मृत्यु की उत्पत्ति कहां से और कब उत्पन्न हुई

*★कभी मरने की भी सोचो ★* 
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*🌹🚩क्या आप जानते हैं कि मृत्यु की उत्पत्ति कहां से और कब उत्पन्न हुई है?🚩🌹* 
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आत्मा जिस शरीर में रहता है , उसको छोड़ना ही नहीं चाहता है । भले ही उस शरीर से उसे हजारों साल से कष्ट ही मिल रहा हो । इसी को जिजीविषा कहते हैं । जिजीविषा अर्थात जीने की इच्छा । 

*🌹🚩🌷" महाभारत के "द्रोणपर्व " के अन्तर्गत "अभिमन्युवधपर्व , के 54 वें अध्याय में अभिमन्यु के वध से अतिदुखी युधिष्ठिर ने व्यास भगवान से पूंछा कि* 

*🌹🌷"ये मृत्यु क्यों होती है ? ये कैसे कहां से उत्पन्न हुई है ?🌷🌹*
 
तब व्यास जी ने बताया कि एकबार यही प्रश्न नारद जी ने ब्रह्मा जी से पूंछा था । तब ब्रह्मा जी ने नारद जी को बताया कि मुझे सृष्टि की आज्ञा हुई तो मैं सृष्टि रचना में लग गया । लेकिन देखा कि अब तो कहीं किसी को बैठने तक की भी जगह नहीं है । क्योंकि यहां सृष्टि तो बड़े वेग से हो रही थी , लेकिन निवास स्थान पृथिवी आदि लोक तो उतने ही थे । तो मुझे अपने इस कार्य से बहुत क्रोध आया । उसी क्रोधावेश में मेरे शरीर की सभी इन्द्रियों से एक तेजस्विनी स्त्री प्रगट हुई । उस स्त्री से मैंने कहा कि 

*🌹🌷" मृत्यो संकल्पितासि त्वं प्रजासंहारहेतुना ।*
*गच्छ संहर सर्वांस्त्वं प्रजा मा ते विचारणा " । । 10 ।।🌷🌹*

 तुम्हारा नाम मृत्यु है । मृत्यु अर्थात शरीर से प्राणों का अलग होना । हे मृत्यो ! संसार की प्रत्येक वस्तु को प्रजा कहते हैं । जो भी उत्पन्न होता है , उसे प्रजा कहते हैं । प्रजा के संहार के लिए तुम्हारा निर्माण हुआ है ।इसलिए तुम बिना कुछ बिचारे ही सबका संहार कर दो ।

तीसरे श्लोक में मृत्यु ने कहा था कि 

*🌹🚩" प्रियान् पुत्रान् वयस्यांश्च भ्रातृन् मातृः पितृन् पतीन् ।*
*अपध्यास्यन्ति मे देव मृतेष्वेभ्यो बिभेम्यहम् " ।।3।।🚩🌹*

मृत्यु ने कहा कि मैं जिसको मारूंगी , उनके माता पिता भाई पति पत्नी आदि जो सभी मुझे शाप देंगे । सभी मेरी निंदा करेंगे । मुझे डर लगता है । 

और फिर मृत्यु के रूप में स्त्री को ही क्यों नियुक्त किया है ? क्यों कि स्त्री तो स्वभाव से ही कोमलहृदय की होती है । वह तो किसी को दुखी नहीं देख सकती है , मारने की तो बात ही छोड़ दीजिए । 

इन जीवों को मारने का पाप न लगे , इसलिए मृत्यु ने अनेक तीर्थों में कठोर घोर तप किया । जब ब्रह्मा जी नहीं माने तो मृत्यु ने कहा कि 

*🌹🌷" लोभः क्रोधोsभ्यसूयेर्ष्या द्रोहो मोहश्च देहिनाम् ।*
*अह्रीश्चाsन्योन्यपरुषा देहं भिन्द्युः पृथग्विधाः "।। 38।।🌷🌹*
 
हे ब्रह्मन् ! मैं इन हंसते खाते जीवों को कैसे मारूंगी ? इनको इनके प्रियजनों से कैसे अलग करूंगी ? मुझे बहुत दया आ रही है । आप एक काम करिए कि पहले इनको मूर्छित कर दीजिए । 

फिर मैं इन मूर्छित मरे हुए के समान सभी जीवों का स्पर्श कर दूंगी ।ताकि मुझे ऐसा न लगे कि मैंने इनको मारा है । वो कैसे ? तो सुनिए ।

"काम ,लोभ ,और क्रोध तथा ईर्ष्या इनके मन में डाल दीजिए । ये सभी काम क्रोधादि इनके शरीर को बिल्कुल जर्जर कर देंगे । 
ईर्ष्या और द्रोह के कारण ये सभी जीव एक दूसरे को बड़ी निर्लज्जता से अभद्र और अपशब्दों का आपस में उपयोग करेंगे । इस प्रकार इन सभी का एक दूसरे से मोह नष्ट हो जाएगा । 

कोई किसी के मरने के बाद मरेगा नहीं । व्याकुल नहीं होगा , बल्कि एक दूसरे के मरने का शाप देने लगेंगे । 

निर्लज्जता से , द्रोह और ईर्ष्या से सभी मूर्छित होकर बेहोशी में अपने और अपने लोगों के शरीर को पहले से ही आपस में नष्ट कर लेंगे ।

*फिर इन्हें न तो स्वयं के मरने का ज्ञान होगा और न ही अपने पति पुत्र आदि के मरने के बाद कोई मरेगा । इतना आप कर दीजिए , फिर मैं स्पर्श कर दूंगी ।*

समझ सकते हैं तो समझ लो भैया ! इसलिए ही आपका काम, क्रोध ,द्रोह ,ईर्ष्या , निर्लज्जता , आदि आपस के मोह प्रेम को नष्ट कर देता है । मृत्यु का तो नाम मात्र है । 

वे स्त्री पुरुष मरे मराए ही हैं, जो अपने दुर्गुणों को कम न करके बढ़ाते चले जा रहे हैं । अपने ही परिवार का तथा स्वयं का आपस में भला बुरा बोलकर, निंदा करके नाश करने में लगे हैं । 

अर्थात आपके हृदय में रहनेवाली कामवासना, आपके हृदय में रहनेवाली ईर्ष्या, आपके हृदय में रहनेवाला क्रोध, आपके हृदय में रहनेवाला लोभ, आपके हृदय में रहनेवाली बेशरमाई, आपके हृदय से निकलनेवाली कठोर वाणी आपको बेहोश कर देती है । ऐसे बेहोश लोगों का शरीर सूख-सूख कर स्वयं ही नष्ट हो जाता है ।

*ऐसे स्त्री पुरुष की आयु स्वयं ही नष्ट हो जाती है । इसमें न तो मृत्यु का दोष है और न ही ब्रह्मा जी का । मृत्यु एक व्यवस्था है, भगवान की ।* 
*खुश रहो और खुश रखो । शास्त्रों को पढ़ो, और सत्संग करो ।*   
  
राधे राधे । 

*🌹🚩🚩🌹*

*★कभी इस तरफ भी देखो ★*

संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है , जो भगवान को किसी न किसी रूप में न मानता हो ।

 जंगलों में रहनेवाली अबोध मनुष्य जाति के लोग भी कोई पानी के जीव मगर को ही भगवान मानते हैं । भारत में तो ऐसा दर्शनशास्त्र है कि कहीं भी नहीं है । 

उपनिषदों ने तो कहा ही है कि " *सर्वं खल्विदं ब्रह्म* इस संसार में जो भी वस्तु , व्यक्ति , या शरीरधारी जीव , भोजन , शरीर जो कुछ भी दिखाई दे रहा है , 

जो भी शब्द सुनाई दे रहा है , जो भी गंध आ रही है , जिसका भी स्पर्श हो रहा है , सब भगवान का ही स्वरूप है । 

जीव भी भगवान का ही अंश है । भगवान ही जीव स्वरूप से सबके शरीर में, पदार्थों में , विद्यमान है ।
 
उपनिषदों में एक और चमत्कारी बात कही है कि *नेह नानास्ति किंचन*। यहां एक ही विलक्षण भगवान अनेकरूपों में है । 

यहां अनेक रूप दिखाई दे रहे हैं , लेकिन बुद्धि में थोड़ी और जोर देने पर आपको एक ही तत्त्व दिखाई देगा । 

यहां कुछ भी अनेक नहीं है , और न ही किसी का किसी से कोई भेद है । 

जैसे - एक कुम्हार एक ही मिट्टी से अनेक प्रकार के बर्तन , कुल्हड़ ,घड़ा , दिया आदि बना देता है । 

बने हुए वर्तनों की आकृति में छोटे बड़े ,कमजोर, मजबूत आदि भेद दिखाई देता है । 

लेकिन सूक्ष्मरूप से देखेंगे तो दिखेगा कि बर्तन कितना भी मजबूत और बड़ा हो , लेकिन फूटेगा , अवश्य , और मिट्टी में ही मिलेगा । 

क्यों कि वह तो पहले ही मिट्टी ही था । अभी भी मिट्टी ही है , और नष्ट होने के बाद मिट्टी ही हो जाएगा । 

इसी को सत्य कहते हैं । जो पहले था , वैसा ही अभी है, और आगे भी वही रहेगा । ये हुई , सत्य की परिभाषा । 

अब एक और सत्य को देखा जाए । भगवान श्री कृष्ण ने भागवत में उद्धव जी से 11 वें स्कन्ध के 22 वें अध्याय के 47 वें श्लोक में 

