49 मरुत

49 मरुत

सुंदरकांड पढ़ते हुए 25 वें दोहे पर ध्यान थोड़ा रुक गया । तुलसीदास जी ने सुन्दर कांड में,  जब हनुमान जी ने लंका मे आग लगाई थी, उस प्रसंग पर लिखा है -
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।

अर्थात : जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो --
भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे।
हनुमान जी अट्टहास करके गर्जे और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे।

मैंने सोचा कि इन उनचास मरुत का क्या अर्थ है ? यह तुलसी दास जी ने भी नहीं लिखा। फिर मैंने सुंदरकांड पूरा करने के बाद समय निकालकर 49 प्रकार की वायु के बारे में जानकारी खोजी और अध्ययन करने पर सनातन धर्म पर अत्यंत गर्व हुआ।

तुलसीदासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य हुआ, जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ है ।
        
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। 
अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है, लेकिन उसका रूप बदलता रहता है, जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु, लेकिन ऐसा नहीं है। 

दरअसल, जल के भीतर जो वायु है उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।

ये 7 प्रकार हैं- 
1.प्रवह, 
2.आवह, 
3.उद्वह, 
4. संवह, 
5.विवह, 
6.परिवह 
7.परावह।
 
1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 
 
2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
 
3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 
 
4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
 
5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 
 
6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
 
7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
 
इन सातो वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं

1. ब्रह्मलोक, 
2. इंद्रलोक, 
3. अंतरिक्ष, 
4. भूलोक की पूर्व दिशा, 
5. भूलोक की पश्चिम दिशा, 
6. भूलोक की उत्तर दिशा 
7. भूलोक कि दक्षिण दिशा। 

इस तरह 7 x 7 = 49। कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।
  
अद्भुत ज्ञान। 

हम अक्सर रामायण, भगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परंतु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं !

एक अध्‍यययन यह भी- 
मरुद्गण (=मरुत् + गण) एक देवगण का नाम। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र लिखा है और इनकी संख्या ६० की तिगुनी मानी गई है; पर पुराणों में इन्हें कश्यप और दिति का पुत्र लिखा गया है जिसे उसके वैमात्रिक भाई इंद्र ने गर्भ काटकर एक से उनचास टुकड़े कर डाले थे, जो उनचास मरुद् हुए। वेदों में मरुदगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है, उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है।

जय श्रीराम - जय हनुमान 🙏🚩


हिन्दुओं के देवी या देवता 33 है या 33 करोड़ यह बहस का विषय नहीं है। वेद पढ़ों तो सब समझ में आ जाएगा। बहस वे करते हैं जिन्होंने वेद नहीं पड़े या जो सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करते हैं। खैर... हम आपको बताना चाहते हैं देवताओं की बिरादरी के मरुद्रणों के बारे में। मरुद्रणों को रुद्रों का पुत्र माना जाता है। रुद्रों की संख्या 11 है।

ग्यारह रुद्र: 
महान, महात्मा, गतिमान, भीषण, भयंकर, ऋतुध्वज, ऊर्ध्वकेश, पिंगलाक्ष, रुचि, शुचि तथा कालाग्नि रुद्र। इसमें कालाग्नि रुद्र ही मुख्य है।

रुद्रदेव के पुत्र 49 मरुद्गण मरुत अर्थात पहाड़। मरुद्राण का अर्थ मरुतों के गण। गण कई प्रकार के होते हैं उनमें से तीन प्रमुख है देवगण, राक्षस गण, मनुष्य गण। गण का अर्थ होता है, समूह। मरुद्रण देवगणों में आते हैं। चारों वेदों में मिलाकर मरुद्देवता के मंत्र 498 हैं


मरुतों का गण सात सात का होता है। इस कारण उनको 'सप्ती' भी कहते हैं। 7-7 सैनिकों की 7 पंक्तियों में ये 49 रहते हैं। और प्रत्येक पंक्ति के दोनों ओर एक-एक पार्श्व रक्षक रहता है। अर्थात् ये रक्षक 14 होते हैं। इस तरह सब मिलकर 49 और 14 मिलकर 63 सैनिकों का एक गण होता है। 'गण' का अर्थ 'गिने हुए सैनिकों का संघ' भी होता है। प्रत्येक के नाम अलग अलग होते हैं।

मरुतों के बरे में अन्य मान्यता: कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुद्रण कहलाए। वेदों में मरुद्रणों को रुद्र और वृश्नि का पुत्र लिखा गया है और इनकी संख्या 49 नहीं 60 की तिगुनी मानी गई है; लेकिन पुराणों में इन्हें कश्यप और दिति का पुत्र लिखा गया है।

पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। कश्यप के ये पुत्र निसंतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के चार पुत्र थे अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। इन्ही से दैत्यों का वंश आगे बढ़ा।

परमेश्वर: सर्वोच्च शक्ति परमेश्वर के बाद हिन्दू धर्म में देवी और देवताओं का नंबर आता है। देवताओं जैसे को देवगण कहते हैं।

देवगण का अर्थ यह कि वे देवता तो नहीं है लेकिन देवताओं के गण है। देवगण भी देवताओं के लिए कार्य करते हैं। देवताओं के देवता अर्थात देवाधिदेव महादेव हैं तो देवगणों के अधिपति भगवान गणेशजी हैं।

जैसे शिव के गण होते हैं उसी तरह देवों के भी गण होते हैं। गण का अर्थ है वर्ग, समूह, समुदाय। जहां राजा वहीं मंत्री इसी प्रकार जहां देवता वहां देवगण भी। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, तो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य।

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविष्वेऽश्विनी मरुतश्वोष्मपाश्च ॥
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसड्‌यावीक्षन्ते त्वां विस्मिताचैव सर्वे ॥॥11-22।


अर्थात जो 11 रुद्र और 12 आदित्य तथा 8 वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्रण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं।

देवकुल: देवकुल में मुख्यतः 33 देवताओं का समूह हैं। इन 33 देवताओं समूह में शामिल किया गया है। त्रिदेवों ने सभी देवताओं को अलग-अलग कार्य पर नियुक्त किया है। वर्तमान मन्वन्तर में ब्रह्मा के पौत्र कश्यप से ही देवता और दैत्यों के कुल का निर्माण के अलावा मरुह्मणों और यों आदि को देव गणों के हुआ। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे। 

इनकी माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थीं। महर्षि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कटू पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं।

*देवताओं के गण:-

33 देवताओं के अतिरिक्त ये गण और माने गए हैं- 36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्य, 64 आभास्वर, 49 मरुत, 220 महाराजिक। इस प्रकार वैदिक देवताओं के गष्ण और परवती देवगणों को मिलाकर कुल संख्या 424 होती है। उक्त सभी गणों के अधिपति भगवान गणेश हैं। गणाधिपति गजानन गणेश। गणेश की आराधना करने से सभी की आराधना हो जाती है।

49 मरुतगण: मरुतगण देवता नहीं है, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।- (ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न है- 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्धत, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

मरुद्गण

मरुद्गण (=मरुत् + गण) एक देवगण का नाम। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र लिखा है और इनकी संख्या ६० की तिगुनी मानी गई है; पर पुराणों में इन्हें कश्यप और दिति का पुत्र लिखा गया है जिसे उसके वैमात्रिक भाई इंद्र ने गर्भ काटकर एक से उनचास टुकड़े कर डाले थे, जो उनचास मरुद् हुए। वेदों में मरुदगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है, उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है।

मरुद्गण

कथा

प्रजापति कश्यप की दो पत्नियाँ थीं उनमें से पहली पत्नी का नाम था अदिति और दूसरी पत्नी का नाम था दिति | अदिति के गर्भ से देवताओं अथवा आदित्यों ने जन्म लिया और दिति के गर्भ से दैत्यों ने जन्म लिया | देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय के बाद समुद्र मंथन हुआ और उसमे प्राप्त अमृत से देवता अमर हो गए.| देवताओं ने फिर असुरों को पराजित करके उन्हें समाप्त कर दिया |दिति को अपने पुत्रों की मृत्यु से बहुत दुःख और क्रोध हुआ |उन्होंने अपने पति के पास जा कर कहा कि आपके पुत्रों ने मेरे पुत्रों का वध किया है , इस लिए तपस्या करके ऐसे पुत्र को प्राप्त करना चाहती हूँ जो इंद्र का वध कर सके | कश्यप ने कहा कि तुम्हे पहले 1000 वर्षों तक पवित्रता पूर्वक रहना होगा तब तुम मुझसे इंद्र का वध करने में समर्थ पुत्र प्राप्त कर लोगी |यह कह कर कश्यप ने दिति का स्पर्श किया और दिति भी प्रसन्न हो कर अपने पति के कहे अनुसार तप करने चली गयी | दिति को तप करता देख इंद्र भी उनकी सेवा करने लगे | जब तप समाप्ति में 1 वर्ष बाक़ी रहा तप दिति ने इंद्र से कहा कि एक वर्ष बाद जब तुम्हारे भाई का जन्म होगा तब वो तुम्हे मारने मे समर्थ होगा पर तुमने मेरी तप मे इतनी सेवा की है कि मैं उसे तुमको मारने के लिए न कहूंगी |

