नाग कन्या , मत्स्य कन्या ये सब वास्तव में होती थीं

प्रश्न- भैया नाग कन्या , मत्स्य कन्या ये सब वास्तव में होती थीं या कहानियों में बस??

उत्तर:- *आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी* :-

नागों के विषय में पहले एक लेख भी डाला था कि नाग किसे कहते हैं , वह कहाँ रहते हैं आदि आदि ।
एक याद होगा तो एक लेख था जिसमें मैंने बताया था कि ब्रह्मरेता महापुरुष प्रजनन कैसे करते हैं । 
जिसमें हनुमान जी , सूर्य पुत्र कर्ण , मेघनाद की पत्नी सुलोचना जो नाग कन्या थी उसके विषय में बताया था ।

तो हाँ यह नाग कन्या , मत्स्य कन्या इत्यादि वास्तव में होती थी ।
यह मात्रा natural genetic selection था ।।
मनुष्य के ही गुण सूत्रों में नाग , वानर , मत्स्य , रीछ इत्यादि के कुछ अंश गुणसूत्रों के वह मिल जाते हैं मनुष्यों के गुण सूत्र से ।
जैसे मनुष्य के 23 pairs of chromosomes होते हैं । 
तो उनमें 4 pair या 2 pair या 5 pair या 10 pair इन सब प्रजातियों के मिल जाते हैं जिन्हें हम नाग कन्या , मत्स्य कन्या , मत्स्य पुत्र , रीछ पुत्री जाम्बवन्ती आदि कहते हैं ।
यह देखने में बिल्कुल मनुष्य ही लगेंगे लेकिन इनके गुण मछली , पशु , पक्षी , नाग , बन्दर , इत्यादि के ही लगेंगे ।

मतलब अगर मत्स्य कन्या होगी तो वह मनुष्य की तरह ही लगेगी लेकिन उसके Gills भी विकसित होंगे और वह जल के अंदर भी रह और तैर सकती है ।
तो यह पहले हुए करता था randomly या natural selection के process से । 
अब वह चीजें सम्भव नहीं हैं , हैं भी तो उसके लिए हमारे गुण सूत्रों में समय के साथ साथ इतने परिवर्तन आ चुके हैं कि हम वह क्षमता खो चुके हैं ।
जैसे पहले के मच्छर थे न , वह थोड़े से ही धुंवे से मर जाते थे । 
आज देखिये बड़े से बड़ा mortien लगा लीजिये , अब उनके गुण सूत्रों में इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो गयी है ।

जैसे हम पहले के समय में थोड़े से ही प्रदूषण से मर जाते थे । आज हम प्रदूषण का नंगा नाच कर रहे हैं लेकिन ज्यादा समस्या नहीं आ रही है सिवाय यह कि वह रोगों के रूप में निकलता है ।

अरे आप आजकल की movies देख लीजिए - Spiderman , Antman , Catwoman आदि ।
यह सब कुछ कुछ वही दर्शाते हैं ।
है सब मनुष्य जैसे दिखने वाले लेकिन इनके गुणसूत्रों में परिवर्तन के कारण इनमें उन जीवों के गुण विकसित हो गए ।

अब यह सम्भव इसलिए नहीं हैं कि हमारे गुणसूत्रों में वह क्षमता नहीं बची कि वह परिवर्तन हो सके ।

सभी कुछ गुण सूत्रों का कमाल है ।
उसी गुणसूत्र के कारण आज पीढ़ियों से ज्ञान , कला , साहित्य इत्यादि एक दुसरीं पीढ़ी में स्थानांतरित होती रहती है ।

जैसे आज स्वयं ही देख लें कि क्षत्रियों में जो बाहुबल , हुंकारने की क्षमता , जुझारूपन से लेकर अस्त्र शस्त्र का संचालन , यह सब स्वयमेव होता है ।
वैश्यों की math बहुत तेज होती है और व्यापार करने का हुनर उनको बिना सिखाये पढ़ाये मिलती है ।
शूद्र में हाथ की कलाकारी , निर्माण क्षमता , बारीकी काम , हस्तशिल्प , या कोई भी शरीर से किया गया कला इत्यादि स्वयमेव होती है । उनका पढ़ने में मन कम रहेगा और इन सब में ज्यादा ही रहेगा ।
एक ही चीज पढ़ाते पढ़ाते आप मर जायेंगे वह जल्दी नहीं सीख पायेगा लेकिन कोई हुनर या कारीगरी का काम देकर देखिये , कुछ ही महीनों में वह प्रवीण हो जाते हैं और सबके कान काट लेते हैं ।

यही हाल ब्राह्मण वर्ग में देखने की मिलता है कि इनकी तार्किकता , श्लोक मन्त्र इत्यादि ग्रहण करने की क्षमता , जल्दी याद करने की क्षमता , पूजा पाठ में अभिरुचि इत्यादि स्वभावतः होती है ।

हाँ शर्त यह है कि किसी पीढ़ी में इनका खून मिश्रित न हुआ हो बस । 

तो यही सब गुणसूत्रों का कमाल होता है ।

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# नाग के विषय में:-
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 नाग एक अलग प्रजाति है ।
उनका निवास यहाँ पृथ्वी पर नहीं होता है ।
नागों का निवास स्थान पाताल लोक है ।

पृथ्वी लोक पर जो सर्प है उनमें नागों का कुछ अंश होने के कारण उन्हें नाग या सर्प बोल दिया जाता है ।
अन्यथा नागों का अलग ही लोक होता है ।
नाग देवता की योनि के होते हैं । 

नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू  से है ।

इसलिए इन्हें काद्रवेया महाबलाः बोला गया है ।
यह बहुत बलशाली होते हैं ।
मेघनाद की पत्नी जो थी सुलोचना , वह नाग कन्या थी ।

ये नाग आदित्यों के भाई हैं ।

वही 12 आदित्य जिनको लेकर आर्यसमाजी भ्रम फैलाते हैं कि 33 प्रकार के देवता हैं । बिचारे भोले भाले मूढ़ अज्ञानी हिन्दू उनके प्रलाप में फँस जाते हैं ।।
बिचारे नागों को भूल जाते हैं ।

तो नागों का जो लोक है वह है पाताल लोक ।
इसकी राजधानी है भोगवतीपुरी । 

नागकन्याओं का सौंदर्य देवियों और अप्सराओं के समान होता है ।

और हम लोग कोई नागिन देख लें तो वहीं फेंचकुर फेंक कर प्राण त्याग दें ।
तो यह हमारी पृथ्वी वाले नाग नागिन नहीं हैं वह ।।

इसीलिए आपने सुना होगा देव दानव गन्धर्व नाग किन्नर आदि एक साथ ही नाम लिए जाते हैं ।

भगवान विष्णु की शय्या अनंत या शेष नाग की है ।
भगवान शंकर भी वासुकी नाग को लपेटे हुए हैं , और प्रत्येक कल्प में यह नाग बदलते रहते हैं , जैसे इस कल्प में तक्षक हैं , फिर कभी कर्कोटक बनेंगे , शंखपाल , धृतराष्ट्र , कालिय आदि आदि ।
गणेश जी भी सितसर्पविभूषिताय कहे जाते हैं ।
भगवान सूर्य के रथ में 12 मास 12 नाग बदल बदल कर उनके रथ को चलाते हैं म 
ये नाग वायु पान करते हैं ।

और हमारे वाले सर्प ? 
चूहा , गोज़र , से लेकर मेंढक इत्यादि ।

देवी पुराण में कहा गया है कि समस्त प्राणियों के कुलकुण्ड कुहर में निवास करनेवाली कुंडलिनी शक्ति ही सर्पिणी के रूप में बताया गया है ।

तो समग्र भारत में नागों की पूजा एक विशिष्ट परम्परा के रूप में प्रचलन में है ।

लेकिन बिचारे जानते ही नहीं कि ये नाग देवता हैं कौन ?? 

भगवान शेष शैया या भगवान शंकर के गले में जो सर्प या नाग है वह अलग अलग प्रतीकों का रूप है जिसे प्रार्थिव रूप में या अर्थ तंत्र में हम नाग कहते हैं , लेकिन क्रिया तन्त्र और ज्ञानतंत्र में यह संकर्षण , काल और समय का प्रतीक हैं ।

उस दिन बताया था न अर्थ तन्त्र , क्रिया तन्त्र  और ज्ञानतंत्र के विषय में ।
स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीर की तरह ! 
विश्व तैजस और प्राज्ञ के रूप में ।

तो यही नागों का तत्त्वतः रूप है ।

यह नाग जब पृथ्वीलोक में आते हैं तो इन्हीं हमारे वाले रेंगने वाले जीव सर्प के रूप में आते हैं इसलिए इन नागों को उनका रूप बताया गया है ।

जैसे पृथ्वी को जब रूप धारण करना पड़ता है तो वह गाय के रूप में आती है , ठीक इसी प्रकार ।

तो यही है नागों का पूरा तत्व रूप ।

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प्रश्न: भैया जी नागमणि क्या होती है ये सांपों के पास सच में होती है क्या?

उत्तर: आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी--

हाँ नाग मणि होती है ।
जो साँप बहुत पुराना हो जाता है उसमें नाग मणि विकसित हो जाती है ।

ये नागमणि है क्या ?? 

ये नागमणि उन सर्पों में बनता है जो अपना विष कभी जाया नहीं करते ।।

तो यह विष की थैली उनके सिर पर बनती है जिसमें विष बनता है ।

तो यही विष इकट्ठा होते होते बनते बनते , अगर न use करो तो crystal के रूप में परिवर्तित हो जाती है ।
यही फिर मणि बन जाती है ।
जिन सर्पों की सिर पर बाल उग आते हैं , उन्हीं सर्पों में मणि विकसित होती है क्योंकि वह बहुत पुराने सर्प होते हैं ।

जैसे अगर पुरुष अपना वीर्य न खर्च करे तो यही वीर्य उर्ध्वगामी बनकर ओज का रूप ले लेता है ।

आप लोगों को इस नाग मणि से यह भी शिक्षा लेनी चाहिए कि जो ग़लत नहीं बोलता , विष या कटु वाक्य नहीं बोलता , जो कभी विष नहीं उगलता , उसका मन मनोमय मणि का निर्माण कर लेता है ।

तो त्याग में कितनी बड़ी शक्ति होती है , यह देखिये ।
साँप ने अपने विष को और यह त्याग किया कि उसे बात बात में विष नहीं उगलना तो उसके अंदर मणि develop हो जाती है ।
लेकिन मूल रूप से मणि केवल King Cobra में ही पाई जाती है जो बहुत पुराना हो चुका होता है और अपने विष का कम से कम उपयोग करता है ।

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प्रश्न- रक्त दान और मृत्यु उपरांत अंग दान को धर्म कैसे देखता है??

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

बहुत ही सुंदर प्रश्न है । 
देह का आत्मा से उतना ही सम्बन्ध है जैसे अमिताभ बच्चन से मेरा । 
आप लोग यह बात समझ लीजिए कि आत्मा स्वतंत्र सत्ता है । वह दिव्य चिरन्तन और भगवद्मय सत्ता है ।
उसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

आत्मा तो केवल उस शरीर को चेतनता प्रदान करती है ।

यह स्थूल शरीर का सम्बंध जीवात्मा से है जिसे हम मोटे शब्दों में आत्मा बोल देते हैं या जीव बोल देते हैं । 

आत्मा तो परम् स्वतंत्र है । भगवदस्वरूप है । 

उसका कार्य बस जीव की चैतन्यया बनाये रखने तक सीमित है । 

उस पर पाप पुण्य आदि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वह गुणों से परे है ।

लेकिन शरीर के अंदर रहने वाला सूक्ष्म जीव इन सबसे प्रभावित होता है ।

शरीर पाँच तत्वों से निर्मित है । 
हिन्दू धर्म में मरणोपरांत इसे पुनः प्रकृति के पंच तत्वों में विलीन कर दिया जाता है ।

किसी जीव के भोजन करने पर आपका शरीर मल मूत्र बन जायेगा ।

इसलिए जानवरों को नहीं खिलाया जाता ।

बाकी का शरीर एक साधन है जिसमें किसी जीवात्मा ने निवास किया है । उस जीवात्मा के घर का या वस्त्रों का सम्मान होना चाहिए इसलिए उसे अग्नि दी जाती है ।

अग्नि को साक्षात भगवद स्वरूप माना गया है । 

क्योंकि इस विश्व में एकमात्र अग्नि ही है जो परम् शुद्ध है । इसके अंदर जाने पर यह सबको अपनी तरह बना लेती है और फिर भी शुद्ध रहती है ।

इसलिए अग्नि देने का विधान है । यह सम्मान सूचक है । 

बाकी का जीवात्मा के कर्मों का प्रभाव शरीर की गति से नहीं होता । 
उसके कर्म उसके साथ विभिन्न योनियों में जायेंगे ।

रही बात अंग दान की तो यह थोथा ज्ञान का प्रचार है । 
यह एकमात्र भावुकता का सत्य पर विजय है ।

अंग दान करिये लेकिन आपको नहीं पता कि आपके अंगों का वह उपयोग कर रहा है या दुरुपयोग कर रहा है ।

मान लीजिए आपने अपनी आँखें दान में दी । 
आपको लगा कि मैं बहुत बड़ा पुण्यवान हो गया ।

लेकिन आप बहुत बड़े पापात्मा हो गए और तब तक रहेंगे जब तक वह व्यक्ति मर नहीं जाता । 
क्योंकि जब आपने आँखे दान में दी थी , तब आपने पात्र कुपात्र का ध्यान नहीं दिया था । 
उन आँखों से वह गंदे scenes देख रहा है , अपनी वासनात्मक बुद्धि को और मलिन कर रहा है , अपने नेत्रों को वह ऐसे कार्य में लगा रहा है जो पाप कर्म है ।

तो वह जब तक आपके नेत्रों का दुरुपयोग करेगा तब तब आप जिस भी योनि में होंगे नारकीय जीवन भोगेंगे । 

आपने किडनी दान में दी । वआआह , बहुत अच्छा किया ।

लेकिन क्या आपने यह देखा किसको दान में दिया ?? 

