तीन शरीर सिद्धांत
शास्त्रों में जो तीन प्रकार के शरीर बताये हैं वे निम्न हैं
1 स्थूल शरीर :- यह शरीर पंच महाभूत तत्व (जल, अग्नि, पृथ्वी, आकाश तथा वायु ) से मिलकर बना है जो अन्न (भोजन) से पोषित है जिसे अन्नमय कोष भी कहते हैं । मृत्यु के पश्चात यह स्थूल शरीर यहीं पड़ा रह जाता है जिसका अंतिम संस्कार किया जाता है ।
2 सूक्ष्म शरीर :- 5 ज्ञानेन्द्रियां (नाक, आंख, कान, जिव्हा और त्वचा), 5 कर्मेन्द्रियां (हाथ , पैर , मुंह , जननांग और मलद्वार ) , 5 प्राण ( अपान , समान, प्राण , उदान और व्यान) , मन और बुद्धि, इन 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर तीन कोषों (प्राणमय कोष , मनोमय कोष और विज्ञानमय कोष) में रहता है ।
3 कारण शरीर :- अहं को लेकर मनुष्य को बुद्धि का ज्ञान तो होता है पर बुद्धि से आगे का ज्ञान नहीं होता है जिसे "अज्ञान" कहते हैं । यह अज्ञान संपूर्ण शरीरों का कारण होने से कारण शरीर (स्वभाव, आदत, प्रकृति) कहलाता है । इसमें बुद्धि अज्ञान में लीन हो जाती है इसलिए सुख दुख का अनुभव नहीं होता है । यही कारण है कि कारण शरीर को आनंदमय कोष कहते हैं ।
सूक्ष्म और कारण शरीर कर्म संस्कारों के साथ अगली योनि में जाते हैं ।
बहुत अच्छे प्रश्न किया आप ने। बहुत से लोगों न उत्तर दिया है । इसलिए संक्षेप में ही लिखेंगे।
1- सर्वप्रथम अस्थि रक्त मांस का स्थूल शरीर जो पांच महा भूतों से बना है । इसे इन्द्रियों का समुह भी कहा गया है।
इंद्रियां संयमित होती है और आत्मा के अनुरूप आचरण करती हैं तो व्यक्ती प्राणवान बनता और बड़े कार्य कर्ता हैं ।
2- ये चार महत्व पूर्ण सूक्ष्म शक्तियों का बना होता है । मन, बुद्धि चित्त और अहंकार। ये चारो जब विकृत होते हैं तो विनाश और समस्या यें संकट लाते हैं। ये शुद्ध पवित्र और अनुशासित हों तो मानव जीवन को धन्य बना देते है। इसे सूक्ष्मशरीर कहा गया है।
मन विचार एकत्रित और संग्रह कर्ता है । और बुद्धि के द्वारा अनुशंसा मिलने पर वह कार्य इन्द्रियों से करवा ता है । विचार ही किसी क्रिया को जन्म देते हैं । इसीलिए श्रेष्ठ विचारों का महत्व है।
शुद्ध की हुई बुद्धि निर्णय लेती की कौन सा कार्य कितना उचित है या अनुचित ।
चित्त में हमारे विचार और कर्म के संस्कार बीज संचित किए जाने हैं। जिनके आधार पर भविष्य में विचार उठते और तदनुरूप कर्म होते और परिणाम मिलते है । नए कर्मों के बीज भी चित्त में संचित होते रहते हैं । कर्म फल के लिए समस्त लेखा जोखा इसी चित्त में होता है।
अहंकार- यह अपने होने का भान कराता है । इसका समझ होना आवश्यक होता है । आत्महीनता हो तब भी सफलता नहिं मिलती और यह उन्मादी हो जाये तब तो विनाश ही लाता है । इसलिए मनुष्य को आत्मा में स्थित रहना चाहिए।
तीसरा शरीर भावनाओं द्वारा निर्मित होता है । जिसे "कारण शरीर" कहा जाता है। प्रेम जब अन्तःकरण द्वारा किया जाता है तो भक्ति बन जाता है ।
