अनुलोम और विलोम विवाह और संतान
अनुलोम एक संस्कृत शब्द है जिसका प्रयोग मनुस्मृति में किया गया है , जो मनु ( श्रद्धादेव मनु ) के नियम हैं, जो संबंधित पुरुष के सापेक्ष उच्च जन्म वाले पुरुष और निम्न स्तर (जन्म से) की महिला के बीच एक अतिविवाही मिलन का वर्णन करता है। [१] मनु बताते हैं कि मानव जाति के बीच विभिन्न जातियों का विकास दो व्यक्तियों के मिलन के कारण हुआ, जो एक दूसरे के सापेक्ष जाति या वर्ग की सीढ़ी (जन्म से और समाज में धन या स्थिति से नहीं) में एक ही पायदान से संबंधित नहीं थे। [२] मनु के अनुसार, एक ही जाति के भीतर, यानी दो व्यक्तियों के बीच जो सीढ़ी में एक ही पायदान से संबंधित हैं, उत्कृष्ट है। [१] अनुलोम विवाह को " अनाज के साथ जाने " के रूप में माना जाता है । [ २] हिंदू शास्त्रों के अनुसार , अनुलोम विवाह या मिलन की वकालत नहीं की जाती है
दूसरी ओर, प्रतिलोम विवाह नामक विपरीत विवाह की निंदा की गई, जिसमें उच्च कुल की स्त्री निम्न कुल के पुरुष (स्त्री के सापेक्ष) से विवाह करती है। मनु ने इन विवाहों की कटु आलोचना की और निंदा की, जिन्हें "बालों या अनाज के विरुद्ध" माना जाता था और विवाह के बाद शामिल पक्षों के पतन के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया। हालाँकि, बाद के टिप्पणीकारों ने इन विवाहों को स्वीकार कर लिया है। [4]जिसमें उल्लिखित विवाहों का क्रम मैं मूल धर्मसूत्र के शब्दों के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
- ब्रह्म विवाह
सबसे पहला और सबसे श्रेष्ठ विवाह ब्रह्म विवाह कहा गया है जिसका वर्णन इस तरह है
यह विवाह ऐसा है कि वर के धार्मिक गुणों से सहमत होकर कन्या को उसे इसलिए दिया जा रहा है कि विवाह करके दोनों धार्मिक (धर्म कर्म) उद्देश्य के लिए जीवन जिएं ।
*इसमें कन्या को उचित आभूषण आदि पहनाने का उल्लेख है जो सम्भव है कि आगे जाकर दहेज का आधार बना हो।
2. आर्ष विवाह
यह विवाह गोदान के साथ होता है। इसमें वर वधू के पिता को दो गौ (गाय और बैल) देकर कन्या को प्राप्त करता है।
3. देव विवाह
यज्ञ कराने वाले किसी ऋत्विज को अपनी कन्या का दान कर देने को दैव विवाह कहा गया है।
4 प्राजापत्य विवाह
(उपरोक्त के अतिरिक्त या इसके साथ एक प्राजापत्य विवाह भी अन्य जगह उल्लिखित है, पर प्रजापत्य पाणिग्रहण यानी कन्यादान की उपस्थिति का नाम होते हुए उपरोक्त तीनों का गुण कहा जा सजता है। अर्थात उपरोक्त तीनों ही प्रजापत्य कहे जाएंगे जो भिन्न सोर्स में थोड़ा अलग मिलता है)
इस में लकड़ी को किसी ऊँचे कुल को सौंप दिया जाता है। जिसमें उसकी मर्जी का कोई स्थान नहीं होता है।
अब इससे आगे आते हैं वे विवाह जिनमें पाणिग्रहण, फेरे, अग्नि के समक्ष संस्कार आदि नहीं होते, पर स्त्री पुरुष का मिलन होता है (और उसे भी विवाह ही कहा गया है)
5. गंधर्व विवाह
काम और राग (वासना और प्रेम) के चलते आपसी सहमति से सम्भोग कर लेने को गंधर्व विवाह कहा गया है। यानि विवाह से पहले (देखें - समो दीर्घः पूर्ववत् ) अगर शारीरिक सम्बन्ध हो जाएं (जैसे अब Live in होता है) तो कालान्तर में विवाह के संस्कार आदि किए जा सकत हैं और इसे गंधर्व विवाह कहते हैं।
[अगर कालान्तर में संस्कार आदि ना हों या एक प्रेमी की मृत्यु आदि भी हो जाए तब भी उसे गंधर्व विवाह के तौर पर स्वीकारा गया है। पुराणों में कथायें हैं जहां गंधर्व विवाह के पश्चात बिना संस्कार हुए पुरुष कि मृत्यु होने पर स्त्री अपना पत्नी होने का अधिकार माँगती है]
6. असुर विवाह