 शरीरों के विषय में कहा कि - 
*निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम् ।*
*वयोमध्ये जरामृत्युरित्यवस्था तनोर्नव ।।*

जिसे आप तनु , तन , देह , शरीर कहते हैं , उसकी नौ अवस्थाएं हैं ।ये स्थिति हाथी , चींटी , स्त्री पुरुष सभी के लिए है । 

वृक्षों , लताओं , वनस्पतियों को भी शरीर ही कहा जाता है । हमने पहले ही बताया है कि यहां एक ही तत्त्व है , अनेक नहीं है ।

 जो भी बात कही जा रही है , वह सबके लिए है । यह सूत्र है कि शरीर की नौ अवस्थाएं हैं ।

 *"निषेकगर्भजन्मानि"* 
(1) निषेक (बीजवपन उदर में प्रवेश) 
(2) गर्भ (बीज का रुकना, बढ़ना) (3) जन्म (बीज का शरीर के रूप में आना)
*बाल्यकौमारयौवनम्*
(4) बाल्यावास्था - जन्म से पांच वर्ष तक ।
(5) कुमार अवस्था - 5 वर्ष से 16 वर्ष की अवस्था ।
(6) यौवन - 16 वर्ष से 45 वर्ष तक ।
(7) वयोमध्यं -- 45 वर्ष से 60 वर्ष तक आयु का मध्यभाग ।
(8) जरा -- वृद्धावस्था (आयु का क्षय) 
(9) मृत्यु -- शरीर से प्राणों की समाप्ति ।

जिन जिन जीवों के भी शरीर हैं , उनकी कितनी भी छोटी आयु होगी , या कितनी भी अधिक आयु होगी , उन सभी शरीरों में ये नौ प्रक्रियाएं प्राकृतिक रूप से अपने आप आटोमैटिक होतीं रहेंगीं । 

देवताओं की आयु सीमा है । उनका भी नाश निश्चित है । आपके रोने चिल्लाने , भड़भड़ाने से कुछ भी नहीं होनेवाला है । जन्म से मृत्यु तक जीवनभर डरते रहिए , फिर भी प्रक्रिया निरंतर चालु रहेगी । 

इसे तो ऐसे समझना चाहिए । एक कहावत है कि " जो फरा सो झरा , जो जरा सो बुताना " ।

पेड़ ,पौधे ,वनस्पति में जो फल ,फूल ,पत्ते लगे हैं , उसे एक न एक दिन निश्चित ही धरती में गिरना है । 

एक बार जो दीपक जला दिया है तो कभी न कभी निश्चित ही बुझना है ।

भगवान की इस परिवर्तन लीला में और आपके परिवर्तन लीला में एक ही अंतर है । 

आप परिवर्तन ही चाहते हैं और करते भी हैं । जब आप कुछ कलर , कपड़ा ,गाड़ी आदि का अपनी इच्छा के अनुसार परिवर्तन कर लेते हैं तो बहुत प्रसन्न होते हैं ,और घमंड भी करते हैं ।

 लेकिन आपको भगवान का किया गया परिवर्तन अच्छा नहीं लगता है । 

आप जब नौकरी के चक्कर में स्वयं ही माता पिता , पत्नी ,पति ,पुत्र , गांव , घर सबकुछ छोड़ कर जाते हैं तो बहुत खुश होते हैं , और जब भगवान या सरकार आपको अलग अलग करते हैं तो बहुत दुख होता है । 

बस, इतना ही अंतर है । आपके अच्छे के लिए ही भगवान सदा ही परिवर्तन करते रहते हैं ।

 आप भगवान को अपना माता पिता मान लीजिए और सोचिए कि वो जो करेंगें , वही अच्छा है । 

जहां माता पिता का ट्रांसपर होता है , वहीं बच्चे जाकर पढ़ते हैं , खेलते हैं, और अपने नवीन नवीन मित्र बना कर आनन्दित होते हैं । 

माता पिता तो बच्चों के लिए ही तो सब कर रहे हैं । भगवान के इस संसार के स्वरूप को समझकर राजी हो जाने में ही आनन्द है । 

भगवान की इच्छा के विरुद्ध चल भी नहीं सकेंगे , और व्यर्थ जिंदगी भर दुखी और हो जाएंगे ।

या तो फिर पत्नी बन जाओ , भगवान तो जगतपति ही हैं । पति जैसे रखे , वैसे रहो । जो लाए , उसको खिलाओ, और खुद खाओ । 

कुल मिलाकर बात यह है कि - आनन्द चाहिए तो परमानन्दस्वरूप भगवान के अनिवार्य परिवर्तन में राजी हो जाओ । 

*"जाही विधि राखे राम ताही बिधि रहिए"*

🚩🚩 । जय श्री हरि विष्णु। 🚩🚩

आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वह स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट झेला होता है । 

अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक 'धनंजय प्राण' को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं । 

ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं जो कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है । धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है । 

बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं कि व्यक्ति को पता चल जाता है । 

उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है । सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है । सांँस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं । 

अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है - तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होने लगता है ।

 बुद्धि समाप्त हो जाती है और किसी अनजाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है - यह चौथा आयाम होता है ।

फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्रिय से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिह्न होता है । 

शरीर छोड़ने से पहले - केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है - ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध न रहे - और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है । 
इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती है जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं । 

जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के रूप में होते है उसे लेने आते हैं और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते हैं और अनजान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते हैं और कभी-कभी भौंकते भी हैं ।

शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है । 

सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।

 आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है । जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र या मल-मार्ग से निकलती है । जो पापी भी हैं और पुण्यात्मा भी हैं उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष हैं उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है ।

अब तक शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है । लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता । जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है । 

अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त हैं परंतु बुद्धिमान हैं, ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त हैं , ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।

हिंदू धर्म-शास्त्र में - दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि - दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये ।

 ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है ।

 अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है । 

एक और बात, आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है । लेकिन कण्ठ अवरुद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्थिति में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में 'गंगा-जल' डालने का विधान है । 

इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का 'पीपल' ।

 यहाँ आत्मा के लिये 'यमघंट' बंँधा होता है । जिसमें पानी होता है । यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है । 

 हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है कि - मृतक के लिये यह सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले । अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध न हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी न बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहांँ से उसकी मुक्ति होगी, कहना कठिन होगा l

*हांँ, कुछ उपाय अवश्य हैं। पहला तो यह कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक निरन्तर भगवान् के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताये गये हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जायेगा , लेकिन यह करेगा कोन ?*

*यह संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l*

*दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरि स्मरण में रत रहा हो ।*

इसी संदर्भ में , भक्त कहता है...

कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांके अद्यैव मे विशतु मानस राजहंसः

प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।

श्रीकृष्ण कहते हैं....

कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न तु मां स्मरेत् 

अहं स्मरामि तद्भक्तं ददामि परमां गतिम्।।

फिर श्रीकृष्ण को लगता है कि यह मैं कुछ अनुचित बोल गया।

पुनश्च वे कहते हैं....

कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न च मां स्मरेत्

तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः

ततस्तं मृयमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभं 

अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।

*तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में हुआ हो l*

*स्वयं विचार करना चाहिये कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l*

 जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गँवायें। एक - एक पल को सार्थक करें। हरिनाम का नित्य आश्रय लें । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जियें, न कि मन के अधीन होकर। 

यह मानव शरीर बार- बार नहीं मिलता। 

🙏🙏

जीवन का एक- एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापस नहीं मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान् का स्मरण जप करते रहें, हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करें। क्योंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिये सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहें।

 वैसे भी कर्मों की ध्वनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है।

अतः सदा कर्म सोच विचार कर करें। जिस प्रकार धनुष में से तीर छूट जाने के बाद वापस नहीं आता, इसी प्रकार जो कर्म आपसे हो गया वह उस पल का कर्म वापस नहीं होता चाहे अच्छा हो या बुरा।

इसलिये इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानी स्वयं को जान लें और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहें, निरन्तर स्मरण से हम यम पाश से तो बचेंगे ही बचेंगे, साथ ही हमें भगवत् धाम भी प्राप्त हो सकेगा जो कि जीवन
 का वास्तविक लक्ष्य है ।

आयुष्यक्षणमेकोSपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः

स वृथा नीयते येन तस्मै मूढात्मने नमः।।

।। हरिः ओम् तत् सत् ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।

* *🌹🚩मृत्यु के साधन तो हैं, लेकिन मृत्यु से बचने के साधन नहीं हैं🚩🌹* *

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*🌹शिवपुराण के "वायवीयसंहिता " के 7 वें अध्याय के 13 वें और 14 वें श्लोक में वायुदेवता ने ऋषियों से कहा कि --*

*🌹🚩ये निगृह्येन्द्रियग्रामं जयन्ति सकलं जगत्।* 
*न जयन्त्यपि ते कालं कालो जयति तानपि।। 13 ।।🚩🌹*

महादेव भगवान शंकर जी का सत्र करते हुए ऋषियों के समक्ष वायुदेव ने प्रगट होकर काल के विषय में प्रश्न करनेवाले ऋषियों से काल की अनन्त शक्ति को बताते हुए कहा कि हे ऋषियो! जिन योगियों ने अपनी समग्र इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके सम्पूर्ण लोकों को जीत लिया है, वे भी काल को, मृत्यु को नहीं जीत पाते हैं, अपितु काल ही उनको भी पराजित करके मृत्यु ही देता है। 

