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84 लाख योनि की सँख्या

84 लाख योनि का रहस्य

84 लाख योनियां और उनकी गणना

क्या आप जानते हैं कि….. हमारे हिन्दू सनातन धर्मग्रंथों में उल्लेखित 84 लाख योनि … का रहस्य क्या है

हिन्दू सनातन धर्मग्रंथों में उल्लेखित 84 योनि को लेकर काफी भ्रम की स्थिति बनी हुई है। वास्तव में 84 योनियां विशुद्ध रूप से जीव विज्ञान एवं उसके क्रमिक विकास के रूप में उल्लेखित है।
पुराग्रंथों में बताया गया है कि सृष्टि में जीवन का विकास एक सटीक एवं क्रमिक रूप से हुआ है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इसी की अभिव्यक्ति हमारे अनेक ग्रंथों में हुई है।

श्रीमद्भागवत पुराण में इस बात के इस प्रकार वर्णन आता है-
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ 
(11 -9 -28 श्रीमद्भागवतपुराण)

अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और, इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ परन्तु , उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई। अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था।

भारतीय परम्परा में जीवन के प्रारंभ से मानव तक की यात्रा में जीव ने 84 लाख योनियों में तथा अंत में मानव जीव उत्पन्न हुआ है। अर्थात पृथ्वी पर जीवन एक अति सूक्ष्म एवं सरल रूप से विकसित होता हुआ, धीरे धीरे जटिल होता गया और, 83,99,999 योनियों ( चरणों )  के विकास के बाद ही मानव जैसे बुद्धिमान प्राणी का विकास संभव हो पाया, और यह बुद्धिमान प्राणी अंतिम और सर्व विकसित है।

आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि अमीबा से लेकर मानव तक की विकास यात्रा में चेतना (आत्मा /जीव) लगभग 1 करोड़ 04 लाख योनियों से गुजरी है।

हमारे धर्मग्रंथों और आधुनिक विज्ञान में ये गिनती का थोडा अंतर इसीलिए हो सकता है कि जिंदगी हमारे पुराण कथा में एक योनि माना है उसे आधुनिक विज्ञान में योनि या मान लिया हो। 

हमारे पुरा ग्रन्थ लाखों वर्ष पूर्व लिखे गए हैं और, लाखों वर्ष क्रमिक विकास से गुजरे संतो के अनुभव है। जो ग़लत नहीं हो हो सकती। मैं आज के मानव की गणना की गलती मान सकता हूं लेकिन परमाणु से लेकर परार्ध तक की गणना में कोई गलती नहीं हुई तो योनियों की गणना में उनसे गलती होगी, ऐसा सोच भी नहीं सकता।

आज से हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने या अनेक आचार्यों ने इन 84 लाख योनियों का वर्गीकरण किया है। हमारे धर्म ग्रंथों ने इन 84 लाख योनियों का सटीक वर्गीकरण किया है। 

प्रथम प्रकार का वर्गीकरण
इस वर्गीकरण में समस्त प्राणियों को दो भागों में बांटा गया है, (1) योनिज तथा (2) आयोनिज।

(1) योनिज – दो जीवों अर्थात नर और मादा के संयोग से मादा के गर्भ में उत्पन्न प्राणी जो जन्म के समय मादा योनि से जन्मे जीव योनिज कहलाते हैं। 

(2) आयोनिज – सूक्ष्म जीव जैसे अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होने वाले प्राणी आयोनिज कहलाते हैं।

दूसरे अ प्रकार का वर्गीकरण
इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को तीन भागों में बांटा गया:-

1. जलचर – जल में रहने वाले सभी प्राणी।

2. थलचर – पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।

3. नभचर – आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।

तृतीय प्रकार का वर्गीकरण
इसके अतिरिक्त भी प्राणियों की उत्पत्ति के आधार पर 84 लाख योनियों को इन चार प्रकार में वर्गीकृत किया गया……

1. जरायुज – माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।

2. अण्डज – अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाये।

3. स्वदेज- मल, मूत्र, पसीना आदि से उत्पन्न क्षुद्र जन्तु स्वेदज कहलाते हैं।

4. उदि्भज- पृथ्वी से उत्पन्न प्राणियों को उदि्भज वर्ग में शामिल किया गया।

चतुर्थ प्रकार का वर्गीकरण
शरीर रचना के आधार पर भी प्राणियों वर्गीकरण हुआ…..।

इसका उल्लेख विभिन्न आचार्यों के वर्गीकरण के सहारे ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प‘ ग्रंथ में किया गया है।
जिसके अनुसार

(1) एक शफ (एक खुर वाले पशु) – खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।

(2) द्विशफ (दो खुल वाले पशु)- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।

(3) पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु- सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृगाल आदि।

पंचम प्रकार का वर्गीकरण
सिर्फ इतना ही नहीं…..
पदम् पुराण में हमें एक श्लोक मिलता है
जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यकः पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशवः, चतुर लक्षाणी मानवः – (78 :5 पदम् पुराण)
अर्थात 
जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख मानवीय नस्ल के। कुल 84 लाख।

आप इसे इस तरह समझें
1. जलज या जलीय जीव या जलचर (Aquatic animals or water based life forms) 
                                        9 लाख (0.9 million)

2. स्थावर अर्थात पेड़ पोधे (Immobile implying plants and trees)  
                                        20 लाख (2.0 million)

3. सरीसृप/कृमी/कीड़े-मकोड़े (Reptiles) 
                                       11 लाख (1.1 million)

4. पक्षी/नभचर (Birds) 
                                      10 लाख 1.0 मिलियन

5. स्थलीय/थलचर (terrestrial animals) 
                                       30 लाख (3.0 million)

6. शेष मानवीय नस्ल के
                                       4 लाख (0.4 million)

कुल संख्या।                      = 84 लाख ।

इस प्रकार हमारे एक पुराग्रंथिय श्लोक में न केवल पृथ्वी पर उपस्थित प्रजातियों की संख्या मिलती है वरन उनका वर्गीकरण भी मिलता है ।

अब आपको बिल्कुल स्पष्ट हो गया होगा कि हमारे ग्रंथों में वर्णित जानकारियाँ हमारे पुरखों के हजारों-लाखों वर्षों की खोज है। 

राम राम है भोर की, राम रखेंगे खैर।
अपनी सबसे मित्रता, नहीं किसी से बैर।।
सारे साथी काम के, सबका अपना मोल।
जो संकट में साथ दे, वो सबसे अनमोल।
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मनुष्य जन्म कब मिलता है : 
एक प्रचलित मान्यता के अनुसार एक आत्मा को कर्मगति अनुसार 30 लाख बार वृक्ष योनि में जन्म होता है। उसके बाद जलचर प्राणियों के रूप में 9 लाख बार जन्म होता है। उसके बाद कृमि योनि में 10 लाख बार जन्म होता है। और फिर 11 लाख बार पक्षी योनि में जन्म होता है।
 
उसके बाद 20 लाख बार पशु योनि में जन्म लेना होता है अंत में कर्मानुसार गौ का शरीर प्राप्त करके आत्मा मनुष्य योनि प्राप्त करता है और तब 4 लाख बार मानव योनि में जन्म लेने के बाद पितृ या देव योनि प्राप्त होती है। 

यह सभी कर्मानुसार चलता है। मनुष्य योनि में आकर नीच कर्म करने वाला पुन: नीचे की योनियों में सफर करने लग जाता है अर्थात उल्टेक्रम में गति करता है जिसे ही दुर्गति कहा गया है।
 
मनुष्य का पतन कैसे होता है: 
कठोपनिषद अध्याय 2 वल्ली 2 के 7वें मंत्र में यमराजजी कहते हैं कि अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शास्त्र, गुरु, संग, शिक्षा, व्यवसाय आदि के द्वारा सुने हुए भावों के अनुसार मरने के पश्चात कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का और जिनके पुण्य कम तथा पाप अधिक होते हैं, वे पशु-पक्षी का शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्यधिक होते हैं, स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्ष, लता, तृण आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं। 
 
अंतिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस जीव के जीन्स से मिल जाते हैं, उसी ओर ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आता है।



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क्या सचमुच 84 लाख योनियों में भटकना होता है?


अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
चित्र : सारंग क्षीरसागर
हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाता है। अब सवाल कई उठते हैं। पहला यह कि ये योनियां क्या होती हैं? दूसरा यह कि जैसे कोई बीज आम का है तो वह मरने के बाद भी तो आम का ही बीज बनता है तो फिर मनुष्य को भी मरने के बाद मनुष्य ही बनना चाहिए। पशु को मरने के बाद पशु ही बनना चाहिए। क्या मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेतीं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि 84 लाख की धारणा महज एक मिथक-भर है? तीसरा सवाल यह कि क्या सचमुच ही एक आत्मा या जीवात्मा को 84 लाख योनियों में भटकने के बाद ही मनुष्य जन्म मिलता है? आओ इनके उत्तर जानें...
 
