मानव में शुक्राणु में एक आत्मा होती है

मानव में शुक्राणु में एक आत्मा होती है. डिम्ब अथवा स्त्री के अंडाणु में स्वतंत्र एवं अलग आत्मा विद्यमान होती है. दोनों के संयोग से मानव शरीर की संरचना प्रारंभ होती है. किन्तु मानव शरीर के प्रत्येक अंग के प्रत्येक अणु में स्वतंत्र आत्मा होती है जिसे संचालित करने की ऊर्जा, क्षमता तथा प्रेरणा मस्तिष्क में स्थित ब्रह्माण्ड (का अंश) अथवा सूक्ष्म ऊर्जा जिसे हम भौतिक अथवा वैज्ञानिक रूप से आत्मा मानते हैं, उसके पास रहती है. इसे दूसरे सरल शब्दों में इस प्रकार से समझ सकते हैं कि सूर्य अग्नि तथा अथाह ऊर्जा का एक पिण्ड है जिसके हर बिंदु में अनंत ऊर्जा विद्यमान है. किन्तु यह अनंत ऊर्जा सूर्य के मूलतत्व क्रोड अथवा कोर के बिना शून्य हो जाती है. सूर्य अथवा किसी भी तारे की कोर अपनी मृत्यु के पश्चात अनंत ऋणात्मक ऊर्जा तथा परम घनत्व का पिण्ड बन जाता है जिसे हम वैज्ञानिक रूप से ब्लैकहोल (ब्लैक होल) के नाम से जानते हैं. वह समस्त उत्सर्जित ऊर्जा को पुनः अवशोषित कर पुनः ऊर्जा का स्रोत बनने की प्रक्रिया में रत हो जाता है. इसी प्रकार से मानव शरीर स्थित ब्रह्माण्ड से अनंत ऊर्जा जिससे शरीर के अन्य अवयव संचालित होते हैं के शरीर से निर्गम के पश्चात अन्य अणु भी अपनी ऊर्जा त्याग कर सजीव से निर्जीव होने लगते हैं अर्थात चेतनावस्था से सुषुप्तावस्था को प्राप्त हो जाते हैं. इसी स्थिति को हम मृत्यु घोषित करते हैं. हमारा सूक्ष्म शरीर यदि ईश्वर में लीन नहीं हो पाया तो पुनः ऊर्जा अवशोषित करने की क्रिया में लग जाता है और पर्याप्त ऊर्जा समेटने के पश्चात पुनर्जन्म के माध्यम से स्थूलशरीर के रूप में फिर मानव अथवा किसी अन्य रूप में जन्म लेता है. यही ज्ञान हमारे धर्मग्रन्थ हमें देते हैं कि जीवनकाल में अच्छे एवं पुण्य कार्यों के माध्यम से साकारात्मक ऊर्जा अर्जित कर के हम अनंत ऊर्जा के अथाह स्रोत ईश्वर में लीन हो सकते हैं. यही हमारे मानव स्वरुप में जन्म लेने का उद्देश्य भी है.


प्रिय मित्रों एवं बहनों, सनातन धर्म विस्तृत है तथा हर वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता है. इसे सिर्फ अंधभक्ति का साधन न मान कर इस ज्ञान को अनंत ऊर्जा के भण्डार ईश्वर से मिलन का साधन होने का विश्वास रखिये. अपनी मातृभाषा, अपनी देवभाषा (संस्कृत) तथा अपने धर्मग्रंथों का अध्ययन कीजिये. अपने जीवन का सही अभिप्राय या उद्देश्य न भूलिए. कण कण में ईश्वर है, अतः दूसरों को भी उसी ईश्वर का अंश मानकर हरएक को उचित महत्त्व दीजिये. अपना जीवन सार्थक कीजिये.



उज्जैन. गरुड़ पुराण में शिशु के माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक का स्पष्ट विवरण दिया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि शिशु को माता के गर्भ में क्या-क्या विचार आते हैं। आज हम गरुड़ पुराण में लिखी यही बातें आपको बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-

1. ईश्वर से प्रेरित हुए कर्मों से शरीर धारण करने के लिए पुरुष के वीर्य बिंदु के माध्यम से स्त्री के गर्भ में जीव प्रवेश करता है। एक रात्रि का जीव कोद (सूक्ष्म कण), पांच रात्रि का जीव बुदबुद (बुलबुले) के समान तथा दस दिन का जीव बदरीफल (बेर) के समान होता है। इसके बाद वह एक मांस के पिण्ड का आकार लेता हुआ अंडे के समान हो जाता है।

2. एक महीने में मस्तक, दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना होती है। तीसरे महीने में नाखून, रोम, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बन जाते हैं। चौथे महीने में त्वचा, मांस, रक्त, मेद, मज्जा का निर्माण होता है। पांचवें महीने में शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है। छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढंककर माता के गर्भ में घूमने लगता है।

3. माता द्वारा खाए गए अन्न आदि से बढ़ता हुआ वह शिशु विष्ठा (गंदगी), मूत्र आदि का स्थान तथा जहां अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे स्थान पर सोता है। वहां कृमि जीव के काटने से उसके सभी अंग कष्ट पाते हैं, जिसके कारण वह बार-बार बेहोश भी होता है। माता जो भी कड़वा, तीखा, रूखा, कसैला आदि भोजन करती है, उसके स्पर्श होने से शिशु के कोमल अंगों को बहुत कष्ट होता है।

4. इसके बाद शिशु का मस्तक नीचे की ओर तथा पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं, वह इधर-उधर हिल नहीं सकता। जिस प्रकार से पिंजरे में रूका हुआ पक्षी रहता है, उसी प्रकार शिशु माता के गर्भ में दु:ख से रहता है। यहां शिशु सात धातुओं से बंधा हुआ भयभीत होकर हाथ जोड़ ईश्वर की (जिसने उसे गर्भ में स्थापित किया है) स्तुति करने लगता है।