*🌹अर्थात शरीर को योगबल से, सृष्टि से लेकर प्रलय तक रखा जा सकता है, लेकिन अन्त में कभी न कभी तो मृत्यु होती ही है।*  

इस मिट्टी, जल, अग्नि, वायु आकाश से बने शरीर से योगबल से सभी लोकों में आवागमन किया जा सकता है। इन्द्रादि देवताओं से सम्मान प्राप्त किया जा सकता है।  

*अनेक असम्भव ,आश्चर्यजनक कार्य योगविधि से किए गए हैं और कर भी सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है कि यह शरीर कभी भी नष्ट न हो।* 

संसार का नियम ही है कि जो उत्पन्न होता है, उसे नष्ट होना ही है । यदि इस शरीर के निर्माता आदिपुरूष ब्रह्मा जी को भी अपना शरीर त्यागना ही पड़ता है तो योगीजन की क्या बात है? ब्रह्मा जी का शरीर तो भगवान नारायण की नाभि से उत्पन्न हुआ है। यदि भगवान नारायण के द्वारा उत्पन्न किया गया शरीर भी नहीं रहता है, 

*तो अपने पुरुषार्थ से बढ़ाई गई आयु को योगीजन कितनी बार बढ़ा सकते हैं।? शरीर का अन्त तो होना ही है।* 

*🌹अब आप 14 वां श्लोक भी ध्यान से देखिए --*

*🌹🚩आयुर्वेदविदो वैद्यास्त्वनुष्ठितरसायनाः ।*
*न मृत्युमतिवर्तन्ते कालो हि दुरतिक्रमः।। 14 ।।🚩🌹*

वायुदेव ने कहा कि हे ऋषियो ! काल का अतिक्रमण करना असम्भव है। काल तो सबका नाश करेगा, काल का नाश कोई नहीं कर सकते हैं, क्यों कि काल ही तो ईश्वर है। 

अब देखिए कि संसार की प्रत्येक वनस्पति को औषधि के रूप में जाननेवाले आयुर्वेद के ज्ञाता ,सर्वज्ञ धन्वन्तरि तो सभी रसायनों का निर्माण करने में समर्थ हैं। शरीर में होनेवाले सभी रोगों के लक्षण तथा उसका निदान जानते हैं। लेकिन वे औषधिविज्ञान के ज्ञाता भी औषधियों के बल पर इस शरीर को अनन्तकाल तक नहीं रख सकते हैं।  

उन्हें भी अन्त में मृत्यु के मुख में जाना ही पड़ेगा। 
अर्थात इस शरीर का नाश होता है, होना ही है, होगा ही, यही निश्चित है । कभी मृत्यु ही नहीं हो, ऐसी प्रार्थना न तो कोई देवता स्वीकार करनेवाले हैं और न ही कोई ऐसा मंत्र है, तथा न ही कोई ऐसी औषधि बनी है , जो शरीर को अनन्तकाल के लिए सुरक्षित कर दे। मरना ही होगा। 

अब आप सभी बुद्धिमान विचार करिए कि क्या आपने ऋषियों के समान कोई मन्त्र जाने हैं ? क्या आप ने धन्वन्तरि के समान औषधि विज्ञान जाना है? क्या आपने सभी सिद्धि देनेवाला योग किया है? 

आपके पास आयु बढ़ाने का कोई उपाय है क्या? शरीर को सदा ही निरोग रखने का उपाय है क्या? आप कभी भी वृद्धावस्था को न आने दें, ऐसा कुछ सीखा है क्या? 
क्या है आपके पास? मृत्यु से बचने का क्या उपाय है आपके पास? 

जिनके पास कुछ दिव्य उपाय थे, वे अब इस धरातल में ही नहीं हैं, जो आपको कुछ कर देते। 

*आप इस तुच्छ विनाशक विज्ञान के कुछ नुस्खों के बल पर इतना आत्मविश्वास रखते हैं कि न कहीं कोई धर्म है, न कहीं कोई स्वर्ग नरक है, और न ही कोई ईश्वर है, तथा न ही कोई कहीं भगवान है।* 
*अपनी बुद्धिमत्ता का इतना अहंकार है?* 

अपनी वैज्ञानिक मशीनों पर इतना अखण्ड अटल विश्वास भी अन्धविश्वास है। 
जैसे कि किसी अन्धे को , दूर खड़ी भैंस को बकरी बता दिया जाए तो उसके पास मानने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। तर्क के लिए आंखें चाहिए, वे तो अन्धे के पास है ही नहीं। ठीक है भैया, भैंस ही बकरी है। 

इस संसार को और शरीर को बनानेवाले को भगवान मानना एक अंधविश्वास है तो क्या विज्ञान पर विश्वास करना अंधविश्वास नहीं है।  
आजके विज्ञान से ही सबकी मृत्यु होनेवाली है।  

गैसों के रिसाव से, तथा मिसाइलों के मसाले से एक भी अंधविश्वासी नहीं बचनेवाले हैं। 
विज्ञान के पास मृत्यु देनेवाली सारी सामग्री सभी देशों के पास है, लेकिन एकबार निकले हुए विनाशक द्रव्य को रोकने की शक्ति तो किसी वैज्ञानिक के पास नहीं है। 

इसलिए धर्म को तथा ईश्वर को और भगवान को माननेवाले को तो कुछ न कुछ तो शान्ति मिल ही जायेगी, लेकिन इनको न मानने वालों का जीवन तो अशान्ति और आत्मरक्षा के लिए भागते भागते बीतना है। 

*अब जो अच्छा लगे सो करिए। लेकिन विज्ञान के भरोसियों के पास अपने मन को शान्त करने का कोई उपाय नहीं है।* 

*हम तो भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं। हम बहुत आनन्द में हैं और मरनेके बाद भी आनन्द में ही रहेंगे।* 
*मेरा हरी है हजार हाथवाला।* 
                 राधे राधे

आत्माओं का रहस्यमय संसार 
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ब्रम्हांड में लाखों आत्माओं का अस्तित्व विद्यमान है। जो वायुमंडल में स्वतंत्र रूप सें विचरण करते हैं। जिनमंे कई प्रकार के आत्माएं होती है। जैसे राजा, महाराजा, वैज्ञानिक, विशेषज्ञ, विद्वान, चोर, डाकू, बदमाश, सामान्य मनुष्य तथा उच्चकोटि के मनुष्य आदि, जिनमें मुख्यतः दो प्रकार की आत्माएं होती है। - 

दिव्यात्मा तथा दुष्टात्मा।

दिव्य आत्मा -
----------------- ये आत्माएं कभी-कभी किसी मनुष्य की जिंदगी से प्रभावित हो जाते है और उसको सहयोग भी करते है। खासकर उस व्यक्ति के जिंदगी से प्रभावित होते हैं, जिनकी जिंदगी उसी आत्मा के जिंदगी से मिलती-जुलती है, जैसे उस आत्मा ने अपनी पूर्व जिंदगी में बहुत कष्ट झेले हों और दुःखों का सामना किया हो तो वह आत्मा किसी व्यक्ति के जिंदगी के कष्टों एवं दुःखों को देख नहीं सकता, क्योंकि वह अपने जिंदगी में दुख, कष्ट, कठिनाईयों और परेशानियों से भली-भांति परिचित रहा है। अतः वह किसी ऐसे व्यक्ति की सहायता अवश्य करता है, जो इस प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त रहता है। ऐसी आत्मा जिनकी जिंदगी से प्रभावित हो जाते हैं, उनकी जिंदगी खुशियों से भर जाती है और जीवन में किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता। पग-पग पर सफलताएं कदम चूमने लगती है। गांव तथा शहरों में ऐसे सैकडों उदारण देखने को मिल जाते हैं, जैसे अनायास ही गड़े धन का पता लग जाना, चांदी के सिक्कों से भरा घड़ा मिल जाना, इच्छा करते ही उसकी पूर्ति हो जाना, एक्सीडेंट या दुर्घटना का पूर्वाभास होना यह सब दिव्यात्माओं के प्रसन्न होने के कारण अनायास ही होने लगता है।

दुष्टात्मा - 
------------- ये आत्माएं बहुत ही दुष्ट होती है। इन्हें हमेशा किसी न किसी को सताते रहने में बहुत आनंद आता है। ये आत्माएं कभी किसी का भला नहीं करती। ये आत्माएं जिनके पीछे पड़ जाती है, उसकी जिंदगी बर्बाद कर देती है। उनके परिवार में कभी सुख-शांति नहीं रहती। कदम-कदम पर हानि पहुंचाते है। उनके साथ कब कौन सी घटना घट जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। जिस व्यक्ति पर ऐसी आत्माओं का प्रकोप हो जाता है, वह व्यक्ति पागल भी हो जाता है। दुष्ट आत्मायें किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं हंै। 

आत्माओं का रहस्य -
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शरीर से निकलने के बाद सैकड़ांे वर्ष तक आत्मायें वायुमंडल में विचरण करती रहती हैं, क्योंकि वह पुनः गर्भ में जाने के इच्छुक नहीं होती या किसी ऐसे गर्भ में जन्म लेने को उत्सुक होते हैं जो उनका मनोवांछित हो। उदाहरण के लिए अधिकांश आत्मायें तो जन्म ही नहीं लेना चाहती क्योंकि उन्होंने गर्भ में या गर्भ के बाहर जो कुछ भोगा है वह ज्यादा सुखकर नहीं होता है। अगर वे जन्म भी लेना चाहें तो किसी ऐसे गर्भ की खोज में रहतें है जो सभी दृष्टियों से सुखी एवं सम्पन्न हों, तथा उन्हें खुलकर कार्य करने का मौका मिले, पर ऐसा संयोग से ही प्राप्त हो पाता है। 

