अथ स्वरोदय ॥ महासिद्धसावरतंत्रः

अथ स्वरोदय ॥

दोहा

नमो नमो शुकदेवजी करें प्रणाम अनन्त । 
तुम प्रसाद स्वरभेद को चरणदास बरणन्त ॥ १ ॥ 
पुरुषोत्तम परमातमा पूरण विस्वा वीस । 
आदि पुरुष अविचल तुहीं तोहिं नवाऊं शीस ॥ २ ॥

कुण्डलिया

क्षर अक्षर सो कहन हैं अक्षर सोहं जान । 
निर अक्षर आशा रहित ताही को मन मान ॥ 
ताही को मन आन रात दिन सुररात लगावै । 
आपा आप बिचारि और नहिं शीश नवावै ॥ 
चरणदास मथि कहत हैं अगम निगम की सीख ।
यहीं बचन ब्रह्म ज्ञान को मानो बिस्वा बीस ॥ ३ ॥ 

ओं वं सों काया भई सोहं सोमन होय । 
निर अक्षर श्वासाभई चरणदास भल जोय ॥ 
चरणदास भल जोय खाँच मन अंतह राखै । 
क्षर अक्षर है स्वई भेद सो दुबिधा नाखे ॥ ४

दरशै एकहि एक भेष यह सबै तिहारो । 
डार पात फल फूल मूल सो सबै निहारो ॥५॥ 
त्रासासे सोई भयो सोहं सो कार । 
ऑकार से रस भयो साधो करो बिचार ।।
साधो करो विचार उलटि क्षर अपनै आवै।
घट घट ब्रह्मस्वरूप समिटि के तहाँ  समावे । 
चारि वेद को भेद यह अरु गीता को जीव ।। 
चरणदास लख आपको तो मैं तेरा पीव ॥५॥

दोहा 

सब योगन को योग है सब ज्ञानन को ज्ञान । 
सब सिद्धिन की सिद्धिहै तत्व सुरन को ध्यान ॥ ६ ॥

ब्रह्म ज्ञान को जाप है अजपा सोहं साध । 
परमहंस कोइ जानि है जाको मतो अगाध ॥ ७ ॥

भेद स्वरोदय सो लहै समझै श्वास उश्वास । 
भली बुरी तामें लखै भेद सुरन मन गांस ॥ ८ ॥

गुरु शुकदेव कृपा करी दियो स्वरोदय ज्ञान । 
जबते यह जानी परी लाभ होय के हान ॥ ९॥

इड़ा पिंगला सुपमना नाड़ी तीन विचार ।
दहिने बायें सुख चलै लखै धारणा धार ॥ १० ॥

इड़ा सुबाँयें अंग है पिंगल दहिने होय । 
सुषमन इनके बीच है जबचालें स्वरदोय ॥ ११ ॥

जब चाले स्वर पिंगला ता महँ सूरज वास ।
इड़ा सुबाँये अंग है चन्द्र करत परकास ॥ १२ ॥

उदय अस्त तिनको लखै निरगम सुर गम विद्ध । 
अरु पावै तत्ववार को जब वह होवे सिद्ध ॥ १३ ॥ 

शुकदेवकही चरण दाससों थिश्चर स्वर पहिचान ।
थिर कारजको चन्द्रमा चर कारज को भान ॥ १४ ॥

कृष्णपक्ष जवहीं लगै जाहि मिलत है भान ।
शुक्लपक्षहै चन्द्रको यह निश्चय करिजान ॥ १५ ॥ 
मंगल अरु इतवार दिन और शनीचर लीन ।

शुभ कारज को मिलत हैं सूरजके दिनतीन।। १६ ।। 
सोमबार अरु शुक्र पुनि बुद्ध बृहस्पति देख ।

चन्द्रयोग में सुफल है चरणदास सुबिशेख ॥ १७ ॥ 

तिथि अरु बार विचार करि दहिनों बायों अंग । 
चरणदास सुर जो भिलै शुभकारज परसंग ॥ १८ ॥

