जल ही जीवन है
जल ही जीवन है
शास्त्रों का कथन है :
"अग्नीषोमात्मकम् जगत्।"
अर्थात् यह जगत् अग्नि और सोम का संघात (Mixture) है। संसार में सब कुछ इनके सम्मिश्रण से बना है।
तैत्तिरीय उपनिषद् (2.1) का कथन है :
" वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भभ्य: पृथिवी।"
अर्थात् वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।
हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि पृथ्वी का 72% हिस्सा पानी से घिरा हुआ है। जीवविज्ञान के अनुसार, हमारे शरीर में पानी का अनुपात भी लगभग इतना ही है।
जल जीवन का प्रतीक है। यह सर्वविदित है कि विश्व की सभी संस्कृतियाँ नदियों के तट पर ही पनपी हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी-इतर जीवन (Extraterrestrial Life) की खोज में, दूसरे ग्रहों पर जल की उपलब्धता को सर्वोपरि मान रहे हैं।
जीवन का आधार तीन तत्त्व हैं -- वायु, जल और अन्न। प्राणायाम से वायु की आपूर्ति की जाती है जिसका वर्णन हमने पूर्व लेखों में किया है। जल से जीवन को कैसे समृद्ध बनाया जा सकता है, इसका वर्णन आगे किया जाएगा ।
अन्न का महत्त्व सभी जानते हैं। इस स्थूल शरीर को "अन्नमय कोश" कहा जाता है। कहावत है : जैसा अन्न, वैसा मन। छल, कपट, बेईमानी से कमाया धन/अन्न, मन में विकार और शरीर में बीमारियां उत्पन्न करता है।
अन्न के विषय में उपदेश है कि मनुष्य को " मित भोगी " ( कम खाना ), " ऋतभोगी" (ऋतु के अनुसार खाना) और " हित भोगी" (हितकारी/पौष्टिक आहार खाने वाला; मांस- मदिरा से परहेज़ करने वाला) होना चाहिए।
भोजन के उपरान्त शरीर की अवस्था का वर्णन योगरत्नाकर में इस प्रकार किया गया है :
भुक्तवोपविशतस्तन्द्रा शयानस्य तु पुष्टता।
आयुश्चंक्रममाणस्य मृत्युर्धावति धावत:।।
अर्थात् भोजन के बाद बैठने वाले को तन्द्रा ( झपकी / Nap, Dozing off ) आती है; (अन्न में मादकता/ नशा है, इसलिए खाने के बाद एक घंटे तक गाड़ी नहीं चलानी चाहिए); (बांई ओर) लेटने वाले को पुष्टता मिलती है; चहल- कदमी वाले की आयु बढ़ती है; दौड़ने वाला मृत्यु/ रोगग्रस्त होता है।
प्राण का जल से सम्बन्ध को छान्दोग्य उपनिषद् (6.7.1) में इस प्रकार समझाया गया है :
षोडशकल: सौम्य पुरुष: पञ्चदशाहानि माsशी:
काममपः पिबामोमय: प्राणो न पिबतो विच्छेत्स्यत इति ।।
अर्थात् हे वत्स! यह पुरुष सोलह कलाओं (अंशों) वाला है। अगर तुम पन्द्रह दिन तक खाना न खाओ, किन्तु पानी यथेच्छा पीते रहो ; तो जल पीते रहने के कारण प्राण नहीं टूटेगा-- प्राण जलमय जो है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में जल को औषधीय गुणों से संपन्न कहा गया है। "अप्सु विश्वानि भेषजा।" (अथर्ववेद - 1.6.2) अर्थात् जल में सभी औषधियाँ निहित है। " अप्स्वे१न्तरमृतमपसु भेषजमपामुत प्रशस्तये।"(ऋग्वेद 1.23.19) अर्थात् जल के अन्दर अमृत है; जल में औषधि है; जीवन को प्रशस्त / सुखी/ उत्कृष्ट बनाने के लिए, इसका सेवन करो।
अथर्ववेद (1.6.3) में प्रार्थना है :
"आप: पृणीत भेषज वरूथं तन्वे३ मम।"
अर्थात् हे जलो! अपनी औषधीय शक्तियों से मेरे शरीर में एक कवच उत्पन्न कर दो, ताकि दीर्घ आयु हो सकूं।
( वेद में "आप:" शब्द बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जल के साथ-साथ सभी प्रकार के शरीर में उत्पन्न होने वाले रस ( Secretions), फलों व औषधियों के रस जल व सोम से जाने जाते हैं।)
कोरोना महामारी में निम्न ऑक्सीजन ( प्राण वायु ) स्तर एवं डिहाईड्रेशन (शरीर में पानी की कमी) के गंभीर परिणाम हो सकते हैं । ऑक्सीजन की कमी जहां प्राणायाम से पूरी की जा सकती है, वहां जल ( H20) आक्सीजन और हाइड्रोजन का सम्मिश्रण होने से दोनों समस्याओं के लिए लाभप्रद है।
यहां हम केवल जल चिकित्सा का ही वर्णन करेंगे। सुश्रुत में कहा गया है कि जो व्यक्ति सुबह उठकर पांच अंजलि पानी पीता है, वह 100 वर्ष तक जीता है। ध्यान देने योग्य है कि परिमाण प्राकृतिक है। एक बच्चे और एक व्यस्क की पानी पीने की मात्रा समान नहीं हो सकती।
रात को पानी तांबे के पात्र में रखें और सुबह उस पानी को पिये।
मनुष्य को 1 दिन में कम से कम 2 लीटर पानी पीना चाहिए।
कोरोना काल में गर्म पानी पीने की हिदायत दी जाती है। इससे कोरोना वायरस निष्क्रिय हो जाता है।
सभी ऋतुओं में गुनगुना पानी पीना लाभप्रद है।