क्या मनोवांछित आत्माओं से बातचीत किया जा सकता है ?
आत्मायें कैसे आकर्षित होती है ?
मनुष्य का शरीर जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश इन पांच तत्वों से निर्मित होता है। मृत्यु के पश्चात् जब मनुष्य स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर धारण करता है तो इसमे मात्र दो तत्व शेष रह जातें है - वायु और आकाश तत्व, पृथ्वी तत्व समाप्त हो जाने के कारण पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति का आत्माओं पर कोई असर नहीं होता। फलस्वरूप स्थूल शरीर के अलावा सूक्ष्म शरीर की शक्ति हजारों गुणा अधिक हो जाती है और विचारों के माध्यम से ही वे पूरे ब्रह्मांड में विचरण करने में समर्थ हो जाते हैं। आत्माओं की गति वायु से भी अधिक तेज होती है एक मिनट में वे पूरे ब्रह्मांड में विचरण कर सकते हैं।

*विचार == विवेक*
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* *🚩🌷भगवान की कृपा ऐसी होती है🚩🌷* *
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 *वेदों में और पुराणों में तथा सभी धर्मशास्त्रों , उपनिषदों में और महाभारत ,रामायण आदि सभी ग्रंथों में संसार के निर्माण की प्रक्रिया लिखी हुई है ।* 

*इस मृत्युलोक में 3 तत्व तो सबको सामने दिखाई दे रहे हैं ।* 
*(1)* उत्पत्ति 
*(2)* सत्ता ( स्थिति) 
*(3)* मृत्यु । 

पेड़ पौधे , वनस्पति ,अन्न से लेकर कुत्ते ,बिल्ली ,गाय ,भैंस,से लेकर  मनुष्य तक सभी को उत्पत्ति प्रत्यक्ष दिखाई देती है । उत्पत्ति से लेकर मृत्यु होने तक का बीच का जीवन भी दिखाई दे रहा है । 

सभी को सभी का दुख भी दिखाई देता है और सभी को सबका सुख भी दिखाई देता है । मनुष्यों में भी घमंडी अहंकारी मनुष्य कौन है , ये भी दिखाई देता है । तथा सज्जन, अहंकार रहित , सबसे प्रेम करनेवाला ,सबका आदर करनेवाला मनुष्य कौन है , ये भी सबको दिखाई दे रहा है । 

यहां सबकुछ सबके सामने है । जो है और जो हो रहा है , वह किसी से कुछ भी छिपा नहीं है । 

*बस , एक तत्व नहीं दिखाई देता है , वह है कृपा ,अनुग्रह । भगवान का अनुग्रह नहीं दिखाई देता है ।* 

जैसे ही धार्मिक मनुष्य को  , पूजा करने वाले मनुष्य को धन की हानि होती है , परेशानी होती है तो सभी मनुष्य कहने लगते हैं कि क्या हुआ पूजन पाठ करने से ? जो जितनी अधिक पूजा पाठ करता है ,वह उतना ही अधिक दुखी होता है । 

जिन धार्मिकों ने पूजा पाठ करने वालों ने किसी विद्वान गुरू से सत्संग नहीं किया है , वे भी कहने लगते हैं कि मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भगवान का  इतना सबकुछ करता हूँ ,फिर भी दुखी हुं , परेशान हूं । 

न मेरा कहीं सम्मान है , न कोई मेरी बात मानता है । जो भी कुछ करने जाता हूँ ,उसी में हानि हो जाती है । पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि प्रायः भगवान की पूजा पाठ करने वाला ही सबसे अधिक परेशान रहता है । 

जो कुछ भी नहीं करते हैं ,वे सभी प्रकार से सुखी जीवन जी रहे हैं । यही सब सोच ही तो मनोबल को गिराती है । 

*जब मनुष्य सुखी रहता है तो भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवान ! हमें इस मोह माया से मुक्त करो ।*

 अब इस विषय में देखिए कि भगवान क्या कहते हैं ?

*★कभी मरने की भी सोचो ★* 
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*🌹🚩क्या आप जानते हैं कि मृत्यु की उत्पत्ति कहां से और कब उत्पन्न हुई है?🚩🌹* 
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आत्मा जिस शरीर में रहता है , उसको छोड़ना ही नहीं चाहता है । भले ही उस शरीर से उसे हजारों साल से कष्ट ही मिल रहा हो  । इसी को जिजीविषा कहते हैं । जिजीविषा अर्थात जीने की इच्छा । 

*🌹🚩🌷" महाभारत के "द्रोणपर्व " के अन्तर्गत "अभिमन्युवधपर्व , के 54 वें अध्याय में अभिमन्यु के वध से अतिदुखी युधिष्ठिर ने व्यास भगवान से पूंछा कि* 

*🌹🌷"ये मृत्यु क्यों होती है ? ये कैसे कहां से उत्पन्न हुई है ?🌷🌹*
 
तब व्यास जी ने बताया कि एकबार यही प्रश्न नारद जी ने ब्रह्मा जी से पूंछा था । तब ब्रह्मा जी ने नारद जी को बताया कि मुझे सृष्टि की आज्ञा हुई तो मैं सृष्टि रचना में लग गया । लेकिन देखा कि अब तो कहीं किसी को बैठने तक की भी जगह नहीं है । क्योंकि यहां सृष्टि तो बड़े वेग से हो रही थी , लेकिन निवास स्थान पृथिवी आदि लोक तो उतने ही थे । तो मुझे अपने इस कार्य से बहुत क्रोध आया । उसी क्रोधावेश में मेरे शरीर की सभी इन्द्रियों से एक तेजस्विनी स्त्री प्रगट हुई । उस स्त्री से मैंने कहा कि 

*🌹🌷" मृत्यो संकल्पितासि त्वं प्रजासंहारहेतुना ।*
*गच्छ संहर सर्वांस्त्वं प्रजा मा ते विचारणा " । । 10 ।।🌷🌹*

 तुम्हारा नाम मृत्यु है । मृत्यु अर्थात शरीर से प्राणों का अलग होना । हे मृत्यो ! संसार की प्रत्येक वस्तु को प्रजा कहते हैं । जो भी उत्पन्न होता है , उसे प्रजा कहते हैं । प्रजा के संहार के लिए तुम्हारा निर्माण हुआ है ।इसलिए तुम बिना कुछ बिचारे ही सबका संहार कर दो ।

तीसरे श्लोक में मृत्यु ने कहा था कि 

*🌹🚩" प्रियान् पुत्रान् वयस्यांश्च भ्रातृन् मातृः पितृन् पतीन् ।*
*अपध्यास्यन्ति मे देव मृतेष्वेभ्यो बिभेम्यहम् " ।।3।।🚩🌹*

मृत्यु ने कहा कि मैं जिसको मारूंगी , उनके माता पिता भाई पति पत्नी आदि जो सभी मुझे शाप देंगे । सभी मेरी निंदा करेंगे । मुझे डर लगता है । 

और फिर मृत्यु के रूप में स्त्री को ही क्यों नियुक्त किया है ? क्यों कि स्त्री तो स्वभाव से ही कोमलहृदय की होती है । वह तो किसी को दुखी नहीं देख सकती है , मारने की तो बात ही छोड़ दीजिए । 

इन जीवों को मारने का पाप न लगे , इसलिए मृत्यु ने अनेक तीर्थों में कठोर घोर तप किया । जब ब्रह्मा जी नहीं माने तो मृत्यु ने कहा कि 

*🌹🌷" लोभः क्रोधोsभ्यसूयेर्ष्या द्रोहो मोहश्च देहिनाम् ।*
*अह्रीश्चाsन्योन्यपरुषा देहं भिन्द्युः पृथग्विधाः "।। 38।।🌷🌹*
 
हे ब्रह्मन् ! मैं इन हंसते खाते जीवों को कैसे मारूंगी ? इनको इनके प्रियजनों से कैसे अलग करूंगी ? मुझे बहुत दया आ रही है । आप एक काम करिए कि पहले इनको मूर्छित कर दीजिए । 

फिर मैं इन मूर्छित मरे हुए के समान सभी जीवों का स्पर्श कर दूंगी ।ताकि मुझे ऐसा न लगे कि मैंने इनको मारा है । वो कैसे ?  तो सुनिए ।

"काम ,लोभ ,और क्रोध तथा ईर्ष्या इनके मन में डाल दीजिए । ये सभी काम क्रोधादि इनके शरीर को बिल्कुल जर्जर कर देंगे । 
ईर्ष्या और द्रोह के कारण ये सभी जीव एक दूसरे को बड़ी निर्लज्जता से अभद्र और अपशब्दों का आपस में उपयोग करेंगे । इस प्रकार इन सभी का एक दूसरे से मोह नष्ट हो जाएगा । 

कोई किसी के मरने के बाद मरेगा नहीं । व्याकुल नहीं होगा , बल्कि एक दूसरे के मरने का शाप देने लगेंगे । 

