आर्य, पञ्चद्राविड, पञ्चगौड, और सनातन

आर्य, पञ्चद्राविड, पञ्चगौड, और सनातन का शास्त्रीय परिभाषा ।
स्कन्दपुराण, वाचस्पत्यम्, पण्डितसर्वस्व आदि प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है -
कर्त्तव्यमाचरन् काममकर्त्तव्यमनाचरन् ।
तिष्ठति प्रकृताचारे स तु आर्य इति स्मृतः॥
जो अपना कर्तव्य पालन करता है, अकर्तव्य कार्य नहीँ करता तथा प्राकृतिक नियम के अनुसार आचरण करता है, उसे आर्य कहते हैँ । आर्य जातिवाचक शब्द नहीँ है ।
द्राविडान्ध्राश्च कर्णाटाः महाराष्ट्राश्च गुज्जराः।
पञ्चैते द्राविडाख्याता विन्ध्यः दक्षिणवासिनः॥
तमिलनाडु तथा केरल, आन्ध्र, कर्णाटक, महाराष्ट्र, और गुजराट – विन्ध्य के दक्षिण के यह पञ्च प्रदेश को पञ्चद्राविड कहते हैँ । यह जातिवाचक शब्द नहीँ है – देशवाचक शब्द है । द्राविडो देशऽभिजनोऽस्येति अण् ।
सारस्वत्याः कान्यकुब्ज्याः गौडोड्रा चैव मैथिलाः।
पञ्चगौडाः इमे ख्याता विन्ध्यः उत्तरवासिनः॥
सरस्वती नदी के पार्श्ववर्ती प्रदेश, कान्यकुब्ज, गौड (वंगाल, उत्तरपूर्व राज्य – वङ्गदेशंसमारभ्यभुवनेशान्तगंशिवे । गौडदेशः समाख्यातः सर्व्वविद्याविशारदः - शक्तिसङ्गमतन्त्र), ओडिशा और मिथिला – विन्ध्य के उत्तर के यह पञ्च प्रदेश को पञ्चगौड कहते हैँ । यह भी देशवाचक शब्द है ।
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते ।
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: ॥
प्राण पर सङ्कट आने पर भी अकर्तव्य कार्य नहीँ करना, कर्तव्य पालन करने से पश्चात्पद न होना – यही सनातन धर्म है ।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः ॥
सत्य बोलना, प्रिय बोलना, अप्रियसत्य न बोलना, प्रिय असत्य न बोलना – यही सनातन धर्म है ।
शृयताम् धर्मसर्वस्वं शृत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
धर्म के सार तत्त्व को समझना, उसे सुनकर-समझकर अपने चित्त में धारण करना, जो अपने लिए अहितकर हो, अन्य के लेए वैसे आचरण न करना – यही सनातन धर्म है ।
गौतमबुद्ध ने भी वही कहा है -
न हि वैरेण वैराणि शाम्यतीह कदा चन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति एष धर्मः सनातनः ॥ उदानवर्ग 14.11.