ग्रीष्म ऋतु में प्राय: लोग फ्रिज का पानी पीते हैं। यह कई प्रकार के रोग को जन्म देता है। इसकी बजाय घड़े या सुराई का पानी पिएं।
पानी सदा बैठ कर पियें; खड़े होकर के नहीं। खड़े होकर पानी पीने से घुटनों में दर्द होता है।
पानी सदा एक एक घूंट करके पीना चाहिए, एकदम गढ़ गढ़ करके नहीं। किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है : "We should drink food and eat water" अर्थात् हमें खाने को पीना चाहिए और पानी को खाना चाहिए।
आयुर्विज्ञान का निर्देश है : "भोजनमध्ये जलं पिबेत मुहुर्मुहु:।" अर्थात् भोजन करते समय बार-बार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में जल पियें परन्तु बाद में नहीं क्योंकि "भोजनान्ते विषं वारि:।" भोजन के अन्त में पानी विष के समान है।
भोजन एवं जलपान सम्बन्धी वाग्भट का कथन है :
भुक्तस्यादौ जलं पीतमग्निसादं कृशाङ्गताम्।
अन्ते करोति स्थूलत्वमूर्ध्वमामाशयात् कफम्।
मध्ये मध्याङ्गतां साम्यं धातुनां जरणं सुखम्।।
भोजन से पहले (खाली पेट) पिया हुआ पानी जठराग्नि को मन्द और शरीर को कमज़ोर बनाता है। भोजन के बाद पिया हुआ पानी मोटापा बढ़ाता है और अमाशय के ऊपरी भाग अर्थात फेफड़ों में कफ पैदा करता है। भोजन के बीच में पिया हुआ जल शरीर के अङ्गों में यथोचित पुष्टता पैदा करता है, शरीर की धातुओं में समता बनाता है और अन्न के पाचन में सहायक होता है।
आत्रेयसंहिता में यह भी विधान किया गया है कि कब पानी नहीं पीना चाहिए।
अध्वाश्रान्ते क्षुधाकान्ते शोकक्रोधातुरेषु च।
विषमासनोपविष्टे च पीतं वारि रुजाकरम्।
तस्मात् प्रसन्ने मनसि पानीयं मन्दमाचरेत्।।
अर्थात् बहुत अधिक मार्ग चल कर थकने पर, अधिक भूख लगने पर, बहुत दु:खी व अधिक क्रोधित होने पर, टेढ़े-मेढ़े या उल्टे आसन में बैठने पर, पिया हुआ पानी विकार/ रोग उत्पन्न करता है। अत: (इन अवस्थाओं के दूर होने पर) मन प्रसन्न होने पर धीरे- धीरे पानी का सेवन किया जाए।
ध्यानाकर्षण
क्योंकि जल ही जीवन है, इसलिए जल के संरक्षण एवं इसकी शुद्धि का दायित्व सब पर है।
जलनेति
कोरोना विशेषज्ञ डाक्टरों का कहना है कि इसका वायरस नाक और मुंह से प्रवेश करके पहले गले को इन्फैक्ट करता है फिर छाती में पहुँच कर फेफड़ों तथा शरीर के अन्य भागों को प्रभावित करता है।
कंठ और फेफड़ों सम्बन्धी कुछ प्राणायाम हमने पूर्व लेखों में सुझाए हैं।
कंठ में कोरोना वायरस को निष्क्रिय करने के लिए, जल चिकित्सा की एक विधि गरारे (Gargling) है, जो अत्यंत लाभदायक मानी जाती है। वैसे तो यह विधि कोरोना के पहले से सदियों से प्रचलित है, परन्तु अब इसका महत्त्व प्रत्यक्ष अनुभव किया गया है। गुनगुने (warm) पानी में थोड़ा नमक डाल कर दो मिनट सुबह प्रतिदिन गरारे करना कोरोने से बचने का सुरक्षा कवच है।
अब नासिका शोधक जलनेति क्रिया का वर्णन करते हैं।
हठयोग में षट् अर्थात् छः क्रियाओं का वर्णन मिलता है जिसे षट्कर्म भी कहते हैं। वे हैं नेति, धौति, वस्ति, नौली, कपालभाति और त्राटक।
नेति दो प्रकार की है -- जल नेति एवं सूत्रनेति। जलनेति में नली वाले लोटे से एक नासिका से गुनगुना पानी जिस में थोड़ा नमक मिला हो, अन्दर डाला जाता है और दूसरी नासिका से बाहर निकाल दिया जाता है।
जलनेति करने के लिए घुटनों के बल बैठें, लोटा दाहिने हाथ में ले लें और सिर को बाईं ओर झुकाएँ।
कुछ क्षणों के लिए श्वास रोक लें (स्तम्भवृति प्राणायाम)।
अब दाहिनी नासिका में लोटे की नली से पानी डालें। कुछ प्रयत्न के पश्चात् स्वतः पानी बाईं नासिका से बाहर आ जाएगा। दोनों नासिकाएं एक छिद्र से जुड़ी हैं।
इस प्रकार उलट दिशा में बाईं नासिका से पानी डालेंगे तो दाहिनी नासिका से बाहर आ जाएगा।
जलनेति करते समय श्वास नाक से मत लें, मुंह से लें। अगर कुछ क्षण श्वास रोक सकें ( स्तम्भ वृत्ति) तो और भी अच्छा है।
पानी को ऊपर मत खीचें, मुख में चला जाएगा। सहज भाव से यह स्वतः दूसरी नासिका से बाहर आ जाएगा।
सूत्र नेति में, एक सूत्र को क्रमशः बाईं एवं दाईं नासिका से डाल कर मुख से निकाला जाता है।
सूत्र नेति से जल नेति सरल है। इसलिए जलनेति की विधि यहां बतलाई गई हैै। सूत्रनेति के इच्छुक किसी क्रिया विशेषज्ञ से इसकी विधि सीखें।
जलनेति प्रातः प्रतिदिन की जा सकती है। सप्ताह में दो-तीन बार अवश्य करें। कोरोना काल में तो अवश्य ही प्रतिदिन करें।
जलनेति के बाद कपालभाति अवश्य करनी चाहिये। कपालभाति क्रिया भी है और प्राणायाम भी। इससे श्वास की नली की शुद्धि होती है।