सभी जीवों के जीवन में जीवन संचालन की प्रक्रिया को प्रणम्य शादी , विवाह , कोर्टशिप आदि अनेक रूपों में कहा जाता है । इस जैविक प्रक्रिया में जीवन ऊर्जा दो नर& नारी जीवो के मध्य संचालित होती है । इस जीवन ऊर्जा को इसके विविध नामरूप धन रूप को शुक्र और ऋण को रज कहा जाता है । यह जीवन ऊर्जा नर/पुरुष जीव में शुक्राणु के अवस्था में होती है और नारी जीवन में अण्डाणु की अवस्था में होती है । इस प्रकार से यह जीवन ऊर्जा पुरुष से स्त्री की ओर चलती है ।। जिसमें पुरुष /नर दातार की जीवन में भूमिका निभाता है नारी / स्त्री जीवन ऊर्जा ग्राही की भूमिका निभाती है । यह जीवन ऊर्जा इसके पश्चात समाज में अन्य रूपों में भी विद्यमान है । जिसे मानसिक ऊर्जा , शारीरिक ऊर्जा , शक्ति ऊर्जा, धन ऊर्जा , आदि अनेक कार्य के अनुसार ऊर्जा के अन्य अनेक नाम रूप से जानी जाती है । परंतु इन सभी ऊर्जा की विविध कार्य योजनाओं को एक इकट्ठा शब्द समाज में शादी/ विवाह / कोर्टशिप /जोड़ा बनाना /युगल कहा जाता है जिसमें इन सभी ऊर्जाओं का सदुपयोग दुरुपयोग होता है । वह ऊर्जा विवाह कर्म कार्य ऊर्जा कही जाती है । इस विवाह ऊर्जा में सभी कार्यों का समावेश होता है । यह प्रणय ऊर्जा समाज में ब्राह्मण और सेवकों के मध्य स्थित है इसके बीच में क्षत्रिय वैश्य /धनिक वर्ण भी विद्यमान हैं ।
जिसके अनुसार शादी संबंधों में भी विवाह संबंध बनाने के अनुसार अनुलोम * और प्रतिलोम * आज शब्द कहे जाते हैं । ऐसे में सवर्णा से विवाह - अपनी जाति समाज में विवाह करना उचित एक प्राकृतिक विवाह कहा जाता है । जिसमें दोनों नर नारी के जैविक गुण समानता होने से उनके मध्य में संघर्ष की संभावना न्यूनतम होती है । जबकि सामाजिक गुंण विविधता से यदि अनुलोम या विवाह होता है तो उनके मध्य जैविक गुण की असमानता से उन दोनों के बीच में भी उन दोनों के मध्य में उनके समाज में भी संघर्ष की संभावनाएं उत्पन्न होने लगती हैं । बल्कि सभी अनुलोम -विवाह और प्रतिलोम- विवाह में शुरुआत ही दंगा झगड़ा राग फसाद से होती है ।
अनुलोम विवाह प्राकृतिक विवाह है जिसकी शुरुआत स्त्री पक्ष के द्वारा होती है । जबकि प्रतिलोम विवाह अप्राकृतिक विवाह है जिसकी शुरुआत पुरुष या नर पक्ष के द्वारा होती है ।। हिंदू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि सृजन का दायित्व नारी / स्त्री पक्ष को दिया है स्त्रियाँ भीरु स्वभाव की जीवन प्रिय रक्षण गुंण युक्त होती हैं , सृष्टि में नाश करने का दायित्व नर को दिया है जिससे नर /पुरुष स्वभावतः जीवन नाशप्रिय आक्रामक माराधारा स्वभाव के होते हैं । ऐसे में सृष्टि निर्माण में नारी की सृजनात्मक इच्छा को वरीयता दी गई है । अनुलोम का अर्थ है । उच्च वर्णीय पुरुष का निम्न वर्णीय स्त्री से शादी संबंध । ब्राह्मण का क्षत्रिय स्त्री से शादी संबंध , क्षत्रिय पुरुषों का वैश्य स्त्रियों से शादी संबंध या वैश्य पुत्री से क्षत्रिय पुत्र की शादी ।वैश्य पुत्र की सेवक वर्णा पुत्री से शादी । यह सभी अनुलोमज विवाह प्राकृतिक विधि विधान द्वारा मान्य है । परंतु सामाजिक विधि-विधान ओं के द्वारा इनमें गुंणवेद विविधता से संघर्ष उत्पन्न होने से अल्प मान्य है । या हम कह सकते हैं कि यह सर्वमान्य की श्रेणी में आ सकते हैं ।
परंतु प्रतिलोम विवाह में सृष्टि सृजन जैसा असंभव कार्य की शुरुआत नर पक्ष या पुरुषों के द्वारा की जाती है जो कि अनुचित है । जिससे शास्त्रों में बलात्कार का नाम दिया गया है । जिसके द्वारा नर अपने आत्मांश को नारी के शरीर में पात्रअंश में बलपूर्वक प्रति स्थापित करने का असंवैधानिक कृत्य करता है । प्रतिलोम विवाह का अर्थ है । निम्न वर्णीय पुरुष की उच्चवर्णीय स्त्री से शादी :- जैसे क्षत्रिय पुरुष की ब्राहमणी स्त्री से शादी , वैश्य समाज पुरुषों की क्षत्रिय समाज लड़कियों से शादी , सेवक समाज पुरुषों की वैश्य समाज लड़कियों से शादी ।