जबकि मन और इन्द्रियों से प्रेरित होकर कर्म करने वाले ईश्वर को नहिं पाते। वे पतित अथवा हीन आचरण में लिप्त होकर अपने जीवन को नष्ट करते रहते हैं।
वे अहंकार में जीते और कष्ट उठाते हुए संसार से विदा होते हैं।
स्थूल शरीर —यह ५ भौतिक तत्वों , पृथ्वी जल, अग्नि वायु और आकाश से बना होता है।जो वर्तमान में जीवित अवस्था में देख रहा है।
सूक्ष्म शरीर —मृत्यु के समय जब शरीर से आत्मा बाहर निकलती है तब निकलने के पहले आत्मा को एक सूक्ष्म शरीर मिलता है जो १८तत्वो से बना होता है।५कर्मेंद्रिंय, ५ ज्ञानेंद्रियां ,५ प्राण,मन, बुद्धि एवं अहंकार ये कुल १८ तत्व +आत्मा।
कारण शरीर — यह एक वासनात्मक शरीर होता है एवं प्रलयकाल मे आत्मा के साथ संबद्ध रहता है ।
जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति व तुरीय चार अवस्था होती हैं ।
स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर ओर प्रकाशमय शरीर।
जो शरीर पांच तत्व से बना है वह आपका स्थूल शरीर हैं ।
जो शरीर आपका तीन तत्व से बना है सूक्ष्म शरीर
जो शरीर केवल एक तत्व से बना है वो प्रकाशमय शरीर।
वेसे शरीर की तीन नही सात प्रकार होते है।
प्रश्न -
क्या सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर एक ही है, इन दोनों को हम आंखों से देख सकते है और इनका कार्य क्या है?
क्या सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर एक ही है?
नहीं, कारण शरीर और सूक्षम शरीर अलग -अलग हैं। हालाँकि ये दोनों हमारे स्थूल शरीर के बनने की प्रक्रिया का आधार हैं।
जैसे किसी चित्र को बनाने के क्रम में कागज़, पेंसिल उपयोग किया जाता है। फिर हल्के पेंसिल से कागज़ पर आकार दिया जाता है। इसके बाद कई रंगों को चित्र में भरने के बाद चित्र का स्वरूप प्रकट होता है।
उसी प्रकार हमारे शरीर (चित्र) को आकार प्राप्त करने के लिए जिम्मेदार “कारण शरीर” है। चित्र को आकार देने वाली रेखाएं “सूक्ष्म शरीर” है और उन रेखाओं से निर्मित आकार में अनेक रंग (ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ) भरने के बाद तैयार स्पष्ट दिखने वाला चित्र “स्थूल शरीर” है।
जिस प्रकार रेखाओं के माध्यम से तैयार आकार और स्पष्ट दिखने वाले चित्र में कोई अंतर नहीं होता। किन्तु आकार के लिए जिम्मेदार रेखाएं चित्र में रंग भरने के बाद चित्र के पर्तों में समायोजित हो जाती हैं। उसी प्रकार हमारे स्थूल शरीर के भीतरी पर्तों में कारण शरीर और सूक्षम शरीर समायोजित रहती हैं।
इसे योगियों द्वारा दिए गए उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है -
जिस प्रकार कपड़े को तैयार करने के क्रम में उपयोग की गयी कपास की रूई कच्चे माल के रूप में उपयोग की जाती है। फिर रुई से सूत तैयार किया जाता है, जो कि कपड़े का सूक्षम रूप है और सूत से कपड़े को आकार दिया जाता है, जो कि कपड़े का स्थूल रूप हैं।
उसी प्रकार शरीर की की तीन पर्तें हैं। पहला कारण शरीर, दूसरा सूक्षम शरीर और तीसरा स्थूल शरीर।
कारण शरीर और सूक्षम शरीर का कार्य क्या है?