(कपालभाति की विधि प्राणायाम सम्बन्धी पोस्ट में दी गई है।)
जलनेति के बाद कपालभाति करने से पानी अच्छी तरह नासिकाओं से बाहर निकल जाता है। अन्यथा, पानी के अन्दर रहने पर, सिर दर्द होने की संभावना रहती है।
जलनेति से नासिकाओं की सफ़ाई हो जाती है। मिट्टी, गर्दा, मल (म्यूकस) बाहर निकल जाते हैं। कभी सर्दी, जुकाम, छींके आदि की शिकायत नहीं होती ।
ध्यानाकर्षण:
हटयोग की षट् क्रियाएँ में कुछ काफ़ी कलिष्ट हैं। ये क्रियाएँ किसी विशेषज्ञ से सीख कर ही करनी चाहिएँ। जलनेति, जलधौति, शंख प्रक्षालन, कपालभाति और त्राटक काफ़ी सरल हैं। इनके करने की विधि यथा स्थान दे दी गई है।
उल्लेखनीय:
हठयोग की षट्क्रियाएँ या षट्कर्म अष्टाङ्गयोग योग के द्वितीय अङ्ग ‘नियम’ के ‘शौच’ साधन के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हैं। शरीर में उत्पन्न हुए विकारों ( Toxins ) को इन क्रियाओं से दूर किया जा सकता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती को 17 बार विष दिया गया था जो उन्होंने वस्ति, नौली आदि क्रियाओं से शरीर से बाहर निकाल दिया। ये क्रियाएँ शरीर को निरोग बना कर दीर्घायु प्रदान करती हैं। इसलिये कहा गया है ‘कालं वञ्चनार्थाय कर्म कुर्वन्ति योगिनः’ अर्थात् मृत्यु को चकमा देने के लिये योगी लोग कर्म (षट्क्रियाएँ) करते हैं।
i) धौति ii) शंख प्रक्षालन
कोरोना वायरस से नासिका एवं कण्ठ की सुरक्षा हेतु हमने कुछ प्राणायाम तथा क्रियाएं सुझाई हैं। अब छाती और पेट के शोधन हेतु धौति तथा शंख प्रक्षालन क्रियाओं का वर्णन करते हैं।
i) धौति
धौति का अर्थ है धोने की प्रक्रिया। इस क्रिया से खाने की नली ( Food Pipe ) एवं पेट की शुद्धि हो जाती है। धौति दो प्रकार की है -- वस्त्र धौति तथा जल धौति।
वस्त्र धौति में एक पतली कोमल कपड़े की पट्टी मुख से अन्दर निगली जाती है। एक सिरा बाहर रहता है। फिर इसे बाहर निकाल लिया जाता है। इससे बलगम आदि की सफ़ाई हो जाती है।
जल धौति इससे सरल है। सुबह शौच के पश्चात् बिना कुछ खाए 8-10 गिलास गुनगुना (Lukewarm) पानी जिसमें थोड़ा नमक मिला हो, पी लें।
फिर खड़े होकर आगे झुकें, थोड़ा पेट को दबाएँ तथा मुख में दो अंगुलियाँ डालकर जिह्नामूल को दबाएँ और वमन करें।
इससे पेट साफ़ हो जाता है, छाती साफ़ हो जाती है। कफ, श्वास, जलन (Acidity) एवं अन्य पेट और छाती सम्बन्धी रोगों के लिये लाभपद्र है।
जल धौति को प्रचलित भाषा में कुञ्जल (कुञ्जर क्रिया) भी कहते हैं। (कुञ्जर का अर्थ है हाथी अर्थात जैसे हाथी सूंड में पानी भर के बाहर निकाल देता है, वैसे करना)।
सप्ताह में एक बार धौति करना पर्याप्त है।
...............
ii) शंख प्रक्षालन
हठयोग में शंख प्रक्षालन क्रिया का भी उल्लेख है। शंख से अभिप्राय यहां उदर और वक्ष:स्थल से है। यह क्रिया वस्ति की भाँति उदर को स्वच्छ करती है और कुञ्जल की भांति वक्ष:स्थल की शुद्धि करती है।
इसकी प्रक्रिया इस प्रकार हैः
प्रातः 5-6 गिलास गुनगुना (Lukewarm) पानीजिस में नमक और दो निम्बू का रस मिला हो, पियें।
फिर ये आसन करें -- भुजंगासन, चन्द्रासन, कटिचक्रासन, अर्धमत्येन्द्रासन। चन्द्रासन में भुजाएँ ऊपर करके गर्दन और छाती को पीछे की ओर ऐसे झुकाया जाता है कि चन्द्र चॉप की आकृति बन जाए।
कटिचक्रासन में दोनों भुजाओं एवं शरीर के ऊपरी भाग तथा गर्दन को दोनों ओर घुमाया जाता है।
इन आसनों को दो-तीन बार करें। जब मल त्याग की इच्छा हो, तुरन्त शौचालय जाएँ।
तदनन्तर फिर 4-5 गिलास नमकीन गुनगुना पानी पियें और उपरोक्त आसन करें।
इच्छा होने पर, फिर मल त्याग करें। फिर 3-4 गिलास नमकीन गुनगुना पानी पियें और आसन करें तथा मल त्याग करें।
जब मल-त्याग समय केवल श्वेत पानी निकले, फिर 4-5 गिलास नमकीन गुनगुना पानी पियें।
अब आसन करने की आवश्यकता नहीं, कुञ्जल (कुञ्जर क्रिया) करें। अर्थात् सामने की ओर झुक कर, पेट पर थोड़ा बल दे कर, मुख में दो अंगुलियाँ डालकर, जिह्ना के मूल को दबाएँ और वमन करें।
अब शंख प्रक्षालन की प्रक्रिया पूरी हुई।
आधे घण्टे के बाद स्नान करें और दो घण्टे के बाद दलिया, खिचड़ी आदि हल्की चीज़ घी के साथ खाएँ।
शंख प्रक्षालन मास में एक बार पर्याप्त है।
इस क्रिया से पेट की सभी प्रकार की बीमारियां दूर हो जाती हैं। कोरोना आदि के वायरस भी निष्क्रिय हो जाता है तथा विषाक्त पदार्थ निकल जाते हैं।
