चांद को क्यों कहते हैं चंदा मामा?

चंदा मामा दूर के’ गीत के बोल
चंदा मामा दूर के, पुए पकाये बूर के
आप खाए थाली में, मुन्ने को दे प्याली में
प्याली गई टूट, मुन्ना गया रूठ
लायेंगे नई प्यालिया, बजा-बजा कर तालियां
मुन्ने को मनाएंगे, दूध मलाई खायेंगे
चंदा मामा दूर के…

सूरदास सहित सभी प्राचीन कवियो से लेकर कहानी की हर पुस्तक में हम चाँद को प्यारे-प्यारे मामा ही कहते आए हैं।

चंदा अर्थात चांद को संस्कृत में "चंद्रमा" और हिंदी में "चाँद" कहा जाता है। उपरोक्त बाल कविता अर्थात लोरी के असली लेखक कौन है यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन मैंने बचपन में एक फिल्म देखी थी वचन उसमें यह गीत सुना था।

1955 मे प्रदर्शित फिल्म ‘वचन’ का लोरी बालगीत ‘चंदा मामा दूर के’ छोटे बच्चों को रात में सुलाने के आज भी प्रयुक्त होने वाले सबसे प्रसिद्ध गीतों में से एक है। सुप्रसिद्ध गायिका आशा भोसले की आवाज से सुसज्जित यह गीत माओं का पसंदीदा गीत है। राजेन्द्र कुमार द्वारा रचित व संगीतकार रवि की अनुपम रचना है । जिसे नन्हे मुन्ने बच्चे बड़े ही चाव से सुनना पसंद करते हैं।

और बरसों से हर मां अपने बच्चे को चंदा मामा की यह लोरी सुनाती आ रही है।

तो चलिए आज हम आपको इसका राज बताते हैं। दरअसल पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस समय देवताओं और असुरों के बीच में समुद्र मंथन हो रहा था, उस समय समुद्र से बहुत सारे रत्न निकलेंं थे जिसमें लक्ष्मी जी, वारुणी, चन्द्रमा और विष भी थे।

मां लक्ष्मी के छोटे भाई हैं चंद्रमा

लक्ष्मी जी समुद्र की पुत्री है और वह सागर मंथन के समय समुद्र से उत्पन्न हुई थी। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु के पास चली गईं, इसलिए उनके बाद जो भी रत्न निकलें वो उनके छोटे भाई और बहन बन गए। चंद्रमा उनके बाद समुद्र से निकले थे इसलिए वो उनके छोटे भाई बन गए और चूंकि लक्ष्मी को हम अपनी माता मानते हैं ना इसलिए उनके छोटे भाई हमारे मामा बन गये। इसी कारण चंदा को मामा कहा जाता है। चूंकि ये सभी समुद्र के मंथन से निकले थे, इस कारण समुद्र ही इन सबके पिता कहलाते हैं।

धरती माता के भाई हैं चंद्रमा

चंदा को मामा कहनेे की कहानी के पीछे दूसरा कारण ये भी बताया जाता है कि चंद्रमा, पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है और दिन-रात उसके साथ एक भाई की तरह रहता है, अब चूंकि धरती को हम 'मां' कहते हैं इसलिए उनके भाई हमाारे मामा हुए इसलिए चंदा को मामा कहा जाता है।


क्योंकि धरती से ही चाँद अलग हुआ और धरती को हम माँ कहते हैं धरती माँ उस हिसाब से मां का सबसे करीबी मामा ही हुआ ना, इसलिए चंदा मामा


आज हम आपको इसका राज बताते हैं। दरअसल पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस समय देवताओं और असुरों के बीच में समुद्र मंथन हो रहा था, उस समय समुद्र से बहुत सारे तत्व निकलेंं थे जिसमें मां लक्ष्मी, वारुणी,चन्द्रमा और विष भी थे।

लक्ष्मी के छोटे भाई हैं चंद्रमा

लक्ष्मी जी भगवान विष्णु के पास चली गईं, इसलिए उनके बाद जो भी तत्व निकलें वो उनके छोटे भाई और बहन बन गए। चंद्रमा उनके बाद समुद्र से निकले थे इसलिए वो उनके छोटे भाई बन गए और चूंकि लक्ष्मी को हम अपनी माता मानते हैं ना इसलिए उनके छोटे भाई हमारे मामा बन गये। इसी कारण चंदा को मामा कहा जाता है। चूंकि ये सभी समुद्र के मंथन से निकले थे, इस कारण समुद्र ही इन सबके पिता कहलाते हैं।