तुम दोनों मिलकर राज्य करना |इसके बाद दिति को दिन में झपकी आ गयी और उनका सर पैरों मे जा लगा जिससे उनका शरीर अपवित्र हो गया और तप भी भंग हो गया | इधर इंद्र को भी दिति के होने वाले पुत्र से पराजय की चिंता हो गयी थी और उन्होंने इस गर्भ को समाप्त करने का निश्चय किया |इंद्र ने इस गर्भ के 7 टुकड़े कर दिए | दिति के जगने पर जब उन्हें गर्भ के सात टुकड़े होने की बात पता चली तब उन्होंने इंद्र से कहा कि मेरे तप भंग होने के कारण ही मेरे गर्भ के टुकड़े हो गए हैं , इसमे तुम्हारा दोष नही है | दिति ने तब कहा कि टुकड़े होने के बाद भी मेरे गर्भ के ये टुकड़े हमेशा आकाश मे विचरण करेंगे और मरुत नाम से विख्यात होंगे | ये सातों मरुत के सात सात गण होंगे जो सात जगह विचरण कर सकते हैं और इस तरह कुल ४९ मरुत बन जाते हैं |

इन सात मरुतों के नाम हैं - [1]

आवह, प्रवह,संवह ,उद्वह,विवह,परिवह,परावह

इनके सात सात गण निम्न जगह विचरण करते हैं -

ब्रह्मलोक , इन्द्रलोक ,अंतरिक्ष , भूलोक की पूर्व दिशा , भूलोक की पश्चिम दिशा , भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा

इस तरह से कुल ४९ मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते हैं |

परिचय

वैदिक देवताओं के ये गण हैं—८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य। इनमें इंद्र और प्रजापति मिला देने से ३३ देवता होते हैं (शतपथ ब्राह्मण)। पीछे से इन गणों के अतिरिक्त ये गण और माने गए—३० तुषित, १० विश्वेदेवा, १२ साघ्य, ६४ आभास्वर, ४९ मरुत्, २२० महाराजिक। इस प्रकार वैदिक देवताओं के गण और परवर्ती देवगणों को कुल संख्या ४१८ होती है। बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं के कई गण या वर्ग मानते हैं।

चारों वेदों में मिलकर मरुद्देवता के मंत्र 498 हैं। मरुत् गणश: रहते हैं अत: इनका वर्णन संघश: ही किया जाता है--

1. मरुतों के गणों के लिये हव्य अर्पण करो (मारुताय शर्धाय हव्या भरध्वम, ऋ. 8.20.9)!

2. मरुतों के गणों का वंदन करो (वंदस्व मारुतं गणम्, ऋ. 1.38.1)।

3. मरुतों के गणों को नमन करो (मारुतं गणं नमस्य, ऋ. 5.52.13)।

4. मरुत अपने गणों में शोभते हैं (गणश्रिय: मरुत:, ऋ. 1.64.9)।

5. मरुतों का बलवान् गण सरंक्षण करता है। (वृषा गण: अविता ऋ. 1.87.4)।

सब मरुत् समान रहते हैं। सब मरुत् देखने में एक जैसे रहते हैं--

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उभ्दिदो
अमध्यमासो महसा विवावृधु:। (ऋ. 5.59.6)

वे मरुत् श्रेष्ठ नहीं, कनिष्ठ नहीं और मध्यम भी नहीं होते। वे सब एक जैसे होते हैं और वे अपनी महती शक्ति से बढ़ते रहते हैं। उन मरुतों के सिर पर हिरणमय शिरस्त्रारण होता है। (ऋ. 5.54.77)।

समान गणवेश

सब मरुतों का गणवेश समान रहता है।

1. इनके गणवेश समान रीति से शोभते हैं।

2. इनकी छाती पर पदक और गले में मालाएँ चमकती हैं।

3. इनके पाँवों में भूषण और छाती पर पदक आभूषण से दीखते हैं--(ऋ. 5.54.11)।

शस्त्रास्त्र

सब मरुतों के शस्त्रास्त्र समान रहते हैं। कंधों पर भाले और हाथों में अग्नि के समान तेजस्वी शस्त्र रहते हैं। अपने हाथों में वे कुठार और धनुष रखते हैं। हाथों में चाबुक धारण करते हैं।