निर्लज्जता से , द्रोह और ईर्ष्या से सभी मूर्छित होकर बेहोशी में अपने और अपने लोगों के शरीर को पहले से ही आपस में नष्ट कर लेंगे ।

*फिर इन्हें न तो स्वयं के मरने का ज्ञान होगा और न ही अपने पति पुत्र आदि के मरने के बाद कोई मरेगा । इतना आप कर दीजिए , फिर मैं स्पर्श कर दूंगी ।*

समझ सकते हैं तो समझ लो भैया !  इसलिए ही आपका काम, क्रोध ,द्रोह ,ईर्ष्या , निर्लज्जता , आदि आपस के मोह प्रेम को नष्ट कर देता है । मृत्यु का तो नाम मात्र है । 

वे स्त्री पुरुष मरे मराए ही हैं, जो अपने दुर्गुणों को कम न करके बढ़ाते चले जा रहे हैं । अपने ही परिवार का तथा स्वयं का आपस में भला बुरा बोलकर, निंदा करके नाश करने में लगे हैं । 

अर्थात आपके हृदय में रहनेवाली कामवासना, आपके हृदय में रहनेवाली ईर्ष्या, आपके हृदय में रहनेवाला क्रोध, आपके हृदय में रहनेवाला लोभ, आपके हृदय में रहनेवाली बेशरमाई, आपके हृदय से निकलनेवाली कठोर वाणी आपको बेहोश कर देती है । ऐसे बेहोश लोगों का शरीर सूख-सूख कर स्वयं ही नष्ट हो जाता है ।

*ऐसे स्त्री पुरुष की आयु स्वयं ही नष्ट हो जाती है ।  इसमें न तो मृत्यु का दोष है और न ही ब्रह्मा जी का । मृत्यु एक व्यवस्था है, भगवान की ।* 
*खुश रहो और खुश रखो । शास्त्रों को पढ़ो, और सत्संग करो ।*   
  
राधे राधे ।

शिवपुराण में वर्णित है मृत्यु के ये 12 संकेत.....
धर्म ग्रंथों में भगवान शिव को महाकाल भी कहा गया है। महाकाल का अर्थ है काल यानी मृत्यु भी जिसके अधीन हो। भगवान शिव जन्म-मृत्यु से मुक्त हैं। अनेक धर्म ग्रंथों में भगवान शंकर को अनादि व अजन्मा बताया गया है। भगवान शंकर से संबंधित अनेक धर्मग्रंथ प्रचलित हैं, लेकिन शिवपुराण उन सभी में सबसे अधिक प्रामाणिक माना गया है।
इस ग्रंथ में भगवान शिव से संबंधित अनेक रहस्यमयी बातें बताई गई हैं। इसके अलावा इस ग्रंथ में ऐसी अनेक बातें लिखी हैं, जो आमजन नहीं जानते। शिवपुराण में भगवान शिव ने माता पार्वती को मृत्यु के संबंध में कुछ विशेष संकेत बताए हैं। इन संकेतों को समझकर यह जाना जा सकता है कि किस व्यक्ति की मौत कितने समय में हो सकती है। ये संकेत इस प्रकार हैं-
1- शिवपुराण के अनुसार जिस मनुष्य को ग्रहों के दर्शन होने पर भी दिशाओं का ज्ञान न हो, मन में बैचेनी छाई रहे, तो उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने में हो जाती है।
2- जिस व्यक्ति को अचानक नीली मक्खियां आकर घेर लें। उसकी आयु एक महीना ही शेष जाननी चाहिए।
3- शिवपुराण में भगवान शिव ने बताया है कि जिस मनुष्य के सिर पर गिद्ध, कौवा अथवा कबूतर आकर बैठ जाए, वह एक महीने के भीतर ही मर जाता है। ऐसा शिवपुराण में बताया गया है।
4- यदि अचानक किसी व्यक्ति का शरीर सफेद या पीला पड़ जाए और लाल निशान दिखाई दें तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाएगी। जिस मनुष्य का मुंह, कान, आंख और जीभ ठीक से काम न करें, शिवपुराण के अनुसार उसकी मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाती है।
5- जिस मनुष्य को चंद्रमा व सूर्य के आस-पास का चमकीला घेरा काला या लाल दिखाई दे, तो उस मनुष्य की मृत्यु 15 दिन के अंदर हो जाती है। अरूंधती तारा व चंद्रमा जिसे न दिखाई दे अथवा जिसे अन्य तारे भी ठीक से न दिखाई दें, ऐसे मनुष्य की मृत्यु एक महीने के भीतर हो जाती है।
6- त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) में जिसकी नाक बहने लगे, उसका जीवन पंद्रह दिन से अधिक नहीं चलता। यदि किसी व्यक्ति के मुंह और कंठ बार-बार सूखने लगे तो यह जानना चाहिए कि 6 महीने बीत-बीतते उसकी आयु समाप्त हो जाएगी।
7- जब किसी व्यक्ति को जल, तेल, घी तथा दर्पण में अपनी परछाई न दिखाई दे, तो समझना चाहिए कि उसकी आयु 6 माह से अधिक नहीं है। जब कोई अपनी छाया को सिर से रहित देखे अथवा अपने को छाया से रहित पाए तो ऐसा मनुष्य एक महीने भी जीवित नहीं रहता।
8- जब किसी मनुष्य का बायां हाथ लगातार एक सप्ताह तक फड़कता ही रहे, तब उसका जीवन एक मास ही शेष है, ऐसा जानना चाहिए। जब सारे अंगों में अंगड़ाई आने लगे और तालू सूख जाए, तब वह मनुष्य एक मास तक ही जीवित रहता है।
9- जिस मनुष्य को ध्रुव तारा अथवा सूर्यमंडल का भी ठीक से दर्शन न हो। रात में इंद्रधनुष और दोपहर में उल्कापात होता दिखाई दे तथा गिद्ध और कौवे घेरे रहें तो उसकी आयु 6 महीने से अधिक नहीं होती। ऐसा शिवपुराण में बताया गया है।
10- जो मनुष्य अचानक सूर्य और चंद्रमा को राहू से ग्रस्त देखता है (चंद्रमा और सूर्य काले दिखाई देने लगते हैं) और संपूर्ण दिशाएं जिसे घुमती दिखाई देती हैं, उसकी मृत्यु 6 महीने के अंदर हो जाती है।
11- शिवपुराण के अनुसार जो व्यक्ति हिरण के पीछे होने वाली शिकारियों की भयानक आवाज को भी जल्दी नहीं सुनता, उसकी मृत्यु 6 महीने के भीतर हो जाती है। जिसे आकाश में सप्तर्षि तारे न दिखाई दें, उस मनुष्य की आयु भी 6 महीने ही शेष समझनी चाहिए।
12- शिवपुराण के अनुसार जिस व्यक्ति को अग्नि का प्रकाश ठीक से दिखाई न दे और चारों ओर काला अंधकार दिखाई दे तो उसका जीवन भी 6 महीने के भीतर समाप्त हो जाता है। जानकारी अच्छी लगी तो हमारे ग्रुप से जुड़े और ज्यादा शेयर करें।

मृत्यु का पल और अगला जन्म - कैसे जुड़े हैं?

मृत्यु के समय एक शांतिपूर्ण माहौल तैयार करने की परंपरा है। क्या मृत्यु के पल का मरने वाले व्यक्ति के ऊपर प्रभाव पढता है? क्या यह उसके अगले जन्म से जुड़ा है?
मृत्यु का पल और अगला जन्म - कैसे जुड़े हैं?

मृत्यु के समय एक शांतिपूर्ण माहौल तैयार करने की परंपरा है। क्या मृत्यु के पल का मरने वाले व्यक्ति के ऊपर प्रभाव पढता है? क्या यह उसके अगले जन्म से जुड़ा है?

जिज्ञासु: भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘मृत्यु के समय, जो इंसान सिर्फ मुझे याद करते हुए अपना शरीर छोड़ता है, वह नि:संदेह मुझे पा लेता है। हे कुंतीपुत्र, मृत्यु के समय इंसान जिस अवस्था को याद करता है, उसके विचार में मग्न होने के कारण वह उसी अवस्था को पा लेता है। इसलिए हर समय मुझे याद करते हुए अपना धर्म करते रहो। जब तुम्हारा मन और बुद्धि मुझमें लगी रहेगी, तो तुम नि:संदेह मुझे पा लोगे।’ सद्गुरु, क्या यह इतना ही सरल है?