शत्रुके साथ शत्रुता नहीँ करना चाहिए । शान्त रह कर शत्रुके शत्रुता को भी शान्त कर देना चाहिए – यही सनातन धर्म है ।


सनातन का परिभाषा, तथा वर्णव्यवस्था और जाति ।
स॑ना॒तन॑मेनमाहुरु॒ताद्य स्या॒त्पुन॑र्णवः।
अ॑होरा॒त्रे प्र जा॑येते अ॒न्यो अ॒न्यस्य॑ रू॒पयोः॑ ॥
अथर्ववेद - काण्ड - 10; सूक्त - 8; मन्त्र - 23 ॥
सनातन उसको कहते हैं जो कभी पुराना न हो सदा उसी स्वरूप से रहे, जैसे रात दिन का चक्र सदा उसी स्वरूप से रहता है । जैसे षड्भावविकार क्रम (जन्म, स्थिति, बृद्धि, परिणाम, क्षय, नाश) जो किसी युग में अथवा किसी देश में बदल नहीं सकता कारण यह प्रकृति का नियम है । षड्भावविकार (जायते, अस्ति, बर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति) का देशकाल भेद नहीँ है । जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च । जिसका जन्म हुआ है, वह अवश्य मरेगा और जो मर गया है, वह अवश्य जन्म ग्रहण करेगा । मध्यकाल में वह प्राकृतिक नियम से बन्धा हुआ है । उसी प्राकृतिक नियमों का संग्रह सनातन धर्म है । न उसका आदि है न अन्त । कोई भी उसका विनाश नहीँ कर सकता कारण वह मनुष्यकृत नहीँ है ।
वर्ण वर्णयति तन्तुं विस्तारयति । हमारे गुणसूत्र (DNA) में 23 जोडा क्रोमोजोम (chromosome) रहते हैँ । उनमें से एक जोडा लिङ्ग निर्द्धारण करते हैँ । एक केवल माता से सन्तान को जाता है । बाकी बचे 21 जोडों को 84 भाग किया जाता है, जिसे सहः कहा जाता है (सहसो जातवेदसम् - ऋग्वेदः 3-11-4) । मनुष्य के शुक्र में 28 सहः नामक तत्त्व रहते हैं । अपने पूर्वपुरुषों से प्राप्त 56 सहः को मिलाकर 84 सहः हो जाते हैं, जिसे 84 लक्ष योनि कहते हैं (लक्षयतीति - लक्षँ दर्शनाङ्क॒नयोः॑, लक्षँ॒ आ॒लोच॑ने च) । इन 56 में से 21 अपने पिता के, 15 पितामह के, 10 प्रपितामह के, 6 वृद्धप्रपितामह के, 3 अतिवृद्धप्रपितामह तथा 1 वृद्धातिवृद्धप्रपितामह के है । उसीप्रकार वर्तमान बीजधारी पुरुष के शरीरमें जो सहः तत्त्व है, उसमें से 28 स्वशरीर में रहेंगे । पुत्रमें 21, पौत्रमें 15, प्रपौत्रमें 10, उसके पुत्रमें 6, उसके पुत्रमें 3, तथा उसके पुत्रमें 1 रहेगा । इसप्रकार वर्तमान पुरुष से गणना करने पर पूर्व के 6 पुरुष तथा आगे के 6 पुरुष पर्यन्त सापिण्ड्य माना जाता है । भिन्न गोत्र में विवाह करने से जो जैविक विवर्त होते हैं, वह क्रमिक क्षय होते हुये सप्तपुरुषों में पूर्ण क्षय हो जाता है । अतः सात पुरुष पर्यन्त सगोत्र विवाह निषिद्ध है । गुणसूत्र (DNA) से प्राप्त होने के कारण इसे स्वगुण कहते हैँ । इसके दो परिणाम होते हैँ ।
परिणाम द्विविध है – औपादानिक और लाक्षणिक । जिसमें एकाधिक उपादान का संयोग है, उसका उपादान का भिन्नता से औपादानिक परिणाम होता है । जिसका उपादान एकमात्र है, उसका औपादानिक परिणाम नहीं होता । गति लाक्षणिक परिणाम है । कारण उसमें पूर्वदेश परित्यागपूर्वक उत्तरदेश प्रापण ही होता है – अवयवान्तर प्रापण नहीं होता । ईच्छा, द्वेष आदि आन्तर वोध का दैर्घ्य, प्रस्थादि परिमाण नहीं है । अतः आन्तर वोध देशव्यापी नहीं है । वोध स्वरूप होने से चैतन्य देशव्यापी नहीं है । कारण देशव्यापीत्व रूपादि वाह्यपदार्थ का धर्म है, और देशाश्रय पदार्थ सावयव होता है (स + ति + यम् – छान्दोग्य उपनिषत्) । असंयोगज होने से चैतन्य का “औपादानिक परिणाम” नहीं है । “नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः” (गीता) होने से चैतन्य का लाक्षणिक परिणाम नहीं है । द्विविध परिणामशून्य होने से चैतन्य पुरुष काल के द्वारा अव्यपदेश्य है (काल के द्वारा लक्षणीय नहीं है)।