5. सातवें महीने में उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह सोचता है- मैं इस गर्भ से बाहर जाऊंगा तो ईश्वर को भूल जाऊंगा। ऐसा सोचकर वह दु:खी होता है और इधर-उधर घूमने लगता है। सातवें महीने में शिशु अत्यंत दु:ख से वैराग्ययुक्त हो ईश्वर की स्तुति इस प्रकार करता है- लक्ष्मी के पति, जगदाधार, संसार को पालने वाले और जो तेरी शरण आए उनका पालन करने वाले भगवान विष्णु का मैं शरणागत होता हूं।

6. गर्भस्थ शिशु भगवान विष्णु का स्मरण करता हुआ सोचता है कि हे भगवन। तुम्हारी माया से मैं मोहित देह आदि में और यह मेरे ऐसा अभिमान कर जन्म मरण को प्राप्त होता हूं। मैंने परिवार के लिए शुभ काम किए, वे लोग तो खा-पीकर चले गए। मैं अकेला दु:ख भोग रहा हूं। हे भगवन। इस योनि से अलग हो तुम्हारे चरणों का स्मरण कर फिर ऐसे उपाय करुंगा, जिससे मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूं।

7. फिर गर्भस्थ शिशु सोचता है कि मैं दु:खी विष्ठा व मूत्र के कुएं में हूं और भूख से व्याकुल इस गर्भ से अलग होने की इच्छा करता हूं, हे भगवन। मुझे कब बाहर निकालोगे? सभी पर दया करने वाले ईश्वर ने मुझे ये ज्ञान दिया है, उस ईश्वर की मैं शरण में जाता हूं, इसलिए मेरा पुन: जन्म-मरण होना उचित नहीं है।

8. गरुड़ पुराण के अनुसार, फिर माता के गर्भ में पल रहा शिशु भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता क्योंकि बाहर जाने से पापकर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरक आदि प्राप्त होते हैं। इस कारण बड़े दु:ख से व्याप्त हूं फिर भी दु:ख रहित हो आपके चरण का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करुंगा।

9. इस प्रकार गर्भ में विचार कर शिशु नौ महीने तक स्तुति करता हुआ नीचे मुख से प्रसूति के समय वायु से तत्काल बाहर निकलता है। प्रसूति की हवा से उसी समय शिशु श्वास लेने लगता है तथा अब उसे किसी बात का ज्ञान भी नहीं रहता। गर्भ से अलग होकर वह ज्ञान रहित हो जाता है, इसी कारण जन्म के समय वह रोता है।

10. गरुड़ पुराण के अनुसार, जैसी बुद्धि गर्भ में, रोग आदि में, श्मशान में, पुराण आदि सुनने में रहती है, वैसी बुद्धि सदा रहे तब इस संसार के बंधन से कौन नहीं छूट सकता। जिस समय शिशु कर्म योग द्वारा गर्भ से बाहर आता है, उस समय भगवान विष्णु की माया से वह मोहित हो जाता है। माया से मोहित तथा विनाश वह कुछ भी नहीं बोल सकता और बाल्यावस्था के दु:ख भी भोगता है।


भागवत पुराण में दर्ज़ है गर्भधारण का पूरा विज्ञान, पढ़ें एक आश्चर्यजनक खोज

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गर्भ में शिशु का निर्माण

इंसान के जन्म की कहानी भी कितनी अद्भुत है। विज्ञान के अनुसार जब स्त्री के अंडाणु का पुरुष के शुक्राणु के द्वारा निषेचन होता है, तब गर्भ में एक शिशु का निर्माण होता है। धीरे-धीरे उसके शरीर के अंग बनते हैं, बाहरी अंगों के साथ अंदरूनी अंग भी पनपते हैं। एक लम्बा समय काटकर वह मां के गर्भ से बाहर आता है।

गर्भधारण के पहले दिन से आखिरी दिन तक
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गर्भधारण के पहले दिन से आखिरी दिन तक

साइंस में यह सब प्रक्रिया बड़े सुचारू रूप से समझाई गई है। स्त्री के गर्भधारण करने के पहले दिन से लेकर आखिरी दिन तक गर्भ के भीतर होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को विस्तार से समझाया है विज्ञान ने। वैज्ञानिक भाषा में इस प्रक्रिया को ‘भ्रूणविज्ञान’ कहा जाता है।


भागवत पुराण में भ्रूण विज्ञान

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भागवत पुराण में भ्रूण विज्ञान

लेकिन आधुनिक विज्ञान से वर्षों पहले ही भागवत पुराण में भ्रूण विज्ञान का उल्लेख कर दिया गया था। कपिल मुनि द्वारा एक शिशु के जन्म की कहानी का वर्णन भागवत पुराण में विस्तारित रूप से किया गया है। कपिल मुनि द्वारा यह तथ्य भागवत पुराण में महाभारत की घटना के काफी बाद लिखे गए थे।

बच्चे भगवान का तोहफा
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बच्चे भगवान का तोहफा

लेकिन फिर भी यह समय आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा भ्रूण विज्ञान की व्याख्या से हज़ारों वर्षों पहले का था। जब तक आधुनिक विज्ञान द्वारा इस तथ्य को परिभाषित नहीं किया गया था, तब तक पश्चिमी देशों का भी यह मानना था कि बच्चे भगवान द्वारा इंसान को दिया हुआ एक तोहफा हैं। भगवान की मर्जी से ही इनका धरती पर आगमन होता है। लेकिन भागवत पुराण में इसके विपरीत तथ्य शामिल हैं।

स्त्री बीज की व्याख्या
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स्त्री बीज की व्याख्या

भागवत पुराण में रज एवं रेत का उल्लेख किया गया है। यहां रज से तात्पर्य स्त्री बीज है तथा रेत का अर्थ है पुरुष का वीर्य। और इन दोनों के मेल को कलाल कहा गया है। कलाल एक ऐसा शब्द है जो स्त्री बीज के वीर्य से मिलाप के बाद होने वाली सम्पूर्णता को दर्शाता है, जिसके बाद ही संतान के गर्भ में होने का पता लगता है।