कृष्णपक्ष के आदिमें तीन तिथिन लगभान । 
फिरचंदा फिरभान है यहि क्रम गर्दै सुजान ॥ ९९॥

शुक्लपश्च के आदि में तीन तिथिन लौं चन्द । 
फिरसूरज फिरचन्द है फिर सूरज फिर चन्द ॥ २० ॥

सूरज की तिथि में चलै जो सूरज परकास । 
सुखदेही को करत है लाभा लाभ हुलास ॥ २१ ॥

शुक्लपक्ष चन्दा चले परिवालेय निहार । 
फल अनन्द मंगल करे देही को सुखमार ।। २२ ।।

शुक्ल पक्ष तिथि में चुलै जो पुरमाको भान । 
होय क्लेशपीड़ा कछ के दुख के कछु हान ।। २३ ।।

सूरज की तिथि में चले जोपरमाको चन्द । 
कलह करै पीड़ा करे हानि ताप दुखदन्द ॥ २४ ॥

ऊपर वायें साम्हने स्वर बांयें के संग । 
जो पूछेशशि योग में तौ नीको परसंग ।। २५ ॥

नीचे पीछे दाहिने स्वर सूरज को राज । 
जो पूँछे कोउ आय कै तो समझो समकाज ॥ २६ ॥

दहिने स्वर जब चलत है पूँछें बायें अंग । 
शुक्लपक्ष नहिं वार है तौ निष्फल परसंग ॥ २७ ॥

जो पूँछे कोउ आय कर बैठि दाहिनी ओर । 
चन्द्र चलै सूरज नहीं नहिं कारज विधि कोर ॥ २८ ॥

जो सूरज में स्वर चलै कहै दाहिने आय । 
लगन वार अरु तिथिमिलै कहु कारज है नाय ॥ २९ 
जो चन्दा मे स्वर चलै बायें पूछे काज । 
तिथि अरु अक्षर चार मिति शुभ कारज को साज ॥३०॥
सात पांच नौ तीनि गुनि पन्द्रह अरु पच्चीस । 
काज बचन अक्षर गुनै भान योग को ईश ॥ ३१ ॥ 
चार आठ द्वादश गिनै चौदह सारह मीत। 
चन्द्र योग में संग है चरण दास रण जीत ॥ ३९॥

तुला मकर औ कर्क अज चारों चरती राश । 
सूरज को चारो मिलत चर कारज परकाश ॥ ३३ ॥

मीन मिथुन कन्या कही और चौथि धन मीत । 
दुस्स्वभावको सुपमना मुरलीसुत रण जात ॥३४॥

वृश्चिक घट बृष सिंह पुनि बायें स्वर के अग । 
चन्द्र योग को मिलत है थिर कारज परसंग ॥ ३५ ॥

चित अपनो स्थिर करै नाशा आगे नैन। 
श्वासा देखे द्रष्टि सों जब पावै स्वर बैन ॥ ३६ ॥ 
पांच घड़ी पांचौ चलत अपनी अपनी बार । 
पांच तत्त्व चालै मिलै स्वर चिच लेहु निहारि ॥३७৷৷

धरती अरु आकाश है और तीसरो पौन । 
पानी पावक पांच यों करत श्वास में गौन ॥ ३८॥

धरती तो सोहीं चलै यों पीरो रंग देख । 
बारह अंगुल श्वास में सुरत निरत कर पेख ॥ ३९॥