कहने का अभिप्राय यह है कि क्षत्रिय समाज और वैश्य समाज दोनों समाज के मध्य में स्थित हैं । जबकि ब्राह्मण समाज के ऊपर और सेवक समाज के नीचे स्थित है ऐसे में इन दोनों वर्णों के पुरुषों पर शादी के नियम सामान्य नहीं है। जिससे ब्राह्मण समाज के पुरुष और सेवक समाज के पुरुषों के लिए शादी के नियम इतने कठोर बन गए हैं । कि इनके लिए शादी करना शास्त्रों के अनुसार बहुत कठिन है , एक के पास अति श्रेष्ठता का तमगा है तो दूसरे के पास अति निम्नता का तमका है । जबकि दोनों ही पुरुष है परंतु दोनों की आर्थिक सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों में व्यापक विषमता आज भी समाज में विद्यमान हैं । ब्राह्मणों के लिए सांसारिक सामाजिक कार्य करते हुए भोग विरक्ति विशेष गुण है । जबकि सेवक समाज के लोगों के लिए सांसारिक सामाजिक करते रहने पर भी बुद्धि विवेक की कमी से भोग की उपलब्धि कठिन है। ऐसे में सांसारिक सामाजिक भोग संपदा भूस्वामी पद पर क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के लोगों का विशेषाधिकार है । समस्त भौतिक सुख संपदाएं इन्हीं के पास है यही लोग समाज में बहुतायत से अमीर धनाड्य पाये जाते हैं । जिससे क्षत्रिय वैश्य वर्ण के स्त्री पुरुष ही समाज में सर्वत्र धनी समृद्ध दिखाई देते हैं । ब्राह्मण और सेवक वर्ण समाज के लोगों की स्थिति उतनी सुखी समृद्ध नहीं है कि वह विवाह शादी आसानी से कर सकें ।
विवाह की प्रक्रिया में सर्वोत्तम विवाह सबसे पहले सहवर्णा स्वजातीय सवर्ण उसके बाद अवर्णा दूसरे वर्ण दूसरी जाति के साथ शादी संबंध का मनुस्मृति में प्रावधान है । परंतु अनुलोम प्रतिलोम विवाह उस परिस्थिति में किए जाते हैं जब सवर्णा संबंध का योग नर नारी के दोनों के परिवार और समाज की अज्ञानता विवेकहीनता विवेचना हीनता से नहीं बन पाता है ।ऐसे में शादी की उम्र बीतने लगती है तो गिरती हुई यौवन अवस्था में छिकैला पुरुष और छिकैलिया स्त्री की की शादी मजबूरी में अनुलोमज विवाह या प्रतिलोमज विवाह को विशेष विधि विधान से समपन्न कराया जाता है । कभी कभी उग्र चंडूलिका या चंडूलक स्त्री पुरूष के प्रबल आसक्ती वश दूसरे जाति वर्ण समाज में शादी मजबूरी से संबंध किए जाते हैं । इन दूसरे वर्णों में मजबूरी बस किए गए शादी संबंधों को अनुलोम विवाह प्रतिलोम विवाह कहते हैं । इनमें अनुलोमज विवाह सरलता से स्वीकार्य हो जाता हैं । परंतु प्रतिलोमज विवाह का जबरदस्त विरोध किया जाता है । कारण कि प्रतिलोम विवाह प्रस्ताव में नर की ओर से शुरुआत होती है।
शादी के लिए मुख्य शब्द है अविवाहित - लड़की के लिए कन्या /कुँवारी /कुमारी , लड़के के लिए अविवाहित / कुँआरा/ कुमर ।।
विवाहिता लड़की के लिए बिन्नी /बिन्ना , लड़के के लिए विवाहित ।।
बड़े लड़के या लड़की की शादी ना हो और छोटे बच्चे लड़की की शादी हो जाए ऐसे में बड़े लड़के को छिकैला या परिवेत्ता कहते हैं लड़की को छिकैली या परिवेत्ती कहते हैं ।
लड़की के लिए शादी के पश्चात लड़के द्वारा त्याग दिये जाने पर या छोड़ देने पर परित्यक्ता या तलाकशुदा लड़के के लिए परित्यक्त ।।
चौथा शब्द है लड़की के लिए पति के मरने पर विधवा /राँड । लड़के के लिए पत्नी के मरने पर विधुर /रंडुआ
परंतु आजकल नव साक्षरता के चलते जिन लोगों की शादी नहीं हो पाती है उन्हें भी टीवी पर रंडुआ* शब्द नाम दिया गया है । जो कि उचित नहीं है कुंवारे लोगों के लिए जिनकी शादी नहीं हो पाती है उनके लिए शब्द है वरूआ । और लड़कियों के लिए शब्द है वरूथिनी ।
सुश्री तथा श्रीमति से सभी स्त्रियों का सभ्य शिष्ट संबोधन हो जाता है।
जो लड़के और लड़की की मर्जी से पिता के गोत्र की ना हो। और माता के गोत्र की ना हो विवाह होना। लड़के की आयु लड़की से न्यूनतम ड्योढी अधिकतम दोगुनी होनी चाहिए ।लड़के व लड़की को कोई भी वंश परंपरा से आगे बढ़ने वाला रोग नहीं होना चाहिए ।यह वैदिक विवाह कहता है ।जिससे संसार में उत्तम संतान पैदा हो। दूर देश विवाह अच्छा माना जाता है।
वैदिक युग की मान्यताओं और वेदों को आधार मानकर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ लिखा है. इस ग्रंथ में सनातन समाज में फैले भ्र्म अज्ञान अशिक्षा पाखंड को दूर करने में बडा योगदान किया है तथा नारि शिक्षा, लिंग भेद, वर्ण असमानता आदि पर समाज का मार्गदर्शन किया है. इसी तरह कन्या के विवाह योग्य आयु के सम्वन्ध में फैले अंधकार और मिथ्याचार का भी खंडन सशास्त्र किया है. इस ग्रन्थ के समुल्लास चतुर्थ के अनुसार :
त्रीणि वर्षाण्यु कुमार्यृतुमति सती, उर्ध्व तु कलादेतस्माद्विन्दत सदृशं पतिम.