कपिल मुनि की खोज

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कपिल मुनि की खोज

भागवत पुराण में दिए गए इस उल्लेख के वर्षों बाद साइंस ने विभिन्न प्रकार के एक्स-रे और स्कैनिंग तरीके से यह पता लगाया कि किस प्रकार से गर्भ में बच्चे का जन्म होता है। लेकिन कपिल मुनि द्वारा वर्षों पहले ही यह आविष्कार कर लिया गया था कि 12 घंटों के भीतर मां के गर्भ में कलाल का निर्माण हो जाता है। भागवत पुराण के इस तथ्य को विज्ञान ने भी सही माना है।

अंडे का आकार
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अंडे का आकार

अब यह कलाल अगली पांच रातों का समय लेता है और फिर एक बुदबुदे में बदलता है। यहां बुदबुदे से यात्पर्य है एक प्रकार का बुलबुला। इसके बाद 10 दिनों में यह बुदबुदा एक कार्कंधु में बदल जाता है। इसके बाद और अगले 5 दिनों में यानी कि 15 दिनों के बाद यह कार्कंधु एक अंडे का आकार ले लेता है।

कपिल मुनि का ज्ञान
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कपिल मुनि का ज्ञान

आश्चर्य की बात है कि आज साइंस भी ठीक इसी प्रकार से एक के बाद एक किस प्रकार से स्त्री के भ्रूण में बच्चे का विकास होता है, उसे समझाता है। यह तथ्य हमें बेहद अचंभित करते हैं कि एक ऐसे युग में जब तकनीक के नाम पर कुछ भी मौजूद नहीं था, तब भी कपिल मुनि ने अपने पराक्रम एवं ज्ञान से इतनी बड़ी जानकारी हासिल की थी।


एक महीने बाद

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एक महीने बाद

भागवत पुराण में दिए गए इस उल्लेख के अनुसार स्त्री के गर्भधारण करने के ठीक एक महीने बाद अथवा 31वें या फिर 32वें दिन गर्भ में पल रहा अंडा एक सिर का आकार ले लेता है। आज के आधुनिक युग में मशीनों की मदद से बच्चे का यह सिर आसानी से देखा जा सकता है।

दूसरा महीना
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दूसरा महीना

आगे भागवत पुराण का कहना है कि दूसरा महीना पूरा होने पर बच्चे के अन्य शारीरिक अंग बनना शुरू हो जाते हैं। और तीसरे महीने में तो शरीर पर बाल आने लगते हैं, नाखून निकल आते हैं और धीरे-धीरे हड्डियां एवं त्वचा अपना आकार लेने लगती हैं।

एक अजब अहसास
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एक अजब अहसास

महज एक अंडे से बच्चे के इस आकार को बनता देखना एवं साथ ही स्त्री द्वारा महसूस कर सकना भी एक अजब ही अहसास है। यह वही स्त्री समझ सकती है जिसने महीनों तक अपने भीतर एक जीवित जान को रखा हो। इन सभी तथ्यों से अलग एक और तथ्य ऐसा है जिसने साइंस को भी काफी पीछे छोड़ दिया है।

3 महीने पूर्ण होते ही
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3 महीने पूर्ण होते ही

भागवत पुराण के अनुसार महिला के गर्भ के भीतर पल रहे बच्चे का गुप्तांग तीसरे महीने के खत्म होते ही बन जाता है। वैसे तो यह गुप्तांग 8 हफ्तों के पूरे होने के बाद बनना शुरू हो जाते हैं, लेकिन 3 महीने पूर्ण होते ही इनका आकार अपने पूर्ण चरम पर पहुंच जाता है।

सात धातु का निर्माण
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सात धातु का निर्माण

कपिल मुनि ने इसके बाद चौथे महीने का वर्णन पूर्ण आध्यात्मिक रूप से किया है। उनका कहना है कि चौथे महीने में गर्भ में पल रहे शिशु के सात धातु अपना रूप ले लेते हैं। यहां सात धातु से तात्पर्य है रस (शारीरिक कोशिकाएं), रक्त (खून), स्नायु (मांसपेशियां), मेद (चर्बी), अस्थि (हड्डियां), मज्ज (तान्त्रिका कोशिका) तथा शुक्र (प्रजनन ऊतक)।

पांचवें महीने में भूख-प्यास महसूस होना
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पांचवें महीने में भूख-प्यास महसूस होना

भागवत पुराण में गर्भ में पल रहे बच्चे को चौथे के बाद पांचवें महीने में भूख-प्यास महसूस होने लगती है। इस तथ्य को विज्ञान ने भी सराहा है। विज्ञान भी मानता है कि पांचवें महीने में जिस भी प्रकार का अन्न, जल, खाद्य पदार्थ मां लेती है, वही बच्चे द्वारा ग्रहण किया जाता है।

छठा महीना
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छठा महीना

गर्भवती महिला के लिए छठा महीना भी बेहद अहम माना जाता है। यह वह महीना है जब भ्रूण अंदर घूमने लगता है। यह तथ्य भागवत पुराण में मौजूद है, जिसे विज्ञान भी मानता है लेकिन इसके बाद सातवें महीने के तथ्य को विज्ञान आज तक समझ नहीं पाया है या फिर आज भी वह इस खोज से कोसों दूर है।

सातवें महीने में बच्चे का दिमाग काम करता है
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सातवें महीने में बच्चे का दिमाग काम करता है

भागवत पुराण के अनुसार गर्भ धारण के सातवें महीने में जब बच्चे का दिमाग काम करने लग जाता है तो वह अपने पूर्व जन्म को याद करता है। पूर्व जन्म की कहानियां उसके दिमाग में जगह बनाने लगती हैं। इसके साथ ही वर्तमान में वह गर्भ के भीतर जो ज़िंदगी जी रहा है, उसकी यादें भी उसके मस्तिष्क में भरने लगती हैं, लेकिन साइंस इन तथ्यों को नहीं मानता।