मरुतों के रथ

1. मरुत् अपने रथों में घोड़े जोतते हैं।

2. रथों में धब्बोंवाली हिरनियाँ जोतते हैं।

3. उनके रथ को हिरन खींचता है (ऋ. 2.34, 8.7, 1.39)।

मरुतों का रथ बिना घोड़ों के भी चलनेवाला था। किसी पशु पक्षी के जोतने के बिना वह चलता था।

हे मरुतो! तुम्हारा रथ (अन्:-एन:) निर्दोष है, (अन्-अश्व:) इसमें घोड़े नहीं जोते जाते, तथापि वह (अजति) चलता है। वह रथ (अ-रथी:) रथी बिना भी चलता है। (अन्-अवस:) रक्षक की जिसको जरूरत नहीं है, (अन् अभीशु:) लगाम भी नहीं है, ऐसा तुम्हारा रथ (रजस्तू:) धूलि उड़ाता हुआ (रोदसी पथ्या) आकाश मार्ग से (साधन् याति) अपना अभीष्ट सिद्ध करता हुआ जाता है।"

आशय यह कि मरुतों के चार प्रकार के रथ थे--

(1) अश्व रथ,

(2) हरिणियों से चलनेवाला रथ,

(3) अनश्व रथ अर्थात् घोड़े के बिना वेग से चलनेवाला रथ,

(4) आसमान में (रोदसी) उड़नेवाला रथ अर्थात् वायुयान (ऋ. 6.66.7)

शत्रु पर आक्रमण

मरुत् देवों के सैनिक थे अत: उनके लिये शत्रु पर हमला करना आवश्यक होता था। मरुत् मनुष्य थे इस विषय में वेद के वचन देखिए।

मरुतों के गुण

मरुत् ज्ञानी है (प्रचेतस: मरुत:)। वे दूरदर्शी हैं ("दूरे दृश:")। वे कवि है--(कवय: मरुत:)। मरुत अत्यंत कुशल, उत्तम सैनिक हैं। मरुत् उग्र है (उग्रा: मरुत:)। शत्रु को जड़ मूल से उखाड़कर फेंकनेवाले मरुत् है (सुमाया मरुत:)।

स्थिर शत्रु को भी अपनी शक्ति से ये मरुत् स्थानभ्रष्ट करते हैं। (ऋ. 1.85.4)।

एक पंक्ति में सात--मरुत् अपनी पंक्ति में ही रहते थे। यह इनकी पंक्ति सात की होती थी। ऐसी सात पंक्तियों का एक गण होता था। अत: कहा है--

1. गणशो हि मरुत:। (तांड्य ब्रा. 19.14.2)
2. मरुतो गणानां पतय: (तै. अ. 3.11.4.2)
3. सप्त गणा वै मरुत:। (तै. ब्रा. 1.6.2.3)

मरुतो का संघ होता है, अर्थात् मरुत् गणश: रहते हैं। मरुतों का गण सात सात का होता है। इस कारण उनको "सप्ती" कहते हैं :

सात सात सैनिकों की सात पंक्तियों में ये 49 रहते हैं। और प्रत्येक पंक्ति के दोनों ओर एक एक पार्श्व रक्षक रहता है। अर्थात् ये रक्षक 14 होते हैं। इस तरह सब मिलकर 49 अ 14 उ 63 सैनिकों का एक गण होता है। "गण" का अर्थ "गिने हुए सैनिकों का संघ" है। इन मरुतों के संघ इस तरह 63 सैनिकों के होते थे।

मरुतों के विमान

मरुतों के विमान भी होते थे, जैसा ऊपर कह चुक हैं।

हे मरुतो! तुम अंतरिक्ष से हमारे पास आओ। (ऋ. 5.53.8) अंतरिक्ष से संचार करनेवाले आकाशयान उनके पास थे।

मरुतों का स्तोता अमर होता है।

ये मरुत मानव थे।

आप मनुष्य हैं पर आपकी स्तुति करनेवाला अमर होता है। आप रुद्र के मनुष्य रूपी पुत्र हैं। (ऋ. 1.38.4, 1.64.2)।

इस तरह वेद में मरुतों का वर्णन "सैनिकीय गण" के रूप में किया गया है। वह देखने योग्य और राष्ट्रीय दृष्टि से विचार करने योग्य है।



