पितृ_श्राद्ध

।।#पितृ_श्राद्ध ।।
                       ।।१।।

पितृ का अर्थ है अपनी जड़ें, जहां से हम आगे बढ़े हैं।

कुछ कहते हैं हमारे कोई पितृदेव नहीं हैं या हम नहीं मानते???

अरे!! कैसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हो???
जड़ें सबकी होती हैं।
श्रीकृष्ण ने कहा है कि इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ें ऊपर स्वर्गादि लोकों में हैं तथा शाखाएं नीचे पृथ्वि आदि लोकों तक फैली हुई हैं।

आपकी जड़ें आपके पिता,दादा/नाना, परदादा/परनाना आदि हैं। यह परम्परा और पीछे जाकर गौत्र प्रवर्तक ऋषि तक पहुंच जाती है। तदोपरांत ब्रह्मा विष्णु शिवादि भी हमारे पूर्वज कहे जाते हैं।

 
तो यह कैसे कहते हो कि हमारे पितृदेव नहीं हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि जड़ों को पुष्ट करने से ही हमारे अस्तित्व रूपी वृक्ष की मजबूरी होती हैं। हमारी वंश परम्परा आगे बढ़ पाती है। अन्यथा हमारी वंश परम्परा तथा पारिवारिक वृद्धि और पुष्टि अवरुद्ध हो जाती है।

ध्यान दें कि देवताओं की पूजा से भी अधिक महत्वपूर्ण है अपने पितरों की पूजा।

क्योंकि देवताओं में शिव, विष्णु आदि सार्वभौमिक देव हैं।इनको सारा विश्व पूजता है।आप नहीं भी पूजोगो तो यह बुरा नहीं मानते हैं।
लेकिन आपके पूर्वजों को पूजना आपकी ही जिम्मेदारी है। उन्हें आपके सिवाय कोई नहीं पूजेगा, और क्यों पूजेगा??

अतः देवकार्य से भी बढ़कर पितृ कार्य है --
#देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते

अतः पितृपक्ष में पितृ मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करें।
श्राद्ध में विशेष --- 

श्राद्ध में ब्राह्मण श्रेष्ठ, भानजा दस ब्राह्मणों से,दोहता (पुत्री का पुत्र) सौ ब्राह्मणों से, जीजा हजार ब्राह्मणों से तथा जमाई अनन्त रूप से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। अतः इनको श्राद्ध के निमित्त भोजन वस्त्रदान किया जाना प्रशस्त है --
भागिनेयो दशविप्रेण दौहित्र: शतमुच्यते।
भगिनी भर्ता सहस्रेषु अनन्तं दुहितापति:।।

(योजित:- यहां जिसका श्राद्ध हो उसके ही भानजे, दौहित्र आदि ग्रहण करें)

और अन्तिम दिन अमावस्या पर तीर्थ स्नान पिंडदान, हवन और कुलगुरु , ब्राह्मण भोजन प्रशस्त है। 
 (कोई जिज्ञासा है तो पूछ सकते हैं)

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