पहला सवाल- योनियां क्या हैं?
जैसा कि सभी को पता है कि मादा के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है, उसे हम योनि कहते हैं। इस तरह पशु योनि, पक्षी योनि, कीट योनि, सर्प योनि, मनुष्य योनि आदि। उक्त योनियों में कई प्रकार के उप-प्रकार भी होते हैं। योनियां जरूरी नहीं कि 84 लाख ही हों। वक्त से साथ अन्य तरह के जीव-जंतु भी उत्पन्न हुए हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में लगभग 1 करोड़ 04 लाख योनियां मानी गई हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक राबर्ट एम मे के अनुसार दुनिया में 87 लाख प्रजातियां हैं। उनका अनुमान है कि कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, पौधा-पादप, जलचर-थलचर सब मिलाकर जीव की 87 लाख प्रजातियां हैं। गिनती का थोड़ा-बहुत अंतर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व ऋषि-मुनियों ने बगैर किसी साधन और आधुनिक तकनीक के यह जान लिया था कि योनियां 84 लाख के लगभग हैं।
 
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क्रम विकास का सिद्धांत : गर्भविज्ञान के अनुसार क्रम विकास को देखने पर मनुष्य जीव सबसे पहले एक बिंदु रूप होता है, जैसे कि समुद्र के एककोशीय जीव। वही एकको‍शीय जीव बाद में बहुकोशीय जीवों में परिवर्तित होकर क्रम विकास के तहत मनुष्य शरीर धारण करते हैं। स्त्री के गर्भावस्था का अध्ययन करने वालों के अनुसार जंतुरूप जीव ही स्वेदज, जरायुज, अंडज और उद्भीज जीवों में परिवर्तित होकर मनुष्य रूप धारण करते हैं। मनुष्य योनि में सामान्यत: जीव 9 माह और 9 दिनों के विकास के बाद जन्म लेने वाला बालक गर्भावस्था में उन सभी शरीर के आकार को धारण करता है, जो इस सृष्टि में पाए जाते हैं।
 
गर्भ में बालक बिंदु रूप से शुरू होकर अंत में मनुष्य का बालक बन जाता है अर्थात वह 83 प्रकार से खुद को बदलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो पहले वह पीठ के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठवंशीय जंतु की तरह। बाद में वह छाती के बल सोता है, फिर वह अपनी गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है, जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है, फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता है। अंत में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है। भय, आक्रामकता, चिल्लाना, अपने नाखूनों से खरोंचना, ईर्ष्या, क्रोध, रोना, चीखना आदि क्रियाएं सभी पशुओं की हैं, जो मनुष्य में स्वत: ही विद्यमान रहती हैं। यह सब उसे क्रम विकास में प्राप्त होता है। 
 
हिन्दू धर्मानुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार..
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ (11 -9 -28 श्रीमद्भागवतपुराण)
 
अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परंतु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था।
 
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योग के 84 आसन : योग के 84 आसन भी इसी क्रम विकास से ही प्रेरित हैं। एक बच्चा वह सभी आसन करता रहता है, जो कि योग में बताए जाते हैं। उक्त आसन करने रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता। वृक्षासन से लेकर वृश्चिक आसन तक कई पशुवत आसन हैं। मत्स्यासन, सर्पासन, बकासन, कुर्मासन, वृश्चिक, वृक्षासन, ताड़ासन आदि अधिकतर पशुवत आसन ही है।

 
अगले पन्ने पर दूसरा सवाल... जैसे कोई बीज आम का है तो वह मरने के बाद भी तो आम का ही बीज बनता है तो फिर मनुष्य को भी मरने के बाद मनुष्य ही बनना चाहिए। पशु को मरने के बाद पशु ही बनना चाहिए। क्या मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेतीं? 

प्रश्न : मनुष्य मरने के बाद मनुष्य और पशु मरने के बाद पशु ही बनता है?
उत्तर : क्रम विकास के हिन्दू और वैज्ञानिक सिद्धांत से हमें बहुत-कुछ सीखने को मिलता है, लेकिन हिन्दू धर्मानुसार जीवन एक चक्र है। इस चक्र से निकलने को ही 'मोक्ष' कहते हैं। माना जाता है कि जो ऊपर उठता है, एक दिन उसे नीचे भी गिरना है, लेकिन यह तय करना है उक्त आत्मा की योग्यता और उसके जीवट संघर्ष पर।

यदि यह मान लिया जाए कि कोई पशु आत्मा पशु ही बनती है और मनुष्य आत्मा मनुष्य तो फिर तो कोई पशु आत्मा कभी मनुष्य बन ही नहीं सकती। किसी कीड़े की आत्मा कभी पशु बन ही नहीं सकती। ऐसा मानने से बुद्ध की जातक कथाएं अर्थात उनके पिछले जन्म की कहानियों को फिर झूठ मान लिया जाएगा। इसी तरह ऐसे कई ऋषि-मुनि हुए हैं जिन्होंने अपने कई जन्मों पूर्व हाथी-घोड़े या हंस के होने का वृत्तांत सुनाया। ...तो यदि यह कोई कहता है कि मनुष्यात्माएं मनुष्य और पशु-पक्षी की आत्माएं पशु या पक्षी ही बनती हैं, वे सैद्धांतिक रूप से गलत हैं। हो सकता है कि उन्हें धर्म की ज्यादा जानकारी न हो।
 
दरअसल, उक्त प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए हमें कर्म-भाव, सुख-दुख और विचारों पर आधारित गतियों को समझना होगा। सामान्य तौर पर 3 तरह की गतियां होती हैं- 1. उर्ध्व गति, 2. स्थिर गति और 3. अधो गति। प्रत्येक जीव की ये 3 तरह की गतियां होती हैं। यदि कोई मनुष्यात्मा मरकर उर्ध्व गति को प्राप्त होती है तो वह देवलोक को गमन करती है। स्थिर गति का अर्थ है कि वह फिर से मनुष्य बनकर वह सब कार्य फिर से करेगा, जो कि वह कर चुका है। अधोगति का अर्थ है कि अब वह संभवत: मनुष्य योनि से नीचे गिरकर किसी पशु योनि में जाएगा या यदि उसकी गिरावट और भी अधिक है तो वह उससे भी नीचे की योनि में जा सकता है अर्थात नीचे गिरने के बाद कहां जाकर वह अटकेगा, कुछ कह नहीं सकते। 'आसमान से गिरे और लटके खजूर पर आकर' ऐसा भी उसके साथ हो सकता है। ...इसीलिए कहते हैं कि मनुष्य योनि बड़ी दुर्लभ है और इसे जरा संभालकर ही रखें। कम से कम स्थिर गति में रहें।
 

प्रश्न : क्या सचमुच 84 लाख योनियों में भटकना होता है?
उत्तर : ऊपर हमने एक प्रश्न कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य और पशु मरने के बाद पशु ही बनता है? का उत्तर दिया था। उसके उत्तर में ही उपरोक्त प्रश्न का आधा जवाब मिल ही गया होगा। इससे पूर्व क्रम विकास में भी इसका जवाब छिपा है। दरअसल, पहले गतियों को अच्छे से समझें फिर समझ में आएगा कि हमारे कर्म, भाव और विचार को क्यों उत्तम और सकारात्मक रखना चाहि

क्रम विकास 2 तरह का होता है- एक चेतना (आत्मा) का विकास, दूसरा भौतिक जीव का विकास। दूसरे को पहले समझें। यह जगत आकार-प्रकार का है। अमीबा से विकसित होकर मनुष्य तक का सफर ही भौतिक जीव विकास है। इस भौतिक शरीर में जो आत्मा निवास करती है। 
 
प्रत्येक जीव की मरने के बाद कुछ गतियां होती हैं, जो कि उसके घटना, कर्म, भाव और विचार पर आधारित होती हैं। मरने के बाद आत्मा की 3 तरह की गतियां होती हैं- 1. उर्ध्व गति, 2. स्थिर गति और 3. अधो गति। इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है। वेदों, उपनिषदों और गीता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की 8 तरह की गतियां मानी गई हैं। ये गतियां ही आत्मा की दशा या दिशा तय करती हैं। इन 8 तरह की गतियों को मूलत: 2 भागों में बांटा गया है- 1. अगति, 2. गति। अधो गति में गिरना अर्थात फिर से कोई पशु या पक्षी की योनि में चला जाना, जो कि एक चक्र में फंसने जैसा है।
 
1. अगति : अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है और उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।
2. गति : गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है।
* अगति के प्रकार : अगति के 4 प्रकार हैं- 1. क्षिणोदर्क, 2. भूमोदर्क, 3. अगति और 4. दुर्गति।
 
1. क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्युलोक में आता है और संतों-सा जीवन जीता है।
2. भूमोदर्क : भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।
3. अगति : अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

4. दुर्गति : गति में वह कीट-कीड़ों जैसा जीवन पाता है।
 
* गति के प्रकार : गति के अंतर्गत 4 लोक दिए गए हैं: 1. ब्रह्मलोक, 2. देवलोक, 3. पितृलोक और 4. नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।
 