पूर्व एवं पुनर्जन्म की यादें
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पूर्व एवं पुनर्जन्म की यादें

साइंस का कहना है कि सातवें माह में शिशु का दिमाग जरूर काम करने लग जाता है, किन्तु पूर्व एवं पुनर्जन्म से संबंधित बातों को साइंस खारिज करता है। साइंस का कहना है कि यदि यह यादें दिमाग में भर जाती हैं तो जन्म होने के बाद शिशु कैसे सब भूल जाता है।

पीड़ा मिलने से भूल जाता है
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पीड़ा मिलने से भूल जाता है

इसका जवाब भी भागवत पुराण में दिया गया है। भागवत पुराण के अनुसार जन्म के समय बच्चा तमाम पीड़ा से होकर गुजरता है। गर्भ से बाहर आते समय सबसे ज्यादा यदि उसके किसी अंग को कष्ट पहुंचता है तो वह है उसका सिर। उसके सिर को मिलने वाली पीड़ा उसके दिमाग पर गहरा असर करती है, जिसकी वजह से वह कुछ याद नहीं रख पाता है।

आठवां और नौवां महीना
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आठवां और नौवां महीना

इसके बाद कपिल मुनि बताते हैं कि आठवें महीने में शिशु अपने सिर और पीठ को मोड़कर मां के गर्भ में बैठा हुआ होता है। इसके बाद नौवें महीने में वह सांस लेना शुरू कर देता है। बच्चे को ऑक्सीजन और आहार अपनी माता द्वारा ही प्राप्त होता है और फिर दसवें महीने में प्रसूति वायु द्वारा शिशु को नीचे की ओर धकेला जाता है। इसके बाद ही मां बच्चे को जन्म देती है।

शारीरिक क्रोमोसोम
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शारीरिक क्रोमोसोम

भागवत पुराण में साइंस की प्रसिद्ध परिभाषा क्रोमोसोम यानी कि गुणसूत्र पर भी विस्तार से व्याख्या दी गई है। इसका मानना है कि पुरुष के 23 क्रोमोसोम एवं महिला के 23 क्रोमोसोम मिलकर ही एक शिशु का निर्माण करते हैं। यही तथ्य साइंस द्वारा भी ग्रहण किया गया है। लेकिन एक ऐसा समय भी था जब 23 की बजाय 24 क्रोमोसोम के उपस्थित होने का दावा किया जाता था।

लेकिन 24वां गुणसूत्र भी है
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लेकिन 24वां गुणसूत्र भी है

पौराणिक तथ्यों के आधार पर भी ऐसी ही एक दुविधा शामिल है। जहां भागवत पुराण 23 गुणसूत्र होने का दावा करता है, वहीं दूसरी ओर महाभारत के अनुसार 24 गुणविधियां हैं जिसमें से आखिरी है ‘प्रकृति’। वर्षों बाद विज्ञान द्वारा भी 23 या 24 गुणसूत्र होने जैसी अव्यवस्था का सामना किया गया।

दुविधा की बात
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दुविधा की बात

जिन वैज्ञानिकों ने शरीर में 24 क्रोमोसोम होने का दावा किया उन्हें विज्ञान द्वारा नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया। वर्ष 1962 तक तो स्कूल की किताबों में भी शरीर में 24 क्रोमोसोम होने का वर्णन किया जाता था, लेकिन बाद में कुछ अन्य वैज्ञानिकों के शोध ने 24 की बजाय 23 क्रोमोसोम होने का दावा किया।

महाभारत युग में भी
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महाभारत युग में भी

जिसके बाद से इसे अपना भी लिया गया लेकिन इन नए वैज्ञानिकों को किसी भी प्रकार का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। जिस प्रकार की अव्यवस्था आज के समय में विज्ञान ने देखी है, हो सकता है यही दुविधा उस युग में भी हुई होगी, जब महाभारत और भागवत पुराण के तथ्यों में अंतर पाया गया।



भारत एक ऐसा देश है। जहां केवल चमत्कार को ही नमस्कार किया जाता है। यहां जब भी किसी चमत्कार की बात होती है तो उसका क्रेडिट देवताओं को दिया जाता है। हालांकि इसका कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलता कि उन चमत्कारों के पीछे किसी दैवीय शक्ति का ही हाथ होता है। चुंकि हमारे शास्त्रों और पुराणों में भी यहीं बताया गया है कि देवी-देवता ही हमारे सर्वोसर्वा है। इसलिए हमलोग हमेशा देवताओं की ही जय-जयकार करते रहते हैं। लेकिन अगर हम आपसे कहे कि आपके शरीर के अंदर देवताओं से ज्यादा अद्भुत दिव्य और चमत्कारी शक्तियां मौजूद हैं तो आप शायद यकीन नहीं करेंगे। क्योंकि जब से हमारी आंखें खुली है। हम बाहर ही देखते आए हैं। हमारे परिवार और समाज ने भी हमें केवल बाह्य जगत के बारे में बताया है। शायद इसलिए हमारा ध्यान कभी अपने भीतर कभी गया ही नहीं है। परन्तु इस आर्टिकल में हम मानव शरीर के भीतर छिपी ऐसी दिव्य और अलौकिक शक्तियों के बारे में बतायेंगे। जिसको सुनने के आपको हनुमानजी की तरह अपनी भूली हुई शक्तियां याद आ जायेगी। और आपको अपने मनुष्य होने पर गर्व होगा।

 