आपने एक शराबी को दान में दिया ।
वह अब जम कर और शराब पी रहा है , दुष्कर्म कर रहा है , अपने पत्नी और बच्चों को पीट रहा है , तो जितना वह कर्म आपकी किडनी के कारण बलिष्ठ होकर कर रहा है , उसका दंड आपको भोगना पड़ेगा । कोई नहीं बचा पायेगा ।।

हाँ !! आपने किसी भक्त को दान में दिया । यह सर्वोत्कृष्ट दान है । 
उन नेत्रों से वह जितनी बार विग्रह के दर्शन कर आँसू बहायेगा , वह पुण्य कर्म आपके खाते में add होगा ।
वह किडनी प्राप्त कर निरोग होकर जितनी बार नाम जप या भगवद चेतना जागृत करेगा , आपको बैठे बिठाए उसका फल प्राप्त होगा ।

इसलिए पात्र कुपात्र का अवश्य ध्यान रखें । 
वरना चौबे जी चले थे छब्बे बनने ,दूने भी नहीं बन पाए , यह हाल होगा । 

इसीलिए शास्त्रों ने , संतो महापुरुषों ने एक सिद्धांत या कानून बना दिया था कि दान एकमात्र ब्राह्मण को करें । 

ब्राह्मण तब के सच में ब्राह्मण होते थे ।उनका जीवन काल भक्ति में , स्वाध्याय में , जप तप पूजा पाठ और अन्य के कल्याण के निमित्त ही जाता था ।

इसलिए एक नियम बना दिया गया था कि ब्राह्मणों को ही दान दें । 
क्योंकि यह जितना पुनीत कार्य करेंगे चूँकि इनका रहन सहन सात्विक होता है , तो यह जितना जो भी कार्य करेंगे , उसका फल आपको भी स्वतः मिलेगा ।

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★ पुनः प्र०- तो अंगदान करने वाला शरीर तो मुक्त हो गया...कैसे पता चलेगा कि वो अंग पात्र या कुपात्र को मिल रहा है...।इसका सीधा मतलब है कि दान ही ना किया जाय।

उत्तर

 इससे हम बच नहीं सकते कि हमें नहीं पता था ।

एक अज्ञानी बेपढा लिखा कानून के विरुद्ध कोई कार्य करेगा तो न्यायालय उसे दंडित करेगा , उसकी यह दलील नहीं सुनी जाएगी कि उसे नहीं पता था । 

आप किसी अन्य देश में जायेंगे और उस देश के कानून से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं और उसके विपरीत कोई कार्य करेंगे तो त्वरित रूप से दंडित होंगे । 
यह दलील काम नहीं आएगी कि हम तो भारत का कानून जानते हैं ,यहाँ का नहीं । 

तो यह आपका कर्तव्य था कि आपने australia जाने से पहले उसके नियम कानून को क्यों नहीं जाना ?? 

और देह छूट गया लेकिन आपकी दान दी हुई इन्द्रियों द्वारा जब तक शुभ या अशुभ कर्म किये जायेंगे , उसका फल आपको मिलेगा ही मिलेगा चाहे आप जिस भी योनि में ही क्यों न हो ।

★सुपात्र और कुपात्र की बड़ी लंबी चौड़ी व्याख्या और नियम कानून शास्त्र ने बनाये हैं । 
उसको जानना अत्यंत आवश्यक है । 

बस इतने लंबे चौड़े को न पढ़कर फिर शास्त्र ने एक छोटा सा formula दे दिया कि ब्राह्मणों को दान करें । 

यहाँ फिर से वह सात्विक और सही ब्राह्मण की बात कर रहा हूँ । 
आजकल के दारूबाज और मांसबाज या चरित्र से गिरे हुए ब्राह्मणों की नहीं ।

- Sh. Shwetabh Pathak Bhaiya Ji ( श्री श्वेताभ पाठक भैया जी )
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प्रश्न- ऐसी कौन कौन सी चीज हम दान में दे सकते हैं जो सुयोग्य ना होने पर भी हमे पाप ना पड़े, जैसे कपड़े l
क्यों कि कभी-कभी किसी की कहानी सुनकर बड़ा मन करता है उसके लिए हम कुछ करें, मगर आपकी वो गोद लेने वाली स्टोरी याद आ जाती है।
यह प्रश्न मेरे मन में भी है भैया जी, मान लीजिए हमने किसी को जैकेट दान कर दिया और उस व्यक्ति ने उसे पहनकर हरि का गुणगान/साधना की तब तो अच्छा है, यदि उसने उसकी जैकेट की जेब में पौआ और नमकीन रखी फिर l

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

कलियुग में जीवों के अन्तःकरण को सात्विक स्थिति पर पहुँचाने का कार्य दान करता है । 

दानमेकं कलौ युगे: ! 

कलियुग में उद्धार का रास्ता केवल दान से होकर जाता है । 

कैसे ?? 

क्योंकि कलियुग में सब धन प्रधान , भौतिक सुख सुविधा प्रधान , शरीर को सर्वस्व मानने वाले लोग होंगे जिसके कारण वह अपना सम्पूर्ण जीवन केवल धन बटोरने में , धन कमाने में लगायेंगे ।
जो समय उनको अपने मनुष्य देह के कल्याण के लिए लगाना है , वह उसे केवल और केवल धन कमाने में व्यतीत करेंगे । 

कुटुम्बियों को पालने में और धन कमाने में कलियुग के मनुष्यों की पूरी आयु चली जायेगी । 

इसी धन रूपी समय को अगर किसी सुपात्र को दान दे देने से आपके समय का सही सही उपयोग होगा ।

जितना समय आपने अपने अमूल्य समय को धन में convert किया है बदला है , उसको सुपात्र को दान देने से आपका कल्याण होगा । 

दान क्यों दिया जाता है ?? 

दान है क्या ?? 

दान वह आपका अमूल्य समय है जिसको आपने धन , दौलत , भूमि , अनाज , गाड़ी , घर से लेकर तमाम भौतिक सुख सुविधाओं में परिवर्तित किया है । 

मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ?? 

एकमात्र इस शरीर रूपी नौका से भव रूपी सागर को पार करना । अर्थात दुःख निवृत्ति कर आनंद प्राप्ति कर जन्म मरण के अनंतानंत भोग और दुखों से छूटकारा प्राप्त करना ।

वह दान रूपी समय अगर आप किसी कुपात्र को देते हैं तो यह उसी प्रकार है जैसे आप अपने समय को पाप कमाने में लगाते हैं । 

इसीलिए दान का महत्व कलियुग में बताया गया है ।
एक बार सभी लोग ब्रह्मा जी के पास गए और ब्रह्मा जी से कहा कि कलियुग के प्राणी इतने अनिश्चयात्मक बुद्धि के हो गए हैं कि उनको कितना भी उनके कल्याण विषयक तत्व बताया जाए , तब भी वह सन्मार्ग पर नहीं आते ।
वह घूम फिरकर माया से ग्रसित होकर मोहवश अज्ञान के कारण धन स्त्री कुटुंब के ही पालन पोषण में व्यस्त हो जाते हैं । 
उनका खान पान , विचार शक्ति , धारणा शक्ति इत्यादि सब कुत्सित हो जाते हैं , तो हे भगवन ! इन मनुष्यों के कल्याण का क्या उपाय हो सकता है ??? 

बड़ी लंबी चौड़ी बातें की हैं , मैं आपको बहुत छोटा करके यह प्रश्न बता रहा हूँ । 

तो ब्रह्मा जी ने कुछ नहीं कहा बस तीन अक्षर कहा :- द द द 

इसके बाद पुनः नेत्र बन्द कर लिए । 

इसका अर्थ है केवल दान , केवल दान , केवल दान ।

क्योंकि धन की शुद्धि दान से होती है ।
लेकिन यह शुद्धि कैसे होगी ?? एकमात्र सुपात्र को दान देने से ।

इसीलिए पहले के राजा महाराजा किसी अन्य को दान देने की बजाय ब्राह्मणों को धन धान्य पशु धन से लेकर सब देते थे ।

आप कहेंगे कि ब्राह्मण को इतना दान देने के बाद भी ब्राह्मण क्यों निर्धन रहते थे ।

इसलिए क्योंकि वह ब्राह्मण को दान देते थे , फिर ब्राह्मण उस दान को जितना अपनी आवश्यकता होती थी , उसे रखकर बाकी सब अन्य दीन दरिद्रों को दान कर देते थे । 

ब्राह्मणों के द्वारा जो दान होता था , उसका शुद्धिकरण हो जाता था । 
अब जब वह दान किसी के पास जाएगा तो वह उसकी बुद्धि निर्मल करेगा और समस्त प्रजा सन्मार्ग पर चलेगी । 

आप ने पढ़ा होगा कि पहले के राजा प्रतिदिन लाखों गायों और धन का दान करते थे ।
अब प्रतिदिन कैसे ?? कितने ब्राह्मण थे ?? 
सारी प्रजा तो ब्राह्मण नहीं हो सकती न । 

तो यह ब्राह्मणों के द्वारा प्रजा को दान होता था । 

दूसरी बात । 

अगर आध्यात्मिक रूप से आप कोई दान करते हैं तो वह दान किसी के भी पास जाएगा तो उसकी बुद्धि निर्मल और शुद्ध करेगा । 

इसीलिए दान का विधान सदा ही किसी व्रत , यज्ञ , हवन , तीर्थस्थान , पूजा के बाद का ही बताया गया है । 
पूजा के बाद जो भी दान होगा , वह बहुत हद तक लोगों को दान के अनैतिक उपयोग से बचाएगा ।

कर्ण सूर्य की पूजा के बाद ही दान करता था । प्रत्येक राजा हवन या यज्ञ के पश्चात ही दान करता था । 

दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ! 

आज भी जितने दान के नियम बने हैं ,वह सब किसी न किसी व्रत , उपवास , वंदन , आराधना , उद्यापन , तीर्थस्थल में स्नान ध्यान के बाद ही बने हैं । 

लेकिन आजकल लोगों ने सब नियम संयम ताक पर रखकर यह कार्य करते हैं और सोचते हैं कि हम बहुत ही पुण्य का कार्य कर रहे हैं । 

बल्कि पुण्य नहीं यह पाप हो रहा है । 

आपने देखा होगा कि लोग निकल जाते हैं भोजन के पैकेट लेकर , कम्बल लेकर , और साथ में कैमरा और वीडियो recorder भी रहेगा । 

इससे उनका सब दान व्यर्थ चला जाता है । 
क्योंकि न ही वह दान शुद्ध हो पाता है और न ही वह दूसरों की मनोवृत्ति शुद्ध कर पाता है ।
ऊपर से दान का नियम यह है कि अगर दान देकर उसको गा दिया तो वह दान व्यर्थ ।

दान का नियम है कि दान अगर दायें हाथ से दे रहे हैं तो बायें को भी नहीं पता चलना चाहिए । 

क्योंकि दान इसलिए करते हैं ताकि हमारा परमार्थ बने ।

लेकिन दान देकर फ़ोटो छपाकर और सबको बताकर तो आपने दान का फल यही लोक में ले लिया लोगों की प्रसंशा के रूप में । 

दान तो अपना फल दे चुका । लेकिन कौन बताये आजकल लोगों को । 

इसलिए दान केवल साधु , सात्विक व्यक्ति , महापुरुष आदि को ही देना चाहिए जिससे आपका कल्याण हो ,क्योंकि वही एकमात्र अन्तःकरण शुद्ध कर सकते हैं । 

अब बात आती है गोस्वामी तुलसीदास जी के एक चौपाई की जिसका सब लोग बहुत गलत अर्थ करते हैं , लगभग सभी कथावाचक ,वह भी अपना स्वार्थ पूर्ति के लिए । 

वह क्या है ??? 

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान ।
 जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ।। 

इसका अर्थ लोग करते हैं कि जिस भी तरह दान दो , चाहे किसी को दो , वह कल्याण ही करेगा ।😑😑😑

बस इसीलिए महापुरुष चाहिए होते हैं , महापुरुष की बातों को समझाने के लिये ।

खग की भाषा खग ही जाने । 

भगवद रसिक रसिक की बातें , रसिक बिना कोउ समुझ सकै न !! 

इसका अर्थ है कि दान चाहे क्रोध में दो , चाहे प्रेम से दो या चाहे जबरदस्ती से दो , जिस भी विधि से दो ,वह कल्याण करेगा ही करेगा ।

लेकिन किसे ?? 