सद्‌गुरु: हां, यह इतना ही सरल है, लेकिन . . .। इस संबंध में एक बहुत सुंदर कहानी है। नारद मुनि जहां भी जाते थे, बस ‘नारायण, नारायण’ कहते रहते थे। नारद को तीनों लोकों में जाने की छूट थी। वह आराम से कहीं भी आ-जा सकते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक किसान परमानंद की अवस्था में अपनी जमीन जोत रहा था। नारद को यह जानने की उत्सुकता हुई कि उसके आनंद का राज क्या है। जब वह उस किसान से बात करने पहुंचे, तो वह अपनी जमीन को जोतने में इतना डूबा हुआ था, कि उसने नारद पर ध्यान भी नहीं दिया। दोपहर के समय, उसने काम से थोड़ा विराम लिया और खाना खाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठा। उसने बर्तन को खोला, जिसमें थोड़ा सा भोजन था। उसने सिर्फ ‘नारायण, नारायण, नारायण’ कहा और खाने लगा।

आप जिस पल जीवन के एक आयाम से दूसरे आयाम में जाते हैं  उस समय अगर आप सिर्फ अपनी जागरूकता कायम रख पाएं, तो आपको मुक्ति मिल सकती है।
किसान अपना खाना उनके साथ बांटना चाहता था मगर जाति व्यवस्था के कारण नारद उसके साथ नहीं खा सकते थे। नारद ने पूछा, ‘तुम्हारे इस आनंद की वजह क्या है?’ किसान बोला, ‘हर दिन नारायण अपने असली रूप में मेरे सामने आते हैं। मेरे आनंद का बस यही कारण है।’ नारद ने उससे पूछा, ‘तुम कौन सी साधना करते हो?’ किसान बोला, ‘मुझे कुछ नहीं आता। मैं एक अज्ञानी, अनपढ़ आदमी हूं। बस सुबह उठने के बाद मैं तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं। अपना काम शुरू करते समय मैं तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं। अपना काम खत्म करने के बाद मैं फिर तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं। जब मैं खाता हूं, तो तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं और जब सोने जाता हूं, तो भी तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं।’ नारद ने गिना कि वह खुद 24 घंटे में कितनी बार ‘नारायण’ बोलते हैं। वह लाखों बार ऐसा करते थे। मगर फिर भी उन्हें नारायण से मिलने के लिए वैकुण्ठ तक जाना पड़ता था, जो बहुत ही दूर था। मगर खाने, हल चलाने या बाकी कामों से पहले सिर्फ तीन बार ‘नारायण’ बोलने वाले इस किसान के सामने नारायण वहीं प्रकट हो जाते थे। नारद को लगा कि यह ठीक नहीं है, इसमें जरूर कहीं कोई त्रुटि है।
वह तुरंत वैकुण्ठ पहुंच गए और उन्होंने विष्णु से पुछा, ‘मैं हर समय आपका नाम जपता रहता हूं, मगर आप मेरे सामने नहीं प्रकट नहीं होते। मुझे आकर आपके दर्शन करने पड़ते हैं। मगर उस किसान के सामने आप रोज प्रकट होते हैं और वह परमानंद में जीवन बिता रहा है!’ विष्णु ने नारद की ओर देखा और लक्ष्मी को तेल से लबालब भरा हुआ एक बर्तन लाने को कहा। उन्होंने नारद से कहा, ‘पहले आपको एक काम करना पड़ेगा। तेल से भरे इस बर्तन को भूलोक ले जाइए। मगर इसमें से एक बूंद भी तेल छलकना नहीं चाहिए। इसे वहां छोड़कर आइए, फिर हम इस प्रश्न का जवाब देंगे।’ नारद तेल से भरा बर्तन ले कर भूलोक गए, उसे वहां छोड़ कर वापस आ गए और बोले, ‘अब मेरे प्रश्न का जवाब दीजिए।’ विष्णु ने पूछा, ‘जब आप तेल से भरा यह बर्तन लेकर जा रहे थे, तो आपने कितनी बार नारायण बोला?’ नारद बोले, ‘उस समय मैं नारायण कैसे बोल सकता था? आपने कहा था कि एक बूंद तेल भी नहीं गिरना चाहिए, इसलिए मुझे पूरा ध्यान उस पर देना पड़ा। मगर वापस आते समय मैंने बहुत बार ‘नारायण’ कहा।’ विष्णु बोले, ‘यही आपके प्रश्न का जवाब है। उस किसान का जीवन तेल से भरा बर्तन ढोने जैसा है जो किसी भी पल छलक सकता है। उसे अपनी जीविका कमानी पड़ती है, उसे बहुत सारी चीजें करनी पड़ती हैं। मगर उसके बावजूद, वह नारायण बोलता है। जब आप इस बर्तन में तेल लेकर जा रहे थे, तो आपने एक बार भी नारायण नहीं कहा। यानी यह आसान तब होता है जब आपके पास करने के लिए कुछ नहीं होता।’

मृत्यु के पल जरुरी है जागरूकता
जब मृत्यु का पल सामने आ जाता है तो वह कहने के लिए जिसे आप कहना चाहते हैं, पर्याप्त जागरूकता होनी चाहिए। इस संस्कृति में किसी के मरते समय हमेशा ‘ऊं नम: शिवाय’ या ‘राम नाम सत्य है’ बोला जाता है, ताकि मरने वाला अपने आखिरी पल में भगवान का नाम ले या किसी तरह जागरूक हो जाए। आपको कुछ कहने की भी जरूरत नहीं है। आप जिस पल जीवन के एक आयाम से दूसरे आयाम में जाते हैं  उस समय अगर आप सिर्फ अपनी जागरूकता कायम रख पाएं, तो आपको मुक्ति मिल सकती है। मगर उस पल में जागरूक होने के लिए आपको जीवन भर जागरूकता का अभ्यास करना होगा। या आपको किसी ऐसे व्यक्ति की मौजूदगी में होना चाहिए  , जो आपके लिए ऐसा कर सके। इसी संदर्भ में कृष्ण ने कहा था कि अगर मृत्यु के समय आप उनके बारे में ध्यान करें तो वे आकर आपकी मृत्यु को आसान बना देंगे।

यहां वह एक आंतरिक हकीकत की बात कर रहे थे, यानि परम तत्व को पाने का योग। परम तत्व को पाने के लिए अगर आप सही चीजें करें तो सौ फिसदी पक्का है कि आपकी  कोशिश कामयाब होगी क्योंकि इसमें एकमात्र तत्व आप होते हैं। इसमें कोई और नहीं सिर्फ आप होते हैं। इसलिए वह पूरे यकीन से कह सकते थे, ‘आपका ध्यान रखूंगा’। वे जीवन के बाहरी वास्तविकताओं के बारे में ऐसी बात नहीं कह सकते थे, क्योंकि बाहरी हकीकतें तमाम चीजों पर आधारित होती हैं।

अगर आप भौतिक से परे जाने के समय अपनी जागरूकता बरकरार रख सकते हैं, तो आप परम तत्व को पा सकते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लोगों के लिए आत्मज्ञान प्राप्ति का पल ही शरीर त्यागने का भी पल बन जाता है। जब आप शरीर को छोड़ते हैं उस समय यदि आप जागरूक हो जाएं, तो भी शरीर को तो आप त्यागेंगे ही। लेकिन यदि अपने शरीर को छोडऩे का समय अभी नहीं आया है, और आपकी जागरूकता ऐसे चरम पर पहुंच जाती है, जहां आप और आपका शरीर साफ तौर पर अलग-अलग हो जाते हैं - तो इस स्थिति में आप अपने शरीर में बने नहीं रह पाएंगे - जब तक कि आपके पास कुछ ऐसा सिस्टम न हो जो यह सुनिश्चित कर सकें कि आप अपने शरीर से फिसल न जाएं।

मसलन, समयमा में कई बार लोग शरीर को छोडऩे के कगार पर होते हैं। भाव स्पंदन में भी कई बार ऐसा होता है, जब लोग वाकई छोर पर खड़े होते हैं। चूंकि कुछ नियंत्रण तंत्र बना दिए गए हैं, इसलिए यह सुरक्षित होता है। यदि ये नियंत्रण तंत्र नहीं होते, तो निश्चित रूप से वे शरीर से अलग हो जाते। यह उनके लिए एक सौभाग्य होता, मगर ईशा के लिए अच्छा नहीं होता, इसलिए हम उन्हें जाने नहीं देते। वास्तव में उन्हें जाने न देना एक अपराध है, लेकिन यदि हम उन्हें जाने देंगे तो समाज हमें अपराधी ठहराएगा। इसलिए हम बस वह कर रहे हैं, जो सामाजिक रूप से स्वीकार्य है, न कि जो सही है।

मृत्यु के पल के विचार आपके साथ रहते हैं
एक और पहलू यह है कि यदि मृत्यु के समय आपके दिमाग में कोई विचार है तो वह आपके अगले जन्म की प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हमें किसी की मृत्यु की प्रक्रिया के समय शांति और खुशहाली का माहौल बनाना चाहिए क्योंकि मरने वाले के दिमाग और भावनाओं में जो भी चीज प्रधान होती है, वह उनके भावी जन्मों की विशेषता बन जाती है।

अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा।
इसी वजह से इस संस्कृति में हमेशा से यह कहा गया है कि आपको अपने परिवार के बीच नहीं मरना चाहिए। लोग अपनी मृत्यु के समय वन चले जाते थे, जिसे वानप्रस्थ कहा गया है। राजा धृतराष्ट्र, उनकी रानी गांधारी और कुंती भी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वन चले गए थे। उनके साथ सहायक के रूप में सिर्फ संजय थे। वे सब बूढ़े हो चुके थे इसलिए वे महल में रहने की बजाय मरने के लिए वन चले गए। हालांकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन और कई रूपों में मूर्ख थे, मगर फिर भी उनमें इतनी जागरूकता थी, जो आजकल दुनिया में देखने को नहीं मिलती। कुंती ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलें झेली थीं। अब उसके बच्चे राजा बन चुके थे, तो वह अब महलों में आनंद से रह सकती थी, मगर उसने भी वन में जाकर शरीर छोडऩे का फैसला किया।
वे वन में चले गए और वहां एक दुर्गम पहाड़ी के ऊपर चढऩे लगे। एक जगह जंगल में आग लगी हुई थी। वे लोग बूढ़े थे, इसलिए न तो भाग सकते थे, न ही जंगल की आग से बच सकते थे, तो उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित करने का फैसला किया। धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, 'तुमने अब तक मेरी बहुत सेवा की, मगर तुम्हारी आयु अभी कम है, तुम वापस लौट जाओ। हम तीनों खुद को अग्नि को समर्पित कर देंगे।’ संजय ने उन्हें छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और चारो जंगल की आग में जल गए।