मनुष्य की शक्तियां - manusya ke andur kitni shakti hoti hai

आपने सुना होगा कि देवता भी मनुष्य जन्म लेने के तरसते हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि मनुष्य को जितनी शक्तियां, जितने अधिकार मिले हैं उतने देवताओं को भी नहीं मिलें हैं। मनुष्य को इतनी शक्तियां मिली है कि वह जो चाहे वह कर सकता है। वह चाहे तो स्वयं का विकास कर सकता है या चाहे तो विनाश कर सकता है। मनुष्य की इतने अधिकार मिले हैं कि वह जो चाहे बन सकता है। चाहे तो ईश्वर हो सकता है या चाहे तो शैतान हो सकता है। मनुष्य की शक्तियां और उसके विकास की संभावनाएं अनंत है किंतु देवताओं की शक्तियां सिमित है। इसलिए देवता भी मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिए तरसते हैं। हमारे शास्त्रों के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में कुल 33 करोड़ देवी-देवता हैं। हमारे मुख्य देवताओं में अग्निदेवपवनदेववरूण देवसुर्य देव और इन्द्र इत्यादि का‌ नाम आता है। जो सभी देवताओं के राजा हैं। 


लेकिन आपको याद होगा कि ये इंन्द्र 33 करोड़ देवी-देवताओं के साथ मिलकर भी बालिरावणमेघनाथमहिषासुर, और हिरण्यकशिपु इत्यादि राक्षसों को नहीं हरा पाते थे। तब भगवान विष्णु को मनुष्य जन्म ले कर इन राक्षसों का वध करना पड़ता था। इससे यह साबित होता है कि मनुष्य शरीर में इन 33 करोड़ देवी-देवताओं से भी ज्यादा शक्तियां छिपी हुई है। आपने ये भी सुना होगा कि पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य कठोर तपस्या या साधना करता है तो देवराज इन्द्र का सिंघासन डोलने लगता है। वे डर कर उसकी तपस्या भंग करने की कोशिश करने लगते हैं। इसका यह अर्थ हो सकता है कि शायद इंन्द्र जानते हैं कि मनुष्य के भीतर हमसे भी ज्यादा चमत्कारी शक्तियां छिपी हुई है। और शायद उन्हें हमेशा इस बात का सताता रहता है कि कहीं मनुष्य ने अपने अंदर की शक्तियों को जागृत कर लिया तो यह देवताओं को हरा सकता है। इसके बारे में तो हमने एक कहानी भी पढ़ी है। जिसे हम यहां संक्षेप में सुनाना चाहते हैं।

देवताओं को जब पता चला कि परमात्मा ने मनुष्य के भीतर समस्त ब्रह्मांड की शक्तियां भर दी है। तो वे चिंतित हो गए कि यदि मनुष्य ने इन शक्तियों को जागृत कर लिया तो वह समस्त देवताओं को पराजित कर सकता है। इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने सभा बुलाई और इस बात पर चर्चा हुई कि मनुष्य की चमत्कारी शक्तियों को कहाँ छुपाया जाये। एक देवता ने कहा कि इसे हम एक जंगल की गुफा में रख देते हैं। दूसरे देवता ने कहा नहीं- नहीं हम इसे पर्वत की चोटी पर छिपा देंगे। तीसरे देवता राय दी कि हम इसे समुद्र की गहराइयों में छिपा देते हैं। इन सबकी बारी खत्म होने के बाद एक बुद्धिमान देवता ने कहा क्यों न हम मनुष्य की चमत्कारिक शक्तियों को उसके अंदर ही छिपा दें। चूँकि मनुष्य की आंखें बाहर की चीजें ही देखती है और उसका मन भी चंचल है। जो हमेशा भटकता रहता है। ऐसे में वह कल्पना भी नहीं कर सकता कि इतनी अदभुत और चमत्कारी शक्तियां उसके भीतर छिपी हो सकती हैं। और वह इन्हें बाहरी जगत में ही खोजता रहेगा। ‌यह बात इन्द्र को भी पसंद आई और उन्होंने ऐसा ही किया। मनुष्य के भीतर ही उसकी चमत्कारी शक्तियों का भण्डार छुपा दिया गया। परन्तु प्राकृति के नियमों के अनुसार संसार के जीवन चक्र को गतिशील रखने के लिए आवश्यक कुछ शक्तियां जैसे कर्म शक्ति, ज्ञान शक्तिइच्छा शक्ति और कल्पना शक्ति अभी भी मनुष्य शरीर में जागृत थी।


अतः कुछ श्रेष्ठ मनुष्यों अर्थात ऋषि मुनियों ने इन्हीं शक्तियों को विकसित किया और अपने अंदर छिपी उन शक्तियों को खोज लिया। और उसके बल पर वे परमात्मा तत्व को प्राप्त हो गए।‌ परंतु उससे पहले उन्होंने मनुष्य के उद्घार के लिए कुछ योग्य मनुष्यों को इसका ज्ञान दे दिया। जो प्रवचनों और उपदेशों के रूप में शास्त्रों में मौजूद हैं। प्राचीन काल के लोगों ने इन शक्तियों को उसके उच्चतम स्तर तक विकसित किया और उसका उपयोग अपने अध्यात्मिक विकास के लिए किया‌। इसलिए उस समय ध्रुवनचिकेतातुलसीदासकबीर,नानक राम, कृष्ण और बुद्धमहावीर जैसे लोगों का जन्म हुआ। जिन्होंने अपनी आंतरिक शक्तियों को जागृत किया और उसके बल पर परमात्म पद को प्राप्त कर लिया। मध्य कालीन युग के अधिकांश लोगों ने इन शक्तियों का करीब 20% हिस्सा जागृत किया और उसके अपने मानसिक विकास के लिए उपयोग किया। जिसके परिणामस्वरूप विज्ञान युग की शुरुआत हुई और अल्बर्ट आइंस्टीननिकोला टेस्लान्यूटन और एडीसन जैसे वैज्ञानिकों का जन्म हुआ। जिन्होंने अपने मानसिक शक्ति के बल पर पूरी दुनिया ही बदल डाली। आज मनुष्य में उन शक्तियों का 2% हिस्सा जागृत है। आजकल मनुष्य उसका उपयोग केवल भौतिक सुख साधनों के लिए कर रहा है इसलिए आजकल विल गेट्स, जेफ बेजोसएलन मस्क और अंबानी जैसे लोग पैदा हो रहे हैं। जिनका जीवन पूरी तरह संसारिक भोग-विलास के आस-पास ही केन्द्रित है। आजकल अधिकांश: मनुष्य इन्हीं लोगों से प्रेरित होकर इनके आदर्शों पर चल रहे हैं। यह बड़े दुःख की बात है, कि हमारे पास ईश्वर होने की क्षमता है फिर भी हम अपनी अज्ञानता और नासमझी के कारण पशुवत जीवन जी रहे हैं। इतनी अद्भुत और चमत्कारी शक्तियों का इतना तुच्छ और महत्वहीन उपयोग समझदारी भरा निर्णय नहीं कहा जा सकता।‌‌ यूं समझ लीजिए कि हम सोने के घड़े में कंकड़-पत्थर इकट्ठा कर रहे हैं। जिनका हमारे अस्तित्व से कोई अधिक संबंध नहीं है। 