इन्हीं सात्विक पुरुषों को , साधुओं को , संतों को , महापुरुषों को या जो भगवान के भजन में रमा हो , या जो आपके दान को भगवद विषय में लगाये ।

इसीलिए हमारे ही धर्म में ही नहीं विश्व के समस्त धर्मों में मन्दिर ,मस्ज़िद , तीर्थस्थान इत्यादि जगहों पर ही दान देने का प्रावधान बनाया गया है । 

★ दान तीन प्रकार का माना जाता है :- 

उत्तम , मध्यम और निम्न ।

कोई क्रोध में या जबरदस्ती दान कर रहा है सत्पुरुषों को , तो वह निम्न कोटि का दान है । 
कोई कर्तव्य मान कर दान कर रहा है सत्पुरुषों को तो वह मध्यम कोटि का ।

कोई प्रेम से और अपना परमार्थ के लिए दान कर रहा है और इसके बाद भी रो रहा है कि मैं कुछ नहीं दान कर पा रहा हूँ और अपने को अधम पतित भी मान रहा है तो वह उत्तम श्रेणी का दान है ।

लेकिम हर जगह पूरा रामचरितमानस उठा लीजिये , गोस्वामी जी ने केवल विप्र , ब्राह्मण , और साधु को ही दान देने के लिए कहा है ।

इसलिए अगर शास्त्रों की बात मानते हैं कि दान देना है तो शास्त्र की यह बात भी माननी पड़ेगी कि दान किसे देना है , दान की विधि क्या है , कब देना है । 

नहीं मानते हैं तो स्वयं का नुकसान करेंगे ही करेंगे । 

अगर सच में आप चाहते हैं कि हम ऐसा दान करें जिसमें ये criteria नहीं रखना चाहते कि यह सुपात्र है या कुपात्र तो केवल एक दान दीजिये उसे ।

क्या है वह ?? 

उसको भगवान के नाम रूप लीला गुण धाम से परिचय करवाकर उसे भगवद मार्ग पर ले आइए । उसे वह ज्ञान दीजिये जिससे उसका क्षणिक दुख ही नहीं अनंतानंत जन्मों का दुःख दूर हो जाये । 
उसको मनुष्य जीवन के लक्ष्य का ज्ञान करवायें । उसे भजन में रुचि पैदा करवायें बस । 

इससे बड़ा दान सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई नहीं है , कोई नहीं है , कोई नहीं है ।

★ पुनः प्र०- भैया जी अगर आसक्ति नहीं है तब क्या हमें फल नहीं भुगतना होगा ? यही प्रश्न है 

Shwetabh Bhaiya G: 
फल की इच्छा से किया गया कोई भी कर्म सत्कर्म की श्रेणी में नहीं आता है। दान से देखिये आपको भगवदप्राप्ति नहीं होगी । 
दान भी बन्धन करता है । दान से आपको स्वर्गादिक लोक मिलेंगे लेकिन भगवदप्राप्ति नहीं होगी । 

दान केवल मन शुद्ध करने के लिए है । सात्विक बुद्धि , सात्विक विचार , विवेक और दैवीय गुणों जैसे क्षमा ,सहन शीलता , धर्म विवेक , आदि देवताओं के गुण प्राप्त करने के लिए हैं ,जिससे भगवद क्षेत्र में रुचि बढ़े । 

लेकिन यह बन्धन ही करता है । 

इसलिए दान तब तक करें जब तक आप गृहस्थ और संसार में हैं । 
इसके बाद जब वह अवस्था आएगी तो यह सब त्याज्य हो जाएगा । 

पाप और पुण्य दोनों बंधनकारक हैं । 

दान भी अपना फल देकर नष्ट हो जाएगा । 
पुनः नष्ट होने पर जीव फिर से मर्त्यलोक में आकर कूकर शूकर कीट पतिंगों की योनियों में पटक दिया जाता है । 
दान को केवल सहायक तत्व के रूप में उपयोग करें , इसे लक्ष्य न बनायें । 
यह साधन है , साध्य नहीं ।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी
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प्रश्न – कलियुग मे दान का महत्व बताइये, भैया जी।

उत्तर- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

दानमेकं कलौ युगे ।

कलियुग में दान ही एकमात्र मुक्ति का या निवृत्तिमार्ग का साधन है 

दान का कलियुग में बहुत महत्व है।  

ब्रह्मा जी से देवताओं ने कल्याण का उपदेश करने को कहा था तो उन्होंने यही कहा ;- द द द ।

दान ।

अब यह दान क्या है ?? 

कलियुग भोग प्रधान युग है । यहाँ माया इतनी बलवती होती है कि लोगों को मनुष्य देह क्यों मिला है , इसका ज्ञान नहीं होने देती है। 

पहले के समय में लोग अपने समय का उपयोग साधना में लगाते थे अधिक से अधिक । 

कलियुग में लोग अपने समय का उपयोग भोग सामग्री जुटाने में लगाते हैं । 
एक जीव पैदा होते ही भोग सामग्री जुटाने में लग जाता है। अपने लिए ही नहीं , अपने generation तक के लिए ।

तो जो समय convert हुआ है भोग सामग्री या धन जुटाने में । वही धन रूपी समय या सामग्री रूपी समय अगर परोपकार या भगवद विषयक लोगों को सुख पहुंचाने के लिए जो दिया जाता है , वही दान है। 

दान हमेशा सुपात्र को देने का विधान है।  
पहले ब्राह्मण जितेंद्रिय धर्मनिष्ठ और ब्रह्मनिष्ठ रहा करते थे , इसलिए शास्त्रों ने कहा कि सुपात्र कहाँ ढूंढने जाओगे तो ब्राह्मणों को दान करो । 

लेकिन आज के नहीं । 

केवल जो साधना कर रहे हों , भगवद मार्ग पर हों , उन्हें ही दान देना फलित है अन्यथा दंड मिलेगा । 

क्योंकि जो दान आपने दिया है , उससे जो साधना में रुकावट या बाधा खत्म हुआ है साधक का या संतों का या उसके कारण जो साधना वह करेंगे , उतना प्रतिशत साधना का फल आपको स्वतः मिल जाएगा । 

कन्या दान तो वंश की वृद्धि के लिए है । 
अन्न दान , वस्त्र दान इत्यादि तमाम दान हैं । पर ब्रह्म ज्ञान दान या भगवद प्रीत्यर्थ दान सबसे उत्कृष्ट दान शास्त्रों में बताया गया है।  

बाकी के दान स्वर्ग की प्राप्ति या लौकिक लोकों की प्राप्ति कराएगा जो नश्वर है।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी
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प्रश्न - दान का अधिकारी कौन है ? या 
अगर परिवार वाले दान देने के इच्छुक ना हों या सहमत ना हों पति पत्नी मे से भी एक कोई सहमत ना हो तो दूसरे को बिना किसी को बताये किसी जरूरत मंद की मदद करना पाप है ?

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

जरूरतमंद तो प्रत्येक व्यक्ति है ।

किसी को दारू की जरूरत है ।
किसी को मांस की । 
किसी को वेश्या की । 
किसी को भोजन की ।
किसी को स्वर्ण की । 
किसी को फाइव स्टार व्यंजन की ।

तो जरूरत मंद होना दान का अधिकारी या criteria नहीं है । 

इस पर मेरा इक लेख है :-

मेरे एक रिश्तेदार हैं । एक बार वह लोग ट्रेन से कहीं जा रहे थे । एक 8 वर्ष का लड़का उन्हें भीख माँगते दिखा । उस लड़के ने रोते हुए उनसे कहा कि उसके भैया भाभी ने उसे मार कर घर से बाहर निकाल दिया है।  उसके माँ बाप का देहांत बहुत पहले ही हो चुका है।  

इन लोगों को बड़ी दया आयी और ये लोग उस लड़के को घर ले आये । उसे बिल्कुल अपने लड़के की तरह पालने लगे । वह उन्हीं के घर उन्हीं का बेटा बनकर रहने लगा । 

घर वाले समृद्ध थे तो कोई कमी नहीं कि उसके पालन पोषण में । वह बिल्कुल घर का एक सदस्य बन चुका था।  
अब उसकी उम्र लगभग 17 वर्ष के आसपास हो चुकी थी । घर में शादी पड़ी ।  सभी रिश्तेदार इकट्ठे थे घर में । 

उस लड़के ने पता नहीं उनको क्या पिलाया या सुंघाया कि सबको सुलाकर घर में रखा Cash, गहने और अन्य कीमती सामान लेकर चंपत हो गया । 

जब सब लोग सोकर उठे तो दृश्य देखकर हैरान रह गए । 
लेकिन तब तक तो सब लुट चुका था । 

कलियुग की नेकी ब्रह्महत्या के समान है ।

खैर उस लड़के की ग़लती नहीं थी , ग़लती इन्हीं की ही थी । 

तुलसीदास जी ने कहा है :- 
काहू न कोऊ सुख दुख दाता ।
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।। 

ग़लती इनकी यह थी कि इन्होंने शास्त्र की यह बात मान ली कि दूसरों पर उपकार करो लेकिन शास्त्र की यह बात नहीं मानी कि पात्र या कुपात्र देखकर ही इस विषय का चुनाव करें । 
आजकल यही होता है लोग ऊपर ऊपर से पढ़कर शास्त्रों की बातों का अनुसरण करते हैं लेकिन उसके terms and conditions, नियम व शर्तों को बिल्कुल अनदेखा कर देते हैं। 

एक व्यक्ति गोलियों से बचकर आपके घर में शरण लेने के लिए बोल रहा है । आपने कहा कि शास्त्र ने कहा है :- पर उपकार वचन मन काया , संत सुभाव सहज खगराया ।। 
यह सोचकर आपने उसको शरण दे दी । 

बाद में पता लगा कि उसको शरण देने के जुर्म में पोलिस ने आपको जेल भेज दिया है । क्यों ???? क्योंकि जिसको शरण दिया गया वह एक आतंकवादी था और वह सिविल कपड़ों में पीछा कर रहे पोलिस या आर्मी से भाग रहा था । 

तो इसीलिए शास्त्रों ने हर अपने वाक्यों के आगे और पीछे terms & conditions लगा रखा है । 

लोग दान देते हैं । बिना पात्र और कुपात्र समझ कर दान दिया जा रहा है । 
एक आदमी भूखा था , अशक्त था । आपने उस पर दया कर के उसे भोजन करवा दिया । भोजन से उसने शक्ति प्राप्त की और एक लड़की का उसने बलात्कार कर दिया । उस लड़की ने ग्लानि से आत्महत्या कर ली और फिर उसके परिवार वालों ने भी आत्महत्या कर ली । 

अब उन हत्याओं का दोष आपको बराबर लगेगा । फिर रोते हुए कहते हैं कि हमने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हो रहा है ??? 
ये इसीलिए हो रहा है क्योंकि दुर्योधन की तरह आपने भी जहाँ पानी था उसको फर्श मान लिया । 

ऐसे नहीं चलेगा कि हमें तो नहीं पता था । नहीं पता था तो पता करो ।  ऑस्ट्रेलिया जायेंगे और ऑस्ट्रेलिया का कोई law तोड़ेंगे तो पोलिस आपको पकड़ कर जेल में डाल देगी। यह नहीं सुनेगी कि आपको नहीं पता था । पता नहीं था तो क्यों नहीं आने से पहले पता किया ?? यह दलील नहीं चलेगी।  

ज़हर या विष को आप पियेंगे तो मरेंगे । विष यह नहीं देखेगा कि इस व्यक्ति को नहीं पता था तो मैं इस पर असर न करूँ। जब इसे पता लग जायेगा तभी मैं असर करूँगा । 

इसीलिए हमारे शास्त्रों में यह लिखा गया है कि शास्त्रों के हर वाक्य या सिद्धांत के पीछे का बैकग्राउंड और उसके नियम व शर्तें जान लें कि वह क्यों, किसके लिए , कब , किसलिए कहा गया है । 

यही बिना जाने और अबाबील की तरह सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए लोग महती हानि मोल लेते हैं । 
किसी की सहायता करने से पहले उसके विषय में जानिए कि वह कौन से गुण प्रधान वाला व्यक्ति है ? वह सात्विक बुद्धि का है या तामसिक बुद्धि का है या राजसिक बुद्धि वाला है या गुणातीत महापुरुष है ?? 

किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उस धन या दान उपयोग में लाया जा रहा है , किसके लिए , क्यों , कब , कैसे ??? इन सब प्रश्नों का उत्तर जाने बगैर जो करेगा वह अपनी महती हानि करेगा । 

लेकिन शास्त्रों ने देखा कि यह सब पता लगाना आसान नहीं है तो उसने एक simple formula दे दिया कि ब्राह्मणों को या सात्विक  बुद्धि प्रधान वाले व्यक्ति को दान दो । 
ध्यान दीजिए यहाँ आजकल के ब्राह्मणों की बात नहीं हो रही है । वह ब्राह्मण जो मन , कर्म , बुद्धि और आचार से ब्राह्मण हो । जो भक्त हों , जिनकी बुद्धि भगवदीय हो । 
आतंकवादी वाली बुद्धि को नाभिकीय ऊर्जा के बारे में बतायेंगे तो वह destruction के लिए ही उसका प्रयोग करेगा । 
आप भी मरेंगे । तब यह कहने से काम नहीं चलेगा कि "शिक्षा का दान महादान है" !  