कारण और सूक्ष्म शरीर जीव के साथ जन्म - जन्मांतर तक रहती हैं। केवल स्थूल शरीर ही कर्मों के हिसाब -किताब को बराबर करने के लिए कर्मानुसार शरीर धारण और त्याग करने का कार्य करती है। सूक्षम शरीर में स्थूल शरीर द्वारा किये गए सभी कर्मों का हिसाब - किताब का रिकॉर्ड सुरक्षित रहता है। किन्तु अभिव्यक्ति के लिए कर्मेन्द्रियों का अभाव होने के कारण इसे स्थूल शरीर की आवश्यकता होती है।
ये बिल्कुल फोटोग्राफी के माध्यम से चित्र तैयार करने जैसा है -
जिस प्रकार वस्तु से टकराकर लौटने वाली किरणे लेंस के जरिए कैमरे के अंदर नेगेटिव-फिल्म का निर्माण करती हैं और वस्तु की तस्वीर बनती है। फिर इस नेगेटिव फिल्म से चित्र रासायनिक प्रक्रिया द्वारा तैयार की जाती है।
यदि कैमरे द्वारा लिए गए चित्र का निगेटिव रूप आपके पास मुजूद हो, तो आप उसी चित्र के कई फोटोकॉपी तैयार करवा सकते हैं।
चित्र बनने का कारण यहाँ प्रकाश की किरणे हैं। निगेटिव प्रति चित्र का सूक्षम शरीर है, जिसके माधयम से चित्र के जितने चाहें प्रतियां (स्थूल शरीर) तैयार किया जा सकता है।
क्या कारण शरीर और सूक्षम शरीर को आँखों से देख सकते हैं ?
हाँ, कारण और सूक्षम शरीर को देखना संभव है। किन्तु इसे केवल यौगिक ध्यान की अवस्था में ही देखा जा सकता है। इसे दृष्टा ही देख सकता है। देखने के बाद आप किसी दूसरे के सामने इसका प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं।
स्त्रोत :
स्वानुभव पर आधारित
हिंदू धर्म में तीन शरीरों के सिद्धांत सरीरा त्रय के अनुसार, मनुष्य अविद्या, "अज्ञानता" या "अज्ञानता" द्वारा ब्राह्मण से निकलने वाले तीन शरीरों या "शरीरों" से बना है। उन्हें अक्सर पाँच कोशों (म्यान) के बराबर किया जाता है, जो आत्मा को ढकते हैं। तीन निकाय सिद्धांत भारतीय दर्शन और धर्म, विशेष रूप से योग, अद्वैत वेदांत, तंत्र और शैववाद में एक आवश्यक सिद्धांत है।
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कारण शरीर केवल कारण [1] या सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का बीज है। सूक्ष्म और स्थूल शरीर का बीज होने के अतिरिक्त इसका और कोई कार्य नहीं है। [2] यह निर्विकल्प रूपम है, "अविभाजित रूप"। [2] यह जीव की धारणा को जन्म देने के बजाय, आत्मा की वास्तविक पहचान के अविद्या, "अज्ञान" या "अज्ञानता" से उत्पन्न होता है।
स्वामी शिवानंद ने कारण शरीर को "प्रारंभिक अज्ञान जो अवर्णनीय है" के रूप में वर्णित किया है। [web 1] निसारगदत्त महाराज के गुरु सिद्धरामेश्वर महाराज भी कारण शरीर का वर्णन "शून्यता", "अज्ञान" और "अंधेरे" के रूप में करते हैं। [3] "मैं हूँ" की खोज में, यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ अब और कुछ भी पकड़ में नहीं आता है। [3] [4]
रामानुज का निष्कर्ष है कि यह इस स्तर पर है कि परमात्मन के साथ आत्मा की पूर्णता तक पहुँच जाता है और उच्चतम पुरुष, यानी ईश्वर की खोज समाप्त हो जाती है। [5]
अन्य दार्शनिक विद्यालयों के अनुसार, कारण शरीर आत्मा नहीं है, क्योंकि इसकी भी एक शुरुआत और एक अंत है और यह संशोधन के अधीन है। [web 2] शंकर, एक व्यक्तिगत भगवान की तलाश नहीं कर रहे हैं, पारलौकिक ब्रह्म की खोज में आनंदमय कोष से आगे निकल जाते हैं। [5]