ऊपर को पावक चलै लाल रंग है भेख । 
चार सुअंगुल श्वास में चरण दास अव रेख ॥ ४० ॥

नीचे को पानी चलै श्वेत रंग है तासु । 
सोलह अंगुल श्वाश में चरण दास कहभासु ॥ ४१॥

हरो रंग है वायु को तिरछी चालै सोय । 
आउहि अंगुल श्वास में रण जीत मीत कह जोय ॥४२॥

स्वर दोनों पूरण चलें बाहर नहिं परकास । 
श्याम रंग है तासु को सोई त्तत्त्वत्र अकाश ॥ ४३ ॥ 
जल पृथ्वी के योग में जो कोइ पूछे बात ।
शशि घर में जो स्वर चलै कड्डु कारज है जात ॥ ५४ ॥ 
पावक और आकश पुनि बायु कभी जो होय । 
जो कोइ पूलै आय कर शुभ कारज नहिं होय ॥४५ ॥ 
जल पृथ्वी थिर काज को चर कारज को नाहिं । 
अग्नि बायु चर काज को दाहिने स्वर के माहिं ॥३६॥

रोगी को पूछे कोई बैठि दाहिनी ओर । 
धरती बायें स्वर चलै मेरै नहीं बिधि कोर ॥ ४७ ॥ 
रोगी को परसंग जो बांये पूलै आन । 
चन्द बन्द सूरज चलै जीवै नहिं यह जान ॥ ४८ ॥

वहते स्वर सो आयकर शून्य ओर है जाय । 
जो पूँछे परसंग वह रोगी नहिं ठहराय ॥ ४९ ॥ 
शून्य ओर सों आय कर पूँछे बहती श्वास । 
यह निश्चय कर जानिये रोगी को नहिं नास ॥ ५० ॥ 
शून्य ओर सो आयकै पूँछे बहती इती श्वास । 
जैते कारज जगत के सुफल होयँ सब आस ५१ ॥ 
बहते स्वर सों आय कर जा पूछ शुन ओर । 
जेते कारज जगत के उलट होय विधि कोर ५२ ॥ 
के बायें के दाहिने पूँछे पूरण होय । 
पूँछे पूरण ओरही कारज पूरण सोय ५३ ॥ 
बरप एक को फल कहत तामति मानै सोय ।
काल समय सोई लखै बुरो भलो जग होय ५४ ॥ 

चौपाई ॥

संक्राइत पुनि मेख बिचारौ । तादिन लगै सुबरी निहारौ ।। 
तबहीं स्वर में करो बिचार। चलै कौन सो तत्व निहार ५५ ।। 
जो वायें स्वर पृथित्री होय । नीको तत्व कहावे सोय ।। 
देय बृद्धि अरु समय बतावै । परजा सुखी मेघ बरषावे ।। ५६ ।। 
चारो बहुत देरको उपजै। नरदेही को अन बहु निरनै ॥
सलिल चलै बायें स्वर माहीं । धरती फूल मेघ चरवाहीं ॥५७॥ 
आनन्द मंगल से जगः रहे। आप तत्त्व चन्दा में वहै ॥ 
जल पृथ्धी दोनों शुभ भाई। चरण दास शुकदेव बताई ॥५८॥ 
तीन तत्त्व को यहै विचार। स्वर में जाको भेद निहार ॥ 
लगै मेख संक्राइत जवहीं। लागत घरी विचारे तनह।। ५३॥ अग्नि तत्त्व स्वर में जब चालै। रोग दोप में परजा हालै ॥ 
काल परे जल थोरो बरसै । देश भंग जो पावक दरसै ।।६०।। 
बायें तत्त्व चलै स्वर संगा। जग भपमान होय कछु दंगा ।। अर्धकाल थोरो सो बरसै । बायु तत्त्व जो स्वरमें दरपे ।॥ ६१।। 
तत्त्व अकास चलें स्वर दोई। मेह न बरसे अन्न न होई ॥ 
काल परे तिन उपजै नाहीं । तत्त्व अकास होय स्वर माहीं॥ ६२॥

दो चैत महीना मध्ध में जवहीं परमा होय । 
शुक्ल पक्ष तादिन लगै प्रात श्वास लख जोय ॥६३॥ 
भोरहिं परमा को लखै पृथिवी होय सुथान ।
होय समय परजा सुखी राजा सुखी निदान ॥६४॥