आजकल के sirname वाले ब्राह्मण नहीं जो अपने दोस्तों के साथ  मांस मदिरा , जुवा , शराब , कबाब , सुंदरी सबका सेवन कर रहे हों पर पीछे धोवन शुक्ल लगाकर या 10 रुपये का काला चश्मा पहनकर और बीस रुपये का भगवा गमछा लपेटकर अपने आप को परशुराम का वंशज बताते हों । 
बल्कि अगर आपको संत रैदास जी जैसे चमार भी मिल जाते हैं तो ऐसे लाख कबाबी शराबी ब्राह्मणों से अच्छे रैदास जी जैसे भक्तों की सेवा या उन्हें दान करने से असंख्य गुणा फायदा होगा । 

इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि ब्राह्मणों को दान दें । क्योंकि इनकी बुद्धि तप , नियम संयम के कारण सात्विक होती है और इनको दान करने से यह जो भी धन का प्रयोग करेंगे वह एकमात्र सात्विक जगह ही करेंगे जैसे शास्त्रों व धर्म का संरक्षण या दूसरों को सही मार्ग पर ही प्रेरित करेंगे जिससे कई लोग पापाचार से बचे रहेंगे । 

ऐसे सात्विक व्यक्तियों के हाथों से कुछ भी कोई ग्रहण करेगा या करता है तो पापी व्यक्ति की मलिन बुद्धि भी परिवर्तित होती है । किसी ब्राह्मण या सात्विक व्यक्ति के हाथों खाना या उसके घर भोजन करने से भी घोर से घोर पापी दूषित व्यक्ति की बुद्धि भी सुधरने लगती है।  

भोजन किसके घर , कैसे व्यक्ति के घर , और किस स्थान पर किया जा रहा है इसका बुद्धि या मन मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव होता है । 
भोजन से सम्बंधित terms & conditions या भोजन विज्ञान के ऊपर पोस्ट बाद में डालूँगा अन्यथा बहुत लंबा हो जाएगा । 

इसीलिए आपने देखा होगा लोग संतो  या महापुरुषों के हाथों से प्रसाद ग्रहण करते हैं । उनसे निवेदन किया जाता है कि एक बार अपना हाथ उस पर अवश्य लगा दें।  क्योंकि जो सात्विक परमाणु उनके पास है वह उस वस्तु द्वारा उनके पास आएगी । 

संत महापुरुष या कोई सात्विक व्यक्ति अगर दान भी करते हैं तो पापात्मा व्यक्ति तक का अंतःकरण बदल जाता है उस दान से । 

इसीलिए शास्त्रों ने नियम कर दिया था कि ब्राह्मणों  को दान दे  । 
पहले राजा महाराजाओं का एक नियम होता था कि वह ब्राह्मणों को नियमित दान देते थे । 
वह दान की वस्तु जैसे ही उक्त सात्विक व्यक्ति या संत महापुरुष के संसर्ग में आता था तो वह स्वयमेव ही शुद्ध हो जाता था । शुद्ध personality द्वारा जो दान किया जाता था उसका प्रभाव अपरिमेय होता था । जिससे प्रजा जन की बुद्धि शुद्ध होकर सात्विकता की ओर लगकर राजा एवं प्रजा दोनों  के लिए शुभ व मंगलकारी बन जाता था ।

पर आज तो जिसको देखो कहीं भी खा लेता है , किसी का भी खा लेता है , कुछ भी खा लेता है , कैसे भी खा लेता है । 
इसलिए मनुष्य आज हर संसाधन समृद्ध होने के बावजूद भी दुखी और अशांत है  और यही पहले लोग भोजन का विज्ञान समझते हुए उसका पालन करते थे तब भी एक चटाई पाकर भी आनंदमय और मानसिक समृद्ध रहते थे । 

इसीलिए कुछ भी करने से पहले उसके गूढ़ विज्ञान या terms & conditions को अवश्य समझ लें अन्यथा दुःख और रोने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचेगा । 

-Sh Shwetabh Pathak  Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

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प्रश्न- चंद्रमा किस बात का प्रतीक है अध्यात्म में? भगवान शिव ने इसे मस्तक पर धारण क्यों किया है भैया?

उत्तर- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी -

 चन्द्रमा द्योतक है आह्लाद का ।
प्रसन्नता का सूचक है ।
यह औषधियों को पुष्ट कर जीवों को निरोग और आह्लादित करता है ।
भगवान शिव का दूसरा नाम चंद्र भी है ।
चन्द्रमा जैसे आह्लाद को धारण करते हैं ।

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प्रश्न- शुक्ल पक्ष की द्वितीया को चंद्र दर्शन के संबंध में उचित मार्गदर्शन करें l

उत्तर:

किसी भी दर्शन का महत्व तभी तक है जब उसमें भगवद भावना की जाय । अन्यथा भगवान के भी दर्शन का कोई लाभ नहीं है । 

द्वितीया का चन्द्रमा तो इस पृथ्वी का समस्त जीव देखता है , तो क्या उसे लाभ मिल जाता है ??? 
पशु पक्षी चकोर चकवा टिटिहरी इत्यादि से लेकर समस्त जीव द्वितीया का चन्द्रमा देखते हैं , लेकिन उनको कोई लाभ नहीं मिलता ।

हर चन्द्रमा सूर्य से आप लाभ प्राप्त कर सकते हैं अगर उसमें भगवदभावना हो तो । 

रही बात कि शास्त्रों में क्यों द्वितीया के चन्द्रमा का महत्व है , इसको थोड़ा जान लीजिए । 

अमावस्या के बाद शुक्ल पक्ष प्रतिपदा जब शुरू होता है तो प्रथम दिन चन्द्रमा का दर्शन नहीं होता या वह बहुत ही बारीक़ रेखा के मानिंद होता है और वह होता है पूरे दिन और जब तक सूर्य अस्त होता है , तब तक वह भी अस्तांचल पर पहुँच चुका होता है । 
एकमात्र द्वितीया का चन्द्रमा ही दिखाई देना शुरू होता है ।
चूँकि सनातन धर्म में सभी मंगल कार्य शुक्ल पक्ष अर्थात उजियारा पक्ष में ही करना शुभ माना जाता है , या पक्ष या मास का प्रारम्भ भी चन्द्रमा के दर्शन से ही माना जाता है और द्वितीया का चन्द्रमा जब दिखता है तब बहुत से शुभ कार्य प्रारंभ हो जाते हैं । 
इसलिए द्वितीया के चन्द्रमा का इतना महत्व है । 

और सनातन ही नहीं अन्य धर्मों में भी इसका महत्व है । 

मुसलमानों का ईद तो इसी चन्द्र दर्शन से ही शुरू होता है । 

साथ ही साथ बहुत से साधक और व्रतधारी के व्रत जो शास्त्रों में वर्णित हैं चन्द्रमा के आधार पर ही होते हैं , जैसे चन्द्रमा के प्रत्येक घटते और बढ़ते क्रम से उनके उतने ही निवाले या भोजन का ग्रास ग्रहण किया जाता है । अमावस्या में भोजन नहीं करते , और जब चन्द्रमा का दर्शन होता है उस दिन से भोजन का प्रथम ग्रास खाते हैं ।
इसके बाद कुछ नहीं खाते । जैसे चन्द्रमा का त्रयोदशी है तो मात्र पूरे दिन भर 13 ही ग्रास खायेंगे और शुक्ल पक्ष में बढ़ता बढ़ता पूर्णिमा को पूर्ण होकर फिर कृष्ण पक्ष में घटता घटता अमावस्या के दिन पूरी तरह निराहार रहा जाता है । 
परंतु इसे चांद्रायण व्रत न समझियेगा , चांद्रायण व्रत तो प्रायश्चित के लिए किया जाता है । 
यह भी व्रत साधकों द्वारा मन , इन्द्रियों को संयमित करने के लिए किया जाता है जिससे योग इत्यादि में सहायक होता है । 
अतः द्वितीया के चन्द्रमा के दर्शन का महत्व है । 

इसी महत्व को जोड़ने के उद्देश्य से एक कथा भी जोड़ दी गयी है कि द्वितीया के दिन भगवान शंकर माता पार्वती के सबसे समीप होते हैं । 😊 

अरे वह दोनों चन्द्रमा को देखकर समीप वमीप नहीं आते । वह दोनों तो सदा सदा को साथ हैं , नित्य संग है उनका ।

समीप तो तब आते जब दोनों विलग होते । दोनों एक दूसरे में ही समाये हैं । दोनों का एक दूसरे के बिना कोई सत्ता ही नहीं है । 

यह सब कथाएँ जोड़ दी जाती हैं एकमात्र उसकी महिमा बढाने के लिए । 
दोनों सदा साथ हैं , दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । चन्द्रमा से न वह समीप होते हैं और न ही दूर जाते हैं । 
चन्द्रमा कौन होता है उन्हें चलाने वाला । 

शिव और शिवानी दोनों एक हैं । 

बस गधे का भी दर्शन करेंगे और उसमें भी भगवदभावना करेंगे तो वही फल मिलेगा । 

सीय राम मय सब जग जानी ।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पाणी ।। 

तो एकमात्र बस 

भज गोविंदं भज गोविंदं गोविंदं भज मूढ़मते । 

 Sh. Shwetabh Pathak Bhaiya Ji ( श्री श्वेताभ पाठक भैया जी )
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प्रश्न- पुराणों में किसी व्रत उपवास का वर्णन आता है और लिखा होता है कि यह करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं l
 जबकि आपका कहना है कि सारे पाप को भोगना ही पड़ेगा।
 दूसरी बात सप्तशती पाठ, महामृत्युंजय मंत्र जप का कुछ तो प्रभाव होता होगा, जबकि आपका कहना है कि इससे कुछ नहीं होता, अतः कृपया शंका निवारण करने की कृपा करें।

उत्तर- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

आपका तथ्य ग़लत है । 
मैंने यह कभी नहीं कहा कि व्रत उपवास करने से कुछ नहीं होगा या सप्तशती पढ़ने से कुछ नहीं होगा ।
अगर कहीं कहा हो तो कृपा करके वह वाक्य ले आयें ।

समस्त वेद शास्त्र उपनिषद पुराण से लेकर समस्त संत महापुरुषों की वाणी क्रिया कृत्य बस एक लक्ष्य की ओर लेकर चलते हैं , वह है कि येन केन प्रकारेण मन का लगाव संसार से हटकर भगवान में लगे । 

प्रवृत्ति मार्ग से हटाकर निवृत्ति मार्ग पर ले चले ।
प्रेय मार्ग से श्रेय मार्ग की ओर ले चले ।
अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चले ।
दुःख से सुख या आनंद की ओर ले चले ।

और कोई भी लक्ष्य नहीं है , नहीं है , नहीं है , यह स्वर्ण क्या हीरक अक्षरों में लिख लें और दिमाग में बिठा लें ।

इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के साधन बताये हैं और विभिन्न प्रकार से मन को लगाने का उपाय बताया है । 

प्यार से , पुचकार से , डर से , लोभ से , डरा कर , धमका कर , प्यार करके उन्होंने जीवों को इस क्षेत्र में लाने का प्रयास किया है ।

व्रत उपवास शारारिक तर्पण अर्थात शरीर की शुद्धता या परिमार्जन के उद्देश्य से बनाया गया है ताकि उसके कारण मनुष्य का शरीर सात्विक hormones release करे जो कि मन को पुनः शास्त्रों को समझने और भगवद क्षेत्र में मन लगाने में सहायक बने ।

पुराणों में इसके लिए खूब प्रलोभन दिए गए हैं कि तुम्हारा बच्चा जीवित हो जाएगा , तुम्हारा यह ठीक हो जाएगा इत्यादि । 

देखिये अमृत है । चाहे उसको कोई डरा कर पिला दे , कोई धमका कर पिला दे , कोई धोखे से पिला दे ,कोई प्यार से पिला दे , कोई जबरदस्ती पिला दे , कोई जानबूझकर पी ले , अमृत उसे अमर करके ही रहेगा ।

बस यही नीति और फॉर्मूला हमारे शास्त्रों ने पुराणों ने महापुरुषों ने अपनाया कि इन जीवों को किसी तरह इस क्षेत्र में मोड़ा जाय । 

बाकी का जो आपने कर्म किया है , वह अवश्य भोगना ही भोगना पड़ेगा ।

भगवदक्षेत्र या धर्म या व्रत उपवास का आलंबन लेने से यह होगा कि उस भोग को भोगने की शक्ति और सामर्थ्य की वृद्धि होगी । 
जिसके कारण उसका प्रभाव अन्तःकरण पर कम पड़ेगा । 
वरना आपने देखा ही होगा कि एक छोटा सा दुःख आता है तो कई लोग सहन नहीं कर पाते और आत्महत्या तक कर लेते हैं और कई ऐसे होते हैं कि घोर विपत्ति और दुःख में भी सम बने रहते हैं । 

चौदह वर्ष का कठोर वनवास मिला राम लक्ष्मण सीता जी को । 
क्या कौशल्या से लेकर समस्त प्रजाजन उनके निमित्त व्रत उपवास नहीं कर सकते थे और उनका दुख काट सकते थे ?? 
उर्मिला , मांडवी , श्रुतकीर्ति से लेकर जनक सीरध्वज और उनकी पत्नी सुनयना से लेकर सभी व्रत उपवास करके टाल सकते थे ।

पांडवों को वनवास मिला ? भगवान कृष्ण उनके साथ थे , चाहते तो पाण्डवों को व्रत करवाकर उनका दुख टाल सकते थे ।
अभिमन्यु मरा , बुरी तरह मारा गया । 
वेदव्यास के साथ मिलकर श्रीकृष्ण व्रत उपवास करके और महामृत्युंजय जाप करवाकर उसकी मृत्यु टाल सकते थे ।

द्रौपदी के पाँचों पुत्रों अर्थात सभी पांडवों के पुत्रों की हत्या हो गयी । महामृत्युंजय करके क्यों नहीं टाला ?? 