परिणामशील (परिवर्त्तनशील) पदार्थ (जो कुछ समय रहकर उसके पश्चात् नहीं रहता अथवा परिणम्यमान हो जाता हैं (वदल जाता हैं), असत् कहलाता है । जो अपरिणम्यमान हो – निज स्वरूपसे सदा वर्त्तमान रहता हो - उसे सत्य कहते हैं । असत् का एक अन्यअर्थ वोधगम्य न होना है । वोधगम्य वस्तुका सत्ता दृश्यमान होनेसे उसे सत्य कहते हैं । प्रथम निरुक्तका ज्ञान होता है । उससे अनिरुक्तका अनुमान होता है । अतः असत् से सत् की उत्पत्ति उपसर्जन (गौण) भावसे कहीगयी है (अव्यक्तात् व्यक्तयः सर्वे प्रहरन्त्यहरागमे - गीता)। यह ex-nihilo नहीं है, जो असम्भव है (नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ गीता - २.१६)। छान्दोग्य उपनिषद में इसके उपर विशद चर्चा की गयी है ।
वहिर्हेत्वनपेक्षी तु स्वभावोSथ प्रकीर्त्तित ।
निसर्गश्च स्वभावश्च इत्येष भवति द्विधा ॥
निसर्गः सुदृढाभ्यासजन्यः संस्कार उच्यते ।
अजन्यस्तु स्वतःसिद्धः स्वरूपो भाव उच्यते ॥
गुण्यते मन्त्र्यते अर्थमें गुण् मन्त्रणे धातु में घञ प्रत्ययसे गुण शव्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ अव॒बोध॑ने, ज्ञाने॑ तथा स्त॒म्भे है – दृश्य तथा अनुभूत लक्षणके द्वारा आलोचना करके किसी वस्तुके विषयमें ज्ञान प्राप्त करना और वह ज्ञानको सुदृढ करना (जो सदा अपरिवर्तनीय हो) गुणके लक्षण है । जो गुण अपने स्थितिके लिये किसी अन्य हेतु अथवा कारण का अपेक्षा नहीं करता – जो स्वतःसिद्धः है – उसे स्वभाव अथवा स्वगुण कहते हैं । यह दो प्रकारके होते हैं - स्वाभाविक तथा ऩैसर्गिक । इनमेंसे जो सुदृढाभ्यास अर्थात निरन्तर एकरस मूर्छना के द्वारा जन्य संस्कार से जात हो, उसे निसर्गः कहते हैं । यह आगन्तुक गुण है । जो अजन्य – आगन्तुक नहीं हो - तथा स्वतःसिद्धः हो, उसे स्वाभाविक गुण कहते हैं । कणादप्रोक्त 17 गुण स्वाभाविक गुण हैं । अनुक्त 7 गुण ऩैसर्गिक है जो अस्यवामीय सुक्त (ऋग्वेद 1-164-15) तथा तैत्तिरीय आरण्यक प्रोक्त विशेष कारण तथा परिस्थिति में दिखनेवाला प्रवहादि वायु प्रेरित आगन्तुक (emergent) गुण है ।
जिसमें जो भाग अधिक मात्रामे रहता है, उसे उसी मात्राधिक्य के अनुपात से वर्णन किया जाता है । इसिलिये उसे वर्ण कहते हैं । जिस पुरुषमें गायत्र्याग्नि का मात्रा अधिक रहता है, उसमें ज्ञान विकिरण का सामर्थ्य अधिक रहता है । इसिलिये उसे ब्राह्मण कहते हैं । उसमें आन्विक्षीकि का प्राधान्य रहता है । जिस पुरुषमें सावित्र्याग्नि का मात्रा अधिक रहता है, उसमें समाजका गठन और नियन्त्रण करने का सामर्थ्य अधिक रहता है । इसिलिये उसे क्षत्रीय कहते हैं । उसमें त्रयी (त्रैगुण्यविषया वेदा) का प्राधान्य रहता है । जिस पुरुषमें वैश्वदेव प्राण का मात्रा अधिक रहता है, उसमें समाजका पोषण करनेका सामर्थ्य अधिक रहता है । इसिलिये उसे वैश्य कहते हैं । वह वृत्ति प्रदान करनेके कारण उसके कर्म वार्ता कहलाता है (वृत्तिरस्यामिति) । समाजके धारक तत्व पुषा सोम का मात्रा जिस पुरुषमें अधिक रहता है, उसे शूद्र कहते हैं । सोम के सङ्कोचन धर्म के कारण उसमें प्रवृत्ति धर्म अल्प तथा समर्पण भाव अधिक रहता है ।