अर्थ : कन्या रजस्वला हुए पीछे तीन वर्ष पर्यंत पति की खोजकर अपने तुल्य पति को प्राप्त हो. आमतौर पर तेरह साल की कन्या रजस्वला होती है अतः तीन वर्ष पश्चात अर्थात सोलह वर्ष की आयु में उसके योग्य पति खोजकर शादी कर देनी चाहिए. इससे कम आयु में विवाह करना निष्फल है क्योंकि सोलहवे वर्ष पश्चात कन्या का गर्भाशय पुरा और 24वै वर्ष उपरांत पुरुष का शरीर बलिष्ठ, वीर्य परिपक्व होने से उतपन्न संतान गुनी अधिक रोग प्रतिरोधक क्षमता युक्त सुंदर और तंदुरुस्त पैदा होती है.
कम उम्र में शदी करने के कुछ दोहे भी लिखें है जिनको स्वामी जी ने वेदों में कहे नहि माना है बल्कि जाल ग्रंथों से लिया बताया है. अतः इनको नहि मानना चाहिए.
मुनि धन्वन्तरि ने भी सुश्रुत में कम आयु की कन्या और कम आयु के पुरुष के विवाह को निषेध किया है:
ऊनषोडशवर्षायाम प्राप्ताह पंचविंशतिम
यद्यदात्ते पुमान गर्भा कुच्चीस्थः स विपद्यते.
अर्थात 16 से कम कन्या 25 से कम आयु के पुरुष से जो गर्भ धारण होता है to वह विपत्ति को प्राप्त होता है यानि पुरा गर्भ में नहि ठहरता चिरकाल तक जीवित नहि रहता दुर्बलेन्द्रिय होता है.
इस हि ग्रन्थ के तृतीय समुल्लास में लड़कों के लिए भी शदी योग्य आयु का वर्णन है मुख्यतः यह ब्रह्मचर्य से सवन्धित है जो की तीन तरह का बताया गया है. कनिष्ठ जिसके लिए 24 वर्ष, मध्यम के लिए 44 वर्ष और उत्तम के लिए 48 वर्ष ब्रह्मचर्य निर्वाह करना है. इससे शरीर की चार अवस्थाये जिनमे बृद्धि, यौवन, सम्पूर्णता और किंचित्परिहाणी पूरी होकर सकल शरीर को धातु पुष्ट कर सम्पूर्णता देती है. इसी तरह स्त्री के लिए भी है. सोलह वर्ष की कन्या के लिए 25 वर्ष का ब्रह्मचारी, 17 वर्ष वाली कन्या हेतु 30 वर्ष ब्रह्मचारी, 18 वर्ष ki knya हेतु 36 वर्ष का पुरुष 19–20 वर्ष की कन्या हेतु 40 वर्ष का पुरुष, 21–22 की कन्या ब्रह्मचारिणी हेतु 44 वर्ष का ब्रह्मचारी पुरुष और 23–25 वर्ष आयु की कन्या हेतु 48 वर्ष तक का ब्रह्मचारी पुरुष का जोड़ा उचित होता है और इसे हि उत्तम कहा गया है ज़ब कन्या 25 तक और पुरुष 48 तक ब्रह्मचर्य धारण करें. बीच की अवस्था मध्यम कहि गयी है.
अतः वैदिक ग्रंथो में कन्या और पुरुष दोनों के लिए विवाह की कम से कम आयु क्रमशः 16 एयर 25 रखी है.
