहले प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। *उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी।* जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। *गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है।* *महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया* । व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से *सोलह संस्कारों* की व्याख्या की गई है।
 *१.गर्भाधान* 
 गर्भाधान पहला संस्कार है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। 
 *२.पुंसवन*  
गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। 
*३.सीमन्तोन्नयन* 
 गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।  यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
 *४.जातकर्म* 
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है।
*५.नामकरण* 
जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है।
*६.निष्क्रमण*  
 निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है।  जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। 
 *७.अन्नप्राशन*  
  छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु को ये संस्कार कराना चाहिए
*८.चूड़ाकर्म*  
चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान करना चाहिए। 
*९.विद्यारंभ*  
 विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। 
*१०.कर्णवेध*  
 कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है।यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। 
*११.यज्ञोपवीत*  
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है।  आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न होना चाहिए। 
*१२.वेदारंभ*  
 इस संस्कार को जन्म से 5वे या 7 वे वर्ष में किया जाता है। अधिक प्रामाणिक 5 वाँ वर्ष माना जाता है। यह संस्कार प्रायः वसन्त पंचमी को किया जाता है।
*१३.केशांत*  
 यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। 
*१४.समावर्तन*  
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता है। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। 
*१५.विवाह*  
 लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता है।
*१६.अन्त्येष्टि* 
अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है।मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं।

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