नीर चलै जो चन्द्र में यहि समये की जीत । 
घन बरसै परजा सुखी संबत नीको मीत ॥ ६५ ॥

पृथिवी पानी सम बहै जो चन्दा अस्थान ।
दहिने स्वर में जो चलै समय सुमध्यम जान ॥६६।॥ 
भोरहिं जो सुखमन चलै राज होय उतपान ।
देखन वारो बिनशि है और काल परजात ॥ ६७ ॥

राजहोय उतपात पुनि परै काल विश्वास ।
मेह नहीं परजा दुखी होय तत्त्वत्र आकास ।। ६८ ।।

दहिने स्वर पावक चलै परै काल जत्र जान ।
रोग होय परजा दुखी घंटे राज को मान ॥ ६१ ॥ 
होय क्लेश भय देश में विग्रह फैलै अत्ति । 
परै काल परजा दुखी चलै बायु को तत्त्व ॥ ७० ॥
संक्राइत अरु चैत्र को दीनो भेद बताय । 
जगत काज अब कहत हैं। चन्दा स्वर को न्याय ॥ ७९ ॥ 
चौपाई ॥

व्याह दान तीरथ जो करै। बस्तर भूषण घर पग धेरै ॥ 
बायें स्वर में ये सत्र कीजै। पोथी पुस्तक जोलिखिली जै ७२ योगाभ्यास सुकीजै जीत । औषधि बारी कीजै प्रीत ॥ 
दीक्षा मंत्र अरु बोवै नाज । चन्द्र योग थिर बडै रोज ॥७३॥ 
चन्द्र योग में ये थिर जानो । थिर कारज सबही पहिंचानो ॥ 
करे हवेली छप्पर छावै । बाग बगीचा गुफा बनावै ७४ 
हाकिम जाय कोट में बारे । चन्द्र योग आसन पग धारै ।। चरणदास शुकदेव बतायो । चन्द्र योगथिर का जकहायो ७५ 

दोहा 
बायें स्वर के काज ये सो मैं दिये बताय ।
दहिने स्वर के कहत हैं। ज्ञान स्वरोदय गाय ॥ ७६ ॥

चौपाई ॥

जो खांड़ो कर लीनो चाहै। जापर बैरी ऊपर बाहे ॥ 
युद्ध बाद रण जीतै कोई। दहिने स्वर में चालै सोई ॥ 
भोजन करे करै अस्नान । मैथुन कर्म सुभाय प्रधान ॥ 
बही लिखे कीजै व्योहार । गज घोड़ा वाहन हथियार ।। 
बिद्या पर्दै यही जो साथै। मंत्र सिद्धि अरु ध्यान अराधै ॥ 
वैरी भवन गवन जो कीजै । अरु काहू को ऋण जो दीजै ।। 
ऋण काहू से जो तुम मांगौ । विष अरु भूत उतारन लागौ ।। चरणदास शुकदेव बिचारी। ये शुभ कर्म भानुकी नारी ८०।।

दोहा 
चर कारज को भानु है थिर कारज को चन्द ।
सुपमन चलत न चालिये तहां होय कछु दन्द ॥ ८१ ॥ 
गावँ परगने खेत पुनि ईधर ऊधर मीत । 
सुषमन चलत न चालिये बरजत हैं रण जीत ॥ ८२ ॥

क्षण बायें क्षण दाहिने सोई सुषमन जात । 
ढील लगै कै ना मिले के कारज की हानि ।। ८३ ॥ 
होय क्लेश पीड़ा कछ कोऊ कहूँ को जाय । 
सुषमन चलत न चालिये दीन्हों ताहि बताय ।। ८४ ॥