धर्मसूत्र के अनुसार आठ तरह के विवाह होते हैं।
इनकी विवेचना के लिए सबसे श्रेष्ठ धर्मसूत्र आपस्तंब और गौतम हैं। उनमें भी आपस्तंब धर्मसूत्र सबसे प्राचीन और सबसे श्रेष्ठ माना जाता है
जिसमें उल्लिखित विवाहों का क्रम मैं मूल धर्मसूत्र के शब्दों के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
- ब्रह्म विवाह
सबसे पहला और सबसे श्रेष्ठ विवाह ब्रह्म विवाह कहा गया है जिसका वर्णन इस तरह है
यह विवाह ऐसा है कि वर के धार्मिक गुणों से सहमत होकर कन्या को उसे इसलिए दिया जा रहा है कि विवाह करके दोनों धार्मिक (धर्म कर्म) उद्देश्य के लिए जीवन जिएं ।
*इसमें कन्या को उचित आभूषण आदि पहनाने का उल्लेख है जो सम्भव है कि आगे जाकर दहेज का आधार बना हो।
2. आर्ष विवाह
यह विवाह गोदान के साथ होता है। इसमें वर वधू के पिता को दो गौ (गाय और बैल) देकर कन्या को प्राप्त करता है।
3. देव विवाह
यज्ञ कराने वाले किसी ऋत्विज को अपनी कन्या का दान कर देने को दैव विवाह कहा गया है।
4 प्राजापत्य विवाह
(उपरोक्त के अतिरिक्त या इसके साथ एक प्राजापत्य विवाह भी अन्य जगह उल्लिखित है, पर प्रजापत्य पाणिग्रहण यानी कन्यादान की उपस्थिति का नाम होते हुए उपरोक्त तीनों का गुण कहा जा सजता है। अर्थात उपरोक्त तीनों ही प्रजापत्य कहे जाएंगे जो भिन्न सोर्स में थोड़ा अलग मिलता है)
इस में लकड़ी को किसी ऊँचे कुल को सौंप दिया जाता है। जिसमें उसकी मर्जी का कोई स्थान नहीं होता है।
अब इससे आगे आते हैं वे विवाह जिनमें पाणिग्रहण, फेरे, अग्नि के समक्ष संस्कार आदि नहीं होते, पर स्त्री पुरुष का मिलन होता है (और उसे भी विवाह ही कहा गया है)
5. गंधर्व विवाह
काम और राग (वासना और प्रेम) के चलते आपसी सहमति से सम्भोग कर लेने को गंधर्व विवाह कहा गया है। यानि विवाह से पहले (देखें - समो दीर्घः पूर्ववत् ) अगर शारीरिक सम्बन्ध हो जाएं (जैसे अब Live in होता है) तो कालान्तर में विवाह के संस्कार आदि किए जा सकत हैं और इसे गंधर्व विवाह कहते हैं।
[अगर कालान्तर में संस्कार आदि ना हों या एक प्रेमी की मृत्यु आदि भी हो जाए तब भी उसे गंधर्व विवाह के तौर पर स्वीकारा गया है। पुराणों में कथायें हैं जहां गंधर्व विवाह के पश्चात बिना संस्कार हुए पुरुष कि मृत्यु होने पर स्त्री अपना पत्नी होने का अधिकार माँगती है]
6. असुर विवाह
यह एक तरह से धन आदि देकर या अपनी सामाजिक शक्ति आदि के प्रभाव से किसी स्त्री को खरीदने का कार्य है, जिसे असुर विवाह कहा गया है।
इसे आसानी से पैसे देकर लड़की खरीदना कहा जा सकता है जैसे अब पैसे देकर लड़के खरीदे जाते हैं और उसे हम दहेज कहते हैं।
(हाँ पर कन्या के क्षेत्र का भरण पोषण करने का भाव असुर में नहीं आएगा जो अंतिम पंक्ति में दिया गया है)
7. राक्षस विवाह
कन्या के दुहित (पिता या पालने वाला) को परास्त (या मृत) करके कन्या का हरण करने का कार्य राक्षस विवाह कहा गया है।
हरण मतलब उठा ले जाना। इसे राक्षसी गुण के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। यह निकृष्ट माना गया है, लेकिन विवाह तब भी है।
इसी में नीचे एक और विवाह कहा गया है
8. पिशाच विवाह
यह आठवां, जिसका वर्णन उपरोक्त राक्षस विवाह के सूत्र में ही है, पिशाच विवाह है जो कन्या की स्थिति सुप्त या प्रमत्त (बेहोश या नशे में) होने पर किया गया भोग है।
अब स्वाभाविक है कि आखिरी वाले दो को हम आज की विधि में विवाह नहीं कहते बल्कि बलात्कार कहते हैं।
उससे पहले वाला असुर विवाह असल में इंसान को खरीदने जैसा काम है जो प्राचीन समाजों में चलता था पर आज उसे या तो human trafficking में लेते हैं, और या अगर कोई परिवार अपनी बेटी किसी को बेच देता है तो यह भी आज नीची दृष्टि से देखा जाएगा।
(हाँ भले पुरुष दहेज के नाम बिकते रहते हैं उसमें कुछ नहीं, क्योंकि वे पुरुष को ख़ुद ही अपना भाव लगाए बैठे रहते हैं वे वैसे भी कौनसा चीज़ से बढ़कर कुछ माने जाने चाहिए। खैर….)
