देह/शरीर
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आधुनिक विज्ञान अन्धे जैसा है। उसके नेत्र उसी विषय के अनुसंधान में लगे हैं जिस विषय को ऋषियों ने शास्त्रों में पहले ही लिख दिया है।
विज्ञान की समझ में ठीक ठीक आ जाए तो वह मान लेता है। और ठीक समझ में न आए तो उस विषय को अंधविश्वास कह देता है।
विज्ञान की आज की समझ और खोज कल होने वाली खोज से यदि उल्लंघित हो जाए तो वह सुधार कर लेता है। अपनी भाषा में इसे वह नई थ्योरी कहकर प्रचारित करता है।
धन्य हैं वे ऋषि जो स्पष्ट लिख गये और उनकी थ्योरी आज भी अकाट्य है। वे ऋषि कहकर फिरने वालों में नहीं थे।
आज हम देह/शरीर पर बात करेंगे-
यद्यपि विज्ञान कहता है कि शरीर माता पिता से ही पैदा होता है।
लेकिन शास्त्र कहते हैं कि
पृथ्वी पर स्थूल देह दो प्रकार की होती है । एक माता पिता से उत्पन्न और दूसरी जलीय सृष्टि।
जैसे बारिश में अनेक कीड़े पृथ्वी में ही जल के संयोग से पैदा हो जाते हैं और गर्म ऋतु आने पर वे सभी सबीज नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार उपर से पुष्ट दिखने वाले फल के अंदर भी कीड़े पैदा हो जाते हैं। बड़ पीपल गूलर के फल में उडने वाले कीड़े पैदा हो जाते हैं। हमारे शरीर में भी जूंए पैदा हो जाती हैं। यह जलीय सृष्टि है इसे अयोनिज कहा गया है अर्थात जो माता पिता से पैदा नहीं होती है -
न्यायमते पृथिव्या देहं योनिजम् अयोनिजञ्च ।
योनिजं जरायुजमण्डजञ्च ।
अयोनिजं स्वेदजोद्भिदादिकम् ।
शास्त्र इससे भी आगे नरक में मिलने वाले शरीरों को भी अयोनिज कहता है। यह स्थूल शरीर छोड़कर जब हम यमराज की नगरी की ओर जाते हैं तो जीवात्मा को अयोनिज शरीर मिलता है जो किए गए कर्म का फल भोगने के काम आता है।
नारकिणां शरीरमप्ययोनिजम् ।
वरुण लोक में निवास करने वालों का भी जलीय शरीर होता है --
जलीयं देहमयोनिजं वरुणलोके प्रसिद्धम् ।
सूर्य लोक में निवास करने वालों का अग्निमय शरीर होता है -
तैजसं देहमयोनिजं सूर्य्यलोके प्रसिद्धम् ।
वायु में निवास करने वाले भूत पिशाच का वायवीय शरीर होता है। वे वायु के परमाणुओं को घनीभूत करके विविध स्वरूपों में दिखाई दे सकते हैं --
वायोर्देहमयोनिजं तदेव पिशाचादीनाम् ।
इति सिद्धान्तमुक्तावली ॥ * ॥
यमराज से सावित्री ने यही पूछा था कि जब स्थूल शरीर जल जाता है तो भोग कौन भोगेगा?
अथ नरकभोगदेहविवरणम् । तत्र यमं प्रति सावित्रीप्रश्नः । “स्वदेहे भस्मसाद्भूते यान्ति लोकान्तरं नराः । केन देहेन वा भोगं भुञ्जते च शुभाशुभम् ॥ सुचिरं क्लेशभोगेन कथं देहो विनश्यति । देहो वा किंविधो ब्रह्मन् ! तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥”
यमराज ने उत्तर दिया है कि अंगुष्ठ प्रमाण का जो जीव यमदूतों द्वारा निकाला जाता है उसे भोग भोगने के लिए सूक्ष्म अयोनिज शरीर दिया जाता है, वह नष्ट नहीं होता है लेकिन उसे यातना देने पर पीड़ा बहुत होती है ---
यमस्योत्तरम् । “शृणु देहविवरणं कथयामि यथागमम् । पृथिवी वायुराकाशस्तेजस्तोयमिति स्फुटम् ॥ देहिनां देहबीजञ्च स्रष्टुः सृष्टिविधौ परम् । पृथिव्यादिपञ्चभूतैर्यो देहो निर्म्मितो भवेत् ॥ स कृत्रिमो नश्वरश्च भस्मसाच्च भवेदिह ॥ वृद्धाङ्गुष्ठप्रमाणञ्च यो जीवपुरुषः कृतः । बिभर्त्ति सूक्ष्मदेहन्तं तद्रूपं भोगहेतवे ॥ स देहो न भवेद्भस्म ज्वलदग्नौ यमालये । जले न नष्ठो देही वा प्रहारे सुचिरे कृते ॥ न शस्त्रे च न चास्त्रे च न तीक्ष्णकण्टके तथा । तप्तद्रवे तप्तलौहे तप्तपाषाण एव च ॥ प्रतप्तप्रतिमाश्लेषेऽप्यत्यूर्द्ध्वपतनेऽपि च । न च दग्धो न भग्नश्च भुङ्क्त सन्तापमेव च ॥ कथितं देहवृत्तान्तकारणञ्च यथागमम् ॥”
इति ब्रह्मवैवर्त्तपुराणम् ॥
ईश्वर का देह सभी चराचर जगत में व्याप्त है,जो इसे पहचान पाते हैं वे किसी भी जीव और प्रकृति के प्रति अपराध नहीं करके प्रेम ही करते हैं। उन्हें सबके अंदर मैं ही दिखता हूं। ऐसे ज्ञानी को मैं सायुज्य मुक्ति देता हूं --
ईश्वरदेहस्य प्रमाणं यथा - “यन्मे गुह्यतमं देहं सर्व्वगं तत्त्वदर्शिनः । प्रविष्टा मम सायुज्यं लभन्ते योगिनोऽव्ययम् ॥” इति कूर्म्मपुराणम् ॥
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