योग करौ सुषमन चलत कै आतम को ध्यान । 
और काज कोऊ करै तोक्छु आवै हानि ॥ ८५ ॥ 
पूरुव उत्तर मति चलौ बायें स्वर परकाश । 
हानि होय बहुरै नहीं आवन की नहिं आश ॥ ८६ ॥

दहिने चलत न चालिये दक्षिण पश्चिम जान । 
जोरजाय बहुरै नहीं तहां होय कछु हानि ॥ ८७ ॥

दाहिने स्वर में जाइये पूरुत्र उत्तर राज । 
सुख सम्पति आनंद करै सभी होय् सुखसाज ॥८८॥

बायें स्वरमें जाइये दक्षिण पश्चिम देश । 
सुख सम्पति आनंद करे जोरजाय परदेश ॥८६॥ 
दहिने सेती आय कर बायें पूँछे कोय । 
जो बायें स्वर बंद है सुफल काज नहिं होय ॥१०॥

बायें सेती आय कर दहिने पूँछे धाय । 
जो दहिनो स्वर बंद है कारज अफल बताय ॥६१॥

जब स्वर भीतर को चलै कारज पूँछे कोय । 
पैज बांधि तासों कहै मनशा पूरण होय ॥ १२ ॥

जब स्वर बाहर को चलै तब कोइ पूँछे तोहिं । 
वासों ऐसो भाषिये नहिं कारज सिधि कोहि ।। १३

बायें करवट सोइये जल बायें स्वर पीव । 
दहिने स्वर भोजन करै तौ सुख पावै जीव ॥ ९४॥

बायें स्वर भोजन करै दहिने पीवै नीर । 
दश दिन भूलो यों करै आवै रोग शरीर ।। ९५ ॥ 
दहिने स्वर झाड़े फिरै बायें लघुशंकाइ ।
यही युक्ति सों साधिये दीन्हों भेद बताइ ९६।। 
चन्द चलावे दिवस को रात चलावैसूर । 
नित साधन ऐसे करै होय उमिरि भरपूर ॥ ९७ ॥

पांच घरी बायों चलै स्वई दांहिनो होय । 
दशश्वासा सुषमन चले नहीं विचारे सोय ॥ ९८॥

आठ पहर दहिनो चलै बदलै नहीं जु पौन । 
तीन बरस कायारहै जीव करे फिर गौन ॥९९ ॥ 
सोरह पहर चलै जबै श्वासा पिंगल माहिं ।
युगुल वरप काया रहे अधिकी रहनो नाहिं ॥ १००॥

तीन रात अरु तीन दिन चलै दाहिनी श्वास । 
संवत भर काया रहे पाछे होय विनास ॥ १ ॥ 
सोरह दिन निशि दिन चलै श्वास भानु की ओर ।
अवधि जान इकमास की जीव जाय तन छोर ॥ २॥ 
नैना भृकुटी सप्त श्रवण पांच तरीका जान । 
तीन नाक जिआय के कालभेद पहिंचान ॥ ३ ॥

एकमास जो रौन दिन भानु दाहिने हाय । 
चरणदास यों कइत है नर जीवै दिन दोय ।।

भेद गुरू सों पाइये गुरु बिन लहै न ज्ञान ।। 
चरणदास यों कहत है गुरु पर वारोंप्रान ॥ ५ ।।

नारी जो सुपमन चलै पांच घरी ठहराय । 
पांच घरी सुपमन चलै तबहीं नर मर जाय ।। 
नहीं चन्द नहिं सूर है नहीं सुपमना बाल ।
मुख सेती श्वासा चलै घरी चारि में काल ।।