सवको पुष्टि देना पूषा का कार्य है । पूषतीति - पुषँ पुष्टौ॑ तथा पुषँ धार॑णे अर्थमें पोषक तथा धारक तत्वको पूषा कहते हैं । द्रवित होना सोम का कार्य है । छान्दोग्य उपनिषद् में राजा जानश्रुति पौत्रायण को ऋषिने शूद्र कहकर सम्बोधन किया कारण यह था कि वह पुत्रशोकमें द्रवित होकर रोदन करता था (शूचा द्रवति) । आदित्यों मे से एक होने पर भी, द्रवित होकर उसमें शोक जात होनेसे पुषा को भी सोम माना चाता है । इसिलिये वारह आदित्योंमे से एक होने पर भी, सोम अंशके कारण पुषा को शूद्र माना जाता है । इसिलिये कहागया है कि पुषा भग्नदन्त है - जिसके दन्त नहीं होते । पद गतिशीलता के प्रतीक है - पदँ॒ गतौ॑ । यह स्थैर्य का भी प्रतीक है । समाजको गति प्रदान कर के स्थिर (नियन्त्रित) रखना पद का कार्य है । गति अग्नि का लक्षण है । जात सोम ही उसे स्थित रख सकता है । इसिलिये पुरुषसूक्तमें पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः कहा गया है । शूद्र के बिना समाज पङ्गु हो जाएगा ।
“अप्राप्तयोस्तु या प्राप्तिः सैव संयोग ईरितः”। अप्राप्त वस्तु का प्राप्ति को संयोग (coupling) कहते हैं । “आधार्याधार भूतानां” – भूतों का एक आधार पर अन्य का आधेय होने वाले सम्बन्ध (container-contained relationship) को प्राप्ति कहते हैं । मातृ-पितृ प्रदत्त गुणसूत्र (DNA) के संयोग से हमारा शरीर बनता है । अतः इसका औपादानिक परिणाम होता है । यही हमारा स्वभाव है । उसीका विस्तार करना हमारा स्वधर्म है । उसीका विस्तार करने से हमारा कल्याण है । जो छात्र साहित्य में रूची रखता हो, वह लेखक किम्बा कवि बनकर प्रसिद्धि लाभ कर सकता है । परन्तु उसे इन्जिनियर बनने के लिए बाध्य करने से वह आत्महत्या करता है । कोटा में बढती आत्महत्या इसका प्रमाण है । इसीलिए गीता में कहा गया है –
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।3.35।।
सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है । स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है परन्तु परधर्म भय कारक है । उदाहरण के लिए आन्ना हजारे एक सन्त महात्मा है, जो ब्राह्मण लक्षण है । राजनीति क्षात्र धर्म है । हजारेजी राजनीति करने आए । उसका फलस्वरूप जो विषवृक्ष हुआ, सारा देश उसका दंश भोग रहा है । वाल्मिकी, व्यास, विदुर, थिरुवालुभार आदि शूद्रा माता के सन्तान हो कर भी अपने कर्म के कारण सम्मानीत हैँ । पेरीयार अपने घृणित कर्म के कारण निन्दित है ।
स्वभाव संयोगजन्य होने से परिणामशील (परिवर्त्तनशील) पदार्थ है । यह परिवर्त्तन अभ्यास के सुदृढ होने से हो सकता है । उसे निसर्गः कहते हैँ । मातृ-पितृ प्रदत्त स्वगुण तथा संस्कार प्रदत्त निसर्ग के संयोग से वर्ण बनता है । इसीलिए गीता में कहा गया है –
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।4.13।।
गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचा गया है । यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, तथापि तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो ।
साधर्म्यवैधर्माभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः। न्यायसूत्रम् – 1-2-18 (59).