पुराणों के अनुसार आत्मा 3 मार्गों के द्वारा उर्ध्व या अधोलोक की यात्रा करती है। ये 3 मार्ग हैं- 1. अर्चि मार्ग, 2. धूम मार्ग और 3. उत्पत्ति-विनाश मार्ग।
 
1. अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक : अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए है।
2. धूममार्ग पितृलोक : धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है। सूर्य की किरणों में एक 'अमा' नाम की किरण होती है जिसके माध्यम से पितृगण पितृ पक्ष में आते-जाते हैं।
3. उत्पत्ति-विनाश मार्ग : उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। यह यात्रा बुरे सपनों की तरह होती है।
 
जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्यागकर उत्तर कार्यों के बाद यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे उपरोक्त 3 मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए प्राप्त हो जाता है।
 
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुन:।। -गीता
 
भावार्थ : क्योंकि जगत के ये 2 प्रकार के शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।) जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परम गति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी) फिर वापस आता है अर्थात‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।।26।।
 
कठोपनिषद अध्याय 2 वल्ली 2 के 7वें मंत्र में यमराजजी कहते हैं कि अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शास्त्र, गुरु, संग, शिक्षा, व्यवसाय आदि के द्वारा सुने हुए भावों के अनुसार मरने के पश्चात कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का और जिनके पुण्य कम तथा पाप अधिक होते हैं, वे पशु-पक्षी का शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्यधिक होते हैं, स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्ष, लता, तृण आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं। 
 
अंतिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस जीव के जीन्स से मिल जाते हैं, उसी ओर ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आता है।

 
'पूर्व योनि तहस्त्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया।
आहारा विविधा मुक्ता: पीता नानाविधा:। स्तना...।
स्मरति जन्म मरणानि न च कर्म शुभाशुभं विन्दति।।' -गर्भोपनिषद्
 
अर्थात उस समय गर्भस्थ प्राणी सोचता है कि अपने हजारों पहले जन्मों को देखा और उनमें विभिन्न प्रकार के भोजन किए, विभिन्न योनियों के स्तनपान किए तथा अब जब गर्भ से बाहर निकलूंगा, तब ईश्वर का आश्रय लूंगा। इस प्रकार विचार करता हुआ प्राणी बड़े कष्ट से जन्म लेता है, पर माया का स्पर्श होते ही वह गर्भज्ञान भूल जाता है। शुभ-अशुभ कर्म लोप हो जाते हैं। मनुष्य फिर मनमानी करने लगता है और इस सुरदुर्लभ शरीर के सौभाग्य को गंवा देता है।
 
विकासवाद के सिद्धांत के समर्थकों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक हीकल्स के सिद्धांत 'आंटोजेनी रिपीट्स फायलोजेनी' के अनुसार चेतना गर्भ में एक बीज कोष में आने से लेकर पूरा बालक बनने तक सृष्टि में या विकासवाद के अंतर्गत जितनी योनियां आती हैं, उन सबकी पुनरावृत्ति होती है। प्रति 3 सेकंड से कुछ कम के बाद भ्रूण की आकृति बदल जाती है। स्त्री के प्रजनन कोष में प्रविष्ट होने के बाद पुरुष का बीज कोष 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16, 16 से 32, 32 से 34 कोषों में विभाजित होकर शरीर बनता है।
 
मानव योनि को चौरासी लाख योनियों में सबसे उत्तम माना जाता है। इस लिए मनुष्य योनि प्राप्त करके इंसान को शुभ कर्म करने चाहिए। मनुष्य को अशुभ कर्मों से मुख मोड लेना चाहिए। चौरासी लाख योनियों को भोगने के बाद व्यक्ति को मानव शरीर प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को इस योनि में अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि उसका जीवन सफल हो सके।

(संदर्भ : गीता, पुराण और प्रसिद्ध मासिक पत्रिका 'अखंड ज्योति' गायत्री परिवार के अंकों से साभार...।)





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84 लाख योनियों का रहस्य क्या है? PART 1

अगर आप हिन्दू नहीं भी है तो भी किसी ना किसी के मुख़ से सुना तो अवश्य होगा कि 84 लाख योनियां होती है। तो क्या यह सत्य है? हिन्दू पौराणिक शास्त्र में, धर्मग्रंथों में, वेदों में और अन्य कई उपनिषद् में भी बताया गया है कि 84 लाख योनियां होती है। यह बात लाखो साल पहले अपने ऋषिओ ने कही थी। और यह सत्य भी है क्योंकि विज्ञान ने भी कई योनियां गीनी तो पता चला है कि करीब करीब उतनी ही योनियां है। याने कि उतनी ही प्रजातियां है। जो अपने ऋषि मुनि पहले लाखों साल पहले बता कर गए वह आज का विज्ञान वहीं तथ्य बता रहा है। पर क्या यह रहस्य क्या है? तो उसके लिए पहले आपको एक वीडियो देखना पड़ेगा जो नीचे दिया हुआ है।

यह वीडियो देखने के बाद आपके मन से सारे प्रश्न के उत्तर मील गए होंगे। फिर भी कई ऐसे प्रश्न होंगे जैसे क्यों यह योनियां बनाई है कुदरत ने? कैसे मैनेज करती है कुदरत यह सब। तो आयिए आज उसी के बारे में बात करते है।

यहां पर दिए गए सारे विचार मेरे खुद के है, किसी भी जीवित या मृतक से कोई भी संबंध नहीं है अगर होता भी है तो केवल आकस्मिक होगा अन्यथा कोई भी इरादा नहीं है।

जैसे हम अपने घर में कोई त्योहार या कोई विवाह संबंधी प्रसंग होता है तो बहुत पहले से उसी की तैयारी चलती रहती है। समझ लो एक साल पहले से तैयारी चलती है और फिर भी विवाह आने पर कोई ना कोई चीज तो छूट ही जाती है। ऐसा नहीं है कुदरत यह सारा मैनेजमेंट करने के लिए पहले से तैयारी नहीं करती है। वह भी बहुत बहुत पहले से तैयारी कर लेती है अन्यथा इतना प्रभावी मैनेजमेंट संभव कैसे हो पाता जहां पर एक चूक भी ना हो? जैसे बड़े जीव बनाने से पहले उन्होंने पहले छोटे जीव की उत्पति की, ताकि बड़े जीव उन्हें खा कर जीवित रह पाए। उनसे भी बड़े जीव की उत्पति यूआई हिसाब से कि की उनसे जीव को मार कर कहा सके। जो शाकाहारी जीव थे उनके लिए पहले से ही कुदरत ने पैद पौधों की रचना एवं जन्म से दिया था। ताकि उन्हें भी कोई कष्ट ना हो पाए।

यह सब समझने के लिए हमें श्रृष्टि के आरंभ तक जाना पड़ेगा। तो चलिए शुरू करते है ऐसा सफ़र जो आपके होश उड़ा देगा। यह सत्य जानने के बाद आप भी अचंभित हो जाओगे। आश्चर्य से भर जाओगे यह मेरा दावा है। इतना शक्तिशाली और एक चूक किए बिना ऐसा कार्यप्रणाली केवल और केवल कुदरत ही कर सकती है। कुदरत क्या है पहले यह जानना बहुत जरूरी है। यह समझने कि भूल कभी ना करना की कुदरत माने ईश्वर! कुदरत अलग है जो हमारी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होती जब कि ईश्वर तो हमेशा ओझल ही रहते है। तो पहले यह जान लेते है कि कुदरत है क्या!

जब पूरा ब्रह्माण्ड भी नहीं बना था तब की बात है। एक मात्र केवल एक प्रकाश बिंदु और ध्वनि  के रूप में दिखाई और सुनाई पड़ता था। तब उसका विभाजन हुआ 2 भागों में। जो पुरुष और प्रकृति बने। यही चीज आज का विज्ञान भी कहता है कि पहले एक प्रकाश बिंदु याने एक अंडा था जिसमें बहुत सारा गुरुत्वाकर्षण पैदा हुआ और इतना शक्तिशाली हो गया की वह अंडे में संभल नहीं पाया और उसके 2 टुकड़े हो गए। याने उसी में से एक आण्विक रचना हुई और दूसरी डार्क मैटर की। वहीं दो आज है हम उसी को अर्थात अपने पुराणों में वहीं चीज पुरुष और प्रकृति कहीं गई है। उस पुरुष और प्रकृति में फिर से विस्फोट हुआ और परमाणु जो आण्विक पदार्थ में से निकला और प्रकृति में से आठ महाभूतो का अस्तित्व बाहर आया। आठ महाभूत मतलब; घन पदार्थ जो हम पृथ्वी बोलते है, अग्नि, जल, वायु, आकाश, महत्त, मूल और परम यह सब तत्वों का जन्म हुआ। उसी प्रकृति में से पैदा हुए यही सब तत्वों से यह ब्रह्माण्ड बना। और यही ब्रह्माण्ड से आकाशगंगा बनी जो खर्वो में है। ऐसे तो बहुत सारे ब्रह्माण्ड भी बने है। उसी ब्रह्माण्ड के छोटे से हिस्से में एक अपनी आकाशगंगा और उसी आकाशगंगा के एक छोटे से कोने में अपनी सूर्य माला बनी, उसी के एक छोटे से कोने में पृथ्वी बनी जहां पर जीवन संभव हुआ। ऐसा नहीं है दूसरी अन्य कोई ग्रहों पर श्रृष्टि नहीं है! जरूर है। अपने ही आकाशगंगा में ऐसे 7 लोक नीचे और 7 लोक उपर बताए गए है जो तल, अटल, विटल, रसातल, नरक, भूतल और पाताल, और ऊपर की और ॐ, भूर्व, भू, स्वह, इन्द्र, ब्रह्म और ध्रुव लोक। ऐसे 14 भुवन के बारे में बताया गया है। यह वहीं सब है जहां पर दूसरे जन्म में शरीर मिलता है। यह ऋषि मुनि जानते थे पर किसी को अगर समझाना हो तो अत्यंत दुर्लभ कार्य था इसीलिए उन्होंने सभी देवी देवताओं के नाम से उनको समझाने का प्रयास किया। क्योंकि ध्यान के अलावा यह चीज की सत्यता को प्रमाणित की नहीं जा सकती है। तो उन्होंने अपनी बुद्धि का उपयोग कर के भगवान बना कर प्रस्तुत किया ताकि लोग समझे इस बात को और जो ध्यान की गहराई में प्रवेश करते है उन्हें तो सब पता लग ही जाता है।