इससे पहले का विवाह गंधर्व विवाह है, जो प्रेमियों के बीच के अपनत्व या कामोत्तेजना के चलते होने वाले संबंध हैं।
इसकी सलाह भी नहीं दी गई है और निंदा भी नहीं की गई है। यानि अगर ऐसा सम्बन्ध हो गया है तो बाद में संस्कार करके उसे सामान्य विवाह के रूप में गन्धर्व विवाह के बतौर स्वीकारा जाता है।
यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यही बात वर्तमान में Live In को शुद्ध धार्मिक आधार पर भी स्वीकार्य बनाता है, भले ही उसे श्रेष्ठतम विधि ना माना जाए पर वह स्वीकार्य है।
पहले भी परिस्थिति होती थी जिसमें दो प्रेमियों को सम्बन्ध बनाना आपसी प्रेम से हो जाता था, जैसे शकुंतला और दुष्यंत का मामला। दुष्यंत जंगल में आए थे और समबन्ध हो गया, जिससे भरत उत्पन्न हो गए।
वही स्थिति कभी कभी घर से दूर रहते प्रेमियों की बनती है जब कोर्पोरेट के जंगल में कोई दुष्यंत किसी शकुंतला से मिलता है। निश्चित ही ऐसे संबंध बनाने वाले एक बड़ा रिस्क लेते हैं लेकिन यह उनका चुना हुआ रिस्क है। हम उन्हें ऐसा ना करने को कह सकते हैं पर अधिकार नहीं जता सकते। और फिर अगर उनका सम्बन्ध सही दिशा में जाता है तो कालान्तर में वे परंपरागत विवाह भी कर सकते हैं, और नहीं भी करके अगर अच्छे से हैं तो हमें दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
आगे आप पढ़ेंगे तो थोड़ा वर्ण-जाति का भेदभाव आदि है, धर्म सूत्र के अनुसार भिन्न तरह के विवाह से भिन्न सन्तान पैदा होती है (जो कि वैसे तो घोर अवैज्ञानिक और जातिवादी बात है लेकिन अब धर्म सूत्र में लिखी है तो लिखी है)
ऊपर वाले से नीचे के सूत्र का अनुवाद पूरा नहीं दिया गया है पर एकदम आसानी से ही पढ़ने वाले समझ सकता है कि..
प्राजापत्य विधि से (पाणिग्रहण आदि से) विवाह करना ब्राह्मण के लिए है (उसे वैसे भी धर्म कर्म करना होता है)
गन्धर्व और राक्षस विवाह क्षत्रिय को चलेंगे। और ऐसे विवाह से वह गुण आ जाएंगे।
असुर विवाह से वैश्य और शूद्र होंगे (वैसे भी पैसे देकर किया ग गया है और यहाँ शूद्रों के साथ बेचारे वैश्य भी गलत लपेटे में आए हुए हैं)
और पिशाच विवाह किसी के लिए कभी उचित नहीं है। (Thank God!)
तो यह है धर्म सूत्र के अनुसार विवाह के प्रकार। देखने से ही समझ आता है कि किन्हीं भी स्त्री पुरुष में अगर सम्बन्ध है तो उसके लिए विवाह शब्द ही उपयोग करने का हिसाब यहां रहा है। राजाओं आदि का जमाना था तो हरण करके भी किया गया हो तो उसे भी स्वीकारना होता था।
उस काल के हिसाब से इसे देखते हुए इसे उसी काल में रहने देने में ही हमारी भलाई है क्योंकि आज की विधि और मानव अधिकार के सापेक्ष हम हरण करके और खरीद कर तो विवाह मान नहीं सकते… और फिर नशे में सम्भोग तो सीधे बलात्कार ही है। उसे तो विवाह कहना और सोचना भी सम्भव नहीं है।
बाकी अच्छी बात है कि सलाह यही दी गई है कि ब्रह्म, देव और आर्ष विधि से करना बेहतर है। और प्रेम के जोश आदि में हो गया तो चलो फिर भी गन्धर्व हुए, लेकिन पैसे देकर, हरण करके मत करो वो अच्छा नहीं माना जाएगा (लेकिन मान फिर भी लेंगे)। पर नशे में बलात्कार आदि तो एकदम ही अनुचित कहा गया है सो अच्छी बात है।
फिर भी अगर वह भी विवाह है तो क्या धर्म सूत्र यहाँ सोई हुई या नशे में स्त्री के साथ बलात्कार करने वाले को उसके पति का दर्जा देने का अनुचित कार्य नहीं कर रहा है? आख़िर उसे विवाह कहा ही क्यों गया है यह विचारणीय रहना चाहिए?
शायद तत्कालीन समाज में पुरुष द्वारा सम्भोग किए जाने के बाद कौमार्य के भंग की स्थिति से जुड़े टैबू की वज़ह से उसे विवाह कहा गया है। सामाजिक स्थिति आज भिन्न है, और वर्तमान में हमारे पास बेहतर वैधानिक आधार हैं। हम पूजा पाठ और संस्कार आदि को प्राचीनता के धरोहर के सांकेतिक रूप से लेकर चलते हुए विवाह की परिभाषा को आधुनिक रूप में लेते चलें (ना कि शास्त्र से) यही हमारे लिए उचित जान पड़ता है।
हमारे यहाँ वर्ण व्यवस्था है। इसके अनुसार आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1.1.1.4-5 में कहा गया है:
चार जातियाँ हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें से प्रत्येक पूर्ववर्ती (जाति) जन्म से ही अगली जाति से श्रेष्ठ है।
तो, इसमें कहा गया है:
शूद्र के लिए पूर्ववर्ती वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य श्रेष्ठ हैं।
वैश्य के लिए पूर्ववर्ती वर्ण क्षत्रिय और ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।
- क्षत्रिय के लिए पिछला वर्ण ब्राह्मण श्रेष्ठ है।
