वेदों के अनुसार पुत्र कितने प्रकार के होते हैं?...
वेदों के अनुसार पुत्र कितने प्रकार के होते हैं ।
हिन्दू परिवार में विवाहिता स्त्री से उत्पन्न नर सन्तान को पुत्र कहा जाता है। पुत्र को बेटा, लड़का, बालक आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता है।
पुत्र का प्रारम्भिक अर्थ लघु अथवा कनिष्ठ होता। 'पुत्रक' रूप का व्यवहार प्यार भरे सम्बोधन में अपने से छोटे लोगों के लिए होता था। आगे चलकर इस शब्द की धार्मिक व्युत्पत्ति की जाने लगी- "पुत=नरक से, त्र= बचाने वाला।"
पुत्रों द्वारा प्रदत्त पिण्ड और श्राद्ध से पिता तथा अन्य पितरों का उद्धार होता है, इसलिए वे पितरों को नरक से त्राण देने वाले माने जाते हैं। इसलिए नर सन्तान को पुत्र कहा जाता है।
धर्मशास्त्र में बारह प्रकार के पुत्रों का उल्लेख पाया जाता है। मनुस्मृति मनु ने बारह प्रकार के पुत्रों का वर्णन किया हैं। इनका क्रम इस प्रकार है:-
1. औरस पुत्र
2. क्षेत्रज पुत्र
3. दत्तक पुत्र
4. कृत्रिम पुत्र
5. गूढज पुत्र
6. अपविद्ध पुत्र
7. कानीन पुत्र
8. सहोढ़ पुत्र
9. क्रीतक पुत्र
10. पौनर्भव पुत्र
11. स्वयंदत्त पुत्र
12. शौद्र पुत्र
अन्य वेदों ने भी पुत्र को इन 12 श्रेणियों में रखा है इनमें से भी
1. औरस
2. क्षेत्रज
3. दत्त
4. कृत्रिम
5.गूढोत्पन्न और
6. अपविद्ध - ये छ : पुत्रों से ऋण , पिण्ड , धन की क्रिया , गोत्र साम्य कुल वृति और प्रतिष्ठा रहती है ।
इनके अतिरिक्त-
1. कानीन
2. सगोढ़
3. क्रीत
4. पौनर्भव
5. स्वयं दत्त और
6. पार्शव
इनके द्वारा ऋण एवं पिंड आदि का कार्य नहीं होता - ये केवल नामधारी होते हैं व गोत्र एवं कुल से सम्मत नहीं होते।
औरस –> अपने द्वारा उत्पन्न किया गया पुत्र। प्रकृत पुत्र को ही औरस पुत्र कहा जाता है। हिंदू धर्मानुसार अपने अंश से धर्मपत्नी के द्वारा उत्पन्न पुत्र को औरस पुत्र कहा जाता है।
क्षेत्रज पति के नपुंसक , पागल - उन्मत्त या व्यसनी होने पर उसकी आज्ञा से काम वासना रहित पत्नी द्वारा उत्पन्न पुत्र।
दत्तक –> गोद लिया हुआ , माता - पिता द्वारा दूसरे को दिया गया - इसके एवज में कोई धन - अनुग्रह - प्रत कार नहीं प्राप्त किया गया हो।
कृत्रिमः –> श्रेष्ठजन , मित्र के पुत्र और मित्र द्वारा दिए गया पुत्र।
गूढ –> वह पुत्र जिसके विषय में यह ज्ञान न हो कि वह गृह में किसके द्वारा लाया गया।
अपविद्ध –> बाहर से स्वयं लाया गया पुत्र।
कानीन –> कुँवारी कन्या से उत्पन्न पुत्र।
सगोढ़ –> गर्भिणी कन्या से विवाह के बाद उत्पन्न पुत्र।
क्रीत –> मूल्य देकर ख़रीदा गया पुत्र।
पुनर्भव –> यह दो प्रकार का होता है - एक कन्या को एक पति के हाथ में देकर , पुन : उससे छीन कर दूसरे के हाथ में देने से जो पुत्र उत्पन्न होता है।
स्वयंदत्त –> दुर्भिक्ष - व्यसन या किसी अन्य कारण से जो स्वयं को किसी अन्य के हाथ में सोंप दे।
पार्शव –> व्याही गई या क्वाँरी अविवाहिता शूद्रा के गर्भ से ब्राह्मण का पुत्र।
इसके अलावा भी शास्त्रों में 4 तरह के पुत्र बताए गए हैं- ऋणानुबंध पुत्र, शत्रु पुत्र, उदासीन पुत्र और सेवक पुत्र।
ऋणानुबंध –> जिस भी व्यक्ति से आपने पूर्व जन्म में कोई ऋण लिया हैं, और चुकाया नहीं हैं। वो इस जन्म में आपका पुत्र बनकर आएगा, और तब तक आपका धन बर्बाद करेगा,जब तक कि उसका ऋण चुकता नहीं हो जाता।
शत्रु पुत्र –> पिछले जन्म में अगर किसी को दुखी किया हैं या किसी का बुरा किया हैं तो इस जन्म में शत्रु पुत्र बनकर वो जन्म लेगा और बदला लेगा।
उदासीन पुत्र –> ऐसा पुत्र अपने माता पिता से लगाव नहीं रखते। उनके दुख सुख से उन्हें कोई वास्ता नहीं होता। विवाह होते ही अपने माता पिता का त्याग कर देते हैं।
सेवक पुत्र –> यह पुत्र श्रेष्ठ होता हैं। पिछले जन्म में निःस्वार्थ भाव से किसी व्यक्ति या गौ सेवा करने पर , वह व्यक्ति इस जन्म में पुत्र रूप में जन्म लेकर आपकी भी सेवा करता हैं।
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