धरती माता के भाई हैं चंद्रमा

चंदा को मामा कहनेे की कहानी के पीछे दूसरा कारण ये भी बताया जाता है कि चंद्रमा, पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है और दिन-रात उसके साथ एक भाई की तरह रहता है, अब चूंकि धरती को हम 'मां' कहते हैं इसलिए उनके भाई हमाारे मामा हुए इसलिए चंदा को मामा कहा जाता है।


देशभर में शायद ही कोई ऐसा घर होगा, जिसमें चांद को चंदा मामा न कहते हो। दरअसल, हर एक बच्चा चांद को अपनी शुरूआती समय में चंदा मामा के नाम से ही जानते हैं। ऐसे में कई लोगों के मन में सवाल आता है कि आखिर चांद को मामा ही क्यों कहते हैं, चाचा, नाना क्यों नहीं कहते।

इसके पीछे भी मान्यता है। दरअसल धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, समुद्र मंथन के समय समुद्र से बहुत सारे तत्व निकले थे, जिसमें मां लक्ष्मी और चंद्रमा भी थे। हिंदू धर्म में माता लक्ष्मी को मां माना जाता है, इसलिए चांद को चंदा मामा कहा जाने लगा।

वहीं, एक दूसरा कारण यह भी माना जाता है कि हम धरती को अपनी मां मानते हैं। ऐसे में चांद हमेशा धरती के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता है और इसके साथ रहता है। धरती के साथ रहने के कारण चांद को चंदा मामा कहा जाता है।



चन्द्र देव

Disamb2.jpg चन्द्रदेवएक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- चन्द्रदेव (बहुविकल्पी)

चन्द्र देव अथवा 'चन्द्रमा' का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। पौराणिक संदर्भों में इन्हें तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है।[1] कहीं-कहीं इन्हें धर्मपुत्र, कहीं समुद्र के पुत्र और कहीं प्रभाकर का पुत्र भी कहा गया है। चन्द्र देव का एक नाम 'सोम' भी है।

  • महाभारत में वर्णित अर्जुन के पुत्र वीर अभिमन्यु चन्द्र देव के पुत्र वर्चा के ही अवतार थे। धारणा है कि समस्त देवताओं ने अपने पुत्रों को अवतार रूप में धरती पर भेजा था, परंतु चन्द्र देव ने कहा कि- "वे अपने पुत्र का वियोग सहन नहीं कर सकते, अतः उनके पुत्र को मानव योनि में मात्र सोलह वर्ष की आयु दी जाए।" इसीलिए अभिमन्यु महाभारत युद्ध में अल्प आयु में ही वीरगति को प्राप्त हुए।