ध्यानाकर्षण
शौच सम्बन्धी इन क्रियाओं का उद्देश्य शरीर शुद्धि और स्वास्थ्य लाभ के अतिरिक्त साधक को अपने शरीर की गंदगी को दर्शा कर, इसके प्रति घृणा पैदा करना है ताकि अन्यों के सौंदर्य के प्रति वह मोहित न हो। योगदर्शन (2.40) का सूत्र हैः "शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः" अर्थात् शौच से स्वशरीर के प्रति घृणा उत्पन्न होती है और अन्यों से संसर्ग (शारीरिक सम्बन्ध) की भावना से निवृत्ति होती है।
वैदिक मान्यताएं
जीव
40) जीव का शरीर में निवास-स्थान
जीव / आत्मा का शरीर में निवास - स्थान कहां है ? इस विषय पर विभिन्न संस्कृतियों की अपनी - अपनी अवधारणाएं हैं। उदाहरणार्थ, कई संस्कृतियों का मत है कि आत्मा रक्त (Blood) में वास करती है। युनान (Greece) के इतिहासकार हिरोडोटस (Herodotus) ने लिखा है कि स्कीदियनज़ (Scythians) अपने शत्रुओं की वीरता एवं गुणों को अपने में धारण करने के लिए विधिपूर्वक (Ritually) अपने शत्रुओं का रक्त पीते थे।
इसी प्रकार कुछ जनजातियों का विश्वास है कि आत्मा शीर्ष (Head) में रहती है। ऐसी मान्यता के कारण , अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये पशुबलि में सिर की खोपड़ी (Skull) एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई।
कई संस्कृतियों की अवधारणा है कि आत्मा श्वास में निवास करती है क्योंकि श्वास के थमते ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। न्यु कैलिडोनियां और मार्कुविन के लोग ( New Caledonians & Marquenians) मरणासन्न व्यक्ति की नासिका बन्द कर देते थे ताकि उसकी आत्मा शरीर से बाहर न निकल सके।
अधिकतर लोगों का मानना है, जिसमें डाक्टर और वैज्ञानिक भी शामिल हैं, कि आत्मा मस्तिष्क (Brain) में रहती है क्योंकि जब मस्तिष्क (Brain) मृत (Dead) हो जाता है, डाक्टर उस व्यक्ति को मृतप्राय घोषित कर देते हैं।
जीवविज्ञान अब आत्म- चेतना के निवास के सम्बन्ध में मस्तिष्क की बजाए कहीं और होने का कुछ इसी प्रकार के क्यास / अनुमान लगा रहा है। अमरीकन मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्ज़ ने प्रश्न रूप में इस सम्भावना की ओर संकेत किया है :
” क्या यह सम्भव नहीं है कि जब हमारे मस्तिष्क मृत (Dead) हो जाते हैं, आत्मा के निवास का वह भाग, जो चेतना स्रवित करता है, तब भी सक्रिय हो, उस वास्तविक संसार में, आत्म तत्त्व अभी भी विद्यमान हो, जो हमारे लिए अधिकतर अज्ञेय है ?
भारतीय दर्शन की अवधारणा है कि आत्मा हृदय में रहता है। गीता (18.61) का कथन है:
‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति’
अर्थात् ईश्वर सभी प्राणियों के हृद्- देश में रहता है।
शांख्यायन आरण्यक (11.1) का कथन है: ' आत्मनि ब्रह्म ' अर्थात् ब्रह्म आत्मा में निवास करता है। दूसरे शब्दों में, आत्मा भी हृद् - देश में रहता है।
यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि हृद्-देश रक्त वाहक हृदय (Heart) नहीं है क्याेंकि यदि आत्मा हृदय में रहता है, Heart Transplant सम्भव नहीं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हृद् देश का अर्थ वक्षस्थल (Diaphragm) के नीचे गर्त (Pit) किया है। वे कहते हैं कि यही जीव का निवास - स्थान है ; यही त्रिपुरी -- ईश्वर, जीव, प्रकृति तीनों का निवास स्थान है। यहां ब्रह्म का निवास होने के कारण इसे ब्रह्मपुरी भी कहते हैं। यही गुहा है, यही अनाहत चक्र है।
अनुभव से सिद्ध है कि भय, लज्जा और आनन्द आदि भावों की अनुभूति भी इसी स्थान पर होती है क्योंकि भोक्ता आत्मा यहीं विराजमान है।
शारीरिक संरचना की दृष्टि से देखा जाए यह भाग शरीर के मध्य में स्थित है। यहां पर बैठा हुआ आत्मा, अपने आलोक से समस्त शरीर को अनुप्राणित करता है।
कितने आश्चार्य की बात है कि मानव-मात्र जीव के इस निवास-स्थान से सुपरिचित है ! किसी भी देश व संस्कृति से सम्बंधित पुरुष, जब अंहकारवश ‘‘मैं’’ का प्रयोग करता है - जैसे मैंने यह किया, मैं यह कर सकता हूं , उसकी अंगुलियां अनजाने में स्वतः इस हृद्देश (वक्षस्थल गर्त) की ओर इंगित करती हैं।
इतना ही नहीं, जब कोई व्यक्ति किसी पर आरोप लगाता है : " तुमने यह घिनौना कार्य किया है " उसकी सांकेतिक अंगुली (Index Finger), आरोपी के इसी हृद्देश की ओर संकेत करती है, सिर या शरीर के किसी अन्य भाग की ओर नहीं।
.....................