हमारे अंदर दिव्य और अलौकिक शक्तियों का अक्षय भंडार है लेकिन हम इतनी मुर्छा में जी रहे हैं कि हमें उसकी खबर भी नहीं है। इसलिए हम अनंत शक्तियों के स्वामी होते हुए भी खुद को दीन-हीन समझ रहे हैं। अपनी मुर्छित अवस्था के लिए हम स्वयं तो जिम्मेदार है ही। लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था और समाजिक ढांचा कुछ कम जिम्मेदार नहीं हैं। शायद अल्पज्ञानी मनुष्यों को शास्त्रों में लिखी हुई कुछ बातें ठीक से समझ में नहीं आई और उन्होंने उसकी गलत विवेचना कर दी। जो आज के मनुष्यों में अंधविश्वास और गलत धारणाओं के रूप में मौजूद हैं। परन्तु यकीन किजिए आप जितना सोच रहे हैं। आपके अंदर उससे कहीं ज्यादा शक्ति है। अगर आप कुछ दिनों तक एकांत में बैठकर अपने भीतर झांकने की कोशिश करें तो यकीनन आपको उसकी झलक मिलने लगेगी।






मनुष्य के 7 शरीर- 7 bodies OF human In Hindi

7. निर्वाण शरीर - Nirvanic body
6. ब्रह्म शरीर - casmic body

5. आत्मिक शरीर - spritual body
4. मनस शरीर - mental body
3. सुक्ष्म शरीर - Astral body
2. भाव शरीर - ethric body
1. भौतिक शरीर - physical body

शरीर के सात चक्र कौन-कौन से है - seven chakras

7. सहस्त्रार चक्र - sahastrahar chakra
6. आज्ञा चक्र - aagya chakra
5. विशुद्ध चक्र - vishuddh chakra
4. अनाहत चक्र - anahata chakra
3. मणिपुर चक्र - manipur chakra
2. स्वाधिष्ठान चक्र - swadhisthana chakra
1. मूलाधार चक्र - muladhar chakra
 
यूं समझ लीजिए कि हमारा शरीर एक सात मंजिला इमारत है। सातों तलों पर एक एक शरीर हैं। जो सात अलग-अलग चक्रों से जुड़े हुए हैं। इन सात शरीरों की ऊर्जा इगलापिंगला और सुषुम्ना इन तीन मुख्य नाड़ियों के माध्यम से इन सात चक्रों से होकर गुजरती है। सभी चक्रों की अलग-अलग शक्तियां हैं और सभी शरीरों की अलग-अलग प्रकृति और संभावनाएं है। तो आइए अब इन Seven bodies and seven chakras की विस्तार से व्याख्या करते हैं।

1. फिजिकल बाॅडी अर्थात भौतिक शरीर

हमारा यह शरीर हाड़-मांस का बना हुआ है। इस शरीर का निर्माण प्रकृति के पंचतत्वों अग्नि,जल,पृथ्वी, वायु और आकाश से हुआ है। जिसे हम भोजन के रूप प्रकृति के विभिन्न स्तोत्रों से ग्रहण करते हैं। इस शरीर की प्रकृति सेक्स, भुख और निंद्रा की है। यह शरीर हमारे मुलाधार चक्र से जुड़ा होता है। जो इस उर्जा शरीर का केंद्र बिंदु है। इसी उर्जा के कारण हमें सेक्स, भुख और नींद की जरूरत महसूस होती हैं। क्योंकि हमारे भौतिक शरीर को गतिशील बनाएं रखने के लिए ये तीनों ही चीजें आवश्यक है। सामान्यतः 7 वर्ष की अवस्था आते-आते यह उर्जा मनुष्य के शरीर में सक्रिय हो जाती है। इस घरती के अधिकांश प्राणी इसी तल पर अपना सारा जीवन बीता देते हैं। वे बार-बार इसी तल पर जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। जन्म-मृत्यु का यह जीवन चक्र जन्मों जनम तक चलता रहता है। परन्तु जो इस उर्जा को समझ कर उसका सदुपयोग कर लेता है।  उसके भीतर ब्रह्मचर्य का जन्म होता है। यानी वह सेक्स और भुख से ऊपर उठ कर जीवन की अन्य संभावनाओं के बारे में सोचता है। जैसे- नैतिकता, धार्मिकता, अध्यात्म, परम आनंद अथवा मोक्ष इत्यादि।