गांधारी भगवान शंकर की प्रचंड भक्त । 
लेकिन उसने भी महामृत्युंजय से अपने 100 पुत्रों की मृत्यु को नहीं टाल पाई । 

रावण जैसा ज्योतिषी कहीं नहीं था । उसे पता भी था कि उसकी मृत्यु ,उसके भाई की मृत्यु , उसके बेटे की मृत्यु होगी । 

भगवान शंकर का बहुत बड़ा भक्त । लेकिन वह भी व्रत उपवास महामृत्युजंय से मृत्यु नहीं टाल पाया ।

इक लख पूत सवा लख नाती ।
ता रावण घर दिया न बाती ।। 

नल दमयंती , हरिश्चंद्र से लेकर अनंत उदाहरण हैं । 

अरे परीक्षित को जानते ही होंगे । उन्हें तो 7 दिन पहले ही पता लग गया था । भगवान शुकदेव साथ में थे , ज्ञान लेने की बजाय अपने पुत्र जनमेजय के साथ मिलकर महामृत्युंजय जाप ही करवा डालते । 

अरे सब छोड़िए , कलियुग में ही आईये । 
भगवान शंकर के अवतार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य 32 वर्ष की अल्पायु में मुँह से खून फेंककर शरीर त्याग कर देते हैं , क्या वह मूर्ख थे ?? 
क्यों नहीं महामृत्युंजय जाप करवाया उन्होंने ??? 

तो इसलिये इन पोंगा पंडितों की बात में आना बंद करिये सभी लोग । 

आप लोग सत्य सुनना चाहते थे न तो सत्य यही है कि कहीं कुछ नहीं है ,सब महापुरुष संत हमें धोखा देते हैं ,सभी शास्त्र धोखा देते हैं , हमें lure करते हैं इन सब बातों से ताकि हम लोग किसी तरह ज्ञान प्राप्त कर भगवान के क्षेत्र में चल पड़े ।।

★ और महामृत्युजंय का अर्थ कहीं ऐसा नहीं है कि यह मृत्यु टाल देगा ।

लोग कहते हैं - जी बहुत पूजा पाठ करके देख लिया जी , कुछ नहीं होता !सब बकवास है ! 
मैं रोज़ मंगलवार को व्रत रखता था और 1 kg लड्डू चढ़ाता था ! क्या हुआ ? मेरा बेटा मर गया ! हनुमान जी ने कुछ नहीं किया ! 

मैंने अपने बेटे के बीमार होने पर पंडितों से महामृत्युंजय मंत्र का जाप कराया , पर मेरा बेटा नहीं बचा ! मैं नहीं मानता भगवान् वगवान को ! 

अरे सिद्धांत शास्त्र चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है कि भगवान् भी अपने नियम के विरुद्ध नहीं जाते ! 
यहाँ तक कि भगवत प्राप्त महापुरुषों तक को भी यह अधिकार नहीं है कि वह भगवान् के बनाये हुए नियम क़ानून का उल्लंघन करें !

जगतव्यापार वर्जनं !

 हालांकि वह कर सकते हैं , समर्थ हैं , पर नहीं अगर सच्चा महापुरुष होगा तो वह कदापि नहीं करेगा , भगवान् के नियम के विरुद्ध कभी नहीं जाएगा ! हाँ छोटे मोटे स्थितिप्रज्ञ महापुरुष जो थोडा बहुत रिद्धि सिद्धि पा गये हैं , वो भी थोड़े समय के लिए कुछ अंश टाल सकते हैं , पर उसमें उनका पूरा बैंक बैलेंस ( साधना ) खाली हो जाता है और फिर से उन्हें उसी नर्सरी से चलना पड़ेगा ! 

लोग महामृत्युंजय मंत्र की बात करते हैं , उसमें कहाँ लिखा है कि मृत्यु टल जायेगी ?? 
ये है मंत्र : 

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
 उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। 

इसका अर्थ है की हे प्रभु हमें जन्म मरण के चक्कर से मुक्त करो और मोक्ष प्रदान करो ! इस मंत्र में कहीं भी जीवन देने वाली बात नहीं कही गयी है ! 
ये पंडित लोग खुद इन मन्त्रों का अर्थ नहीं जानते तो वो हमारा क्या कल्याण करेगा ?
अभिमन्यु जिनके मामा स्वयं श्री कृष्ण , गांडीवधारी अर्जुन पिता , विवाह करने वाले वेदों को मथने वाले , भगवन के अंश वेदव्यास , वो तक बचा नहीं पाए तो औरो की क्या बिसात !

इसीलिए महापुरुष और ज्ञानी लोग कहते हैं , पहले सिद्धांत को समझो , तभी आगे बढ़ पाओगे ! 

आज लोगों के दुःख , निराशा , तरह तरह के आडम्बर , अंध विश्वास , रूढीवादीयाँ इसीलिए फ़ैल गयी हैं क्यूंकि सिद्धांत का अभाव है !

★ हमारे ऋषि मुनि यह चाहते थे कि यह मानव प्रजाति का किसी तरह से कल्याण हो l
तो वह लोग मानव जाति का कल्याण करने के लिए सारे हथकंडे अपनाते थे l
ठीक वैसे ही,,
जैसे छोटे छोटे बच्चे को स्कूल भेजने के लिए टॉफी , चॉकलेट , बिस्किट और पैसे का लालच देकर उसको शुरुआत में स्कूल भेजा जाता है l
फिर जब उस बच्चे को आनंद आने लगता है , स्कूल में रम जाता है तो वह बिना किसी लालच के जाता है l

वैसे ही हमारे ऋषि मुनि भी मानव जाति का कल्याण करने के लिए सारे हथकंडे अपनाते थे l

कई बार ऐसा भी होता था कि लोग नहीं समझ पाते थे तो सीधे धर्म से जोड़ दिया कि आप यह व्रत करोगे तो आपको पाप धुल जाएंगे 
 अगर आप यह व्रत करोगे तो आपको संतान धन की प्राप्त होगी l आदि l

तो जब हम भगवत प्राप्त हो जाएंगे उसके बाद हमारे सारे पाप और पुण्य का लेखा-जोखा समाप्त हो जाता है, सारे पाप और पुण्य खत्म हो जाते हैं l

 लेकिन जब तक भगवत प्राप्ति नहीं होगी उसके पहले तक हम पाप और पुण्य के बंधन में बंधे रहेंगे और उसी के अनुसार हमें कर्म का फल भोगना होगा l
अगर केवल व्रत करने से ही सारे पाप नष्ट होने लगे तो फिर " कर्म फल " का सिद्धांत ही गलत साबित हो जाएगा l 
जबकि " कर्म फल " का सिद्धांत कभी गलत नहीं होता है l

बाबा तुलसीदास कहते हैं -

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा l
जो जस करहिं तो तस फल चाखा ll

कर्म फल के कारण ही तो महाभारत की गांधारी के 100 पुत्र मारे गये थे l

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★ पुनः प्र०- तो क्या ऋषि मुनि भी झूठ बोलते थे ? 

उ० : 

नहीं , ऋषि मुनि झूठ नहीं बोलते थे l सारी बातें हमें आसानी से समझ में आ जाए , इसलिए ऐसा करते थे l

वैसे ही जैसे, 
एक मां अपने बच्चे को सुलाने के लिए बोलती है - बेटा सो जा नहीं तो भूत आ जाएगा l
लेकिन जब बच्चा नहीं सोता है तो भूत तब भी नहीं आता है l

ऐसे ही समझिए l

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

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प्रश्न:- कपूयाचरण क्या होता है, भैया?

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

यह मायिक जीव का दोष होता है ।

मायिक जीव के दोष दो प्रकार के होते हैं ।

1. अध्य्यात्मिक तुष्टि 
2. कपुयाचरण 

आध्यात्मिक तुष्टि में 4 प्रकार होते हैं ।

1. भगवद तुष्टि - जैसे हम लोग बोलते हैं न अपनी गलती छुपाने के लिए कि अरे भगवान जब चाहेंगे तब करवा लेंगे , बिना बुलाये थोड़ी न कोई वृन्दावन काशी या तीर्थों पर जा सकता है ।
चलो बुलावा आया है , माता ने बुलाया है ।
बाँके बिहारी ने हमें बुला लिया । 
या वह अभी नहीं बुला रहे हैं ।

तो यह जो अपना कपट है , उसे हम ऐसे ढकते हैं ।

2 . शरण वरन तुष्टि - मुँह से बस बोल देना कि मैं आपकी शरण में हूँ ।
जैसे लोग यहाँ नहीं बोलते बेड पर लेटे लेटे कि भैया जी के चरणों मे दंडवत प्रणाम ।

माला हिला रहे हैं कि ॐ नमः शिवाय । बोल बम । आदि लेकिन अंदर कोई भाव नहीं ।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव ।
तू *ही* मेरी माता तू *ही* पिता 

लेकिन अंदर से मानने को तैयार नहीं , बस जीभ को ऐंठ रहे हैं ।

तो यह है शरण वरण तुष्टि ।

3. काल तुष्टि - अजी अभी समय थोड़ी न आया है । ये भी कोई उम्र है जी पूजा पाठ करने की । समय आएगा तो भक्ति करवा लेगा । वृद्धावस्था में भक्ति होती है ।

4. भाग्य तुष्टि - अरे जो भाग्य में लिखा होगा , वही होगा । अगर लिखा होगा तो सब हो जाएगा ।।

अब कपुयाचरण के भी 3 प्रकार हैं ।

1. जिह्न भाव - मुँह में राम बग़ल में छुरी । बस जीभ से और पूजा पाठ दिखाने के लिए , लेकिन अंदर से दूसरों में दोष निरन्तर देखना ।
जैसे सास बहू serial में दिखाते हैं न कि खूब पूजा करने वाली ही सबसे ज्यादा plotting और scheming करती है ।

2. अनीर्त भाव :-  अपने दोष को छुपाना , स्वयं को भक्त दिखाने का नाटक करना और लालायित रहना कि किसी तरह लोग मुझे बहुत बड़ा भक्त समझ लें । 

3. माया भाव :- लोकरंजन की बीमारी , दिखावा । जैसे आज social मीडिया पर है । आँख बंद कर कैमरे के सामने ध्यान करना या background में महादेव महादेव चलाकर , माथे पर त्रिपुंड लगाकर हाथ जोड़कर , फ़ोटो खिंचवाना या गाल पर राधे राधे लिखवाकर , बाँके बिहारी की माला पहनकर फोटी खींचकर हर जगह डालना , दान इत्यादि की फ़ोटो डालना ।

तो यह सब घोर मायिक दोष होते हैं जीव में जो उसे आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने नहीं देते ।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी


प्रश्न:- यदि कोई सोमवार का व्रत रखता है तो क्या ये आवश्यक है की व्रत खोलने से पहले प्रति सोमवार भगवान शिव के मंदिर जाये,जल दूध शिवलिंग पे अर्पित करे
कोई यदि प्रति दिनचर्या से समय ना निकाल पाये तो भी क्या वे निष्काम भाव से व्रत रख सकता है?

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

व्रत तो तब भी था जब भगवान शंकर का मंदिर आसपास नहीं था ।
ऐसा तो नहीं था न कि आपने जब व्रत शुरू किया तो मन्दिर से जाकर शुरू किया । 

व्रत का अर्थ भी कई बार समझाया गया है कि मन बुद्धि चित्त अहंकार सभी उसी के इर्द गिर्द ही रहें , उसी का वृत करें , उसी का Circle करें , उसी से सम्बंधित सभी आपके कार्य इत्यादि हों । 
व्रत का अर्थ दो लोटा जल चढा देना , माथे पर तिलक लगा लेना और पूरे दिन भूखे रह लेना नहीं है । 
भूखा रहने का अर्थ है कि इस दिन आप अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित रखेंगे , पाँचों इन्द्रियों को । 

इसीलिए मुख्य है आपके अंतःकरण का समर्पण , आपका समय जो आप भगवदचिन्तन में लगाते हैं , आपके इन्द्रियों का नियंत्रण , आपके मन बुद्धि इत्यादि का नित्य उनके पास रहना । 

मुख्य यही है ।

भगवान शंकर को आपके मिलावटी दूध से कोई मतलब नहीं , आपके RO के जल से कोई मतलब नहीं है । 
अरे गंगा जिनके शीश पर स्वयं विराजित है , उसे किसी जल वल की आवश्यकता नहीं है ।
यह सब तो माध्यम हैं अपने भाव व्यक्त करने के , प्रतीक हैं अपने हृदय के नीर को अर्पण करने का ।
इसलिए निश्चिन्त रहें ।

हाँ ये बात अलग है कि आप संसार का सब समय दे रहे हैं लेकिन जब भगवान की बात आई तो 24 घण्टे में से आपको 1 घण्टे भी नहीं मिल रहा है मन्दिर जाने का ।
तो अगर यह है तो - ई नो चोलबे !! 

इसके पीछे अगर आप अपनी लापरवाही , आलस्य  को शह दे रहे हैं तो फिर इससे अच्छा है कि व्रत न करें । 
संसार में ही विचरें ।।

क्योंकि संसार के लिए आप हर समय निकाल लेंगे , धनिया लाने तक का समय होगा , लेकिन जैसे ही भगवान की बात आएगी , बहुत से बहाने सामने मन ला देता है ।
तो इससे हमें उबरना होगा ।

समय किसी को नहीं मिलता । समय निकालना पड़ता है ।

और इतना ही समय सबके पास है ।
बस बात होती है कि आप किसको कितना महत्व देते हैं । 
It's all depends upon the priority. 