पादपाठ
1) Is it not just as possible that even when our brains are dead, the sphere of being that supplied the consciousness would still be intact, and, in that real world….the consciousness might, in ways unknown to us, continue still ?
— William James
( American Psychologist and Philosopher )
2) विविध संस्कृतियों में आत्मा के निवास-स्थान की अवधारणाएं निम्न पुस्तक से उद्धृत की गई हैं :
Search for the Soul
( Mysteries of the Unknown Series )
Time-Life Books, Alexandria, Virginia.
.........................
Its English version is available on our Page :
The Vedic Trinity
Soul
40 ) Where is Soul located in the Body ?
...................
योग एवं भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु , कृपया इस पोस्ट को शेयर करें।
......................
शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
..................
जीव
41) जीव और मोक्ष सिद्धान्त
पूर्वतः यह उल्लेख किया जा चुका है कि जीव बद्ध या मुक्त अवस्था में रहता है । बद्ध का अर्थ है, प्रकृति से संयुक्त रहना और जन्म - मृत्यु के बन्धन से बन्धे रहना और मुक्त का अर्थ है प्रकृति के बन्धन से मुक्त होकर , जन्म मृत्यु के बन्धन को तोड़ कर परमपिता की गोद में निवास करना।
इसके लिए, जीव को केवल अज्ञान या अविद्या के पर्दा को, जो उस पर पड़ा हुआ है, उठाने का उपक्रम करना है । उसे यह विवेकख्याति प्राप्त करनी है कि मैं प्रकृति से अलग एक सत्ता हूँ । मेरा सच्चा धाम परमानन्द परमेश्वर में वास करना है ।
अविद्या का नाश केवल चित्त की वृत्तियों का निरोध करने से अर्थात् ‘योग साधना’ से, ‘ईश्वर प्रणिधान’ से, निष्काम कर्म से सम्भव है ।
जब चित्त विवेक से भर जाता है, उसकी प्रवृत्ति (रुझान) कैवल्य की ओर हो जाती है: ‘‘तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्’’ (योगदर्शन 4.26) चित्त जो कि पहले देह में लगा हुआ (Body - Centric) था, बहिर्मुखी था, अब अन्तर्मुखी हो जाता है अर्थात् आत्मा के प्रति प्रवृत्त (Soul - Centric) हो जाता है ।
इस अवस्था में अब उससे स्वभावतः अच्छे कर्म ही होते हैं, बुरे कर्म हो ही नहीं सकते । चित्त में धंसी हुई वासनाएँ और संस्कार नष्ट हो जाते हैं जो कर्मों का और पुनर्जन्म का कारण होते हैं । अब यह कारण शुष्क हो गया है ।
जैसे रेल इंजन में चालक द्वारा इन्धन न डालने पर, उसकी गति रुक जाती है, वैसे ही संस्कारों और वासनाओं के दग्ध हो जाने पर तथा कर्मों के नष्ट हो जाने पर, जन्म-मृत्यु का चक्र थम जाता है । अब देहावसान के बाद जीव जन्म नहीं लेता और परमात्मा में वास करता है ।
इस अवस्था का वर्णन मुण्डक उपनिषद (2.2.8) ने इस प्रकार किया है :
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
अर्थात् कैवल्य की अवस्था में आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और परमात्मा के साक्षात् दर्शन करता है । अब उसके जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल जाती है ; उस के सारे संशय नष्ट हो जाते हैं ; सब कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है ।
आत्मा इस अवस्था में केवल परमात्मा में वास करता है। उस अवस्था में वह परम आनन्द का अनुभव करता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह केवल एक अनुभूति है । कुछ सिद्ध योगी इस परम आनन्द से आप्लावित होकर "अहं ब्रह्मास्मि " (बृहदारण्यक उपनिषद् : 1.4.10) अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा भी कह देते हैं । इस का अर्थ यह नहीं कि वे ब्रह्म हो गये । इसका अर्थ है: वे ब्रह्म-रूप हो गये, आनन्दमय हो गये, ज्ञानमय हो गये ।
इसी आशय का अथर्ववेद (11.82.32) का मन्त्रांश है :
" तस्माद्वै विद्वान पुरुषमिदं ब्रह्मेति मन्यते "।
अर्थात् ऐसे पुरुष को विद्वान ब्रह्म मान लेते हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का मत है कि मोक्ष अवस्था में आत्मा का परमात्मा में विलय नहीं हो जाता कि वह अपनी सत्ता ही खो बैठे । अगर जीव की सत्ता ही नष्ट हो जाए तो आनन्द का अनुभव कौन करेगा ?
मुण्डक उपनिषद के प्रमाण से वे कहते हैं कि मोक्ष की भी एक अवधि है । इस अवधि की समाप्ति पर जीव पुनः जन्म लेता है और यह अनादि-अनन्त संसार बना रहता है ।
सांख्य दर्शन (1.159) का कथन है : ‘‘इदानीमिवसर्वत्रनात्यन्तोच्छेदः’’
अर्थात् यह संसार इसीप्रकार सदा ही बना रहता है। (मोक्षावस्था से) संसार-चक्र का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता ।
क्योंकि मोक्षावस्था की सीमा कल्पनातीत है इसलिये ‘‘न निवर्तन्ते’’ वापस नहीं आते कहा गया है परन्तु मोक्षावस्था असीम नहीं है ।
महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवमसमुल्लास में मुण्डक उपनिषद् के वाक्य :
‘‘ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वेे’’ (मुण्डक 3.2.6) का अर्थ करते हुए लिखा है ‘‘वे मुक्त जीव मुक्ति में प्राप्त हो के ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्ति सुख को छोड़ के संसार में आते हैं । इसकी संख्या यह है कि तैंतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक चतुर्युगी, दो चतुर्युुगियों का एक अहोरात्र---ऐसे शत वर्षों का परान्तकाल होता है ।’’ इस गणना के अनुसार इकतीस नील दस शंख चालीस अरब वर्ष (Three hundred eleven trillion and forty billion years) मुक्तावस्था का होता है ।
इस विषय पर विस्तृत विवरण उपशीर्षक ‘‘मोक्ष’’ के अन्तर्गत किया जाएगा।
........................