जिससे समान लक्षण वाले व्यक्ति, वस्तु अथवा भाव आदि को भिन्न लक्षण वाले व्यक्ति, वस्तु अथवा भाव आदि से पृथक् चिह्नित किया जाता है, उसे जाति कहते हैँ ।
आकृतिग्रहणा जातिर्लिङ्गानाञ्च न सर्व्वभाक् ।
सकृदाख्यातनिर्ग्राह्या गोत्रञ्च चरणैः सह ॥
आक्रियते व्यज्यतेऽनयेति आकृतिः संस्थानं आकृत्या ग्रहणं ज्ञानं यस्याः सा आकृतिग्रहणा जातिराकृतिग्रहणा भवति संस्थानव्यङ्ग्या इत्यर्थः । अथवा जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में एकरूप है और जो उन पदार्थों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता, जो उन सब में साधारण और अनुगत है, उसको जाति कहते हैं (नित्यत्वे सत्यनेकसमवेतत्वम्), यथा गोजाति, अश्वजाति, तैलकारजाति, कुम्भकारजाति, प्रस्तरजाति, मणिजाति, आदि ।
जायतेऽस्यामिति । जन् + अधिकरणे क्तिन् । गोत्रम् । जो भाव जिससे जन्म लेता हो, वही, उसका जाति है । अतः जाति वर्ण नहीँ । यह Caste भी नहीँ है । Caste (from Spanish and Portuguese casta meaning “lineage, race, breed”, feminine of casto ‘pure, unmixed’, or from Latin castus ‘chaste’) न सनातन के शब्द है न यह जाति (genus) अथवा वर्णवाचक है । आदिवासि वन में रहते हैं । परन्तु उनमें भी सैकड़ों जातियां बन गई है । जिन जातियों का पंडितों से संपर्क ही नहीं रहा, पूजा-पाठ तो उन्हीं की जाति का कोई एक व्यक्ति करता है । सबके अलग अलग देवता होते है और उन्ही के समाज का पुजारी होता है । आदिवासियों में हजारो जातियां का बनना प्रमाण करता है कि जातियां अपने आप बनी न कि किसी ब्राह्मण या शास्त्र ने बनाया ।
बहुत से देशो में गुलाम प्रथा पाई जाती थी । गुलामों का कोई अधिकार ही नहीं होता था । उनको संपत्ति का अधिकार नहीं होता था । यहां तक कि उनकी पत्नियां तक उनके मालिक की होती थी हम इस विषय में बहुत भाग्यशाली हैं कि हमारे देश में ऐसी गंदी प्रथा कभी नहीं रहा । आज भी पुरे संसार मे प्रत्येक समाज में उच्च नीच भेद है । संसार के किसी भी सेना में अथवा पुलिस में अधिकारीयों का भिन्न ही मेस होता है उसमें सिर्फ अधिकारी ही खा सकते हैं । कोई सिपाही अधिकारीयों के मेस मे खाना खाना छोडो, आसन पर बैठ तक नहीं सकता । यही व्यवस्था आईएस आईपीएस अथवा बड़े सरकारी अधिकारियों का भी है । जब तक यह संसार रहेगी तब तक ऊंच नीच का भेदभाव रहेगा । यह कभी भी लोप नहीं हो सकता । सभी व्यक्ति कभी भी समान नहीं हो सकते हैं । एक कलेक्टर और एक चपरासी न गुण से न कर्म से एक हो सकते हैँ । आरक्षण के कारण हमारे योग्य सन्तान विदेश चले जा रहे हैँ ।
मनु महाराज ने कोई जाति नहीं बनाई थी । उन्होंने तो केवल चार वर्णो के उल्लेख किया है और वह भी पुर्णतः कर्म आधारित थे ।
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विजमुच्यते ।
वेदाभ्यासात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः ।।
अर्थात जन्म से सभी ब्राह्मण शूद्र होते हैं और अपने ज्ञान और कर्म से ब्राह्मण बनते हैं । कालक्रम से जो व्यवस्था कर्म से थी वो जन्म से हो गई और धिरे धिरे वर्ण कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित माना गया । क्षत्रिय का पुत्र क्षत्रिय वैश्य का पुत्र वैश्य हो गया । मनु महाराज ने विभिन्न वर्ण के स्त्री-पुरुष के समागम तथा उनसे उत्पन्न सन्तान के गुण के विषय में भी लिखा है । मनु महाराज कहते हैँ -
ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायांमंबष्ठो नाम उच्यते ।
निषादः शूद्रकन्यायां यः पाराशव उच्यते । 8।
ब्राह्मणपुरुष वैश्य कन्या से उत्पन्न सन्तान को अम्बष्ठ तथा शूद्र कन्या से उत्पन्न सन्तान को निषाद अथवा पाराशव कहते हैँ ।
क्षत्रियाच्शूद्रकन्यायां ... उग्रोनाम प्रजायते ।
क्षत्रियपुरुष वैश्य कन्या से उत्पन्न सन्तान को उग्र कहते हैँ ।
क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः ।
वैश्यान्मागधवैदेहौ राजविप्राङ्गनासूतौ ।
क्षत्रियपुरुष ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न सन्तान को सूत, वैश्यपुरुष ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न सन्तान को मागध तथा वैश्यपुरुष क्षत्रिय कन्या से उत्पन्न सन्तान को वैदेह कहते हैँ ।
शूद्रादयोगवोः क्षत्ता चण्डालः .. वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते ।
शूद्रपुरुष वैश्य कन्या से उत्पन्न सन्तान को अयोगव, क्षत्रिय कन्या से उत्पन्न सन्तान को क्षत्ता तथा ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न सन्तान को चाण्डाल कहते हैँ ।
एक और उदाहरण लिजिए । शूदाविशोस्तु करणः वित्तायव्ययलेखकः । इसका अर्थ है कि शूद्रा माता तथा वैश्य पुरुष से जात सन्तान को करण (कायस्थ) कहते हैँ, जो वित्त-आयव्यय-लेखन (accounting) में दक्ष होगा । कारण पिता वैश्य होने से वह व्यवसाय करेगा । परन्तु माता शूद्र होने से वह चाप नहीँ ले सकता । दवाव में आ कर भुल कर सकता है । अतः उसके लिए वित्त-आयव्यय-लेखन (accounting) कर्म निर्द्धारीत किया गया है ।
May 2004 में London के Julia Kim-Cohen Institute of Psychiatry के King’s College, से “Child Development” पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि - The result of the study showed that genetic make-up does play a role in the ability of children to rise above their poverty and not suffer behavioral or cognitive setbacks. The warmth, mental stimulation, and interest that parents pay towards their young children also has a significant difference in the children’s lives. In other words, caste as an indicator of professional excellence is genetically determined. As a corollary, subjugation of lower castes by upper castes is a fallacy. History shows that such forced subjugation has never lasted for more than a couple of centuries.
अब प्रश्न है कि – आधुनिक जातियां बनी कैसे? इसके तीन प्रमुख कारण हैं -
1- लोगों ने अपने नाम के आगे अपने ग्राम का नाम लगाना आरम्भ किया और तीन चार सौ वर्षों के पश्चात ग्राम का नाम ही जाति बन गया जैसे सिसोदिया बेम्बी अथवा धीमी ।
2- लोगों ने अपने किसी एक महान पूर्वज अथवा गुरु के नाम को अपने नाम के आगे लगाना आरम्भ किया । धीरे-धीरे वही नाम ही उपनाम बना । उसके पश्चात जाति बन गई जैसे गौतम, मौर्य, गुप्त, आदि । जैसे मैक्समूलर का पुत्र नाती अपने नाम में मैक्समूलर लिखते है । धीरे धीरे यह उपनाम अनेक वर्षों के पश्चात जाति बन जाएगी ।