जब आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप जुड़ाव की भावना को मन में लेकर मरेंगे जो भविष्य में आपके लिए खुशहाली नहीं लाएगी। आपको पता ही होगा कि हमारे देश में आज भी लोग मरने के लिए काशी जाते हैं, क्योंकि वह एक पवित्र जगह है। वे शिव की कृपा की छाया में मरना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी मृत्यु के समय उनका परिवार अपनी भावनाएं उनके सामने प्रदर्शित करे।

मृत्यु एकमात्र ऐसी चीज है, जो जीवन में निश्चित है। अगर आपने अपना जीवन अच्छी तरह जिया है, तो मृत्यु कोई बुरी चीज नहीं है। यदि आपने हर पल हिचक, भय, नफरत, और गुस्से के बीच जीवन बिताया है, तो इसका मतलब है कि आपने कभी जीवन नहीं जिया। मृत्यु के समय, अगर आप जीना चाहते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर, मृत्यु है क्या? आप शरीर को छोड़ रहे हैं। यह शरीर एक ऋण है जो आपने धरती मां से लिया है। मान लीजिए, आपने बैंक से एक करोड़ रुपये का ऋण लिया और अगले पचास सालों में आपने इस एक करोड़ को दस अरब बना लिया, तब यदि आपका बैंकर ऋण वापस मांगेगा तो आप खुशी-खुशी ब्याज सहित उसका ऋण चुका देंगे। उसे दावत और उपहार देंगे। मगर मान लीजिए आपने वे एक करोड़ रुपये उड़ा दिए और सब कुछ गंवा दिया तो बैंकर के आने पर आप आतंकित हो जाएंगे। आप छिपने की कोशिश करेंगे। बहुत सी चालें चलने की कोशिश करेंगे। इसी तरह धरती मां ने आपको यह ऋण दिया। यदि आपने इसे एक आनंदमय जीवन में बदल दिया, अगर आपने वाकई उसका पूरा इस्तेमाल किया और अपने अंदर पूरे मिठास के साथ जीवन जिया, तो जब धरती मां कहती है कि ऋण चुकाने का समय हो गया तो आप खुशी-खुशी उसे चुका देंगे। और उसका कोई ब्याज नहीं होता। जो खुशी-खुशी ऋण चुकाता है, उसके लिए जीवन समाप्त हो जाता है क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो आपके अंदर कुदरती तौर पर जागरूकता आती है। जब आप जागरूक होते हैं, तो आप मुक्ति के रास्ते पर होते हैं। अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा। लोग मुझसे कहते हैं, 'सद्‌गुरु इन नकारात्मक शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए, इससे हमें डर लगता है। क्या हम विलीन होकर शून्य हो जाएंगे?’ तो हम यह कह सकते हैं, 'जब आप मुक्ति पा लेते हैं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं, हर चीज में शामिल हो जाते हैं।’ जब शिव की बात आती है, तो हम शून्यता की बात करते हैं। लेकिन चूंकि लीला का संबंध कृष्ण से है, तो हम आपके साथ खुशनुमा बातें करना चाहते हैं। आप सब कुछ बन जाएंगे। आप ईश्वर बन जाएंगे। क्या यह सुनने में बेहतर लगता है?

जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म यह चक्र तो चलता ही रहता है

मृत्यु एक कटु सत्य है जिसे कोई नही ठुकरा सकता है जो भी इस संसार में आया है उसे एक न एक दिन जाना ही है।

जिसने जन्म लिया है उसे एक ना एक दिन मृत्यु में समां जाना ही है।

हर इंसान की मृत्यु होना क्यों अनिवार्य है।

कैसे हुआ इस मृत्यु का जन्म ?

यह तो आप जानते ही है की परमपिता ब्रह्मा जी ने ही इस पृथ्वी की रचना की है।

ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना के कई करोड़ों साल बाद यह देखा कि पृथ्वी पर जीवन का बोझ बढ़ता चला जा रहा है। अगर इसे नहीं रोका गया तो पृथ्वी समुद्रतल में डूब जाएगी। तब ब्रह्मा जी पृथ्वी पर बाहर का संतुलन बनाने के विषय में सोचने लगे।

बहुत अधिक सोचने के बाद ब्रह्मा जी को जब कोई उपाय नही सूझा तो उन्हें बेहद क्रोध आ गया। जिसके कारण एक अग्नि प्रकट हुई और ब्रह्मा जी ने उस अग्नि को समस्त संसार को जलाने का आदेश दिया।

यह देखकर सभी देवता, ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। तब ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया कि देवी पृथ्वी- जगत के वजन से चिंतित हो रही थी।उनकी इस पीड़ा ने ही मुझे प्राणियों के विनाश के लिए प्रेरित किया है।

यह विनाश देखकर भगवान शिव जी ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की और उन्हें कहा कि आप इस प्रकार पृथ्वी का भी विनाश कर देंगे, आप कोई दूसरा उपाय सोचिए। भगवान शिव के इस प्रार्थना को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपनी उस क्रोधाग्नि को पुनः अपने शरीर में समेट लिया।

अग्नि को अपने शरीर में वापस समेटते समय ब्रम्हा की इंद्रियों से काले, लाल और पीले तीन रंगों की एक स्त्री उत्पन्न हुई।

ब्रह्मा जी ने उस स्त्री को मृत्यु कहकर पुकारा और उससे कहा कि मैंने तीनों लोकों का संघार करने की इच्छा से जो क्रोध किया था मेरे उस क्रोधाग्नि से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है।अतः तुम तुम मेरी आज्ञा से जगत के प्राणियों का विनाश करो।

ब्रह्मा जी यह बात सुनकर स्त्री बहुत दुखी हुई और यह कहती हुई रोने लगी- मैं पाप और अधर्म से डरती हूं और फिर एक स्त्री होकर यह अहितकारक और कठोर कार्य कैसे कर सकती हूं। रोती हुई स्त्री की आंखों से जो आंसू टपक पड़े उन्हें ब्रम्हा जी ने अपनी हथेली में ले लिया।

वे उसे समझाते हुए बोले – हे मृत्यु तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इससे तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। मैंने जो तुम्हारे आंखों से निकले आंसुओं के जिन बूंदों को अपनी हथेली में ले लिया है। वह व्याधियां बन कर उन प्राणियों का विनाश करेगी और उसके पश्चात तुम उन प्राणियों के प्राणों को हर लेना।

इससे तुम्हें अधर्म नहीं, धर्म की प्राप्ति होगी और सनातन धर्म तुम्हें सदा ही पवित्र बनाए रखेगा। ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर मृत्यु ने उनका यह आदेश स्वीकार कर लिया।तभी से इस जगत के सभी प्राणियों मृत्यु को प्राप्त होने लगे।

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कहानी : जन्म और मृत्यु से परे मैं कौन हूं

सुशील कुमार शर्मा
कल कक्षा ग्यारहवीं में मैं स्वामी रामतीर्थ की कविता 'waves on the sleepless sea' पढ़ा रहा था। इस कविता में प्रकृति स्वयं अपने बारे में कथ्य कहती है कि वो कौन है। प्रसंग के अनुरूप छात्रों को मैं प्रकृति के बारे में विस्तार से बता रहा था उसी समय एक जिज्ञासु छात्र ने प्रश्न किया।
 
'सर ये प्रकृति क्या है?' मैंने उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए उत्तर दिया, 'इस सृष्टि में जो जड़ और चेतन है, वही प्रकृति है।'अब इसी उत्तर में से दूसरा प्रश्न छात्रों के मन में कौंधा और एक छात्र खड़ा हो गया, 'सर ये जड़ और चेतन क्या होता है? और सर हम लोग जड़ हैं या चेतन?' 
 
'जिसमें चेतना की ऊर्जा होती है, जो महसूस कर सकता है और किया जा सकता है वह चेतन है और जो स्थिर हो जिसमें चेतन न हो वह जड़ कहलाता है। जैसे तुम सभी चेतन हो और जो पीछे की बेंच पर सिर झुकाकर सो रहे हैं, वो सब जड़ हैं।' मैंने पीछे की बेंच के छात्रों की ओर इशारा किया, जो बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे।मेरे इस उदाहरण ने सारी कक्षा को ठहाकों से भर दिया और जो पीछे बैठे छात्र ऊंघ रहे थे वो सजग हो गए।
 
प्रकृति से चर्चा शुरू होकर मानव और मनोविज्ञान पर चर्चा केंद्रित हो गई। उसी समय एक दार्शनिक छात्र ने प्रश्न कर दिया, 'सर, हम लोग कौन हैं?'उसके इस प्रश्न पर पूरी कक्षा हंसने लगी। मैंने उसकी जिज्ञासा को मनोवैज्ञानिक ढंग से शांत किया। मैंने मानव की उत्पति से लेकर आज तक के विकास क्रम को सिलसिलेवार उन्हें समझाया। सभी छात्र बड़ी उत्सुकता से मेरे व्याख्यान को सुन रहे थे। कालखंड समाप्त हुआ और सभी छात्र मुझे बहुत संतुष्ट लगे किंतु न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं उस छात्र के प्रश्न का सही उत्तर नहीं दे पाया हूं।विद्यालय के बाद घर पहुंचा लेकिन वह प्रश्न मेरे मन-मस्तिष्क में उलझनें बढ़ा रहा था, बार-बार कौंध रहा था कि 'मैं कौन हूं?' 