पादपाठ
i) ख़ासाने ख़ुदा ख़ुदा न बाशंद।
लेकिन ज़े ख़ुदा जुदा न बाशंद।।
-- सूफ़ी शायर
ईश्वर के प्रिय ईश्वर नहीं बन जाते ;
लेकिन ईश्वर से अलग भी नहीं होते ।।
(सभी धर्मों की मूलभूत ऐक्यता :
--- भगवान दास, भारत रत्न )
( The favourites of God may not be God.
But neither are they separate from God. )
-- Sufi Writings
(Essential Unity of All Religions) :
Bhagwan Das, Bharat Ratna.
ii) The Mystic's final attainment is deification of Self in God," like a bright flaming piece of iron. Iron remains iron, fire remains fire, but penetrates iron, stripping of I-hood, me and mine."
-- Miss Underhill
"सिद्ध पुरुष की अन्तिम उपलब्धि है आत्मा का परमात्मा में एकीकृत होना जैसे अग्नियुक्त लोहा।
लोहा लोहा रहता है, अग्नि अग्नि; परन्तु लोहे में प्रवेश करके अहं- भाव, मुझे, मेरा- पन समाप्त हो जाता है।
-- मिस अन्डरहिल
....................
Its English version is available on our Page :
The Vedic Trinity
Soul
41) Soul and the Doctrine of Liberation.
.................
योग एवं भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु, कृपया इस पोस्ट को शेयर करें।
....................
शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
................
42) प्रकृति का स्वरूप
वैदिक विचारधारा के अनुसार प्रकृति सत् है, शाश्वत (Eternal) है परन्तु परिवर्तनशील है। विज्ञान का भी उद्घोष है : " Matter can neither be created nor be destroyed, it only changes its form. "
अर्थात् प्रकृति-तत्त्व न तो उत्पन्न किया जा सकता है, न ही इसे ध्वस्त किया जा सकता है, यह केवल अपना रूप बदलता है।
यह समस्त जगत् जिसमें कोई स्वतः गतिविधि (Activity) नहीं, प्रकृति (Nature) है। यह सब कुछ क्षण-क्षण परिवर्तित हो रहा है।
प्रकृति की तीन अवस्थाएँ हैं : प्र-कृति, विकृति और प्राकृत। ‘प्र-कृति’ का अर्थ है कृति से पूर्व अर्थात् सृष्टि रचना से पूर्व की स्थिति (Primordial Nature/ The Holy Grail)। इसे अव्यक्त प्रकृति या प्रधान (मुख्य स्रोत) भी कहते हैं। यह एक साम्यावस्था (State of Equilibrium) है।
सृष्टि रचना के समय इस साम्यावस्था में ' विकृति ' (Disturbance in Equilibrium) आती है । सृष्टि के सृजन और संहार की अवस्था को विकृति अवस्था कहते हैं ।
प्रकृति की तीसरी अवस्था सृष्टि है जिसे प्राकृत (Created World) भी कहते हैं । यइ दृश्य संसार प्रकृति की प्राकृत अथवा प्रकट अवस्था या सृष्टि है।
सृष्टि का अपनी कारण अवस्था/ मूल अवस्था ( Original State) में लय हो जाना (Dissolution) प्रलय है। सांख्य दर्शन (1.121) का कथन है : नाश: कारणलय: -- नाश का अर्थ है अपने कारण में विलीन हो जाना। अर्थात् कोई भी वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती।
ऐसा प्रतीत होता है जैसे विधाता ने सब कुछ त्रिकों ( तीन-तीन) में रचा हो : सर्वं त्रैराशिकं पाती।
प्रकृति का ताना-बाना तीन गुणों से बुना है । ये हैं : सत्त्व, रजस् और तमस् । योगदर्शन में सत्त्व को प्रकाश, रजस् को क्रिया और तमस् को स्थिति कह कर इनका अर्थ स्पष्ट किया गया है । तमस् प्रकाश का आवरण करता है और क्रिया में गतिरोध डालता है । सत्त्व बुद्धि/मन (Mind) है , रजस् गति (Motion) , तमस् स्थिति/ परमाणु (Matter) है। इन तीनों का खेल (Play : Permutations/ Combinations) ही समस्त दृश्य जगत् / सृष्टि है।
प्रकृति के तीन मुख है : काल, आकाश और प्राण (ऊर्जा)। काल के तीन रूप हैं : भूत, वर्तमान, भविष्यत् । आकाश की भी तीन दिशाएँ हैं -- लम्बाई, चौड़ाई और गहराई (Three Dimensional Space : Length, Breadth, Depth)। प्राण ऊर्जा का स्रोत है। ऊर्जा परमाणु (Matter) में परिवर्तित होकर तीन रूप धारण करती है -- वायु (Gas), तरल ( Liquid) और ठोस (Solid).