तो इस तरह पुरुष एवं प्रकृति बनी या यह कहो दोनों अलग हुए। जैसे शिवपुराण में भी यह बात आती है कि पुरुष और प्रकृति दो हिस्सो में श्रृष्टि की रचना के लिए विभाजित हुए और शिव और पार्वती बने। यही शिव जैसे बने वैसे ही ब्रह्मा और विष्णु बने और प्रकृति विभाजित हो कर फिर से सरस्वती और लक्ष्मी बनी। अब जरा सोचो, शिव यानी आण्विक क्रिया तो उनसे विभाजित होने से आण्विक चीज ही बन सकती है कोई स्थूल चीज नहीं इसीलिए ब्रह्मा एवम् विष्णु बने जो स्थूल नहीं है जैसे शिव है निराकार और निर्गुण वैसे ही विष्णु और ब्रह्मा है। जब की प्रकृति में से सरस्वती यानी ज्ञान, और लक्ष्मी यानी दौलत यह दोनों स्थूल है क्योंकि प्रकृति स्वयं स्थूल है।

बस तो आज इतना ही, बाकी का रहस्य दूसरे भाग में जानेंगे। यह लेख कैसा लगा यह नीचे कॉमेंट बॉक्स में जरूर बताए। कोई प्रश्न हो तो अवश्य पूछे।

धन्यवाद्।

दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करे।

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5 THOUGHTS ON “84 लाख योनियों का रहस्य क्या है? PART 1”

  1. बहुत ही उत्तम लेख काफी विस्तृत से प्रस्तुत किया गया है काफी रोचक भी

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  2. बहुत बढियां लेख, कृपया ऐसे आध्यात्मिक लेखों की मालिका जारी रखें ।

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  3. मुझे आपसे उस विशेष ध्यान की विधि जाननी है जिससे आपने यह जानकारी प्राप्त की है। ध्यान द्वारा ईश्वर दर्शन की अभिलाषी हूँ कृपया ध्यान की सही और सम्पूर्ण विधि बताने की कृपा करें। हमेशा आभारी रहूंगी आपकी। मेरा मेल आई डी है dsuccess31@gmail.com
    धन्यवाद !

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84 लाख योनियों का रहस्य क्या है भाग 2

पिछले लेख में हमने पुरुष और प्रकृति के विभाजन हुआ यह बात की थी। अब उससे हम आगे बढ़ते है। यह मेरा दावा है कि यह सत्य आपको कहीं कर भी जानने को नहीं मिलेगा। ना कोई किताबो में, ना ही कोई अन्य के मुख से क्योंकि यह सत्य तभी उजागर हो सकता है और वही व्यक्ति बता सकता है जो ध्यान के माध्यम से जाने। यहां पर दिए गए विचार खुद मेरे स्वयं के अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किए गए है। इसीलिए यह सत्यता कि धरी पर ठहर सकता है। आप भी यही चीज खुद जान सकते है अगर ध्यान की गहराइयों में उतरोगे। यहां पर दिए मेरे विचारो से किसी भी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का कोई इरादा नहीं है अपितु सच्चाई को समझाना मेरा लक्ष्य है।

पुरुष एवं प्रकृति के 3 और 3 ऐसे विभाजन हुए जो पुरुष से विभाजित हुआ वह ब्रह्मा, विष्णु और महेश याने शिव का अस्तित्व बाहर आया। जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखे तो आण्विक विभाजन हुआ तो आण्विक चीजे ही जन्म ले सकती है अन्य कोई नहीं इसीलिए उसके विभाजन से 3 चिजो ने अस्तित्व धारण किया। प्रथम ब्रह्मा जो विज्ञान कि भाषा में प्रोटॉन, दूसरा महेश जो है न्यूट्रॉन और तीसरा विष्णु जो है इलेक्ट्रॉन। प्रोटॉन सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है। न्यूट्रॉन नकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है और इलेक्ट्रॉन न्यूट्रल है इसीलिए वह अणु की नाभि को बंधन मेइब्रखने के लिए इलेक्ट्रॉन उसी अणु के इर्दगिर्द घूम रहा है। जो यह बात आज का विज्ञान कहता है वहीं बात हमारे ऋषियों ने लाखो साल पहले बता दी थी और तब तो दूरबीन इत्यादि भी नहीं थे। तब अगर ऋषिमुनी किसी को यही बात समझाना चाहे तो नहीं समझा पाते क्योंकि उसका प्रमाण तब के वक़्त में संभव नहीं था। क्योंकि तब माइक्रोस्कोप नहीं बने थे तो अणु को तोड़कर नहीं बता पाते इसीलिए जरूरी बात समझने के लिए उन्होंने भगवान की उपाधि दे दी ब्रह्मा विष्णु और महेश ताकि लोग समझे उसी बात को परन्तु धार्मिकता से। खाली देखने का दृष्टिकोण बदलता है उससे सत्यता आवरण में नहीं छुप जाती। यही उद्देश्य के साथ ऋषियों ने यह उपाधि दे दी।

और आगे देखें तो प्रकृति से अन्य 3 विभाजन हुआ जिससे सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती का अस्तित्व बाहर आया। विज्ञान की दृष्टि से देखे तो सरस्वती ज्ञान की देवी है तो स्वाभाविक है ज्ञान का ही माध्यम होगा तो अतः उनसे कई ब्रकर की भावनाएं अस्तित्व में आयी जैसे क्रोध, प्रेम इत्यादि। जो विज्ञान उसे इमोशंस कहते है। और एस्ट्रोनॉमी उसे ब्रह्माण्ड कहते है। फिर लक्ष्मी से स्थूल पदार्थ इत्यादि का अस्तित्व बाहर आया। जैसे कि ग्रह और उपग्रह और अनेक आकाशगंगाओं का अस्तित्व साइंस में गैलेक्सी कहते है। फिर तीसरे पार्वती बनी उसिसे प्रकाश याने ऊर्जा अस्तित्व में आयी। जिसे विज्ञान लाइट कहते है। यह सब प्रकृति से विभाजित होने से अस्तित्व हुआ। अब आगे बढ़ते है।

सरस्वती का फिर से विभाजन हुआ जिनसे और 3 अस्तित्व का जन्म हुआ। यह तीन चीज है ज्ञान, प्रेम और बुद्धि। जो लक्ष्मी का विभाजन हुआ तो उनसे फिर 3 चीजों का अस्तित्व आया। वह 3 चीजे है काम, मोह और अहंकार। पार्वती का विभाजन हुआ उनसे फिर 3 चीजों का अस्तित्व बाहर आया। सृष्टि, स्थिति और प्रलय। सृष्टि याने यह स्थूल जगत, स्थिति याने निरंतरता और तीसरा है प्रलय जो है समाप्त या कहो विलय होना। यही 3 विभाजन हुए 3 देवियों से मिलकर देखे तो 9 हुए जो है अपने हिन्दू शास्त्र में नवदुर्गा कहा जाता है। यही नवदुर्गा है असल में। जो हम उसका प्रतीक के रूप में मूर्तियों के जरिए विविध स्वरूपों में पूजा अर्चना करते है। यह सब अपने ऋषि मुनियों की देन है केवल वह लोग जो ज्ञान रखते थे वह दूसरों में बांटा जाए इसी खयाल से यह देवी देवताओं के नाम दिए गए और भगवान की उपाधि दी गई। ताकि लोग उस बात का निरादर ना करे