३६८ ४८ प्रथितैर्वचोभिरर्यैः स्तूयमानो महर्षिभिः। सेव्यते गोतनृत्यैश्च गन्धर्वैरप्सरोगणैः। पतङ्गः पतगैरश्वंभ्रममाणो दिवस्पतिः वीथ्याश्रयाणि चरति नक्षत्राणि तथा शशी । हसवृद्ध तथैवास्य रश्मीनां सूर्यवत्स्मृते ।। ४६ त्रिचक्रोभयपाश्र्वस्थो विज्ञेयः शशिनो रयः । अपां गर्भसमुत्पन्नो रथः साश्वः ससारथिः । शतारैव त्रिभिश्रद्युक्तः शुक्लैर्हयोत्तमैः ५० दशभिस्तु कुशैदिव्यैरसङ्गैस्तैर्मनोजवैः । सकृद्युक्ते रथे तस्मिन्वहन्ते चऽऽयुगक्षयात् ५१ संगृहीतो रथे तस्मिञ्श्वेतचक्षुःश्रवास्तु वै । अश्वास्तमेकवर्णास्ते वहन्ते शङ्कवचंसम् ययुला त्रिमनाश्चैव वृषो राजीवलो हयः । अधो वामस्तुरण्यव हंसो व्योमी मृगस्तथा ॥५३ इत्येते नामभिः सर्वे दश चन्द्रमसो हयाः। एते चन्द्रमसं देवं वहन्ति दिवसक्षयात् ।५४ देवैः परिवृतः सोमः पितृभिश्चैव गच्छति । सोमस्य शुक्लपक्षादौ भास्करे पुरतः स्थिते । आपूर्यते पुरस्यान्तः सततं दिवसक्रमात् देवैः पीतं क्षये सोममाप्याययति नित्यदा। पीतं पञ्चदशाहं तु रश्मिनैकेन भास्करः अपूरयन्सुषुम्नेन भागं भागमहःतमात् । सुषुम्नाप्यायमानस्य शुक्ला वर्धन्ति वै फलाः ५७ ५२ ५५ ५६ वालखिल्य ऋषियों द्वारा आवृत होकर दिन-रात किया करते हैं । अग्रगामी महषि अभिमत वचनों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गन्धर्व-अप्सराएँ नृत्य-गीत से उनकी सेवा करती हैं । इस प्रकार आकाशगाम दिन नामक सूयं अश्वो के साथ भ्रमण करते हैं ।४७-४८ चन्द्रमा भी नक्षत्रों की गलियो से चला करते है। इनकी किरणों का भी सूर्य की तरह वृद्धि और नाश हुआ करता है । चन्द्रमा के रथ में तीन चक्के हैं और दोनों तरफ घोड जुने हुये हैं । इसका यह यह रथ अश्व और सारथि के साथ जल के भीतर से उत्पन्न हुआ है । इस २य में एक सौ अराये, तीन, तीन वक्के और उज्ज्वल वर्ण के उत्तम घोड़े जुते हुये हैं ।४६-५० ये दिव्य अश्व गिनती मे दस हैं। ये मन की तरह वेगवान्, कृश, असङ्ग जोते गये और कल्पादि में एक बार हैं, जो युगान्त पर्यन्त रथ का वहन करते हैं । रथ में जुते हुए उज्ज्वल वर्ण के वे अइख के समान कान्तिवाले चन्द्र के रथ को आकाश मे खीचते रहते हैं 1५१-५२चन्द्रमा के दसों घोड़ों के नाम हैं—ययु, त्रिमना, वृष, राजीवल, वाम, तुरण्य, हंस, व्योमी और मृग । ये घोड़े चन्द्रदेव को कल्पांत पर्यन्त वहन करते है । देवो और पितरो द्वारा सेव्यमान होकर चन्द्रमा इसी प्रकार गमन करते है ।५३-५५। शुक्ल पक्ष में सूर्य चन्द्रमा के आगे रहते हैं और देवो द्वारा पिये गये चन्द्र को दिवस क्रम से नित्य प्रति परिपुष्ट कर तृप्त करते है। इस प्रकार पन्द्रह दिन पिये गये चन्द्र को सूर्य एक सुषुम्न किरण द्वारा दिवसक्रम से प्रतिदिन एक-एक भाग करके प्रण



 लिंग पुराण के १९१ संक्षेप से ब्रह्माण्ड के विषय में कहता हूँ। मानस के ऊपर
मेरू पर पूर्व की ओर महेन्‍द्री पुरी है।
दक्षिण में वारुणी पुरी है।
पश्चिम में अमरावती तथा
उत्तर में संयमनी पुरी है।
सुर्य ☀ जब दक्षिणायन होते हैं, तब शीघ्र गति होती है। उत्तरायण में मन्द गति होती है। जब आएनेय में रहते हैं तब पराह्न समय और जब नैऋतु दिशा में रहते हैं तब पूर्वाह्न समय होता है। वायच्य में रहने पर अपराह्न तथा ईशान में पूर्वशात्र होती है। रथ सहित चलते हुए सूर्य की देव मुनि, गन्धर्व, अप्सरा,अप्सरा सर्प, राक्षस आदि अग्रषष्ठ से स्तुति करते हुए चलते हैं। सूर्य की गति से ही ३० घड़ी का दिन तथा ३० घड़ी की रात्रि विद्वान लोग कहते हैं। सूर्य ही अपनी किरणों से वायु के द्वारा जल खींचता है तथा पृथ्वी पर वर्षा करता है। जल ही जगत का प्राण है। जल शिव रूप है और अर्धनारी रूप वाले शिव ही सूर्य रूप से जल की वर्षा करते हैं। हे ब्राह्मणो!