बाकी का भगवान को लाख लोटा जल चढ़ा दें लेकिन note बस इतना होगा जितना second आपका मन भगवान में लगा होगा बस ।

Sh Shwetabh Pathak  Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

प्रश्न:- ध्यान में कैसे पता लगे कि मैं ध्यान मेरा सही हो रहा है? विधि मुझे नहीं पता मैं बैठी हूं ओंकार की गुंजन करती हूं गुंजन ओंकार की करके सात बार या 9 बार उसके बाद में बैठी हूं ध्यान में तो शांति मिलती है जीभ को ना ऊपर रखती हूं ना नीचे बीच में रखती और ध्यान में मैं बैठी हूं तो कभी-कभी झटके लगते हैं कभी बॉडी में कुछ कुछ है जैसे चीटियां काटने से होती है और और पीछे कमर के पास कभी कभी गर्म से होते हैं पर और कुछ नहीं रहते ना भगवान दिखते हैं यह दिखते ओर न ही कुछ वह नहीं मुझे कुछ दिखाते हैं तो मैं तो ऐसे ही बैठी हूं बाकी मैं नहीं जानती, आप हमें बताने की कृपा करो, भैया जी।

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

देखिये ।
आप जो कर रही हैं , वह ध्यान नहीं है ।
वह मात्र ध्यान से पहले तैयार होने वाली एक प्रक्रिया है ।

ध्यान के लिये विषय की आवश्यकता होती है ।

ध्यान का अर्थ होता है अपने ध्येय पर मन को केंद्रित करना ।

आपका तो ध्येय ही निर्धारित नहीं है तो भला ध्यान क्या होगा ।

आँख बंद कर लेने से , जीभ बीच में कर लेने से मात्र यह होता है कि अब आपने मन को भटकाने वाली इन्द्रियों को बाह्य वातावरण या बाहरी संसार से हटा लिया है या बाहरी संसार से नाता तोड़ दिया है ।

अभी आपने कहा कि जीभ बीच में रखती हूं ।
तो आपका ध्यान तो जीभ को ही adjust करने में ही रहता होगा ।

तो यह भी एक ध्यान है कि आपको एक विषय मिल गया कि मुझे जीभ को बीच में रखना है और आप उसी के लिये संघर्ष रत हैं ।

तो ध्यान सदा लक्ष्य को केंद्रीत कर किया जाता है ।
ऐसे ही संसार में अगर कोई खिलाड़ी या कोई भी व्यक्ति अपने कर्तव्य में रम गया है तो वह भी ध्यान है ।

आपने बार बार सुना होगा कि अरे ध्यान से यह काम करो ।
ध्यान से भाला फेंको ।
ध्यान से गेंद देखकर बल्ला मारो ।
Shuttle cock या Badminton ball पर बस ध्यान रखना है आदि आदि ।

तो यह सब ध्यान है जिसमें व्यक्ति को एक लक्ष्य या ध्येय मिल गया है मन को स्थिर करने के लिए ।
जैसे जैसे मन या जितना मन उस ध्येय पर एकाग्र होता जाएगा उतना उतना उसमें निखार आता जाएगा और वह नीरज चोपड़ा बनता जाएगा ।

यहाँ केवल लक्ष्य को ध्यान देना है ।

तो यह है ध्यान ।

जब आप लोग बोलते हैं कि ध्यान में हमारे शरीर पर चीटियाँ चलती हैं , ये होता है या शरीर का यह होता है ।

तो विश्वास मानिए यह ध्यान है ही नहीं ।

अरे ध्यान में तो शरीर की सुधि बुधि रहती है नहीं है ।
शरीर का देहाभास समाप्त होने लगता है ज्यों ज्यों हम ध्यान में प्रवेश करने लगते हैं ।

अगर हमें यह आभास हो रहा है कि शरीर में यह परिवर्तन हो रहा है तो यह ध्यान है ही नहीं ।
यह तो शरीर का ध्यान हो गया कि मन हमारा शरीर के अंगों पर ध्यान किये हुए हैं ।

जब दृष्टा दृश्य को देखते देखते स्वयं दृश्य बन जाता है और दृष्टा भाव समाप्त हो जाता है , उसे ही ध्यान बोलते हैं ।

रामकृष्ण परमहंस माँ काली का ध्यान करते थे तो जब उन्हें ध्यान में माला पहनाते थे स्वयं के ही गले में माला डाल लेते थे ।

भगवान के विरह में गोपियाँ इतनी ध्यानमग्न हो जाती हैं कि एक गोपी कृष्ण बन जाती है और वह चुनरी को गोवर्धन समझ कर उठा लेती है ।
एक गोपी कालिया नाग बन जाती है और दुसरीं गोपी उसके सिर पर नाच नाच कर नृत्य करने लगती है ।
एक गोपी पूतना बन जाती है तो दूसरी गोपी कृष्ण बनकर उसके स्तन पीने लगती है ।

हालांकि यह सब बहुत ऊपर के स्तर की बात है लेकिन फिर भी अगर शरीर का ध्यान बना हुआ है तो वह ध्यान नहीं होता ।

और ध्यान के लिए आवश्यक नहीं है किसी आसन की आवश्यकता पड़ती है ।
चलते फिरते उठते बैठते सोते जागते खाते पीते अगर निरन्तर आपका ध्यान या आपका स्मरण अपने लक्ष्य या ध्येय पर है तो वह ध्यान है ।

तो ध्यान के लिए ध्येय की आवश्यकता होती है जैसे - 

* किसी वस्तु पर ध्यान देना 
* श्वांसों पर ध्यान देना 
* सूर्य चन्द्रमा तारा पर ध्यान देना
* सूर्य चन्द्र की धारणा अपने शरीर मे करना 
* नेत्र बन्द कर नेत्रों के बीच भगवान की छवि , कोई बिंदु , कोई तेज पुंज , कोई काला बिंदु इन सब का ध्यान करना और उससे मन इधर उधर न जाये , इस बात का ध्यान रखना ।
* त्राटक करना दीपक की ज्योति में
* नेत्र बंद कर हृदय में उपरोक्त किसी भी तत्त्व का ध्यान करना ।
* नेत्र बन्द कर नासिका के अग्र भाग पर ध्यान करना ।
* नेत्र बंद कर कंठ में ध्यान करना 
* नेत्र बन्द कर नाभि चक्र पर ध्यान करना 
* नेत्र बन्द कर स्वाधिस्ठान या जहाँ reproductive organs होते हैं वहाँ ध्यान करना ।
* नेत्र बन्द कर मल और मूत्र द्वार के मध्य में ध्यान करना ।
* नेत्र बन्द कर भगवान के चरणों का ध्यान करना 
* भगवान के वस्त्र , अलंकार आदि का ध्यान करना ।
* भगवान के नेत्रों का ध्यान करना 
* भगवान के मुखमंडल का ध्यान करना 
* भगवान के रूप का ध्यान करना 
* भगवान के लीलाओं का ध्यान करना 
* भगवान के लोकों या धामों का ध्यान करना 
* भगवान के सन्तों का ध्यान करना 

तो यह सब बहुत से विधियाँ हैं ध्यान करने की ।

ध्यान करने का अर्थ है खो जाना और खोकर जाग जाना ।

अभी तो हम जगे होकर भी खोये हुए हैं ।

क्यों ?? 

क्योंकि हम बाहरी स्थूल इन्द्रियों से बाहर के मायिक लोकों तक ही सीमित हैं ।

हमने कभी नेत्र बंद कर अंदर के संसार और अनंत लोकों में कभी गए नहीं ।

बाहर का संसार इन खुले नेत्रों से जितना बड़ा और विशाल दिखता है , वह उतना ही क्षुद्र , काल्पनिक, नश्वर और सीमित है ।

अंदर का संसार इन बन्द नेत्रों से जितना छोटा और सूक्ष्म दिखता है , वह उतना ही विशाल , सत्यता से पूर्ण , सनातन और असीमित है ।

तो ध्यान की विधि को सही सही अगर आप करते हैं तो नेत्र खोलने का मन ही नहीं करेगा और खुल भी गए तो खुले नेत्रों से भी यह संसार नीरस निस्सार और काल्पनिक लगेगा।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

प्रश्न- भैया जी मेरा पहला प्रश्न है भगवान के दर्शन, भगवान की प्राप्ति प्रेम से होती है या तप से अर्थात तपस्या से l 
एक सज्जन से में प्रेम पर अटल रहा और वो तपस्या, वह कह रहे थे कि ध्रुव जी 5 साल की उम्र में बाहर जाने लगे तब उनको नारद जी मिले नारद जी ने मंत्र दिया ओम नमो भगवते वासुदेवाय। फिर उन्होंने तपस्या की तब जाकर उन्हें भगवान के दर्शन हुए, बहुत कठिन तपस्या की जल, अन्न यहां तक की सांस लेना भी छोड़ दिए थे l
फिर उन्होंने उदाहरण दिया हिरण्यकश्यप ने कौन सा प्रेम किया था जो उसे ब्रह्मा जी के दर्शन हुए ?
रावण में कौन सा प्रेम किया था उसने भी भगवान शंकर की तपस्या की? आप इसको बताइए क्या कैसे है?

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

भगवान का दर्शन और भगवान के अन्य अवयव की प्राप्ति तप इत्यादि से हो जाएगी लेकिन भगवान का प्रेम जो सत चित्त आनंद में से जो आनंद का सारभूत तत्व है उसकी प्राप्ति प्रेम से ही होती है । 

ये जो ध्रुव प्रह्लाद या किसी ने भी तपस्या की वह क्या है ?? 

तप का मुख्य ध्येय होता है अन्तःकरण की शुद्धि और मन का नियंत्रण । 
विभिन्न आसन , व्रत , उपवास, दान इत्यादि से मन की शुद्धि होती है ।

ऐसे समझिये कि हमारी गाड़ी back gear में लगी है और पीछे की ओर तेजी से भाग रही है , यह सब जो तप हम करते हैं यह गाड़ी की गति जो back जा रही है , पीछे की ओर जा रही है उसको कम करते करते धीरे धीरे उस अवस्था में लाना जब गाड़ी पीछे न जाये अर्थात Neutral में आ जाये । 

अब मन स्थिर हो गया । अब इस स्थिरता का क्या करना है ???? 

इसी स्थिर मन से साधना करनी होगी , इसी स्थिर मन में भगवान का रूप ध्यान करना होगा । इसी स्थिर मन में ज्ञान की धारणा पुष्ट करके उस के अनुसार आगे बढ़ना है । 

जब ध्रुव को नारद जी ने उपदेश दिया तो उन्हें एक मन्त्र दिया और कहा कि इसी को साधो , अर्थात इसको इस तरह साधना है कि जब यह मन्त्र या यह पंक्ति बोलो तो त्वरित रूप से भगवान का दर्शन हो जाये । 

समझिये बात को ध्यान से । जब ध्रुव जी गए तपस्या करने तो नारद जी पहली बार आकर उन्हें मन्त्र बताकर चले जाते हैं और उसी को साधने को कहते हैं । 
दूसरी बार फिर आते हैं और उन्हें उपदेश देते हैं , वह क्या देते हैं ??
उनके उपदेश के उपरांत ध्रुव जी महाराज पहले फलों का सेवन करते हैं , फिर कंद मूल पर , फिर शाक पर , फिर जो पेड़ों से स्वतः गिरे उस पर , फिर सूखे पत्तों पर , फिर पत्तों को भी त्याग दिया , फिर जल पर , फिर मात्र वायु पीकर और उससे पोषण लेकर , फिर वायु को भी त्याग दिया , मात्र प्राण वायु पर अर्थात शरीर की सभी Metabolic activities को इतना कम कर देना कि उसको पोषण की आवश्यकता ही न पड़े ।

जैसे शंकराचार्य जी ने जब गृहस्थ में जाने के लिए अपना शरीर छोड़ा तो उसमें पाँचों प्राण में से मात्र एक प्राण उस शरीर के अंदर छोड़कर राजा के शरीर में प्रवेश किया था , जिससे उनका शरीर उसी तरह पड़ा रहा । 

अब फिर आते हैं ध्रुव जी महाराज की तपस्या पर ।
अब देखिए यह जितना उन्होंने तप किया उससे वह अविद्या माया से ऊपर हो गए अर्थात मन बुद्धि इन्द्रिय सब शुद्ध कर लिया । 

तब भगवान ने एक दिन उन्हें उनके अन्तःकरण में अपना मायिक दर्शन कराया । 
क्योंकि जब नारद जी ने मन्त्र देते हुए भगवान का रूप ध्यान बताया था तो एक बालक की बुद्धि में जितना आया उसने वही रूप ध्यान किया । 
लेकिन अन्तःकरण और चित्त की स्थिरता जो तप के कारण आयी थी , उसमें भगवान ने उन्हें अपना रूप दिखाया और फिर उसका लोप कर दिया ।

अब देखिए भगवान का दर्शन होते ही माया चली जाती है , भगवदप्राप्ति हो जाना चाहिए था ध्रुव जी को लेकिन ऐसा नहीं हुआ । 
वह इसलिए क्योंकि उनका मन अभी तक मायिक या प्राकृत ही था । 
मायिक या प्राकृत मन द्वारा भगवान का दिव्यतिदिव्य तत्व या रूप या दर्शन हो ही नहीं सकता ।

वह तो भगवान ने उस छोटे बालक को रूप ध्यान करने के निमित्त अपना लौकिक विग्रह दिखाया ताकि उसका आलंबन लेकर वह रूप ध्यान रूपी साधना कर सके । 