और पति-पत्नी में पति का अधिकार श्रेष्ठ होता है। लेकिन अगर प्रतिलोम विवाह होता है, तो हम नहीं जानते कि कौन श्रेष्ठ है (लड़की इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि वह उच्च वर्ण की है या लड़का इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि वह पति है)। इसलिए अनुलोम विवाह की सिफारिश की जाती है और प्रतिलोम विवाह को हतोत्साहित किया जाता है।
अच्छा प्रश्न। संबंधित: अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के उदाहरण? . यह बौद्धिक स्तर से अधिक संबंधित है। एक पुरुष को उच्च बुद्धि वाली महिला से विवाह नहीं करना चाहिए। इस संबंधित पोस्ट को देखें । दरअसल प्रतिलोम विवाह कुछ शास्त्रों में दंडनीय है। इसलिए एक अच्छे परिवार की लड़की का ड्राइवर के साथ भाग जाना या एक अमीर परिवार की लड़की का मैकेनिक से प्यार हो जाना, केवल फिल्मों में ही स्वीकार्य होगा। :-)
– iammilind को फ़ॉलो करें
टिप्पणी की गई4 सितम्बर 2017, 12:28 बजे
वर्णसंकर अंतर्जातीय विवाहों का परिणाम हैं। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन ने वर्णन किया है कि ऐसे वर्णसंकर 'कुकधर्म' को नष्ट कर देते हैं और पूरे 'कुल' के सदस्यों को नरक में ले जाते हैं। मनु कहते हैं: वर्णसंकर का एक कारण निम्न जाति के लड़के और उच्च जाति की लड़की के बीच विवाह है।
– उपयोगकर्ता17294
टिप्पणी की गई17 जनवरी, 2019 11:31 बजे
नारदसंहिता के अनुसार, इस तरह के प्रतिलोम विवाह से वर्णसंकर भी बनते हैं। ध्यान दें कि आर्युण ने कुलधर्म का उल्लेख शाश्वत यानी शाश्वत यानी ऐसी चीज के रूप में किया है जिसे संरक्षित किया जाना चाहिए। मनु अनुलोम विवाह (स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि) को स्वीकार करते हैं। तंत्रसार कहता है कि अगर शूद्र पुरुष ब्राह्मण लड़की से विवाह करता है, तो वह चांडाल बन जाता है।
– उपयोगकर्ता17294
टिप्पणी की गई17 जनवरी, 2019 11:31 बजे
प्रतिलोम विवाह उस विवाह को कहते हैं, जिसमें उच्च कुल की स्त्री निम्न कुल के पुरुष से विवाह करती है। विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू विवाह क़ानून (संशोधन) अधिनियम 1976 इत्यादि के कारण अब अंतर्जातीय विवाह को क़ानूनी मान्यता प्राप्त हो गई है। फलस्वरूप प्रतिलोम नियम कमज़ोर हो गया है। इस प्रकार के विवाहों के उदाहरण प्राचीन साहित्य में मिलते हैं। यद्यपि इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं रहा, जिसमें प्रतिलोम विवाह, पूर्णरूप से प्रचलित रहे हों। फिर भी कुछ उदाहरण अवश्य मिलते हैं। कदम्ब वंश के शकुतृस्थ वर्मा नामक ब्राह्मण राजा ने अपनी कन्याएँ गुप्त राजाओं की दी थी। प्रतिलोम विवाह के जो उदाहरण मिलते हैं, वे ऊँचे स्तर के व्यक्तियों के हैं। इससे यह विदित होता है कि समान आर्थिक स्तर के व्यक्तियों के सांस्कृतिक जीवन में अंतर नहीं था, इसलिए उनके बीच प्रतिलोम विवाहों की प्रथा प्रचलित थी। 10वीं शताब्दी तक भारत में अनुलोम विवाह उच्च वंशों में समान आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्तर के व्यक्तियों में प्रचलित था। अत: कहा जा सकता है कि अंतर-जातीय विवाह केवल 20वीं शताब्दी की ही अपनी मौलिक विशेषता नहीं हैं।
शब्दसागर
अनुलोम संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. ऊँचे से निचे की और आने का क्रम । उतार का सिलसिला ।
२. उत्तम मे अधम की ओर आता हुआ । । श्रेणीक्रम ।
३. संगति में सुरों का उतार । अवरोही ।
४. प्रतिलोम का उलटा या विलोम [को॰] । यौ.—अनुलोम विवाह ।
अनुलोम विवाह संज्ञा पुं॰ [सं॰] उच्चा वर्ण के पुरुष का अपने से किसी निच वर्ण की स्त्री के साथ विवाह । जैसे—ब्राह्माण का क्षत्रिया, वैश्या या शूद्रा से क्षत्रिय का वैश्या या शूद्रा से ओर वैश्या का शूद्रा से विवाह । इस प्रकार के संबंध से जो संतति होती है वह अनुलोम संकर कहलाती है ।
अनुलोम और प्रतिलोम विवाह - हिंदुओं में विवाह साथी चुनाव में अनेक निषेधों का पालन किया जाता है उनमें अनुलोम एवं प्रतिलोम के नियम भी महत्वपूर्ण हैं। एक
अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह की विवेचना कीजिये।
अनुलोम और प्रतिलोम विवाह - हिंदुओं में विवाह साथी चुनाव में अनेक निषेधों का पालन किया जाता है उनमें अनुलोम एवं प्रतिलोम के नियम भी महत्वपूर्ण हैं। सम्पूर्ण विवेचना इस प्रकार है -
(1) अनुलोम विवाह (Anuloma Marriages)