2. इथरिक बाॅडी अर्थात भाव शरीर


इस शरीर में हमारी भावनाएं होती है। भाव शरीर को रसायनिक उर्जा नियंत्रित करती है। जिन्हें हम हार्मोंन्स भी कहते हैं। हार्मोंन्स अनेकों प्रकार की सुक्ष्म रसायनों से निर्मित होते है। हम भोजन के रूप में जो चीजें ग्रहण करते हैं। वहीं चीजें पचने के बाद विभिन्न रसायनों में परिवर्तित हो जाती है। हमारे शरीर के विभिन्न स्थानों पर कई अंत स्रावी ग्रंथियां होती है। जिनसे इन सुक्ष्म हार्मोन्स का रिसाव होता है। हमारे भीतर क्रोध, मोह घृणा, हिंसा और भय जैसी जितनी भी दुर्भावनाएं उठती है। वह इसी उर्जा के प्राकृतिक प्रभाव के कारण उठती है। सामान्यतः 14 वर्ष की अवस्था में यह उर्जा मानव शरीर में सक्रिय हो जाती है। यह उर्जा शरीर स्वाधिष्ठान चक्र से जुड़ा होता है। जो हमारे नाभि के करीब चार अंगुल नीचे स्थित होता है। जो मनुष्य अपनी भावनाओं के प्रति जागरूक हो कर इस उर्जा को विकसित कर लेता है। उसके अंदर प्रेम, क्षमा, अहिंसा करूणा और परोपकार जैसी अच्छी भावनाएं प्रबल होने लगती है।



3. एस्ट्रल बाॅडी यानी सुक्ष्म शरीर


आध्यात्मिक जगत में इसे प्राणमय कोश भी कहा जाता है। यह शरीर अति सुक्ष्म अदृश्य ऊर्जा तरंगों से निर्मित है। हमारे शरीर में अरबों न्यूरो ट्रासमीटर्स का एक जाल बिछा हुआ है। जिनसे ये इलेक्ट्रिक तरंगे दौड़ती रहती है।‌ यह शरीर मणिपुर चक्र से जुड़ा हुआ है। जो नाभि के केंद्र में स्थित होता है। इसी उर्जा की के प्रभाव से ही हमारे मन में तरह-तरह के संदेह और विचार उत्पन्न होते हैं। परन्तु जो मनुष्य इस उर्जा को इसके उच्चतम संभावना को विकसित कर लेता है। उसके अंदर श्रद्धा, विश्वास और संकल्प शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह व्यक्ति एक नियोजित विचार कर सकता है। एक समझदार व्यक्ति अपनी समझ और साधना के द्वारा इस तल पर आराम से पहुंच सकता है। हठयोग के द्वारा भी इस उर्जा को नियंत्रित किया जा सकता है। 



4. मेंटल बाॅडी यानी मनस शरीर


अध्यात्म में इसे मनोमय कोश भी कहा जाता है। 

इस तल तक बहुत कम मनुष्य ही पहुंच पाते हैं। यह उर्जा शरीर अनाहत चक्र से जुड़ा हुआ है। जो हमारे हृदय में मध्य में स्थित है। इसी उर्जा के प्रभाव से हमारे भीतर स्वप्न शक्ति और कल्पना शक्ति उत्पन्न होती है। इसी उर्जा के प्रभाव से हम हमेशा स्वप्न और कल्पनाओं में खोए रहते है। परन्तु यह कल्पना शक्ति प्राकृतिक रूप यह अस्पष्ट और अनियंत्रित होती है। इसलिए हम केवल कल्पनाओं में भटकते रहते हैं। परन्तु जो मनुष्य संयम,समझ अथवा साधना के द्वारा इस उर्जा को उसके अधिकतम संभावनाओं तक विकसित कर लेते हैं। उनके अंदर स्पष्ट कल्पनाशीलता और अद्भुत सृजनात्मकता उत्पन्न हो जाती है। इस संसार में जितने भी महान वैज्ञानिक, चित्रकार, गीतकार अथवा आविष्कारक हुए हैं। वे इसी उर्जा के विकास के कारण हुए हैं। स्वामी विवेकानंद, अल्बर्ट आइंस्टीन, लिओनार्दो दा विंची और निकोला टेस्ला इत्यादि इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। हठयोग अथवा अन्य युक्तियों द्वारा इस उर्जा को इसके उच्चतम संभावना तक विकसित करके कई अद्भुत चमत्कारिक सिद्धियां भी हासिल की जा सकती है।



5. स्प्रिचुअल बाॅडी यानी आत्मिक शरीर


यह शरीर हमारे विशुद्ध चक्र से जुड़ा होता है। जो हमारे गले के कंठ में स्थित है। इस तल पर पहुंचते ही मनुष्य के अन्दर सभी प्रकार के दैत और अहंकार मिट जाते हैं। और उसे अपने आत्मस्वरुप का बोध होता है अर्थात वह को आत्म ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। इस शरीर में अब वह मनुष्य नहीं रह जाता बल्कि देव स्वरूप हो जाता है। परम आनंद इस शरीर की प्रकृति है। इसलिए इस शरीर में सारे दुख-दर्द समाप्त हो जाते हैं और वह केवल आनंद ही आनंद अनुभव करता है। इसी परम आनंद उस महापुरुष को वर्षों मगन रहता है। यह भौतिक शरीर का आखिरी बिंदु है। यहां तक पंचतत्वों की सीमा समाप्त हो जाती है। इसलिए तल पर मनुष्य जीवन चक्र से बाहर निकल जाता है। अर्थात इसके पश्चात वह पुनः मनुष्य के रूप में संसार में जन्म नहीं लेता। हालांकि वह खुद चाहे तो अपनी मर्जी से संसार में वापस आ सकता है। इस तल तक पहुंचना सामान्य मनुष्य के लिए बहुत कठिन है। कई वर्षों के निरंतर अभ्यास और साधना के बाद भी संसार में कुछ गिने-चुने लोग ही इस शरीर को उपलब्ध हो पाते हैं। 