प्रकृति को क्षर, क्षेत्र, अव्यक्त, कारण ( उपादान कारण/ Material Cause) इत्यादि कई नामों से वर्णित किया गया है।
वेद, उपनिषद्, गीता और महाभारत में इसकी तुलना वृक्ष से की गई है। जैसे बीज से वृक्ष पैदा होता है, इसी प्रकार दृश्य जगत् रूपी वृक्ष , कारण प्रकृति (मूल प्रकृति/ Premordial Nature) से पैदा होता है।
क्योंकि यह परिवर्तनशील है, इसलिए इसे क्षर (Brittle/ Changeable) कहते हैं ।
जीव रूपी क्षेत्रज्ञ (किसान) अपने कर्मों के पौधे प्रकृति के माध्यम से उगाता है , एतदर्थ इसे क्षेत्र (खेत /Field) कहते हैं । जीव शरीर के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता और शरीर प्रकृतिजन्य है।
वायुपुराण (4.78) में प्रकृति के नामों का वर्णन इस प्रकार मिलता है :
अव्यक्तं कारणं यत्तु नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृति चैव यमाहुस्तत्त्वन्तिकाः ।।
अर्थात् सदसदात्मक, सत्-असत् रूपी, (शाश्वत होने से सत् और परिवर्तनशील होने से असत्) जो अव्यक्त कारण है, वह नित्य है, जिसे तत्त्वदर्शी प्रधान और प्रकृति भी कहते हैं ।
महाभारत में व्यक्त और अव्यक्त प्रकृति के विषय में कहा गया है :
व्यक्तं मृत्युमुखं विद्यादव्यक्तममृतं पदम् ।
-- महाभारत शान्तिपर्व 217.2
अर्थात् व्यक्तप्रकृति (दृश्य जगत्) को मृत्यु के मुख में (परिवर्तनशील) और अव्यक्त प्रकृति को अमृतपद (शाश्वत) जान ।
ऋग्वेद (1.89.10) में प्रकृति को अदिति कहा गया है :
अदितिर्द्यौरदितिरन्तक्षिमदितिर्माता स पिता स पुत्रः ।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।।
अर्थात् द्यौ (सूर्य आदि प्रकाशमय पदार्थ) अदिति (अविनाशी प्रकृति) हैं ; अन्तरिक्ष अदिति है ; अदिति माता है , वही पिता, वही पुत्र है (अर्थात् ये शरीररूपी तत्त्व प्रकृति हैं) ; सब देव (प्राकृतिक शक्तियाँ) अदिति हैं ; पाँच प्रकार के लोग अदिति हैं ; नवजात अदिति है ; जनन-प्रक्रिया अदिति (प्रकृति) है।
सांख्य-संग्रह में प्रकृति के नामों का संकलन इस प्रकार है : अव्यक्त, प्रकृति, माया, प्रधान, ब्रह्म, अक्षर, तम, पुष्प, क्षेत्र, क्षर, विद्या, अविद्या, ब्राह्मी, शक्ति, अजा, पर्याया (आवृत्ति वाली/ Cycle)। प्रकृति को त्रिगुणा ( तीन गुणों वाली) एवं स्वधा (स्वयं को धारण करने वाली) भी कहा जाता है।
......................
पादपाठ
1) सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।
-- सांख्य दर्शन (1.61)
( सत्त्व, रज, तम गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं।)
2) In reality , there is nothing, but atoms and space.
-- Democritus
( वास्तव में, परिमाणु और आकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है।)
-- डैमोक्रिटस
3) पांच जन / पांचजन्य =
मनुष्य पांच प्रकार के हैं :
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य , शूद्र और दस्यु अर्थात् असमाजिक तत्त्व - बलात्कारी, आतंकवादी, राक्षसी प्रवृत्ति के लोग।
..................
Its English version is available on our Page :
The Vedic Trinity
Prakriti (Nature)
42) What is Prakriti ?
......................
ईंश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार प्रसार हेतु, कृपया इस पोस्ट को शेयर करें।
........................
शुभकामनाएं
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
......................
43) प्रलयावस्था
( सृष्टि रचना से पूर्व क्या था ?)
सृष्टि-रचना से पूर्व प्रलयकाल था। उस समय क्या स्थिति थी इसका विशद वर्णन ऋग्वेद के " नासदीय सूक्त " ( मण्डल 10, सूक्त 129 मंत्र 1-7 ) में मिलता है :--
" नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं
नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नभ:
किमासीद् गहनं गभीरम् ।।
-- ऋग्वेद 10.129.1
अर्थात् उस समय ( सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व) न "असत्"/ अभाव (Non- existent) था और न ही "सत्"/ व्यक्त जगत (Existent/ Visible World) था। " रज:" गतिशील परमाणु भी नहीं थे; "व्योम"/आकाश ( Space) भी नहीं था क्योंकि उसमें कुछ रहने को नहीं था। "किं"/ कौन किस को ढकता है जब सबकुछ "कुह"/कोहरे के अन्धकार से ढका हो? तो फिर अथाह समुद्र का जल कहां रह सकता है ?
इस मंत्र की व्याख्या में कुछ विद्वानों का मत है कि उस समय कुछ भी नहीं था, जो कुछ अब है, वह अभाव से उत्पन्न हुआ। यह तर्क एवं सिद्धान्त के विरुद्ध है। गीता (2.16) का कथन है: " नासतो विद्यते भावो " अर्थात् असत् (अभाव ) से भाव (सत्ता) उत्पन्न नहीं हो सकती ( Nothing can ever become something).