Sidharth Singh की प्रोफाइल फ़ोटो

हिन्दुओं के देवी या देवता 33 है या 33 करोड़ यह बहस का विषय नहीं है। वेद पढ़ों तो सब समझ में आ जाएगा। बहस वे करते हैं जिन्होंने वेद नहीं पढ़े या जो सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करते हैं। खैर...हम आपको बताना चाहते हैं देवताओं की बिरादरी के मरुद्गणों के बारे में। मरुद्गणों को रुद्रों का पुत्र माना जाता है। रुद्रों की संख्‍या 11 है।

*ग्यारह रुद्र : महान, महात्मा, गतिमान, भीषण, भयंकर, ऋतुध्‍वज, ऊर्ध्वकेश, पिंगलाक्ष, रुचि, शुचि तथा कालाग्नि रुद्र। इसमें कालाग्नि रुद्र ही मुख्‍य है।

रुद्रदेव के पुत्र 49 मरुद्गण : मरुत अर्थात पहाड़। मरुद्गण का अर्थ मरुतों के गण। गण कई प्रकार के होते हैं उनमें से तीन प्रमुख है देवगण, राक्षस गण, मनुष्य गण। गण का अर्थ होता है समूह। मरुद्गण देवगणों में आते हैं। चारों वेदों में मिलाकर मरुद्देवता के मंत्र 498 हैं।

मरुतों का गण सात-सात का होता है। इस कारण उनको 'सप्ती' भी कहते हैं। 7-7 सैनिकों की 7 पंक्तियों में ये 49 रहते हैं। और प्रत्येक पंक्ति के दोनों ओर एक-एक पार्श्व रक्षक रहता है। अर्थात् ये रक्षक 14 होते हैं। इस तरह सब मिलकर 49 और 14 मिलकर 63 सैनिकों का एक गण होता है। 'गण' का अर्थ 'गिने हुए सैनिकों का संघ' भी होता है। प्रत्येक के नाम अलग अलग होते हैं।

मरुतों के बरे में अन्य मान्यता : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुद्गण कहलाए। वेदों में मरुद्गणों को रुद्र और वृश्नि का पुत्र लिखा गया है और इनकी संख्या 49 नहीं 60 की तिगुनी मानी गई है; लेकिन पुराणों में इन्हें कश्यप और दिति का पुत्र लिखा गया है।

पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। कश्यप के ये पुत्र निसंतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के चार पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। इन्ही से दैत्यों का वंश आगे बढ़ा।

परमेश्वर : सर्वोच्च शक्ति परमेश्वर के बाद हिन्दू धर्म में देवी और देवताओं का नंबर आता है। देवताओं जैसे को देवगण कहते हैं। देवगण का अर्थ यह कि वे देवता तो नहीं है लेकिन देवताओं के गण हैं। देवगण भी देवताओं के लिए कार्य करते हैं। देवताओं के देवता अर्थात देवाधिदेव महादेव हैं तो देवगणों के अधिपति भगवान गणेशजी हैं।

जैसे शिव के गण होते हैं उसी तरह देवों के भी गण होते हैं। गण का अर्थ है वर्ग, समूह, समुदाय। जहां राजा वहीं मंत्री इसी प्रकार जहां देवता वहां देवगण भी। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, तो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य।

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च॥

गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्‍घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥॥11-22॥

अर्थात : जो 11 रुद्र और 12 आदित्य तथा 8 वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं।

देवकुल : देवकुल में मुख्‍यत: 33 देवताओं का समूह हैं। इन 33 देवताओं के अलावा मरुद्गणों और यक्षों आदि को देव गणों के समूह में शामिल किया गया है। त्रिदेवों ने सभी देवताओं को अलग-अलग कार्य पर नियुक्त किया है। वर्तमान मन्वन्तर में ब्रह्मा के पौत्र कश्यप से ही देवता और दैत्यों के कुल का निर्माण हुआ। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे। इनकी माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थीं। महर्षि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं।

*देवताओं के गण:-

33 देवताओं के अतिरिक्त ये गण और माने गए हैं- 36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्य, 64 आभास्वर, 49 मरुत, 220 महाराजिक। इस प्रकार वैदिक देवताओं के गण और परवर्ती देवगणों को मिलाकर कुल संख्या 424 होती है। उक्त सभी गणों के अधिपति भगवान गणेश हैं। गणाधि‍पति गजानन गणेश। गणेश की आराधना करने से सभी की आराधना हो जाती है।

49 मरुतगण : मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।-(ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं- 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