भारतीय परंपरा इसे आनंदमय कोश, [web 1] और गहरी नींद की अवस्था से पहचानती है, जहां बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है और समय की सभी अवधारणाएं विफल हो जाती हैं, हालांकि इन तीन विवरणों के बीच अंतर हैं।
कारण शरीर को तीनों शरीरों में सबसे जटिल माना जाता है। इसमें अनुभव की छाप होती है, जो पिछले अनुभव से उत्पन्न होती है। [6]
सूक्ष्म शरीर
सूक्ष्म शरीर मन और महत्वपूर्ण ऊर्जा का शरीर है, जो भौतिक शरीर को जीवित रखता है। कारण शरीर के साथ यह देहांतरण करने वाली आत्मा या जीव है, जो मृत्यु पर स्थूल शरीर से अलग हो जाता है।
सूक्ष्म शरीर पाँच सूक्ष्म तत्वों से बना है, पंचीकरण से पहले के तत्व, [web 3] और इसमें शामिल हैं:
अन्य भारतीय परंपराएँ सूक्ष्म शरीर को आठवें-गुना समुच्चय के रूप में देखती हैं, जो मन-पहलुओं को एक साथ रखता है और अविद्या, काम और कर्म को जोड़ता है:
बुद्धिदिकतुस्तयम ( बुद्धि, मानस, चित्त, अहंकार ),
अविद्या ( अध्यास, अधिरोपण),
काम (इच्छा),
कर्म ( धर्म और अधर्म की प्रकृति की क्रिया)।
सांख्य में, जो एक कारण शरीर को स्वीकार नहीं करता है, उसे लिंग-सरीरा के रूप में भी जाना जाता है। [7] यह एक आत्मा के मन में डालता है, यह एक आत्मा, नियंत्रक की याद दिलाता है। यह आत्मा की अनादि सीमा है, इसका स्थूल शरीर की तरह कोई आरंभ नहीं है।
"स्वप्न अवस्था" सूक्ष्म शरीर की एक विशिष्ट अवस्था है, जहाँ जाग्रत अवस्था में किए गए कर्मों की स्मृति के कारण बुद्धि स्वयं चमकती है। यह व्यक्तिगत स्वयं की सभी गतिविधियों का अनिवार्य ऑपरेटिव कारण है।
स्थूल शरीर
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स्थूल शरीर स्भौतिक भौतिक नश्वर शरीर है जो खाता है, सांस लेता है और चलता है (कार्य करता है)। यह कई विविध घटकों से बना है, जो पिछले जीवन में किसी के कर्मों (क्रियाओं) से उत्पन्न होते हैं, जो उन तत्वों से उत्पन्न होते हैं, जो पंचीकरण से गुजरे हैं, अर्थात पाँच मूल सूक्ष्म तत्वों का संयोजन।
यह जीव के अनुभव का साधन है, जो शरीर से जुड़ा हुआ है और अहंकार से प्रभावित है, [8] शरीर के बाहरी और आंतरिक इंद्रियों और क्रिया का उपयोग करता है। जीव जाग्रत अवस्था में शरीर के साथ अपनी पहचान बनाकर स्थूल वस्तुओं का आनंद लेता है। इसके शरीर पर बाहरी दुनिया के साथ मनुष्य का संपर्क टिका हुआ है।
स्थुला सरीरा ' मुख्य विशेषताएं संभव (जन्म), जरा (वृद्धावस्था या बुढ़ापा) और मरणम (मृत्यु) और "जागृत अवस्था" हैं। स्थूल सरीरा अनात्मन है।
अन्य प्रतिरूपों के साथ संबंध
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तीन शरीर और पांच कोश
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मुख्य लेख: Kosha
तैत्तिरीय उपनिषद पांच कोशों का वर्णन करता है, जिन्हें अक्सर तीन शरीरों के साथ समान किया जाता है। तीन शरीरों को अक्सर पाँच कोशों (म्यान) के बराबर किया जाता है, जो आत्मान को ढकते हैं:
Sthūla śarīra, the Gross body, also called the Annamaya Kosha[9]
Sūkṣma śarīra, the Subtle body, composed of:
प्राणमय कोष (महत्वपूर्ण सांस या ऊर्जा ),
मनोमय कोश ( मन ),
विज्ञानमय कोश ( बुद्धि ) [9]
Karaṇa śarīra, the Causal body, the Anandamaya Kosha (Bliss)[9]
चेतना और तुरीय की चार अवस्थाएँ