अब फिर आगे बढ़ते है तो, सरस्वती के विभाजन से को 3 विघटन हुआ ज्ञान, प्रेम और बुद्धि तो ज्ञान का भी विघटन हुआ 2 भागो में। एक स्थूल ज्ञान और दूसरा आध्यात्मिक ज्ञान पहले ज्ञान को आज कि भाषा में साइंस या विज्ञान कहते है। दूसरे को हम संबोधी या समाधि केहते है। लक्ष्मी से जो 3 विभाजित हुए काम, मोह और अहंकार उन का भी 2 और 2 की संख्या में विभाजन हुआ। काम से अर्थ और संभोग, मोह से लोभ और ईर्ष्या और अहंकार से अभिमान और गर्व। पार्वती का जो विभाजन हुआ वह है सृष्टि, स्थिति और प्रलय उनका भी सृष्टि से 2 भाग हुए स्थूल जगत और बाह्य जगत, स्थिति से 3 विभाजन हुआ वह है इच्छा, वासना और कामना। और प्रलय से और 3 विभाजन हुआ वह है इडा, पिंगला और सुषुम्ना। यह 2 +3 +3 = हुए 8 यही 8 विभाजन ही अष्ट सिद्धि कहलाती है।

तो मित्रों आगे कि बहुत सारी बात हम तीसरे भाग में करेंगे। यह लेख इतना लंबा ना हो जाए इसीलिए इसको भागो में विभाजित किया हुआ है। बहुत जल्द आपके सामने तीसरा भाग ले कर प्रस्तुत हो जाऊंगा। आपके विचार नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जरूर बताए। अगर कोई प्रश्न हो मन में तो जरूर पूछे। उनके उत्तर अगले भाग म्मेई प्रस्तुत किया जाएगा।

धन्यवाद।

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ONE THOUGHT ON “84 लाख योनियों का रहस्य क्या है भाग 2”

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84 लाख योनियों का रहस्य क्या है (भाग 3)

दूसरे भाग में हमने कितने विभाजन हुए यह बात की थी। आज उन विभाज से जो पुरुष और प्रकृति ने अनेकों विभाजन किया उसी के बारे में बात करेंगे। प्रकृति से फिर एक विभाजन हुआ और उससे तीन गुण पैदा हुए। कौनसे थे यह गुण सत्व, राजस्व, और तमस। इन तीन गुणों से पांच महाभुतो का अस्तित्व संभव हुआ। तमस से फिर विघटन होते हुए काम, क्रोध,लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार। यह 7 प्रकार के गुण पैदा होने से अब सृष्टि का आरंभ हो सकता था पर अभी बहुत कुछ होना बाकी था। यह सभी 7 गुणों को पूरे ब्रह्मांड में फैला दिया गया ताकि इसके प्रभाव में कोई भी जीव आए तो उनसे प्रभावित हुए बिना ना रह पाए।

राजस्व से फिर विघटन हुआ और उनसे दया, करुणा, क्षमा और मन बने। यह 4 गुणों को भी ब्रह्माण्ड में फैला दिया गया। और सत्व से वैराग, इन्द्रियां (जिनमें 5 ज्ञानेन्द्रिया और 5 कर्मेंद्रिया समाविष्ट है) विश्वास, आस्था और श्रद्धा का अस्तित्व बाहर आया। यही 5 गुणों से अब कोई भी शरीर बन सकता था परन्तु कुदरत या प्रकृति ने अपने मैनेजमेंट फंडा में कई कदम आगे की और बढ़ाए थे। यह विभाजन के बाद बारी आती है पुरुष की। पुरुष ने फिर से अपना विभाजन स्वीकार किया और जीवन और मृत्यु में विघटन किया। जीवन इसीलिए कि जब कोई जीव अस्तित्व में आए तो प्राण फूंका जा सके। और मृत्यु इसीलिए कि यह संसार सुचारू रूप से चल पाए और यह संसार में किसी एक का अधिपत्य ना रहे।

जीवन के काफी रहस्य ऐसे भी है जिन्हें अभी तक नहीं जान पाए शायद परन्तु हम उसकी। बात नहीं करेंगे यहां अपितु उसकी बात करेंगे जो संभव है। इतने विभाजन होने से आप हिसाब करो तो आपको पता चलेगा की मुख्य 3 गुण, पंच तत्व, 8 भावनाएं, 3 नाडिया, स्थूलता और कोमलता या स्थिरता और 9 देवियां, और त्रिदेव मिलके गिना जाए तो 33 प्रकार हुए जो उनके अधिपति हो गए जो गुण और तत्व उनके अनुपात में उनके आधिं आते थे याने कोटि आती थी। इसीलिए शास्त्र में लिखा है 33 कोटि देवता है। पर लोग अक्सर भूल कर बैठे समझने में कि कोटि का संस्कृति अर्थ एक अलग सा करोड़ भी होता है। परन्तु यह सही नहीं है 33 कोटि देवता है याने 33 मंत्री है समझ लो। परन्तु 33 करोड़ देवता नहीं।

अब जो तत्व बने थे उन पर बात भी कर लेते है। प्रथम भूतत्व या पृथ्वी तत्व उनसे पृथ्वी और अनेकों स्थूल पदार्थ बने। जिनमें शामिल है धरती, ग्रह, पिंड, चन्द्र, सूर्य और सभी ग्रह और अपनी सूर्य माला से भी बाहर भी जो भी पदार्थ बने उसी तत्व से बने। फिर आते है अग्नि तत्व पर। उनसे प्रकाश या कहो रोशनी बनी। यहां पर एक बात बता देना जरूरी है कि पहले अग्नि कि खोज नहीं हुई थी तब अंधकार ही था सब जगह। सिर्फ सूर्य का उजाला ही था और रात को चन्द्र का उजाला बस। बाकी किसी भी प्रकार की अग्नि ऊर्जा का अस्तित्व नहीं था। फिर आते है जल तत्व पर। उनसे सभी प्रकार के तरल पदार्थ बने। पानी, तेल, ईंधन जैसे। उसके बाद वायु तत्व से ध्वनि बनी। और इसी वायु तत्व से स्पर्श का जन्म भी हुआ। उसके बाद है आकाश तो उससे ऊर्जा और ध्वनि को संग्रहित करने की क्षमता बनी। जो इस अनेकों ब्रह्मांडो की ऊर्जा और ध्वनि संभाल कर रखने में समर्थ है। और इसी तत्व से देखने की क्षमताओं का जन्म हुआ। फिर आते है महत्तत्व पर। तो उनसे अणु परमाणुओं को संग्रहित करने की क्षमताओं का जन्म हुआ। जिसे हम विज्ञान कि भाषा में न्यूक्लियस भी कहते है। जो अणुओं को एकत्रित और इकट्ठा रखता है ताकि एक अणु दूसरे अणु से अलग ना हो जाए और जो पदार्थ चाहिए वह पूर्णतया बने। उसके बाद आता है मूल तत्व। यह तत्व से पदार्थो को दास बनाने की क्षमताओं का जन्म हुआ जिससे क्या बनाना है वह यह तत्व निश्चित कर सकता है। या यह कहो विज्ञान की भाषा में डिसीजन पॉवर आ गया। जिससे सही रूप में सारा पदार्थ बने। अन्यथा जल की जरूरत है और अग्नि बन जाती। तो उसको नियंत्रित करता है यह मूल तत्व। उसके बाद आखिरी में आता है परमतत्व। जो भी पदार्थ या जो आगे करना है वह कैसे होगा उसका निर्णय करता है या यूं कहो कि स्वयं परमात्मा ही प्रगट हो गए सूचना देने के लिए।इसीलिए उसिके पास सम्पूर्ण अधिकार रहता है जिसे हम लोग नारायण के नाम से भी जानते है।

यह सब तो थी अभी तक 4 पीढ़ी तक के विसर्जन अब हम अगले भाग में चर्चा करेंगे आगे के जीव कैसे बने उसी के बारे में चर्चा करेंगे। कैसे यह कुदरत मैनेज करती है उसी के बारे में भी थोड़ी चर्चा करेंगे। यह समझाना बहुत ही कठिन कार्य है फिर भी में प्रयास करता हूं। क्योंकि जब तक गहराई में ना उतरो तब तक सत्य का आभास नहीं हो सकता पर यहां पर सभी लोग ध्यान की गहराई में नहीं पहोच सकते इसीलिए शब्दों से समझाने की कोशिश कर रहा हूं। अगर कोई गलती हो जाए तो क्षमा करे।

धन्यवाद् और नीचे कमेंट में अपनी राय जरुर लिखे। सही मायने में समझाने के लिए यह लेख कि श्रृंखला बहुत लंबी हो सकती है। तो कृपया आप धेर्य से अगले भाग की प्रतीक्षा करे। बहुत ही जल्द आएगा। उम्मीद है आप सभी को यह लेख अच्छा लगा होगा। आभार।

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84 लाख योनियों का रहस्य क्या है (भाग 4)