देखिये जब तक भगवद प्राप्ति नहीं होगी , तब तक भगवान का वास्तविक दर्शन असंभव है । 

अब जब भगवान ने अपना लौकिक रूप दिखाकर जो उनके अन्तःकरण की शुद्धि के अनुसार था दिखाया और लोप भी कर दिया ,तब ध्रुव जी छटपटा पड़े ।
फिर नारद जी आये और उन्होंने उपदेश दिया कि जो अन्तःकरण में भगवान का दर्शन हुआ , वह वास्तविक नहीं था बल्कि भगवान ने तुम पर कृपा कर तुम्हारी रूप ध्यान की सहायता के लिए दिया है ।

तब ध्रुव जी को जो रस मिला था उस रस की प्राप्ति के लिए जोर लगा दिया और अंत में जब माया निवृत्ति हुई और नारद जी जो उनके गुरु थे , स्वरूपशक्ति प्राप्त हुई और तब वास्तविक भगवान ने उन्हें दर्शन देकर कृत्य कृत्य किया ।

अब देखिए यह दर्शन है । अब माया चली गयी । अब भक्ति शुरू होगी ,अब भगवान से प्रेम वाली स्थिति का आरंभ होगा । 
क्योंकि प्रेम ऐसा तत्त्व है जो नित्य निरंतर बढ़ता है और पूर्णता को नहीं प्राप्त होता ।
आज भी ध्रुव जी भक्ति में लीन हैं और उनका प्रेम भगवान से निरन्तर बढ़ रहा है । 

तो यह तप और प्रेम का सिद्धान्त है ।

जब ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई तो उन्हें कुछ नहीं समझ आया तो उन्होंने तप किया । उनका तप अलग है । 
यह तप क्या है यह फिर कभी बताऊँगा । 
तो तप से ही ब्रह्मा जी को ज्ञान हुआ कि उन्हें क्या करना है ।

फिर जब भगवान ने उन्हें वेद दिया तो बिचारे एक अक्षर तक नहीं समझ पाए कि यह क्या है । 
फिर उन्होंने कई कल्पों तक तप किया तब जाकर उनको वेद ज्ञान हुआ ।

और आज के नन्हें मुन्हें राष्ट्रवादी चार पैग पीकर वेदों शास्त्रों का अध्ययन करते हैं । उसे यह बोलते हैं कि हम स्वाध्याय कर रहे हैं । 
बिचारे अर्थ ही नहीं जानते स्वाध्याय का ।

बार बार चिल्ला चिल्ला कर सभी वेद शास्त्र से लेकर संत भगवान कह रहे हैं कि इसे अपनी बुद्धि से मत पढ़ना मत पढ़ना अन्यथा विनाश हो जाएगा । 
इसे किसी गुरु के अनुगत होकर ही पढ़ना जो तुम्हें सही सही उसका अर्थ भाव बता सके और साधना करवा सके । 
लेकिन कोई नहीं मानता । 

यह सब शास्त्र वेद पढ़ने की चीज़ नहीं है , एकमात्र ऐसे गुरु की शरणागति करिये और उनकी सेवा करिये जब वह कृपा करेंगे तो वह स्वयं समस्त वेद शास्त्रों पुराणों उपनिषदों से लेकर समस्त ज्ञान आपको प्रदान कर देंगे ।

अन्यथा स्वयं की बुद्धि से एकमात्र हानि ही हानि होगी और कुछ नहीं ।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी
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प्रश्न :- क्या गर्भ में शिशु को भगवान के दर्शन होते हैं ?? 

उत्तर :- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

 पार्ट 1 में भूमिका में मैंने यह बताया था कि भगवान के दर्शन के पश्चात माया निवृत्ति हो जाती है और जीव भगवद प्राप्त महापुरुष बन जाता है । 

तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि शिशु भगवान से वायदा करता है कि मुझे यहाँ से निकाल दो मैं माया में न फँसकर एकमात्र आपका भजन कर अपने मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर समस्त दुःखों से निवृत्त हो जाऊँगा । 

देखिये जब जीव गर्भ में आता है तो वह अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के बंधन के कारण गर्भ में आता है । चाहे वह पुण्य करे या पाप करे दोनों बन्धन कारक हैं । अंतर बस इतना है कि एक स्वर्ण की बेड़ियों से जकड़ा गया है और दूसरा लोहे की । 

तो जब जीव गर्भ में आता है तो चौथे महीने जब उसके सुख दुख अनुभव या ग्रहण करने वाले अंग बनते हैं और उनमें चेतना आती है तो पाँचवें महीने से वह गर्भ में होने वाले दुखों की पीड़ा से छटपटाता है । 

गर्भवास समं दुःखं न भूतो न भविष्यति ।

गर्भ में होने वाले दुःख के समान अन्य कोई दुःख नहीं है । 
 इतना कष्ट होता है। उल्टा लटकर , हाथ बाँधे , जहाँ उसे हिलने डुलने की भी स्वतंत्रता नहीं , हजारों छोटे-छोटे कीटाणु जो मातृगर्भ में पलते हैं, ये जीव के कोमल शरीर को काटते हैं, जीव तड़पता है, चिल्लाता है, कौन सुने ? कभी माँ चटपटी वस्तु का सेवन कर ले, तो इसको कष्ट होता है। माँ कभी गर्म वस्तु का सेवन कर ले, तो इसको कष्ट होता है। 

इसी दुःख और अथाह पीड़ा से छटपटाकर जब बच्चा हिलता डुलता है या हाथ पैर झटकता है तो उसे देखकर माँ अपने पति और अन्य को दिखाती है खुश होकर कि देखो देखो मेरा बच्चा पेट पर लात मार रहा है या हिल रहा है । 
यही संसार है कि उसे सब बाह्य देखते हैं क्योंकि अज्ञानी हैं, आंतरिक नहीं देख पाते । 

फिर आता है सातवाँ महीना । जब कष्ट पीड़ा से पल पल तिल तिल मरता हुआ जीव छटपटाता है तब सातवें महीने ही भगवान कृपा कर उसे स्मृति प्रदान करते हैं ।
उस स्मृति से उसे सब याद आता है कि उसने क्या क्या किया था, जन्म जन्मांतर के सभी कर्म उसे याद आते हैं । इस दुःख से वह छटपटा कर भगवान से प्रार्थना करता है कि :-

 तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्तनानातनोर्भुवि चलच्चरणारविन्दम् ।

हे प्रभु बस एक बार मुझे इस गर्भ से निकाल दो , इस पीड़ा से मुक्ति दे दो , देखना मैं यह मानव देह सफल करूँगा और एकमात्र तुम्हारा ही भजन करूँगा , तुम्हारी ही साधना करूँगा, अपनी दुःख निवृत्ति करूँगा और तुम्हें इसी जन्म में ही प्राप्त करूँगा । 

फिर भगवान की कृपा से ही उसे यह प्रेरणा होती है कि भगवान कह रहे हैं कि तुम गर्भ से निकलते ही सब भूल जाओगे और फिर संसार में फँस जाओगे , बिल्कुल अपने साध्य पर ध्यान नहीं दोगे ।
लेकिन फिर वह जीव अपनी भावित और जैवित शक्ति से भगवान से बार बार निवेदन अनुनय विनय करता रहता है और तरह तरह के वायदे और प्रतिज्ञा करता रहता है कि बस एक बार इस कष्ट से मुक्ति दिला दो । 

इसीलिए अनुभवी स्त्रियाँ जानती होंगी कि कई स्त्रियों को 6 , 7 और 8 वें महीने में एक बार complications आते हैं जब लगता है बच्चा हिल डुल नहीं रहा है या दम घुटने सा लगता है या पीड़ा होती है । 
यह जीव के अथाह पीड़ा से मूर्छित होने के कारण होता है जो गर्भिणी स्त्री को complications के रूप में दिखता है । 

फिर नौंवा महीने में जीव प्रसूति वायु से बाहर निकलता है । 
और निकलते ही फिर से वही अपना कार्य शुरू । 
वही जीव संसार में आ करके प्रभु को भूल जाता है और भक्तिरहित कर्म करके दुःख भोगता है।

अब देखिए कहीं भी शास्त्रों में यह नहीं आया है कि भगवान ने शिशु को गर्भ में दर्शन दिया । 

गर्भ में किये थे वादे , गोविंद राधे । 
भक्ति ही करूँगा किंतु भूल गए वादे ।। 
- राधा गोविंद गीत 

कपिल भगवान ने भी माता देवहूति को बताते समय यह कहीं नहीं कहा है कि भगवान दर्शन देते हैं । 
उन्होंने मात्र जीव की प्रतिज्ञाएँ और वायदे की ही बात की है ।।

जगद्गुरु शंकराचार्य से लेकर जगद्गुरु कृपालु महाराज इत्यादि सभी ने केवल और केवल प्रतिज्ञाओं और वायदों की बात कही है ।

लेकिन गर्भ में भगवान के दर्शन होते हैं । 

ये क्या विरोधाभासी सिद्धांत है ???? 

जी हाँ ! होते हैं !! 

अरे ! रुक जाईये , पूरी बात सुनिये । 
इसी पूरी बात को न सुनने के कारण हम सिद्धांत का मटियामेट कर लेते हैं । 

आज यही पूरी बात न सुनने के कारण शास्त्रों के सिद्धांतों का अनर्गल प्रचार प्रसार होता है । 

तो पूरी बात यह है कि गर्भ में भगवान अपना दर्शन देते हैं । 

परंतु किसे ?? 

उन साधकों को , उन योगियों को जिन्होंने साधना कर अपनी स्वरूपावरिका माया हटा ली है । 

मैंने बताया था न कि दो प्रकार की माया होती है । 

अविद्या माया या स्वरूपावरिका माया 
और 
विद्या माया या गुणावरिका माया 

इनके विषय में पहले भी बता चुका हूँ लेकिन आज संक्षेप में फिर ।

तीन तरह के प्रकृति के गुण होते हैं । 

सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण ।

जब ज्ञानी या कोई भी साधक अपनी साधना से रजो गुण और तमो गुण दोनों से पार हो जाता है तो वह स्वरूपावरिका माया से उत्तीर्ण हो जाता है । 

स्वरूपावरिका माया या अविद्या माया जीव को अहम भाव में विचरण कराती है । यह मैं , मेरा , मैंने या यह संसार है , यह सुख और दुःख है , अर्थात अपनी स्व का अस्तित्व का भान रहना और अन्य स्थूल या भौतिक पदार्थों में सत्य का भान करवाना , यह सब अविद्या माया के कारण होता है । 
यह अच्छा है , यह बुरा है , यह पाप है यह पुण्य है , यह करना चाहिए यह नहीं करना चाहिए इत्यादि सब स्वरूपावरिका माया या अविद्या माया के अंतर्गत आती है । 

तो यही तमोगुण और रजोगुण को अविद्या माया कहते हैं । 

तत्वमसि ( तू वह है ) - यह पहली सीढ़ी ।
अहं ब्रह्मास्मि ( मैं ही ब्रह्म हूँ ) - यह द्वितीय सीढ़ी ।
एको ब्रह्म द्वितीयं नास्ति ( जो कुछ भी विद्यमान है सब ब्रह्म है ) - यह तृतीय सीढ़ी । 

ज्ञाता ( जिसके द्वारा जाना जाएगा या जानने वाला या साधक ) 
ज्ञान ( जानना या साध्य ) 
ज्ञेय ( जो जानने योग्य हो ) 

इसे त्रिपुटी कहते हैं ज्ञानियों की भाषा में । 

ज्ञाता , ज्ञान और ज्ञेय जब सब विलीन हो जायें तो उसे निरंजन ज्ञान कहते हैं जो सर्वोच्च अवस्था होती है ।
इसी में ज्ञानी या साधक तमोगुणी और रजोगुणी माया को जीत लेता है । 
अर्थात स्वरूपावरिका माया को जीत लेता है । 
इसे ही आत्मज्ञान कहा जाता है और इनको आत्मज्ञानी कहा जाता है । ( ब्रह्म ज्ञानी नहीं) 
इसमें ज्ञानी स्वयं या आत्मा के ज्ञान और आनंद को प्राप्त करता है । 
इसे ब्रह्मभूतावस्था भी कहते हैं । 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषुभूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
- गीता 

"ज्ञानी सदैव प्रसन्न रहता है तथा कोई विपत्ति उसे दुखी नहीं कर सकती है । और उसकी कोई इच्छा भी नहीं होती है । वह निरंतर स्वयं में आनंदित रहता है। वह जीवों में कोई भेद नहीं देखता है । इस अवस्था पर पहुँच कर ज्ञानी मेरी भक्ति करेगा। "

आत्म ज्ञान ब्रह्म ज्ञान से भिन्न है । जब ज्ञानी सत्वगुणी माया( गुणावरिका माया) को जीत लेता है तब उसे ब्रह्म ज्ञान होता है । सगुण साकार ब्रह्म की कृपा से ही सत्वगुणी माया पर विजय सम्भव है । अतः निराकार ब्रह्म में विलीन होने हेतु ज्ञानी को सगुण साकार ब्रह्म की उपासना करनी होगी।

हम सभी स्वरूपावरिका माया के आधीन हैं । इसका कार्य है कि यह जीव का वास्तविक स्वरूप छिपा देती है और जीव स्वयं को शरीर मानकर संसार में कार्य करता है ।

जो परमहंस और अवधूत की अवस्था के होते हैं , उनकी यह स्वरूपावरिका माया चली जाती है । 

लेकिन गुणावरिका माया नहीं जा पाती है । 

इसी कारण परमहंस जड़ भरत जी को भी हिरण बनना पड़ा । 
शुकदेव जी गर्भ से बाहर ही नहीं आ रहे थे कि उनको माया लग जायेगी । 14 वर्ष तक वह गर्भ में रहे , बाद में वेदव्यास जी के बहुत समझाने पर और भक्ति का ज्ञान देने पर वह बाहर आये । 

तो यह गुणावरिका माया क्या है ??? 