इन शिव जी के प्रसाद से ही नाना प्रकार से वृष्टि होती है।

सूर्य रथ निर्णय वर्णन


सूतजी बोले–हे मुनियो!
अब मैं आप लोगों से संक्षेप में सूर्य के रथ का तथा चन्द्र और ग्रहों के रथ का वर्णन करता हूँ । सूर्य का रथ सुवर्ण मय है जो  ब्रह्मा ने रचा है। सम्व॒त्सर इस रथ के अवयव हैं। यह तीन नाभि का चक्र और पाँच अरा वाला है। इस रथ को नौ सहस्त्र योजन का विस्तार है। सात घोड़े हैं जो छन्दों से निर्मित हैं। देवता तथा मुनिजन दिन रात्रि भास्कर रूपी शिव की स्तुति करते हैं। त्वष्टध, विष्णु,पुलस्त्य, पुलह, अत्रि, वसिष्ठ, अद्विरा, भारद्वाज, गौतम आदि ऋषि तक्षक एलापत्र आदि नाग, हा हा हू हू गन्धर्व,अप्सरा घृताची, पूर्वचिति आदि अप्सरायें ये सब सूर्य मण्डल में ही बसते हैं। इस प्रकार एक चक्र वाले रथ में जिसमें हरे रंग के सात घोड़े जुते हुए हैं ऐसे सूर्य दिन रात यात्रा करते हैं। रात्रि दिन आदि का विभाग सूर्य से ही होता है।
सात द्वीपों वाली समुद्र पर्यन्त भूमि की यात्रा सूर्य अपने सात घोड़ों के रथ से पूर्ण करते हैं।
(श्री लिंग पुराण के ह९३)

चन्द्रमा के रथ का वर्णन

सूतजी बोले–नक्षत्रों पर विचरने वाले चन्द्रमा का पथ तीन चक्रवाला, सौ अरा और १० सफेद घोड़ों से युक्त है। सोम ( चन्द्रमा ) देवताओं और पितृजनों के साथ शुक्ल पक्ष में सूर्य से ऊपर गमन करते हैं ।