पिछले तीसरे भाग में हमने विविध विभाजन की बात कही। आज हम उसी को आगे बढ़ाएंगे और विभाजन और अनेक योनि कैसे उत्पन्न हुई उसीकी बात करेंगे। यहां पर दिए गए लेख में सारे विचार एवम् प्रकाशित हुए अब तक के सारे विचार मेरे स्वयं के है जो ध्यान के अनुभव से समय यात्रा कहो या टाइम ट्रैवल कहो या शरीर से आत्मा को बाहर निकाल कर श्रृष्टि के आरंभ तक जाने की यात्रा के माध्यम से अनुभव सिद्ध यह लेख बनाया गया है। उसे कैसे आप अनुभव से सिद्ध कर सकते हो यह लेख समापन के समय पे दर्शाया जाएगा जिसे आप भी कर सकते हो। यह लेख से किसी भी धर्म जाति या किसी समुदाय से कोई लेना देना नहीं है। अगर हो भी जाता है तो केवल आकस्मिक ही होगा।

अब हम फिर से आते है प्रथम चरण पर। यहां से पुरुष एवं प्रकृति के दो हिस्से हुए। पुरुष ने विभाजित कर के एटॉमिक स्ट्रक्चर तैयार किया 3 विभाजन कर के जो थे धार्मिक दृष्टि से ब्रह्मा, विष्णु और शिव। तो ब्रह्मा या प्रोटॉन ने अपना सृजनात्मक कार्य आरंभ कर दिया। पहले तो जरूरी चीजें बनी जैसे ग्रहों नक्षत्र इत्यादि। फिर प्रथम योनि के रूप में जन्म देने के लिए उनका पालन हो पाए इसी को ध्यान में रखते हुए पहले पानी को पृथ्वी पर लाया गया। पृथ्वी पर पहले पानी नहीं था, अपितु बहुत ही गरम और रौद्र रूप वाला आग का गोला था और क्यों ना हो आखिर सूर्य से जो विभाजित हुआ था! तब उसी कि गर्मी और हाइड्रोजन गैस से बना हुआ होने के कारण गर्मी बहुत थी। या कहो की करीब करीब 12 हज़ार डिग्री तापमान रहा था यह विज्ञान कहता है। तब उस ग्रह पर पानी लाना सरल नहीं था तो प्रकृति ने पहले 10 प्रकार के बल उत्पन्न किए। जैसे गुरुत्वाकर्षण, सेंट्रीफ्यूजन फोर्स, फ्रिक्शन फोर्स इत्यादि यही सब किया गया था उन नव विभाजित हुई प्रकृति के माध्यम से जिसे हमने धार्मिक दृष्टि से नव दुर्गा नाम दिया था। तो उन्ही नव दुर्गा से यह सब बल कि उत्पत्ति हुए जिसे दसम महाविद्या कहते है। उन्ही के माध्यम से यह बल अस्तित्व में आया।

उसी 10 प्रकार के बल या विद्या में एक बल चुबकिय बल या मैगनेटिक फोर्स भी शामिल था। उसी के माध्यम से पृथ्वी के आस पास एक सुरक्षा कवच बन गया। तो अब पृथ्वी सुरक्षित तो थी परन्तु भीतर की गरमी बहुत थी तो उसे ठंडा करने के लिए ब्रह्मा कहो या प्रोटॉन ने अपना एक अलग स्ट्रक्चर ऑक्सीजन के रूप में तैयार किया और उल्कापात के माध्यम से पृथ्वी पर दूसरा कण के रूप में प्राणवायु या ऑक्सीजन को लाया गया। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलन से भाप बनी और पृथ्वी के अंदर बनी रही कई हज़ार सालो तक क्योंकि सुरक्षा कवच की वजह से बाहर नहीं जा सकता था और भाप पतली होती है तो नीचे नहीं जा सकती ऐसे में भाप से पूरी पृथ्वी ढक सी गई थी। तब एक उलकपात के ज़रिए उसमें बिजली के रूप में इलेक्ट्रॉन या विष्णु का सहारा लिया गया और दोनों कनों में रिएक्शन या प्रतिक्रिया हुई और पानी बना और पृथ्वी पर बारिश बन कर बरसता रहा लगातार 10000 सालों तक बरसात हुई तब जा कर पृथ्वी पर 79 प्रतिशत पानी आया। अब प्रथम योनि के लिए सारी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। प्रथम के लिए एक अमीबा करके प्रथम जीव रूपी योनि का जन्म हुआ। या कहो की बैक्टीरिया के रूप में। E-Coli करके बैक्टीरिया का जन्म हुआ।

उसका प्रथम ट्रायल तो कर दिया गया और उनमें ब्रह्मा ने या एटॉमिक प्रोटॉन ने खुद पॉजिटिव होने के नाते उनमें इतनी क्षमता तो होनी ही चाहिए कि अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए 1 से 4 हो पाए और होते गए। पर समस्या यही खड़ी हुई की उनकी आबादी से आधी पृथ्वी हो गई। तो उसके विनाश के लिए कुछ तो करना ही था प्रकृति को! तो भगवान शिव या न्यूट्रॉन का सहारा लिया गया। उनसे एक RNA वायरस पैदा किया गया और वह बैक्टीरिया का नाश करता गया। अब कोई समस्या नहीं थी तो दूसरी योनि के रूप में दूसरे प्रकार के बैक्टीरिया का जन्म किया गया ताकि ट्रायल ठीक से पूरा करे प्रकृति और आगे जा कर बड़ी योनियों के रूप में अस्तित्व हो। कुछ योनि तो बैक्टीरिया कि हुए वायरस की हुए और प्रयोग सफल हुआ तो मत्स्य के रूप में प्रथम दार्शनिक योनि को जन्म दिया प्रकृति ने। यह वही प्रथम जीव है जो धरती पर आया जिसे कोई देख पाता अगर कोई होता तो। पर अफसोस कि कोई नहीं था सिवा उन्ही अपनी प्रजाति के अलावा। अब वही समस्या खड़ी हुई आबादी की। जल्दी से उनकी आबादी बढ़ती चली गई तो उसे रोकने के लिए उनसे बड़ी मछलियों को जन्म दिया गया ताकि उन्हें खा कर अपना गुज़ारा करे और उनकी वस्ती नियंत्रण में रहे।

अब आगे कि पृष्ठभूमि के लिए जलचर जीव तो पैदा कर दिया गया था पर थलचर जीव के आगमन के लिए अभी तक कोई प्रक्रिया आरंभ प्रकृति ने नहीं की थी। अभी तो कई लाखो साल तक उसी में खुश रहना चाहती थी जैसे। कई लाख साल बाद फिर से बड़ी मछलियों को जन्म दिया गया परंतु एक अलग ही विकट परिस्थिति पैदा हो गई। वह थी उनकी जीवन की जिम्मेदारी। कैसे बचेगा उनका जीवन क्योंकि प्रकृति ने जब शरीर दिया तो साथ में भूख भी दी थी। तो उनके सर्वाइवल के लिए अलग अलग प्रकार की कई प्रजातियों को धरती पर जन्म देना पड़ा और उनसे बड़ी मछलियों का भोजन चलने से बड़ी मछली की आबादी बहुत सी बढ़ गई तब सबसे बड़ी मत्स्य के रूप में शास्त्र कहता है नारायण मत्स्य अवतार धारण कर के आए। बस समझो उसी मत्स्य अवतार आया जो विशालकाय था। उन्होंने वह सब बड़ी मछलियों का सफाया किया और आबादी नियंत्रण की। और अपना कार्य समाप्त होने पर फिर से चले गए।

अब प्रकृति को आगे जो बढ़ना था! इसीलिए एकाद पेड़ का अस्तित्व बाहर आया ताकि आगे के जीव या योनि कि पृष्ठभुमि तैयार हो। इसी माध्यम से छोटी और थोड़ी बड़ी मछलियों के नियंत्रण हेतु सर्वप्रथम कूर्म याने कछुआ का जन्म हुआ जो शास्त्र कहते है कुर्मी अवतार नारायण का, उन्होंने मंदहार पर्वत को धारण किया था तो विज्ञान कि भाषा में कहा जाए तो मंडहार पर्वत याने बड़ी आबादी जिसको नियंत्रण करने का कार्य सौंपा गया था वह कछुए को। उसने अपना कार्य बखूबी निभाया और अपना अंश छोड़ कर चले दिए जो आज भी कछुआ के रूप में हम पहचानते है।

बस आज इतना ही। आगे की चर्चा हम पांचवे भाग में करेंगे। उम्मीद है आपको यह लेख माला पसंद अाई होगी। तो नीचे कॉमेंट करना ना भूले। अपने मन में कोई प्रश्न भी हो तो बताए तो अगले भाग में उसका उत्तर देना संभव हो पाए। नीचे दिए गए शेयर बटन पर क्लिक कर के फेसबुक, ट्विटर, और गूगल प्लस पर भी शेयर करे और यह दुर्लभ ज्ञान के बारे में शेयर करे और नीचे लाइक बटन पर लाइक भी अवश्य करे।

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ONE THOUGHT ON “84 लाख योनियों का रहस्य क्या है (भाग 4)”

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84 लाख योनियों का रहस्य क्या है भाग 5