सतोगुणी माया गुणावरिका माया है जिसे विद्या माया भी कहते हैं । 
आत्मज्ञान हो जाना विद्या माया है । लेकिन आत्मज्ञान से ऊपर हो जाना ब्रह्मज्ञान हो जाना यह विद्या माया का अत्यन्ताभाव है । 
विद्या माया भी दो प्रकार की होती है , अपरा विद्या और परा विद्या । 
इस विद्या माया को जब ज्ञानी पार करता है तो उसे आत्मज्ञान से ऊपर ब्रह्मज्ञान या परमात्मा की प्राप्ति होती है । 
इसीलिए गीता कहती है :- 

भक्त्यामामभिजानाति यावान्याश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो माम तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनंतरम । 
-गीता 

जगद्गुरु शंकराचार्य कहते हैं * 'बिना भक्ति के मन भी शुद्ध नहीं हो सकता'।*

शुद्धयतिनान्तरात्मा कृष्णपादाम्भोजभक्तिमृते ॥

तो जब यही स्वरूपावरिका माया को जीतने वाले ज्ञानी गर्भ में आते हैं , तो भगवान उनको स्वात्मा वाला दर्शन देते हैं । 

अपना दर्शन नहीं । क्योंकि ज्ञानी निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म की आराधना कर के स्वरूपावरिका माया से उत्तीर्ण होता है । 
जो स्वयं निर्गुण और बिना रूप के है , वह दर्शन कैसे दे सकता है । 

इसीलिए भगवान उसे अंशात्मक तेज के रूप में दर्शन देते हैं और उसे सभी कुछ स्मृत कराते हैं ।
तब वह ज्ञानी शिशु रूप में प्रतिज्ञा करता है कि मैं निकल कर केवल भक्ति करूँगा । 

क्योंकि यह गुणावरिका माया एकमात्र भक्ति से ही जाएगी । 
बिना कृपा के यह माया नहीं जा सकती । 

स्वयं के बल से केवल स्वरूपावरिका माया या अविद्या माया जा सकती है । 
लेकिन भगवान ही गुणावरिका माया को हटाते हैं । 

और निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म कुछ करता ही नहीं , कृपा कर ही नहीं सकता इसलिए ज्ञानी को भी सगुण सविशेष साकार भगवान की भक्ति या उपासना करनी पड़ती है जिसकी कृपा से गुणावरिका माया जाती है ।

विद्या अविद्या माया , गोविंद राधे ।
विद्या से अविद्या , विद्या भक्ति से मिटा दे ।।

- राधा गोविंद गीत ( जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ) 

तो केवल भक्ति से ही यह माया जाएगी । 

तो जहाँ जहाँ भगवान के गर्भ में दर्शन की बात आती है तो वह केवल आत्मज्ञानी पुरुषों के लिए है ।

बिना साधन भक्ति के भगवान के दर्शन हो ही नहीं सकते यह स्वर्ण अक्षरों में लिख लीजिये ।

कई लोग कहते हैं कि उनको भगवान के दर्शन हो चुके हैं , इनको हो चुके हैं इत्यादि । 

कहीं किसी को कोई दर्शन नहीं होते । जिस क्षण होंगे उसी दिन ही वह भगवदप्राप्त संत या महापुरुष बन जायेगा । उसके सब मन इन्द्रिय बुद्धि अन्तःकरण सब दिव्य हो जाएंगे ।

जो यह दर्शन की बात सुनते हैं आप , यह केवल भगवान का आभास मात्र होता है । 

स्वयं नारद जी को ( दासी पुत्र ) को भगवान ने आभासी दर्शन दिए तब जाकर नारद जी ने साधना की और भगवान के मूल स्वरूप का दर्शन किया । 

स्वयं ध्रुव को वन में भगवान आभासी दर्शन देते हैं जिसका आलंबन प्राप्त कर ध्रुव ने मूल स्वरूप के दर्शन के लिए घोर तप किया और उन्हें प्राप्त किया । 

उद्धव जी को भगवान ने तीर्थ में भेजा कि वहाँ जाकर साधना करो , तप करो , तब तुम मेरा दर्शन कर पाओगे । 

स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें बदरिकाश्रम में भेजा साधना करने के लिए । क्या उद्धव जी श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं कर रहे थे ??? 

नहीं !! वह वसुदेव के पुत्र और अपने भाई का दर्शन कर रहे थे । 
क्योंकि उनका स्तर नहीं था । 

श्रीकृष्ण स्वयं भगवान पूर्ण सतचिदानंद भगवान उनके पास बैठे हैं , उनके भाई बनकर , नित्य निवास है उनका मथुरा में , लेकिन उद्धव जी आँख बंद कर आत्मानंद में रमण कर रहे हैं । 

अंत में अपनी साधना से भगवान का मूल दर्शन कर उद्धव जी ने बदरिकाश्रम में ही अपना देह त्याग किया । 

तो यह है उक्त प्रश्न का उत्तर ।

आशा है सभी लाभान्वित होंगे और सबका संदेह दूर होगा। 

सिद्धांत परिपक्व है अगर तो कोई बाबा बाबी आपको मूर्ख नहीं बना सकता ।

इसीलिए मैं सिद्धांत पर जोर देता हूँ । 
फिर हमारे प्रेम पर भी कोई कलंक नहीं लगेगा 

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

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प्रश्न- क्या ये सच है कि जब मनुष्य गर्भ में होता है तो वह पीड़ा से भगवान को पुकारता है और भगवान सभी को गर्भ में दर्शन देते हैं? भागवतम में ऐसा वर्णन है।

उत्तर:- आदरणीय श्री श्वेताभ पाठक भैया जी

 भगवान का दर्शन कब होता है ?? 
पहले यह सिद्धांत समझ लीजिए । 
भगवान का दर्शन होता है तब जब साधना द्वारा मन बुद्धि अन्तःकरण शुद्ध होकर दिव्यातिदिव्य बन जाते हैं । 
क्योंकि भगवान दिव्य हैं और उनका ग्रहण दिव्य इन्द्रियों द्वारा ही सम्भव है । 

मायिक इन्द्रियों द्वारा भगवान अग्राह्य हैं । 
इन सब से परे हैं । 

दर्शन एकमात्र तभी होगा जब अन्तःकरण शुद्ध होकर दिव्य बनता है । 

और दर्शन होते ही तत्काल प्रभाव से माया निवृत्ति हो जाती है । 
प्रकाश आया कि अंधकार गया । भला अंधकार प्रकाश के सामने कैसे ठहर सकता है !!! 

और एक बार दर्शन हुए , दर्शन मतलब परमानंद प्राप्त होना , भगवदप्राप्त हो जाना , माया निवृत्ति हो जाना , दुःख निवृत्ति हो जाना , स्वयं भगवद्मय बन जाना , दैहिक दैविक भौतिक तापों से मुक्त हो जाना , सदा पश्यन्ति सूरयः हो जाना । 

फिर कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं । 

क्योंकि तब जीव के मन बुद्धि चित्त कार्य नहीं करते बल्कि स्वयं भगवान कार्य करते हैं । 

भगवदप्राप्त महापुरुष को ही भगवान के दर्शन प्राप्य हैं ।

भगवान के दर्शन कोई ऐसी वैसी चीज़ नहीं है कि एक बार हुई या बार बार होती रहेगी । 
फिर माया से आबद्ध होंगे फिर दर्शन होंगे , फिर माया जाएगी , फिर माया आएगी फिर जाएगी । 

न न वह तो एक बार भगवान का आना हुआ कि माया वहाँ टिक तक नहीं सकती । 
तीन तत्व हैं । 
ब्रह्म जीव माया । 
चित्त शक्ति , तटस्था शक्ति और माया शक्ति । 
तटस्था शक्ति यही चित्त शक्ति और माया शक्ति के बीच में है ।

भगवान और माया यह दो विपरीत शक्तियाँ हैं । 

भगवान की ही शक्ति है माया । 

लेकिन भगवान प्रकाश के समान हैं और माया अंधकार के । 
यह अंधकार प्रकाश का ही अंश है । 
अगर प्रकाश न हो तो अंधकार का कोई अस्तित्व ही न हों । 

तो जैसे ही दर्शन होगा त्वरित रूप से माया चली जायेगी । 

वह भगवदप्राप्त महापुरुष बन जायेगा । 

ऐसा नहीं है कि जब तक लोहा पारस के संसर्ग में है तभी तक वह सोना बना रहेगा । 
पारस ने अपना काम कर दिया है ,अब चाहे पारस को लोहे के सम्पर्क से हटा दो तब भी वह सोना बना रहेगा । 

दूध से मक्खन बन चुका है ,अब वह दुबारा दूध नहीं बन सकता । 

इसलिए दर्शन होने के पश्चात माया निवृत्ति हो गयी , अनंतानंत जन्मों के पाप और पुण्य दोनों भस्म हो गए , वह भगवदप्राप्त महापुरुष बन गया , वह बुद्ध बन गया , वह महावीर बन गया अब दुबारा वह अबुद्ध नहीं बन सकता या वह दुबारा महाकायर नहीं बन सकता । 

और वह जीव इसलिए गर्भ में लटका है क्योंकि उसके अनंत जन्मों के पाप और पुण्य है जो उसे बन्धन में डाले हुए है और जिसको भोगवाने के लिए भगवान ने उसे गर्भ में हाथ पैर बाँधकर उल्टा लटका रखा है , गंदे बदबूदार पानी में जहाँ अगल बगल उसके मल और मूत्र की थैली है । 
वह एक ही अवस्था में लटका रखा है उसे हिलने डुलने या हाथ पैर इधर उधर फैलाने की भी आज्ञा नहीं है , ऐसा मायिक जीव जिसकी इन्द्रियाँ मन बुद्धि सब मायिक हैं ,उसे भगवान का दर्शन हो जाएगा ????₹? 

अरे बड़े बड़े ब्रहर्षि महर्षि साधना कर कर के हार जाते हैं उनको दर्शन नहीं होते और इस मल मूत्र भरे मांस के पिंड को वह परम दिव्य चिन्मय तत्व का दर्शन हो जाएगा गर्भ में !!! 

फिर तो साधन वादन करने की आवश्यकता नहीं है , जब भी दर्शन करने हों तो भगवान से बोल दो कि हमें गर्भ में उल्टा लटका दो मल मूत्र की थैलियों के पास और उस बदबूदार पानी की थैली में ताकि आपके दर्शन हो जाएं ।

तो ??? 
तो क्या ?? 

तो फिर इतने बड़े बड़े महापुरुषों और सन्तों ने ऐसा क्यों कहा ??? 

क्यों कहा ?? 

हाँ वह महापुरुष हैं । भगवद स्वरूप हैं । उनकी वाणी स्वयं भगवान की वाणी है , उनकी वाणी स्वयं शास्त्र है , तो वह गलत तो बोल नहीं सकते , फिर ऐसा क्यों ?? 

हाँ तो इसका रहस्य सुनिए ........
वह क्या है , वह फिर बतायेंगे ...

बोलिये लाडली लाल की जय।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी


प्रश्न: भैया जी ये पिछले जन्म भूलने वाला सीन क्यों बनाया गया है?
इसी चक्कर में पिछली तकलीफ, दुख, सब भूल जाते हैं और नए तरह से गड़बड़ करने लगते हैं, अगर सब याद रहता तो कितना अच्छा होता न।

उत्तर-- आदरणीय श्वेताभ पाठक भैया जी --

याद रहता है लेकिन तब तक जब तक हम मुखर नहीं हुए होते ।
2 से 3 वर्ष तक बहुत कुछ याद रहता है ।

लेकिन अधिकतर अथाह पीड़ा जो जन्म के समय होती हैब, उसके कारण सब विस्मृत हो जाता है ।

कभी नन्हें शिशु को सोते समय देखिएगा ।
कितने प्रकार के भाव आते हैं उसमें ।

कभी डर , कभी रोना , कभी हँसी सब यह सब पूर्वजन्म की स्मृति होती है ।

लेकिन ज्यों ज्यों समय बीतता जाएगा वह स्मृति पटल से नष्ट होता जाएगा ।

पंरन्तु एक बात बताऊँ तो यह विस्मृति होना , भूल जाना , भगवान की बहुत बड़ी कृपा और वरदान है यह ।

अगर यह भूलना न हो तो मनुष्य नहीं जी पायेगा और अवसाद होकर जीवन लीला समाप्त कर लेगा ।

मान लीजिए , कोई पूर्व जन्म में कुत्तों द्वारा जीवित नोंचा गया हो ।

अब अगर विस्मृति नहीं रही तो उसको वह पीड़ा नोचने की पीड़ा पल पल रुलायेगी और वह जिंदा नहीं रह पाएगा ।

याद करिये कि बहुत बुरी घटना जीवन में घटी हो तो लोग सोने की चेष्टा क्यों करते हैं ?? 

ताकि कुछ देर ही सही , वह सब विस्मृत हो जाये और हमें थोड़ी देर के लिये आनंद मिल जाये ।

शिखंडी को याद था अपना अपमान ।
वह आजीवन घुलता रहा याद कर कर के ।
उसका जीवन बस वही चिंतन करता रहा । 

तो विस्मृति भगवान का वरदान है ।

Sh Shwetabh Pathak Bhaiya Ji
श्री श्वेताभ पाठक भैया जी
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