जब एक उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं गोत्र के लड़के का विवाह ऐसी लड़की से किया जाए जिसका वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं वंश के लड़के से नीचा हो तो ऐसे विवाह को अनुलोम विवाह कहते हैं। उदाहरण - एक ब्राह्मण लड़के का विवाह एक क्षत्रिय या वैश्य लड़की से होता है तो इसे हम अनुलोम विवाह कहेंगे। वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक अनुलोम विवाहों का प्रचलन रहा है। मनु ने शूद्र कन्या से द्विज लड़के का विवाह अनुचित बताया है। ऐसे विवाह से द्विज का वर्ण दूषित हो जाता है, उसके परिवार का स्तर गिर जाता है और उसकी सन्तान को शूद्र की स्थिति प्राप्त होती है। ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान को मनु 'पार्षव' (एक जीवित पशु) की संज्ञा देते हैं और उसे सम्पत्ति में भी कोई अधिकार नहीं होता है। डॉ राधाकृष्णन का मत है कि भारत में अनुलोम विवाह का प्रचलन दसवीं शताब्दी तक रहा हैं।
अनुलोम विवाह के प्रभाव-हानियां
अनुलोम विवाह ने समाज में अनेक समस्याओं को जन्म दिया। उसके निम्नांकित दुष्परिणाम निकलेः
1. वर-मूल्य-प्रथा - जब नीचे कुल वाले उच्च कुल के लड़कों को वर के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं तो लड़कों का अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में वर-मूल्य प्रथा प्रचलन बढ़ जाता है।
2. सामाजिक बुराइयाँ - अनुलोम विवाह प्रथा ने समाज में रूढ़िवादिता तथा सामाजिक, पारिवारिक एवं वैयक्तिक जीवन में अनेक समस्याओं, को जन्म दिया है। निम्न कुल की लड़कियों का देर तक विवाह न होने पर समाज में भ्रष्टाचार व नैतिक पतन की समस्या पैदा होती है।
3. उच्च कुलों में लड़कों की कमी - जो कुल सामाजिक दृष्टि से ऊँचा माना जाता है उस कुल के लड़कों से नीचा समझे जाने वाले कुल के लोग अपनी कन्या का विवाह कराना चाहते हैं, परिणामस्वरूप ऊँचे कुल की लड़कियों के लिये वर का अभाव हो जाता है और उन्हें अविवाहित ही रहना पड़ता है।
4. कन्या-मूल्य का प्रचलन - अनुलोम विवाह के कारण नीचे कुलों में कन्याओं का अभाव हों जाता है जिसके फलस्वरूप कन्या-मूल्य का प्रचलन होता है।
5. बाल विवाहों का प्रचलन - अनुलोम विवाह में प्रत्येक पिता यह चाहता है कि उसकी कन्या का विवाह उच्च कल के लड़के से हो अतः ज्योंही कोई योग्य वर मिला कि कन्या का विवाह कर दिया जाता है। कई बार तो चार-पांच वर्ष से कम आयु की कन्याओं का भी विवाह कर दिया जाता है।
6. बहपति एवं बहुपत्नी विवाह का जन्म - ऊँचे कुल के लड़के से नीचे कुल के सभी लोग अपनी कन्या का विवाह करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में उच्च कुल में बहुपत्नी विवाह का प्रचलन होगा. दूसरी ओर नीचे कुल में लड़कियों का अभाव होने पर बहुपति विवाह का प्रचलन होगा।
7. नीचे कूलों में लड़कियों की कमी - नीचे कुल के सभी लोग जब अपनी कन्या का विवाह उच्च कुल में कर देते हैं तो नीचे कुल में लड़कों के लिए कन्या का अभाव हो जाता है। और कई लड़कों को अविवाहित ही रहना पड़ता है।
8. बेमेल-विवाह - अनुलोम विवाह के कारण ऊँचे कुल में लड़की का विवाह कभी-कभी प्रौढ़ या वृद्ध व्यक्ति के साथ भी कर दिया जाता है। बंगाल एवं बिहार में उच्च कुलों के कई लड़कों के तो सौ तक पत्नियाँ होती हैं जिन्हें याद रखने के लिये रजिस्टर रखना होता है। कई बार तो वधु की आयु वर की पुत्री के बराबर होती है।
9. बाल-विधवाओं में वृद्धि - अनुलोम विवाह के कारण उच्च कुल के पुरुषों के कई पत्नियाँ होती हैं। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर समाज में बाल-विधवाओं की संख्या बढ़ जाती है।
(2) प्रतिलोम विवाह (Pratilom Vivah)
अनुलोम विवाह का विपरीत रूप प्रतिलोम विवाह है। इस प्रकार के विवाह में लड़की उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल या वंश की होती है और लड़का निम्न वर्ण, जाति, उपजाति कुल या वंश का । उदाहरण - यदि एक ब्राह्मण लड़की का विवाह किसी क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र लड़के से होता है तो ऐसे विवाह को हम प्रतिलोम विवाह कहेंगे। इस प्रकार के विवाह में स्त्री की स्थिति निम्न हो जाती है। स्मृतिकारों ने इस प्रकार के विवाह की कटु आलोचना की है ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान को चाण्डाल अथवा 'निषाद' कहा जाता था। हिन्दू विवाह वैधता अधिनियम, 1949 एवं 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह दोनों को ही वैध माना गया है।
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