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मांडूक्य उपनिषद में चेतना की चार अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, पहली को वैश्वानर (जागृत चेतना), दूसरी को तैजस (स्वप्न अवस्था), तीसरी को प्रज्ञा (गहरी नींद की अवस्था) और चौथी को तुरीय (अतिचेतन अवस्था) कहा जाता है। जाग्रत अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति अवस्था तीन शरीरों के समान हैं। जबकि तुरीय (परमचेतना अवस्था) एक चौथी अवस्था है, जो आत्मा और पुरुष के बराबर है।
तुरिया
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मुख्य लेख: Turiya
तुरिया, शुद्ध चेतना या अतिचेतनता, चौथी अवस्था है। यह वह पृष्ठभूमि है जो चेतना की तीन सामान्य अवस्थाओं का आधार और अतिक्रमण करती है। [10] [11] इस चेतना में निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों, सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म का अतिक्रमण किया जाता है। [12] यह अनंत ( अनंत ) और गैर-अलग ( अद्वैत/अभेद ) के अनुभव की सच्ची स्थिति है, जो द्वैतवादी अनुभव से मुक्त है, जो वास्तविकता को अवधारणा ( विपालका ) के प्रयासों से उत्पन्न होता है। [13] यह वह अवस्था है जिसमें अजातिवाद, गैर-उत्पत्ति, को पकड़ा जाता है। [13]
चार शरीर
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निसारगदत्त महाराज के गुरु सिद्धरामेश्वर महाराज, तुरिया या "महान-कारण शरीर" [14] को चौथे शरीर के रूप में शामिल करके चार शरीरों को पहचानते हैं। यहाँ "मैं हूँ" का ज्ञान है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है, [15] अज्ञान और ज्ञान से पहले की स्थिति, या तुरीय अवस्था [14]
इंटीग्रल थ्योरी
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तीन निकाय केन विल्बर के इंटीग्रल थ्योरी के एक महत्वपूर्ण घटक हैं।
कुंडलिनी योग के दस शरीर
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योगी भजन द्वारा सिखाया गया कुंडलिनी योग दस आध्यात्मिक शरीरों का वर्णन करता है: भौतिक शरीर, तीन मानसिक शरीर और छह ऊर्जा शरीर। समानांतर एकरूपता का 11वां अवतार है, जो दिव्य ध्वनि धारा का प्रतिनिधित्व करता है और अद्वैत चेतना की शुद्ध स्थिति की विशेषता है। [16]
पहला शरीर (सोल बॉडी) - कोर में अनंत की चिंगारी
दूसरा शरीर (नकारात्मक मन) - मन का सुरक्षात्मक और रक्षात्मक पहलू
तीसरा शरीर (सकारात्मक मन) - मन का ऊर्जावान और आशापूर्ण प्रक्षेपण
चौथा शरीर (तटस्थ दिमाग) - सहज ज्ञान युक्त, नकारात्मक और सकारात्मक दिमाग से जानकारी को एकीकृत करता है
पांचवां शरीर (भौतिक शरीर) - पृथ्वी पर मानव वाहन
सिक्स्थ बॉडी (आर्कलाइन) - कान से कान तक, बालों की रेखा और भौंह तक फैली हुई है। आमतौर पर हेलो के रूप में जाना जाता है। महिला की छाती पर दूसरी चाप रेखा होती है। आर्कलाइन में यादों की ऊर्जा छाप होती है।
सातवां शरीर (आभा) - शरीर के चारों ओर एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र; किसी व्यक्ति की जीवन शक्ति का कंटेनर।
आठवां शरीर (प्राणिक शरीर) - सांस से जुड़ा हुआ, जीवन शक्ति और ऊर्जा को आपके सिस्टम के अंदर और बाहर लाता है।
नौवां शरीर (सूक्ष्म शरीर) - भौतिक और भौतिक तल के भीतर अनंत को महसूस करने की सूक्ष्म अवधारणात्मक क्षमता देता है।
दसवां शरीर (दीप्तिमान शरीर) - आध्यात्मिक रॉयल्टी और चमक देता है।
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