पूर्णणासी को वह पूरे मण्डल सहित दिखते हैं। कृष्ण पक्ष की द्वितीया से चौदस तक देवता उनके अम्बुमय सुधा का प्रान करते हैं। इसके बाद वह सूर्य के तेज से फिर वृद्धि को प्राप्त होता है और पूर्णिमा को पूर्ण होता है। इस तरह कृष्ण पक्ष में कलाओं के क्षय और शुक्ल पक्ष में वृद्धि होती रहती है।
पितर अमावस्या को चद्धमा में ही रहते हैं और अमृत पान कर एक महीने को तृप्त होकर चले जाते हैं। इस प्रकार वृद्धि और भय को प्राप्त हुए चन्द्रमा को बृद्द्धि शुक्ल पक्ष में सूर्य द्वारा ही मिलती है।
ज्योतिष चक्र पें ग्रहचार का प्रतिपादन ‘सूतजी बोले–आठ घोड़ों से युक्त जल तेजोमय बुध का रथ है। इसमें घोड़े लटे हुये नहीं हैं वरन्‌ सुन्दर सुन्दर नाना वर्ण वाले घोड़े हैं।
शुक्राचार्य का आठ घोड़ों  का,  मंगल का स्वर्णमय्य रथ तथा  गुरू का भी हेममय रथ आठ घोड़ों वाला है।
शनि का लोहे का रथ दस घोड़ों का जो काले रंग के हैं ऐसा रथ है।
राहु का भी आठ घोड़ों का रथ है।
ये सब बात रूपी रस्से से ध्रुव में बंधे हैं ।जितने तारे हैं उतनी ही रस्सी हैं। ये सब घूमते हुए श्रुव की परिक्रमा करते हैं। २००० योजन सूर्य का बिरकम्भ है और तिगुना उसमें मण्डल का तिस्तार है। सूर्य के मण्डल से दुगना चन्द्रमा का विस्तार है। उन दोनों के समान ही राहु का विस्तार है जो नीचे चलता है। दक्षिणायन मार्ग से जब सूर्य चलता है तब सब ग्रहों से नीचे चलता है। उससे ऊपर चन्द्रमा, उससे ऊपर बुध, बुध के ऊपर शुक्र तथा शुक्र के ऊपर वृहस्पति, उससे ऊपर शनिश्चर, उससे ऊपर सप्तर्षि मण्डल, सप्तर्षि मण्डल से भी ऊपर श्रुव स्थित है। उसी घुव को विष्णु लोक परम पद कहा है जिसको जानकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। है ब्राह्मणो! मैंने यह सूर्य आदिक ग्रहों ‘की संक्षेप से स्थिति कही है। जैसा देखा तैसा सुना ब्रह्मा ने ग्रहों के स्वामी सूर्य का अभिषेक किया तथा रुद्र ने ‘गुह को अभिषेक किया। इसलिए सूर्य आदि ग्रहों की पीड़ा में कार्य सिर्द्धि के लिये विद्वानों को यथा विधि अग्नि में हवन इत्यादि से अर्चता करनी चाहिए। ६ # श्री लिंग पुराण के श्र्५ सूर्य का अभिषेक वर्णन ऋषि बोले–बह् ने देव, दैत्यों को जिस प्रकार से आधिपत्य के लिए अभिषिक्त किया, वह सब कहिए। सूतजी बोले– प्रजापति बहा ने ग्रहों के आधिपत्य में भगवान सूर्य को, नक्षत्रों और औषधि के स्वामित्य में सोम को, जल का वरुण को, धन का कुबेर को, आदित्यों में विष्णु को, वसुओं में पावक को, प्रजापतियों में दक्ष को, देवताओं में इन्द्र को, दैत्य और दानवों में प्रह्माद को, पितरों में धर्म को, राक्षसों में निऋति को, पशुओं में रुद्र को, नन्दियों में गणनायक को, वीरों में वीरभद्र को, मातृयों में चामुण्डा को, रुद्रों में नीललोहित को, विघ्नों का गजानन को, स्त्रियों में उमादेवी को, बाणी का सरस्वती को, पर्वतों का हिमालय को, नदियों में गड्ा को, समुद्रों में क्षीर सागर को, वृक्षों में पीपल को, गन्धर्व विद्याधर किन्नरों का चित्ररथ को, नागों का अधिपति वासुकि, सर्पों का तक्षक को, पक्षियों का गरड़ को, घोड़ों का उच्चै श्रवा को, वन के पशुओं का सिंह को, गौओं का वृषभ को, सेना का अश्विपति गुह को अभिषिक्त किया। इसी प्रकार पृथ्वी का अधिपति पृथु को, चतुमूर्तियों में सर्वज्ञ शंकर को अभिषेक किया। सो हे ऋषियो ! यह मैंने तुम्हें विस्तार से कह दिया, जिनको १९६ ऊ श्री लिंग पुराण के पडायोनि ब्रह्म ने अधिपति बनाकर अभिषेक किया था। ऊँ सूर्य की किरणों का वर्णन सूतजी बोले–संशय में युक्त मुनि लोगों ने पूछा कि हे सूतजी! ज्योति का निर्णय विस्तार से कहिए। है मुनियो! सूर्य चन्द्र आदि की गतियों को पितामह ब्रह्मा ने इस लोक में अग्नि का विभाग किया है, सो पार्थिव दिव्य आदि भेद से अनेक प्रकार के हैं। वैदिक, जाठर, सौर ये तीनों अग्नि, जल, गर्भ वाली हैं। इससे सूर्य अपनी किरणों से जल पीता हुआ चमकता है । जल से पैदा हुई अग्नि जल से नहीं शान्त होती। मनुष्यों के डदर में जो अग्नि है वह भी शान्त नहीं होती, सूर्य उदय होता है और जल में शान्त होता है। इसी को दिन और रात का विभाग कहते हैं। चन्द्रमा भी मनुष्य, पित॒ तथा देवताओं को तृप्त करता है। मनुष्यों को औषधियों से, सुथा से पितृयों को तथा अमृत से देवताओं को तृत्त करता है। हेमन्त में तथा शिशिर ऋतु में बर्फ को उत्पन्न करता है। माघ मास में सूर्य वरुण नाम से, फाल्गुन में सूर्य क श्री लिंग पुराण कै १९७ नाम से, चैत मास में अंशु नाम से, वैशाख में तापन नाम से, जेठ में इद्ध नाम से, अषाढ़ में अर्यमा नाम से, सावन में विवस्वान नाम से, भाद्रपद में भग नाम से, क्वार में पर्जन्य नाम वाला, कार्तिक में तृष्टा, मार्ग शीर्ष में मित्र और पौष में सनातन विष्णु नाम से कहा गया है। ‘बसन्त ऋतु में सूर्य कपिल रंग का, ग्रीष्म में काँचन वर्ण का, वर्षा में श्वेत वर्ण का, शरद ऋतु में पांडु रंग का, हेमन्त में ताम्र वर्ण का तथा शिशिर में लोहित वर्ण का होता है। सूर्य भी औषधियों को बल देता है तथा सुधा से पितगों को तृप्त करता है और अमृत से देवों को तृप्त करता है। इस प्रकार लोकों में कार्य सिद्ध करने वाली हजारों रश्मियाँ सूर्य की कही गई हैं, जो लोकों में प्राप्त होकर ठण्डी गरम आदि हो जाती हैं। सूर्य नाम वाला भास्कर का मण्डल शुक्ल वर्ण का है। नक्षत्र, ग्रह आदि की स्थिति इसी में है और यही सबकी योनि है। अन्द्र, नक्षत्र, ग्रह सब सूर्य से ही उत्पन्न हैं। नक्षत्रों का स्वामी शिवजी का बायां नेत्र है। भास्कर शिव का दायां नेत्र है। रह १९८ # श्री लिंग पुराण क सूर्य की प्रभा का वर्णन

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