पार्वती ही पिछले जन्म में सती थीं। सती के ही 10 रूप 10 महाविद्या के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं को 9 दुर्गा कहा गया है। आदिशक्ति मां दुर्गा और पार्वती अलग-अलग हैं। दुर्गा सर्वोच्च शक्ति हैं, लेकिन उन्हें कहीं कहीं पार्वती के रूप में भी दर्शाया गया है।

*प्रमुख 33 देवता:- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं, रुद्र ही शिव और आदित्यों में एक विष्णु हैं।

*देवताओं के गण:-
33 देवताओं के अतिरिक्त ये गण और माने गए हैं- 36 तुषित, 10 विश्वेदेवा, 12 साध्य, 64 आभास्वर, 49 मरुत, 220 महाराजिक। इस प्रकार वैदिक देवताओं के गण और परवर्ती देवगणों को मिलाकर कुल संख्या 424 होती है। उक्त सभी गणों के अधिपति भगवान गणेश हैं। गणाधि‍पति गजानन गणेश। गणेश की आराधना करने से सभी की आराधना हो जाती है।

*12 आदित्य- 1. अंशुमान, 2. अर्यमन, 3. इन्द्र, 4. त्वष्टा, 5. धातु, 6. पर्जन्य, 7. पूषा, 8. भग, 9. मित्र, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु।

*8 वसु : 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्युष और 8. प्रभाष।

*11 रुद्र- 1. शम्भू, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली। इन 11 रुद्र देवताओं को यक्ष और दस्युजनों का देवता माना गया है।

अन्य पुराणों में रुद्रों के अलग-अलग नाम हैं- मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग-अलग नाम मिलते हैं।

*2 अश्विनी कुमार : 1. नासत्य और 2. दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।

12 साध्यदेव : अनुमन्ता, प्राण, नर, वीर्य्य, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु ये 12 साध्य देव हैं, जो दक्षपुत्री और धर्म की पत्नी साध्या से उत्पन्न हुए हैं। इनके नाम कहीं कहीं इस तरह भी मिलते हैं:- मनस, अनुमन्ता, विष्णु, मनु, नारायण, तापस, निधि, निमि, हंस, धर्म, विभु और प्रभु।

64 अभास्वर : तमोलोक में 3 देवनिकाय हैं- अभास्वर, महाभास्वर और सत्यमहाभास्वर। ये देव भूत, इंद्रिय और अंत:करण को वश में रखने वाले होते हैं।

12 यामदेव : यदु ययाति देव तथा ऋतु, प्रजापति आदि यामदेव कहलाते हैं।
10 विश्वदेव : पुराणों में दस विश्‍वदेवों को उल्लेख मिलता है जिनका अंतरिक्ष में एक अलग ही लोक है।
220 महाराजिक :

49 मरुतगण : मरुतगण देवता नहीं हैं, लेकिन वे देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृश्नि का पुत्र कहा गया है तो पुराणों में कश्यप और दिति का पुत्र माना गया है। मरुतों का एक संघ है जिसमें कुल 180 से अधिक मरुतगण सदस्य हैं, लेकिन उनमें 49 प्रमुख हैं। उनमें भी 7 सैन्य प्रमुख हैं। मरुत देवों के सैनिक हैं और इन सभी के गणवेश समान हैं। वेदों में मरुतगण का स्थान अंतरिक्ष लिखा है। उनके घोड़े का नाम 'पृशित' बतलाया गया है तथा उन्हें इंद्र का सखा लिखा है।-(ऋ. 1.85.4)। पुराणों में इन्हें वायुकोण का दिक्पाल माना गया है। अस्त्र-शस्त्र से लैस मरुतों के पास विमान भी होते थे। ये फूलों और अंतरिक्ष में निवास करते हैं।

7 मरुतों के नाम निम्न हैं- 1. आवह, 2. प्रवह, 3. संवह, 4. उद्वह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह। इनके 7-7 गण निम्न जगह विचरण करते हैं- ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह से कुल 49 मरुत हो जाते हैं, जो देव रूप में देवों के लिए विचरण करते हैं।

30 तुषित : 30 देवताओं का एक ऐसा समूह है जिन्होंने अलग-अलग मन्वंतरों में जन्म लिया था। स्वारोचिष नामक ‍द्वितीय मन्वंतर में देवतागण पर्वत और तुषित कहलाते थे। देवताओं का नरेश विपश्‍चित था और इस काल के सप्त ऋषि थे- उर्ज, स्तंभ, प्रज्ञ, दत्तोली, ऋषभ, निशाचर, अखरिवत, चैत्र, किम्पुरुष और दूसरे कई मनु के पुत्र थे।