उपरोक्त मंत्र में दो पद विचारणीय हैं : " न असत् आसीत्" अर्थात् अभाव नहीं था यानी ऐसा नहीं है कि अभाव ( कुछ नहीं) था। दूसरा, "कुह आवरीव:" अन्धकार से ढका हुआ "। जो कुछ था अन्धकार से ढका था। इसका यह अर्थ हुआ कि प्रकृति रूपी उपादान कारण सूक्ष्म, अदृश्य अवस्था में ईश्वर के गर्भ में था।
" न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि
न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेत:।
आनीदवातं स्वधया तदेकं
तस्माद्धान्यन्न पर: किं चनास ।।
-- ऋग्वेद 10.129.2
अर्थात् उस समय न मृत्यु थी , न ही अमृत /मोक्ष था; जब जगत् ही नहीं था, तब जन्म- मृत्यु, मोक्ष प्राप्ति निर्वाह सम्भव नहीं। दिन और रात के भी लक्षण नहीं थे। वह एक ( परमेश्वर) प्रकृति से (स्वधया) संयुक्त , बिना श्वास लिए ,स्फूर्तिमान था। उसके अतिरिक्त कोई और उसके समान या अधिक नहीं था।
तम आसीत्तमसा गढ्हमग्रेsप्रकेतं
सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितंयदासीत्
तपसन्तमहिनाजायतैकम् ।।
-- ऋग्वेद 10.129.3
सृष्टि-रचना से पूर्व यह समस्त जगत अन्धकार में ढका था, मूल प्रकृति ( Primordial Nature) में अप्रकट/ सूक्ष्म रूप में ( unmanifested) लीन था, आकाशवत् फैला हुआ था। उस एक (परमेश्वर) ने अपने तप के प्रभाव / संकल्प से, इस तुच्छ प्रकृति को सृष्टि रूप में प्रकट किया।
नासदीय सूक्त में ही सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी प्रश्न भी उठाया गया है और उसका उत्तर भी दिया गया है।
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत
कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।
आर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा
को वेद यत आबभूव ।।
-- ऋग्वेद 10.129.6
अर्थात् कौन वास्तविक रूप में जानता है और कौन निश्चयपूर्वक बता सकता है कि यह जगत कहां से आया और कहां यह विलुप्त हो जाएगा ?
दिव्यदृष्टि के लोग जो जानते हैं, वे सृष्टि रचना के बाद पैदा हुए;
अतः कौन जानता है इसकी उत्पत्ति कैसे हुई ?
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अद्द वेद यदि वा न वेद ।।
-ऋग्वेद 10-129-7
अर्थात् यह सृष्टि (दृश्य जगत्) जिससे उत्पन्न हुई है जो इसे धारण करता है और जो इसका विनाश करता है, जो इस ब्रह्माण्ड का अध्यक्ष है, वह आकाशवत् सर्वव्यापक ईश्वर है । हे मित्र ! जो ऐसा जानता है, वह जानता है; जो नहीं जानता, वह नहीं जानता । तात्पर्य यह कि उस ईश्वर को ही सृष्टि कर्ता, धर्ता और संहर्ता मानना चाहिए किसी अन्य को नहीं।
इस मंत्र में " यदि वा न वेद " का कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने अर्थ किया है "शायद वह भी नहीं जानता था।" इनका संस्कृत का ज्ञान भी " माशा अल्लाह " है। सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता को इसका ज्ञान नहीं था! जिस शिल्पकार ने भव्य भवन का निर्माण किया हो, उसके बारे में कहना कि शायद उसे उस भवन के डिज़ाइन के बारे में जानकारी नहीं थी, मूर्खता नहीं तो क्या है ?
वैज्ञानिकों ने सृष्टि उत्पत्ति और उससे पूर्व की स्थिति के बारे में तीन मत/ सिद्धान्त (Theories) प्रस्तुत की हैं। पहली है स्टीफन हॉकिंग की बिग बैंग थ्योरी / महा विस्फोटक सिद्धान्त है। वर्तमान जगत् एक महाविस्फोट से उत्पन्न हुआ। कालान्तर मे सिकुड़ कर के एक गोला सा रह जाएगा जिसका कालान्तर में विस्फोट होगा और जगत की उत्पत्ति होगी।
नोबल- पुरस्कृत पीटर पैनरोज़ ने बिगबैंग सिद्धान्त को निरस्त करते हुए कहा है : "बिग बैंग से पहले भी कुछ था और आगे भी रहेगा। छोटे- छोटे अंथ कूप ( Black Holes) रहे होंगे जो हॉकिंग क्षीणत्व सिद्धान्त से क्षीण होते गए ; वे आकाश में " हॉकिंग पिण्ड " उत्पन्न करेंगे। हमें दिखाई दे रहे हैं। वे आकार में चांद से आठ गुणा हैं और कुछ ऊष्ण हैं।
तीसरी थ्योरी एम-थ्योरी (M- theory) है। स्टीफन हॉकिंग कहते हैं: " की वृहद् ब्रह्माण्ड शून्य ( Nothing) से उत्पन्न हुए । उनकी उत्पत्ति में किसी परा प्राकृतिक शक्ति या ईश्वर की अपेक्षा नहीं है।
( द ग्रैंड डिज़ाइन पृष्ठ 8 : स्टीफन हॉकिंग)
वैज्ञानिकों के सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त केवल सूचनार्थ दिए गये हैं इस टिप्पणी के साथ कि उनके विचार वेद से मतभेद रखते हैं। वैदिक विचारधारा के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता है और प्रकृति इसका उपादान कारण (Material Cause) है जो सूक्ष्म ,अदृश्य , साम्यावस्था में था।
यजुर्वेद (13.4) का मंत्र इस अवस्था का स्पष्टतः वर्णन करता है :
हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे
भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां
कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।
जिसके गर्भ में सूर्य - चन्द्रमा आदि प्रकाशमान पदार्थ विद्यमान हैं , जो उत्पन्न हुए सभी पदार्थों का स्वामी है, सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व ( समवर्तत अग्रे) विद्यमान था। वह पृथ्वी, सूर्य आदि को धारण किए हुए है। उस सुख स्वरूप प्रजापति परमेश्वर की भक्ति किया करें।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने " कस्मै देवाय हविषा विधेम" का अर्थ "किस देवता की भक्ति करें" किया है। 'क' अक्षर कौन तथा प्रजापति के लिए प्रयुक्त होता है। शतपथ ब्राह्मण का वचन है : " क: वै प्रजापति:" । जब प्रकरण सृष्टि उत्पत्ति का है, यहां प्रश्न करना "किस देवता की भक्ति करें?" हास्यास्पद लगता है।
.................
पादपाठ
वैज्ञानिक सिद्धान्तों सम्बन्धी मूल उद्धरण इस पोस्ट के आंग्ल भाषान्तर में देखें।
................
ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार-प्रसार हेतु ,
कृपया इस पोस्ट को शेयर करें।
................
शुभ कामनाएँ
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
................
Comments
Post a Comment