6. कासमिक बाॅडी यानी ब्रह्म शरीर


यह शरीर हमारे आज्ञा चक्र से जुड़ा हुआ है। इस स्तर तक आते ही मनुष्य ब्रह्म ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। अब वह कह सकता है, अहमं ब्रह्मस्मि यानी मैं ही ईश्वर हूं। उसके पास समस्त ईश्वरीय शक्तियां आ जाती है। अब वह चाहे तो अपने ईच्छा अनुसार नई सृष्टि की रचना कर सकता है। असिमित शक्तियों की चाह रखने वाले हठयोगी हठयोग एवं अन्य साधनाओं द्वारा इस स्तर तक पहुंच सकते हैं। परन्तु अभी भी वह अपने अस्तित्व से जुड़ा होता है इसलिए उनकी यात्रा अभी पूरी नहीं होती। इस दिव्य ऊर्जा के प्रभाव से क‌ई रोगी और ब्रह्मज्ञानी बरसों तक इसी शरीर तक अटके रह जाते हैं।



7. निर्वाण शरीर


यह शरीर सहस्त्रहार चक्र से जुड़ा होता है। जो मनुष्य के सिर के सबसे ऊपरी भाग में होता है। आप नवजात शिशुओं के सिर पर उस स्थान को आराम से देख सकते हैं। इस शरीर में मनुष्य के अंदर से मैं और हूं दोनों मिट जाते हैं और बस ईश्वर शेष रह जाता है। इस आखिरी तल पर मनुष्य का समस्त अस्तित्व शुन्य में विलीन हो जाता है। अब आप उसे ईश्वर अल्लाह परमात्मा या ब्रह्मा, विष्णु महेश, कुछ भी नाम दे सकते हैं। यहां पर आपको एक और बात समझ लेनी चाहिए कि यहां जो मैंने सात शरीरों की बात की है। वे वस्तुत अलग-अलग नहीं हैं बल्कि सभी एक ही उर्जा के ही अलग-अलग रूप है। और ये सारी चीजें हमारे शरीर में अभी भी सुप्त अवस्था में मौजूद हैं।


इस तरह आपकी आत्मा भी कर सकती है दूसरे शरीर में प्रवेश


आत्‍माओं के अस्तित्‍व को लेकर विवाद प्राचीन काल से चला आ रहा है। वहीं अपनी आत्‍मा को बुलाकर उनसे अपनी समस्‍याओं को हल करवाने का चलन भी काफी पुराना है। आत्‍मा के 3 रूप माने गए हैं। जीवात्‍मा, प्रेतात्‍मा और सूक्ष्‍मात्‍मा। जब इस आत्‍मा का वास भौतिक शरीर में होता है तो इसे जीवात्‍मा कहते हैं और जब इसके मन में वासना और कामना आती है तो इसे प्रेतात्‍मा कहा जाता है। यही आत्‍मा जब सूक्ष्‍म रूप में शरीर में प्रवेश करती है तो इसे सूक्ष्‍मात्‍मा कहते हैं। अपनी ही आत्‍मा को प्रकट करके किसी दूसरे शरीर में प्रवेश करवाने के लिए अघोरी और साधक त्राटक विधि का प्रयोग करते हैं। इस विधि में दोनों नेत्रों के बीच स्थित त्रिकुटी को सक्रिय करना होता है। इसके लिए जलती हुई एक लौ या फिर रोशनी के पुंज को एकटक घंटों तक देखने की प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है। आइए जानते हैं यह कितने प्रकार से हो सकता है...

जल में दिखाई पड़ने वाला प्रतिबिम्‍ब

जल में अपने प्रतिबिम्‍ब को देखते हुए आप खुद को एकाग्रचित करके अपनी आत्‍मा का आह्वान कर सकते हैं। दोनों नेत्रों के बीच के भाग को सक्रिय करके आप अपनी आत्‍मा को अपने पास बुलाकर किसी भी प्रकार से उसका प्रयोग कर सकते हैं।


तेल में दिखने वाली परछाईं

इसी प्रकार से पात्र में तेल भरकर उसमें अपना चेहरा ध्‍यान से देखें। तेल में दिखने वाले प्रतिबिम्‍ब को काफी देर तक ध्‍यान से देखने पर आपको उसमें अपनी आत्‍मा दिखाई देने लगेगी। आप उसका आह्वान करके आत्‍मा को बुला सकते हैं।

दीपक का प्रकाश
इसके लिए आपको यह प्रयोग करना होगा कि अंधेरे कमरे में शीशे के सामने बैठ जाएं और उस कमरे में सिर्फ एक मोमबत्‍ती जलाकर रखें। फिर शीशे में अपनी छाया को एकटक देखते रहें बिना पलक झपकाए। लगातार अपनी आंखों में देखते जाएं। दृष्टि का कोण न बदलें। देखते जाएं लगातार अपनी ही आंखों में और दो या तीन दिन में ही आपको अपनी आत्‍मा उस दर्पण में नजर आने लगेगी। आपका चेहरा नए रूप लेने लगेगा। हो सकता है कि आप डर जाएं।

चंद्रमा के प्रकाश में
आप चंद्रमा के प्रकाश में दिखने वाली अपनी परछाईं से भी बात कर सकते हैं। बस उसको एक जगह रुककर एकटक देखते रहें। अपने प्रतिबिम्‍ब की त्रिकुटी पर त्राटक करके आप अपनी आत्‍मा को इस लोक में बुला सकते हैं।

घी में देखें अपना प्रतिबिम्‍ब
शुद्ध देसी घी में भी ध्‍यान से देखने पर भी आपको अपना प्रतिबिम्‍ब नजर आएगा। इस प्रतिबिम्‍ब को देखते हुए आप घी में दिखने वाली अपनी परछाईं से अपनी आत्‍मा को बुला सकते हैं।

अपनी ही छाया होने लगती है सजीव
व्‍यक्ति की छाया जब सजीव होने लगता है तो छाया पुरुष उसमें से ही निकलता है और साधक से बात करने लगता है। प्रतिज्ञाएं कराता है और साधक की सभी इच्‍छाओं की पूर्ति करता है। छाया पुरुष किसी भी व्‍यक्ति के शरीर में प्रवेश कर सकता है और इस प्रकार छाया पुरुष के माध्‍यम से साधक सिद्धि के द्वारा किसी के भी शरीर में प्रवेश कर सकता है।

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