पिछले चौथे भाग में हमने कछुए तक की बात की थी तो आज हम उसी श्रृंखला में आगे बढ़ते हुए कुछ अधिक बात करेंगे फिर हम दूसरी बात करेंगे। यहां पर को भी विचार प्रस्तुत किए गए है वह मेरे खुद के ध्यान के माध्यम से आत्मा को शरीर से बाहर निकाल कर समय यात्रा सृष्टि के आरंभ में जा कर पता लगाया है उसी की बात अनुभव सिद्ध कर रहा हूं अप भी कर सकते हो उसका तरीका भी बताऊंगा लेख के आखिर में। किसी भी व्यक्ति या विचार से कोई लेना देना नहीं है। यह मेरे स्वयं के विचार है और अगर कोई संबंध होता भी है तो महज एक संयोग ही होगा।

कछुए ने अपना काम बखूबी निभाया। उसके बाद प्रकृति ने सुवर जैसे जानवर को जन्म दिया। यह सब कई लाखो साल के अंतराल के बाद होता है यह नहीं की तुरंत हो जाए। वहीं सुवर की उत्पत्ति से एक समस्या हुई। इनकी आबादी कैसे बढ़ाई जाए! तो दूसरी महाशक्ति लक्ष्मी से माया को उद्भव किया गया और उनसे काम वासना उत्पन्न की गई ताकि संभोग इत्यादि शारीरिक क्रिया आरंभ हो पाए। उसी के माध्यम से सुवरो की आबादी बहुत बढ़ गई तो उनको नियंत्रित करने के उद्देश्य से नारायण फिर वाराह अवतार ले कर धरा पर पधारे या यूं कहो इलेक्ट्रॉन ने फिर से अपना रूप बदला और प्रकृति की मदद करने। के लिए आ गए। उन्होंने कई बड़े बड़े और जो सबसे बड़ा और ताकतवर सुवर था उनका वध किया ताकि वस्ती नियंत्रण में रहे और स्थानीय अचरसंहिता बनी रहे। यहां पर धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो हिरण्याक्ष राक्षस जो हिरण्यकश्यप का बड़ा भाई था वहीं तो कर रहा था! आबादी अपनी ही प्रजाति याने राक्षस की ही बढ़ा रहा था और अन्य प्रजातियों को मार देता था तो वाराह के रूप में नारायण ने उसका वध किया। अब यहां पर हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को जल में ले गया था उसका क्या मतलब हुआ यह प्रश्न आपके मन में अवश्य आ रहा होगा! यह प्रतीकात्मक वाक्य ही कहे गए है सब पुराणों और शास्त्रों में उसको सीधा ना ले कर उसके गहन अर्थ को लेना आवश्यक होता है। वह जल में के गया था तो उसका मतलब यह है कि हिरण्याक्ष अपने से अलग प्रजातियों को जल में डूबो देता था मतलब अन्य सारी पृथ्वी वासियों को जल में ले जा कर मार डालता था क्योंकि सुवर पानी में जीवित रह सकता था अन्य भूतलिय जीव नहीं रह पाते थे। इसीलिए वाराह याने सुवर बन कर है नारायण ने उसका वध पानी में ही किया। यह उसका पूरा अर्थ होता है। उसके प्रतीकात्मक अर्थ को समझने की हम कभी भी चेष्टा नहीं करते।

अब पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी मानव के आगमन की पर अभी भी कई लाखो साल लगने वाले थे। पहले बंदर जैसी कई योनियां धरा पर लाई गई। यहां पर एक बात जान लेनी आवश्यक है कि जो भी योनि का जन्म होता था उनको उनके मानसिक प्रगति पर ही आगे कि योनि दी जाती थी। जैसे प्रथम भाग में वीडियो में बताया है कि जैसे एक सामान्य पत्थर हिल नहीं सकता अपितु किसी बाहरी मदद से उसमें हलचल हो सकती है जो बड़े पहाड़ों में यह संभव नहीं था। उसके आगे जब मछली की योनि का जन्म हुआ तो उनकी मानसिक प्रगति थोड़ी और बढ़ी तो स्वयं चल फिर सकती है ऐसे ही सारी योनियों में यही नियम पारित किया गया और जब एक योनि मरती थी तो उसी कि मानसिक प्रगति को देखकर ही आगे की योनि निर्धारित की जाती थी।

अब यहां तक पढ़ने के बाद आपके मन में एक और प्रश्न भी उबले हुए जल के परपोटे के रूप में प्रश्न बन कर उबल रहा होगा कि पर उनमें आत्मा कहां से आती थी? सही कहा ना? तो जब प्रकृति ने पहले विभाजित हो कर प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन में विभाजित किया था तब उन्हें संभालने के लिए कोई तो एक स्थान चाहिए! अन्यथा कैसे तीनों को बांध कर रखा जा सकता है जब की तीनों विरोधी स्वभाव के हो? तब प्रकृति ने शिव यानी पुरुष की सहायता से आत्मा को जन्म दिया जो न्यूक्लियस कहलाया विज्ञान की भाषा में। उसमें इतनी ताकत थी की तीनों को संभाल कर रख पाए। वहीं न्यूक्लियस को हम धार्मिक भाषा में मृत्युलोक भी कह सकते है। इसी प्रकार हर आत्मा को उनकी मानसिक प्रगति के उद्धार पर ही आगे कि योनि निश्चित की जाती थी।

अब बात करे यह सब खेल खेलने की जरूरत प्रकृति को क्यों पड़ी तो उसका जवाब है आप शांत मन से बैठे है आपकी अचानक इच्छा हो जाती है कि चलो गोवा घूम कर आते है। यह इच्छा क्यों हुई? कहां से आती है? बस ठीक ऐसे ही प्रकृति का है। फ़ालतू में बैठे रहना प्रकृति का स्वभाव नहीं है इसीलिए यह सारा खेल सिर्फ मानव के लिए ही है। जो मानव रूप की योनि में आएगा वह अपना उद्धार मानसिक रूप से इतना उद्धार कर पाए कि जहां से उसकी आत्मा का उद्गम स्थान है वहीं तक की मानसिक प्रगति हो तो उसको फिर से पुरुष में लय किया जा सकता है अन्यथा नहीं यही लय होना मतलब की मोक्ष को प्राप्त होना हम धार्मिक भाषा में बोलते है। यही मोक्ष प्राप्त हम मानव योनि कर पाए इसी लिए यह सारी यात्रा है। तो जब तक हम मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हमारी यात्रा ऐसे ही चलती रहेगी।

आज बस इतना ही। आगे के अंतिम भाग में मनुष्य तक की योनि को समझेंगे और मोक्ष तक की यात्रा के बारे में भी जानेंगे। आपको यह लेखमाला कैसी लगी कृपया कर के नीचे कमेंट बॉक्स में अवश्य बताएं। यह लिखने के लिए बहुत मेहनत लगती है तो आप इसके बदले इतना तो कष्ट धारण कर ही सकते है। ध्यान के माध्यम से कैसे समय यात्रा करे इस पर भी विचार करेंगे अंतिम और छठे भाग में।

धन्यवाद्।


84 लाख योनियों का रहस्य क्या है (भाग 6 अंतिम)
पिछले भाग में हमने वाराह अवतार तक की विस्तार से बात की थी। उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए शुरू करते है। यह लेख माला बहुत ही लंबी हो सकती थी अपितु मेंने कोशिश कि है बहुत ही संक्षेप में बताने की फिर भी 6 भागो में ही कह पाया, अन्यथा यह लेखमाला बहुत ही लंबी हो जाती और आपको पढ़ने में तकलीफ होती। यह सारे दिए गए विचार मेरे खुद के है और किसी भी जीवित या मृतक से कोई भी संबंध नहीं है और अगर होता भी है तो एक संयोग ही होगा।



वाराह के बाद कई ऐसी योनियां धरा पर लाई गई जिनसे यह श्रृष्टि चक्र बड़े आराम से चल पाए। पर प्रकृति को तो जैसे कुछ और ही मंजूर था। प्रकृति ने तो ठान ली थी कि ऐसे जीव को उत्पन्न करना जो शक्तिशाली हो, बुद्धिमान हो और कर्म प्रधान भी हो। और वही जीव मानसिकता की अंतिम शिखर पर पहोक कर अपने मूल गंतव्य पुरुष में विलीन होने की क्षमता रखता हो। यह सारी योनियों की यात्रा केवल और केवल मनुष्य के उत्थान के लिए की गई। प्रकृति चाहती तो सीधे से मनुष्य क्यों नहीं बनाया यह विचार आपके मन में अवश्य घर कर रहा होगा तो यह बताना मेरा दायित्व है कि, अगर किसी को सीधे से भारी चीज दी जाए जैसे ऊंचे से पर्वत पर चढ़ना, तो क्या आप चड़ने में सक्षम होते? नहीं! इसका कारण है आपने कभी भी पहले पर्वत नहीं देखा, ना कभी चलने कि कोशिश की, तो चढ़ना तो दूर, आप अपनी जगह से हील भी पाने में असक्षम होते। जैसे आज भी हमारे बीच में कोई ऐसा मनुष्य आता है जो विलक्षण कार्य कर लेता है तो हम उसके पास दिव्य शक्ति होने का सोच लेते है। जैसे अंधो की नगरी में आंख वाले को लोग सहन नहीं कर सकते इसी प्रकार से अगर सीधे से मनुष्य योनि दी जाए तो उस मनुष्य का उत्थान नहीं अपितु पतन होता। इसीलिए मनुष्य योनि से उपर उठकर देव योनि में जाने के लिए और अपने अंतिम गंतव्य जहां से उसका उद्भव हुआ है वहां तक जाने की यात्रा का नाम ही शायद 84 लाख योनियों की यात्रा है।