चारि दिना कै आठ दिन बारह दिन के बीस । 
ऐसे जो चन्दा चलै आयु जान बड़ ईस ।। 
तीन रात अरु तीन दिन चलै तत्व आकास । 
एक. बरष काया रहै फेर काल विश्वास ।।
दिन को तौ चन्दा चलै चलै रात को सूर । 
यह निश्चय कर जानिये प्राण गमनहै दूर १० ॥ 
रात चलै स्वर चन्द में दिनमें सूरज बाल । 
एक महीना जो चलै छठे महीना काल ।। 
जत्र साधू ऐसे लखै छठे महीना काल । 
आगेही साधनकरे बैठि गुफा तत्काल ।। 
ऊपरं खैचि अपान को प्रान अपान मिलाय । 
उत्तम करै समाधि को ताको काल नखाय ।। 
पवन पियै ज्वाला पचै नाभि तरे करि राह । 
मेरु दण्ड को तोरि कै खसै अमर पुरजाह ।। 
जहाँ कालपहुंचे नहीं यम की होय न त्रास । 
नभ मंदिरको आयकै करे उनमुनीबास ।। १५॥ 
जहाँ काल नहिं ज्वाल है छुटै सकल संताप । 
होय उनमुनी लीन मन बिसरे आपा आप ॥ 
तीनों बंद लगायकै पाँचश्वास को साध । 
सुषमन मारग द्वैचले देखे खेल अगाध ॥ 
शक्तिजाय शिवको मिलै जहाँ होयमन लीन । 
महा खेचरी यों लगे जानै जान प्रबीन ॥ 
आसन पद्म लगाय के मूलबंध को बाँधि । 
मेरुदंड सुधो करै सुरति गगन को साधि ॥ 
चन्द्र सूर्ज दोउसमकरै ठोड़ीहिये लगाय । 
षटचक्कर कोबेधिकै शून्य शिखर कोजाय २०॥ 
इड़ा पिंगला साधकर सुषमनहीं कर बास । 
ब्रह्मज्योति झिलमिल तहाँ पूजै मन बिश्वास ।। 
जिनसाधन आगेकरो तिनसों सबकछु होय । 
जबचाहें जबहीं तभी काल बचावै सोय ॥ 
मरण अवस्था योगकर बैठिरहै मनजीत ।
काल बचावै साधुवह अन्त समय रणजीत ।। 
सदा आपमें लीन रहि करिकै योगाभ्यास । 
आवत देखै कालजब नभमंदिर करवास ॥ 
शून्य सनै साधन करै राखै प्राण चढ़ाय । 
पूरोयोगी जानिये ताको काल. न खाय २५।। 
पहिले साधन नहिंकियो नभमंडल कोजान । 
आवत देखे देखे कालजब कहाकरै अज्ञान ॥ 
योगध्यान कीन्हों नहीं ज्वान अवस्था मीत । 
आवत देखै कालको कहासकै रणजीत ॥ 
काल जीतिहरि सों मिलै शून्य महल अस्थान । 
आगेजिन साधन करो तरुण अवस्था जान २८ 
काल अवधि बीतै तवहिं समैत्रीति जबजाय ।
योगी प्राण उतारिये लेयसमाधि जगाय ॥ 
काल जीति जगमें रहै मृत्यु न व्यापै ताहि । दशौद्वार को फोरिकै जबचाहै तबजाहि ३० ।। सूरज मण्डल भेदिकै योगी त्यागै प्रान । सायुज मुक्ती सो लहै पावै पद निर्वान ।। कृष्णपक्ष के मध्यही दक्षिण होय जु भान । योगी प्राण न छाँड़द्दी राज होय फिरिआन ॥ राजपाय हरिभक्ति कर पूरबली पहिचान । योगयुक्ति पावै बहुरि दुसरे मुक्ति निदान ।। उतरायण मूरज लखै शुक्लपक्ष के माहिं । योगीकाया छाँड़िये यामें संशय नाहिं ॥ मुक्तिहोय बहुरै नहीं जीवखोज मिटिजाय । बुन्दसमुद्रहि मिलिगई नाहं द्वितीय उद्दराय ३५।। दछिणायन जो होय रवि रहेमास पटजान । फिर उतरायण आयकर रहे मासषट मान ॥

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