बौद्ध धर्मग्रंथों में भी वसुबंधु बोधिसत्व तुषित के नाम का उल्लेख मिलता है। तुषित नामक एक स्वर्ग और एक ब्रह्मांड भी है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चाक्षुष मन्वंतर में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया। पुराणों में स्वारोचिष मन्वंतर में तुषिता से उत्पन्न तुषित देवगण के पूर्व व अपर मन्वंतरों में जन्मों का वृत्तांत मिलता है। स्वायम्भुव मन्वंतर में यज्ञपुरुष व दक्षिणा से उत्पन्न तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव व रोचन नामक 12 पुत्रों के तुषित नामक देव होने का उल्लेख मिलता है।

अन्य देव- गणाधिपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, अर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, शनि, सोम, ऋभुः, द्यौः, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, धेनु, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला, जय, विजय आदि।

अन्य देवी- भैरवी, यमी, पृथ्वी, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति आदि।

गायत्री मंत्र अनुसर 24 देवताओं के नाम दर्ज हैं:
1-अग्नि, 2-वायु, 3-सूर्य, 4-कुबेर, 5-यम, 6-वरुण, 7-बृहस्पति, 8-पर्जन्य, 9-इन्द्र, 10-गंधर्व, 11-प्रोष्ठ, 12-मित्रावरुण, 13-त्वष्टा, 14-वासव, 15-मरुत, 16-सोम, 17- अंगिरा, 18- विश्वेदेवा, 19-अश्विनीकुमार, 20-पूषा, 21-रुद्र, 22-विद्युत, 23-ब्रह्मा, 24-अदिति।

देवताओं का वर्गीकरण...

देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है, इनमें 4 प्रकार मुख्य हैं-

1. पहला स्थान क्रम से : द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्य स्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता और तीसरे पृथ्वी स्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।

2. दूसरा परिवार क्रम से : इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।

3. तीसरा वर्ग क्रम से : इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।

4. चौथे समूह क्रम से : इन देवताओं में सर्व देवा आदि की गिनती की जाती है।

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1. स्व: (स्वर्ग) लोक के देवता- सूर्य, वरुण, मित्र

2. भूव: (अंतरिक्ष) लोक के देवता- पर्जन्य, वायु, इंद्र और मरुत

3. भू: (धरती) लोक- पृथ्वी, उषा, अग्नि और सोम आदि।

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1. आकाश के देवता अर्थात स्व: (स्वर्ग)- सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदित्यगण, अश्विनद्वय आदि।

2. अंतरिक्ष के देवता अर्थात भूव: (अंतरिक्ष)- पर्जन्य, वायु, इंद्र, मरुत, रुद्र, मातरिश्वन, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य।

3. पृथ्वी के देवता अर्थात भू: (धरती)- पृथ्वी, ऊषा, अग्नि, सोम, बृहस्पति, नद‍ियां आदि।

4. पाताल लोक के देवता- उक्त 3 लोक के अलावा पितृलोक और पाताल के भी देवता नियुक्त हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। पितरों के देवता अर्यमा हैं। पाताल के देवाता शेष और वासुकि हैं।

5. पितृलोक के देवता:- दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।

6. नक्षत्र के अधिपति : चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।

10 दिशा के 10 दिग्पाल : ऊर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।

किस देवता का कौन सा है कार्य जानिए अगले पन्ने पर...

ब्रह्मा : ब्रह्मा को जन्म देने वाला कहा गया है।
विष्णु : विष्णु को पालन करने वाला कहा गया है।
महेश : महेश को संसार से ले जाने वाला कहा गया है।

त्रिमूर्ति:- भगवान ब्रह्मा-सरस्वती (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु-लक्ष्मी (पालन तथा साधन) और शिव-पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति)। कार्य विभाजन अनुसार पत्नियां ही पतियों की शक्तियां हैं।

इंद्र :- बारिश और विद्युत को संचालित करते हैं। प्रत्येक मन्वंतर में एक इंद्र हुए हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु, मनोजव, पुरंदर, बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि।

अग्नि :- अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियां अग्नि के द्वारा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। बहुत सी ऐसी आत्माएं है जिनका शरीर अग्निरूप में है, प्रकाश रूप में नहीं।