3- जो जिसका व्यवसाय था उसके नाम के अनुसार अनेक वर्षों के पश्चात उसकी जाति ही बन गई । जैसे तेल पेरने वाला तेली । लोहा बनाने वाला लोहार । भुजिया बनाने वाला भुजियावाला । आदि ।
जातिवादी बीपी मण्डल ने जिन जातियों को केवल राजनीति के कारण सनातन धर्म मे फुट डालने के लिए मण्डल कमिसन बनाकर अति पिछड़ा घोषित किया वो अधिकतर वैश्य वर्ण से जन्मी है - जैसे नाई कुम्हार लोहार तेली मुसहर दर्जी आदि । इनके पेशा बाल काटना, तेल पेरणा, कुदाल बनाना, बर्तन बनाना, आदि है । यह अपना स्वयं का ब्यवसाय करते थे । अलग अलग ब्यवसाय करने से कालान्तर में वर्ण के स्थान पर व्यवसाय के अनुसार अलग जाति ही बन गई । वैश्य कभी पिछडे नहीँ थे । 1981 के प्रथम जनगणना यही वृत्ति आधारित था ।
क्षत्रिय वर्ण से भी अपने आप सैकड़ो जातियां बन गई इसका एक कारण यह भी है की कुछ जातियां अपने कुल के प्रतापी राजाओ के कारण अपने को अलग समझने लगे और उनके नाम पर अलग अलग जाती बन गई । राज करने वाले तलवार चलाने वाले क्षत्रिय कहलाये । भगवान राम से जिन जातियों की बंशावली अधिक मिलती है वह आज के ठाकुर कहलाते है । इसके अतिरिक्त जाट, लोध, पासी, गुर्जर, मौर्य, जैसी अनेक क्षत्रिय जातियां बन गई जिनके पूर्वजो ने कभी भारत पर राज्य किया था । मौर्य वंश गुर्जर, प्रतिहार, यदुबंशी, यह सब क्षत्रिय बर्ण से ही बनी जातियां है । ठाकुर के अतिरिक्त अन्य शक्तिशाली क्षत्रिय वर्णों से जाट जाति बन गई जो अपने पूर्वजो के नाम लिखकर अलग जाति बन गए । राजा पोरस, सूरजमल, रणजीत सिंह, जैसे महान राजाओ की जाति जाट बन गई । परन्तु दुर्भाग्य है कि जातिवादी बीपी मण्डल ने इन उच्चकुल की क्षत्रिय जातियों को केवल सनातन धर्म मे विभाजन करने तथा राजनीतिक लाभ लेने के लिए पिछड़ा घोषित कर दिया जिससे कि पिछडो की संख्या अधिक हो और वोट की फसल कटे । जो अपने को कृष्ण के वंशज कहते हैँ, वह पिछड़े कैसे हो सकते हैँ ?
एक बार जाति बन गई तो उसमें भी सैकड़ो उप जाति भी बन गई । धीरे धीरे ब्राह्मण भी उपजातियों में बटे जैसे मिश्र, पाण्डे, तिवारी, दुबे, चौबे, आदि । कुछ ब्राह्मण अपने को वशिष्ठ का बंशज कहकर दूसरे ब्राह्मणों से श्रेष्ठ समझने लगे । अन्य जातियाँ भी अनेक महान पूर्वज या गांव का नाम से बंटे जैसे विशेन, रजवार, चैहान, हाडा, सिसौदिया, ठाकुरो की जातिया जो सैकड़ो वर्षों के पश्चात ग्राम अथवा पूर्वजों के नाम पर उपजातियों में बटी जो एक दूसरे को नीचा समझने लगी । चौहान ठाकुर रजवार में लड़की की शादी करना बंद कर दिए । उन्हें नीचा समझने लगे । यही व्यवस्था और भी अन्य जातियों में रहा जो उपजातियों में बट गई है । अंग्रजों ने इसको वढावा दिया ।
छुआछुत भी अंग्रेजों का बनाया हुआ है । वर्ष 1808 में अंग्रेजों ने पुरी के जगन्नाथ मन्दिर का अधिग्रहण कर दर्शन के लिए कर व्यवस्था चालु किया । उसमें 10, 6, 2 रुपये का शुल्क लगता था । जो लोग शुल्क नहीँ दे सकते थे, उनका मन्दिर में प्रवेश बर्जित था । अधिकांश गरीब लोग इसीलिए मन्दिर में जा नहीँ पा रहे थे । धीरे धीरे यह आय घटने लगा । तो गान्धी ने इसे हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश निषेध प्रचार कर उसके बिरुद्ध आन्दोलन किया तथा यह पर्था बन्द हुआ । किन्तु छुआछुत नाम रह गया, जिसे बढावा दिया गया ।
हमें सनातन और पद्धति पर गर्ब है ।




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