खैर, आगे बढ़ते हुए, उसके बाद अनेकों ऐसी योनियां अाई जो प्रति उपर की योनि थोड़ी मानसिक उत्थान पर हो ऐसे में बंदर आया जिसकी अगली कड़ी ही हनुमान थे। उसके बाद अंतिम योनि (मनुष्य से पहले की) के रूप में गाय को उतारा गया धरती पर। गाय आत्मिक दृष्टि से देखा जाए तो एकदम विकसित मालूम पड़ती है। उसकी आंखो में ममता, करुणा और स्वभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते है। और अंत में मानव का उद्भव हुआ। परन्तु अभी तो वह पिछली 83 लाख 99999 योनियां काट कर आया था तो पशुता स्वाभाविक थी। इसी लिए वह पशु की समान ही रह रहा था। अपने पशुता वाले स्वभाव के कारण ही वह शक्ति से सब कुछ हथियाने लगा। ऐसे में फिर से नारायण कि मदद से परशुराम बन कर धरती पर आए और पशुता वाले कई हजारों मनुष्यो का हनन किया ताकि श्रृष्टि सुचारू चलती रहे और कोई बाधा ना आए। लेकिन फिर भी जिनके स्वभाव में ही इतनी सारी योनियों का प्रभाव हो तो ऐसे कैसे सुधारा जा सकता है? इसी लिए श्रृष्टि में नियमों से बद्ध करने के लिए मर्यादा की स्थापना के लिए भगवान श्री राम बन कर फिर से नारायण को आना पड़ा। उन्होंने मनुष्यो को कैसे जीते है यह समझाया अपने उदाहरणों से। अपने कर्मो से लोगों को समझाया की मर्यादाओं का मूल्य क्या होता है और यह जीवन क्यों मीला है!



अपना कार्य कर के वह चले गए। उसके बाद जब कोई संकट आता है जैसे पृथ्वी पर से कोई प्रकृति को चैलेंज करता है तो नारायण याने इलेक्ट्रॉन को आना ही पड़ता है क्योंकि उसी के लिए ही उनका जन्म हुआ था। वह उनका कार्य है। कृष्ण बन कर श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से इंसानों को यह सीख दी कि उनका जन्म क्यों हुए है और क्या करना चाहिए उन्हें और वह क्या कर रहे है!

अध्याय : 9 :श्लोक : 8
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ९-८॥

प्रकृतिम् स्वाम् अवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूत-ग्रामम् इमम् कृत्स्नम् अवशम् प्रकृतेः वशात् ॥ ९-८॥

चौरासी लाख योनियाँ में सभी प्राणी अपनी इच्छा-शक्ति (प्रकृति) के कारण बार-बार मेरी इच्छा-शक्ति से विलीन और उत्पन्न होते रहते हैं, यह सभी पूर्ण-रूप से स्वत: ही मेरी इच्छा-शक्ति (प्रकृति) के अधीन होते है। (८)



यह गीता का श्लोक भगवान कृष्ण ने कहा है जो सो प्रतिशत तथ्य है। यही इन 6 भागो को पढ़कर लगेगा। तो मनुष्यों को कर्मयोग, रजगुह्यायोग, सांख्य योग, भक्ति योग, ज्ञान योग जैसे अनेकों शिक्षाएं गीता के माध्यम से हमें दी ताकि हम अपना लक्ष्य ना भूले और अपनी मानसिक प्रगति कर के जहां से आए थे वहीं पर लौट जाए और फिर कभी भी आना ना हो। यही मोक्ष है और हर एक योनि का भी यही लक्ष्य है। जब तक वह अपने उद्भव की ओर जाने की यात्रा आरंभ नहीं करता है तब तक वह अज्ञानी है। तब तक कई जन्मों तक की यात्रा करनी ही पड़ेगी। तो क्यों नहीं पहले से ही संभल कर यह प्रगति, विकाश की यात्रा अभी से शुरू कर दे? तो कैसे करे यह यात्रा का शुभारंभ? तो जवाब भी है। स्वयं भगवान कृष्ण ने है गीता में दिया है। यही इस लेख का मतलब है।

अध्याय : 6 :श्लोक : 43
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ६-४३॥

तत्र तम् बुद्धि-संयोगम् लभते पौर्व-देहिकम् ।
यतते च ततः भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ६-४३॥

हे कुरुनन्दन! ऎसा जन्म प्राप्त करके वहाँ उसे पूर्व-जन्म के योग-संस्कार पुन: प्राप्त हो जाते है और उन संस्कारों के प्रभाव से वह परमात्मा प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करने के उद्देश्य फिर से प्रयत्न करता है। (४३)

अध्याय : 6 :श्लोक : 29
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ ६-२९॥

सर्व-भूतस्थम् आत्मानम् सर्व-भूतानि च आत्मनि ।
ईक्षते योग-युक्त-आत्मा सर्वत्र सम-दर्शनः ॥ ६-२९॥

योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है। (२९)

भगवान ने यह भी बताया है श्रीमद्भगवद्गीता में कि कैसे मनुष्य अपना मानसिक विकास कर के मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। यह भी गीता में है नीचे का श्लोक पढ़े।

अध्याय : 6 :श्लोक : 12
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ ६-१२॥

तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यत-चित्त-इन्द्रिय-क्रियः ।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म-विशुद्धये ॥ ६-१२॥

योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता-पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये। (११,१२)



यह सब योनियों की बात कही पर कभी कभी ऐसा भी हो जाता है जैसे किसी की आकस्मिक मृत्यु होती है पर उसकी इच्छाएं इतनी प्रबल थी कि उस इच्छा को पूर्ण करने में प्रकृति भी मदद करती है। हां यह सच है! जब हम प्रबल इच्छा करते है तो प्रकृति हमारी मदद जरूर करती है। कैसे करती है इसके बारे में फिर कभी बात करेंगे। नहीं तो यह लेख बहुत लंबा हो जाएगा। उदाहरण के लिए समझो किसी एक मनुष्य कि इच्छाएं इतनी प्रबल थी कि उसको ऐसे व्यक्ति के यहां पर जन्म हो जो बहुत ही जैसे मुकेश अंबानी के घर में जन्म हो और उस की मृत्यु हो जाती है आकस्मिक कारणों से तो उसकी प्रबल इच्छाओं को पूर्ण करने में प्रकृति मदद करती है और उसका जन्म वहीं पर कराती है जिसकी तमन्ना थी, परन्तु मुकेश अंबानी के घर में भी कोई औरत गर्भवती होनी चाहिए? तो तब तक उसकी आत्मा भटकती है और उसी को प्रेत योनि भी कहते है। जब तक मुकेश अंबानी के घर में उसका पुत्र विवाह करे, उसकी पत्नी गर्भवती ना हो तब तक इंतजार करती है और जैसे यह संभव होता है वह आत्मा को प्रकृति उसके गर्भ में स्थापित कर देती है। यही सब तो कृष्ण के जन्म समय हुआ था। खैर हम आज उसकी बात नहीं कर रहे। तो मित्रों याद रखे अपने उद्भव की और तो एक ना एक दिन जाना ही पड़ेगा, चाहे अभी नहीं तो फिर कभी लेकिन तब तक यह माया रूपी संसार को भुगतना पड़ेगा जहां पर दुःख है, सुख है भावनाएं है इत्यादि सभी माया से प्रलोभित है तो क्यों ना हम उसको बायपास कर के आगे कि यात्रा करे और पूर्णतया मोक्ष को प्राप्त करे? उसके लिए हमारे पास माध्यम है ध्यान! तो मित्रों यह लेख माला को पूर्ण करने से पहले यह सत्य को अगर आप समझना चाहते है अपने अनुभव से तो ध्यान की गहराई में जाएं। शरीर से आत्मा बाहर निकालने से पहले आप समय सीमा तय करे की किस ओर आपको यात्रा करनी है! पूछे कि ओर तो तय कर के आप जैसे ध्यान में बहुत गहराई में जाओगे तो पाओगे आप एक अंधे से कुएं में या कहो ब्लैकहोल में प्रवेश करोगे। तब आपको किस स्थिति पर जाना है यह तय करना है। अगर आपको सृष्टि के आरंभ की ओर जाना है तो वह तय करे और अपनी यात्रा आरंभ करे। आप सही में सफल होगे।

धन्यवाद्।

मित्रों आशा है आपको यह लेखमाला जरूर पसंद आयी होंगी। अगर आपके मन में कोई भी प्रश्न है तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में पूछे और बताए कैसी लगी यह लेखमाला! अगला लेख एक बहुत ही रोचक होगा तो इंतज़ार करे।

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