सूर्य:- प्रत्यक्ष सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है तो इस नाम से एक देवता भी हैं। दोनों ही देवता हैं। कर्ण सूर्य पुत्र ही था। सूर्य का कार्य मुख्य सचिव जैसा है। सूर्यदेव जगत के समस्त प्राणियों को जीवनदान देते हैं।

वायु:- वायु को पवनदेव भी कहा जाता है। वे सर्वव्यापक हैं। उनके बगैर एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षणभर में नष्ट हो जाएगा। पवनदेव के अधीन रहती है जगत की समस्त वायु।

वरुण :- वरुणदेव का जल जगत पर शासन है। उनकी गणना देवों और दैत्यों दोनों में की जाती है। वरुण को बर्फ के रूप में रिजर्व स्टॉक रखना पड़ता है और बादल के रूप में सभी जगहों पर आपूर्ति भी करना पड़ती है।

यमराज- यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के प्राणियों के भौतिक शरीरों के नष्ट हो जाने के बाद उनकी आत्माओं को उचित स्थान पर पहुंचाने और शरीर के हिस्सों को पांचों तत्व में विलीन कर देते हैं। वे मृत्यु के देवता हैं।

कुबेर:- कुबेर धन के अधिपति और देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं।

मित्र:- मित्रःदेव देव और देवगणों के बीच संपर्क का कार्य करते हैं। वे ईमानदारी, मित्रता तथा व्यावहारिक संबंधों के प्रतीक देवता हैं।

कामदेव:- कामदेव और रति सृष्टि में समस्त प्रजनन क्रिया के निदेशक हैं। उनके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती। पौराणिक कथानुसार कामदेव का शरीर भगवान शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग (बिना शरीर) भी कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिसका भौतिक वजूद नहीं होता।

अदिति और दिति को भूत, भविष्य, चेतना तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।

धर्मराज और चित्रगुप्त:- संसार के लेखा-जोखा कार्यालय को संभालते हैं और यमराज, स्वर्ग तथा नरक के मुख्यालयों में तालमेल भी कराते रहते हैं।

अर्यमा या अर्यमन:- यह आदित्यों में से एक हैं और देह छोड़ चुकी आत्माओं के अधिपति हैं अर्थात पितरों के देव।

गणेश:- शिवपुत्र गणेशजी को देवगणों का अधिपति नियुक्त किया गया है। वे बुद्धिमत्ता और समृद्धि के देवता हैं। विघ्ननाशक की ऋद्धि और सिद्धि नामक दो पत्नियां हैं।

कार्तिकेय:- कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वे देवताओं के सेनापति हैं। उनका एक नाम स्कंद भी है। उनका वाहन मोर है तथा वे भगवान शिव के पुत्र हैं। दक्षिण भारत में उनकी पूजा का प्रचलन है। इराक, सीरिया आदि जगहों पर रह रहे यजीदियों को उनकी ही कौम का माना जाता है, जो आज दरबदर हैं।

देवऋषि नारद:- नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वे तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। वे देवताओं के संदेशवाहक और गुप्तचर हैं। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है।

हनुमान- देवताओं में सबसे शक्तिशाली देव रामदूत हनुमानजी अभी भी सशरीर हैं और उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है। वे पवनदेव के पुत्र हैं। बुद्धि और बल देने वाले देवता हैं। उनका नाम मात्र लेने से सभी तरह की बुरी शक्तियां और संकटों का खात्मा हो जाता है।

ईश्वर का उनके गुणों के आधार पर देववाची नामकरण किया गया है, जैसे अग्नि- तेजस्वी। प्रजापति- प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र- ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा- बनाने वाला। विष्णु- व्यापक। रुद्र- भयंकर। शिव- कल्याण चाहने वाला। मातरिश्वा- अत्यंत बलवान। वायु- वेगवान। आदित्य- अविनाशी। मित्र- मित्रता रखने वाला। वरुण- ग्रहण करने योग्य। अर्यमा- न्यायवान। सविता- उत्पादक। कुबेर- व्यापक। वसु- सब में बसने वाला। चंद्र- आनंद देने वाला। मंगल- कल्याणकारी। बुध- ज्ञानस्वरूप। बृहस्पति- समस्त ब्रह्माण्डों का स्वामी। शुक्र- पवित्र। शनिश्चर- सहज में प्राप्त होने वाला। राहु- निर्लिप्त। केतु- निर्दोष। निरंजन- कामनारहित। गणेश- प्रजा का स्वामी। धर्मराज- धर्म का स्वामी। यम- फलदाता। काल- समय रूप। शेष- उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। शंकर- कल्याण करने वाला।

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