शाम के भ्रमण के समय भी वही प्रश्न कौंधता रहा लेकिन कहीं से भी उत्तर नहीं मिला। रात को लैपटॉप खोलकर बैठा तो पाया कि इस विषय पर इंटरनेट अपार-असंख्य मीमांसाएं पड़ी हुई हैं। सबके अपने-अपने विश्लेषण हैं। प्रश्न सुलझने की जगह उलझता जा रहा था। मैंने लेपटॉप बंद किया और बाजू में अखंड नींद में सोती अपनी पत्नी का शांत चेहरा देखा, जो शायद मुझसे कह रहा था जितना जानने की कोशिश करोगे उतने ही उलझते जाओगे।

मैं चुपचाप आंखें बंद करके लेट गया किंतु वह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बिंध गया था, जो मुझे छोड़ने के नाम ही नहीं ले रहा था। 

सोचते-सोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।स्वप्न शुरू हो चुका था। मैं एक विशाल पर्वत के ऊपर स्थित मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। चारों ओर सुन्दर वन आच्छादित थे। ठंडी, मधुर व सुगंधित वायु बह रही थी। असंख्य सीढ़ियां चढ़ने के बाद मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचा तो देखा विशाल और भव्य लकड़ी का दरवाजा था। मुख्य दरवाजे को पार कर मंदिर प्रांगण में दाखिल हुआ तो देखा एक बहुत सुन्दर तालाब था जिसमें चारों और विभिन्न प्रकार की पुष्प वाटिकाएं असंख्य पुष्पों से सुशोभित थीं।
 
प्रांगण में बहुत विशालकाय घंटे लटक रहे थे। प्रांगण को पार करता हुआ मैं गर्भगृह की ओर बढ़ रहा था। मंदिर में चारों और बहुत सुन्दर मूर्तियां पत्थर पर उत्कीर्ण थीं। गर्भगृह के सामने पहुंचकर मैं स्तब्ध रह गया। मां भद्रकाली की बहुत ही अवर्चनीय सुन्दर प्रतिमा मुझ से साक्षात थी। मैं उस मूर्ति को देखकर समाधिस्थ हो गया।
 
कुछ समय पश्चात मैं उस गर्भगृह की परिक्रमा करके मुड़ा तो देखा कि तालाब के किनारे एक पर्णकुटी बनी हुई थी। अनायास ही मेरे कदम उस सुन्दर पर्णकुटी की ओर मुड़ गए। मैं उस पर्णकुटी के दरवाजे पर पहुंचा ही था कि एक ब्रह्मनाद-सी आवाज से वह वातावरण गुंजायमान हो गया, 'आओ विराट, आने में बहुत देर लगाई?'
 
उस आवाज के आदेश पर मैं यंत्रवत उस पर्णकुटी में प्रवेश कर गया। मैंने देखा कि उस पर्णकुटी के दक्षिणी हिस्से में एक सुन्दर स्वर्ण चौकी पर एक मृगछाल बिछी है जिस पर एक गौरवर्ण करीब 90 वर्ष की आयु का एक भव्य व्यक्तित्व विराजमान है। मस्तिष्क और दाढ़ी के केश चांदी जैसे धवल चमक रहे थे। आंखें हल्की लालिमा लिए हुई थी। मैंने यंत्रवत उस दिव्य व्यक्तित्व के चरणों में साष्टांग दंडवत किया। 'उठो विराट, बहुत समय के पश्चात मेरा ध्यान किया तुमने?', मैं अचकचा गया। मुझे लगा कि मेरा नाम तो सुशील है, ये मुझे विराट क्यों बुला रहे हैं?'तुम्हारे शरीर का नाम बदला है, मेरे और तुम्हारे संबंधों का नहीं।' जैसे उन्होंने मेरे मन का प्रश्न पढ़ लिया हो। मैं समझ गया कि ये कोई महान संत हैं जिनका मेरे किसी न किसी जन्म से रिश्ता है। 'स्थान ग्रहण करो', एक भव्य आवाज गूंजी। 'आपके श्रीचरणों में मेरा सादर अभिवादन', मैं उनकी पादुकाओं के समक्ष बैठ गया।
 
'कोई प्रश्न तुम्हें मुझ तक खींच लाया है।' मुझे लगा ये मेरे रोम-रोम से परिचित हैं।'जी गुरुवर।' मैंने संपूर्ण समर्पण से कहा।'तो प्रश्न करो।' गुरुदेव ने गहन गंभीर आदेश दिया।'गुरुदेव मैं कौन हूं?', मैंने उस प्रश्न को इतने जल्दी गुरुवर की ओर उछाला, जैसे वो बहुत बड़ा बोझ हो।एक अजीब-सा अट्टहास उस भव्य व्यक्तित्व ने किया फिर वो मुस्कुराए, 'ये प्रश्न हर उस व्यक्ति को व्यथित करता है, जो इसे जानने का प्रयास करता है।''गुरुवर, मैं बहुत व्यथित हूं। जितना जानने की कोशिश कर रहा हूं उतना उलझता जा रहा हूं। उत्तर की जगह और कई प्रश्न खड़े हो गए हैं।' मैंने बहुत कातर स्वर में कहा।'इस प्रश्न के दो भाग हैं। विराट पहला हिस्सा है मैं और दूसरा हिस्सा है कौन हूं। तुम्हें पहले इस 'मैं' को समझना पड़ेगा तब तुम 'कौन हूं' तक पहुंचोगे।

गुरुजी ने बड़े वात्सल्य से मुझे समझाया।'तुम्हें पता है ये 'मैं' क्या है और 'कौन हूं?' क्या है? उन दिव्य महाशय ने मुझ पर दृष्टिपात करते हुए कहा।उनके इस अचानक प्रश्न ने मुझे अचकचा दिया, 'जी नहीं', मेरे मुंह से निकला।'क्या ये शरीर जो मेरे सामने है तुम हो या ये जो नाम कभी विराट, कभी सुशील, ये तुम हो।' उन्होंने प्रश्न को और अधिक विस्तारित किया।'जी ये शरीर नाम, जाति, गुण, संस्कार, कार्यव्यवहार, प्रकृति आदि मिलकर कर 'मैं' बनता है। मैंने अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया।'नहीं', एक भव्य आवाज गूंजी जिसने मुझे अंदर तक कंपा दिया।

'शरीर+इन्द्रिय+प्राण+मन+चित्त+बुद्धि के साथ 'स्व' (आत्मा) 'मैं' कहलाता है और इन सब से रहित 'स्व' (आत्मा) ही 'कौन हूं?' का उत्तर है।' गुरुदेव के उत्तरों से मेरे मन पर पड़े अज्ञान के बादल धीरे-धीरे छंट रहे थे। इन सबसे हटकर जो चेतन है वही 'स्व' या हमारा असली स्वरूप है।'किंतु उस चेतना 'स्व' का स्वभाव क्या है?' मैंने उत्सुकतापूर्वक प्रश्न किया।'सत्य, आनंद, ऊर्जा और अस्तित्व उस चेतना का वास्तविक स्वभाव है।' गुरुवर ने बहुत गंभीरता से उत्तर दिया।'ऋषिवर, हमें इस 'स्व' का ज्ञान कैसे होगा?' मैंने अपने अंदर उबलते प्रश्न को उनके सामने उड़ेल दिया।
 
'हमारे अंदर का 'मैं' जो इस संसार को अपने में समाहित किए हुए है, जब वह 'मैं' तिरोहित होगा तब हमें अपने वास्तविक स्वरूप 'स्व' का ज्ञान होता है। आचार्य ने बहुत सरलीकृत करके मुझे संतृप्त किया। लेकिन मेरी प्रज्ञा निरंतर प्यास दर्शा रही थी।'परम गुरुवर, हमारे अंदर का 'मैं' और उसमें व्याप्त संसार कैसे तिरोहित होगा?' मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा।'जैसे रेगिस्तान में मृग-मरीचिका होती है हम उसे पाने के लिए दौड़ते जाते हैं और वह हमसे दूर भागती जाती है, जैसे रस्सी को सर्प समझकर उसका डर मन में भर जाता है, वैसे ही इस मिथ्या संसार को सही मानकर ये 'मैं' उसमें रम जाता है। जब तक ये गलत विश्वास हमारे 'स्व' से नहीं हटेंगे, तब तक ये संसार में लिप्त 'मैं' बना रहेगा और 'कौन हूं?' का उत्तर कभी नहीं मिलेगा।'

थोड़ी देर उन्होंने आंखें बंद की व ध्यानस्थ अवस्था में उन्होंने फिर बोलना शुरू किया। 'जब हमारा मन जो 'मैं' का मुख्य घटक है सारी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं और इन्द्रियों का संचालक है, शून्य नहीं होगा तब तक यह स्थूल जगत हमारे अस्तित्व से ओझल नहीं होगा और तब तक हमारे वास्तविक रूप 'स्व' का ज्ञान असंभव है।'मैं यंत्रवत उनके इस आख्यान को मंत्रमुग्ध सुन रहा था। इस मन को लेकर मेरे मन में बहुत प्रश्न थे। मैंने उन आचार्य से प्रश्न किया', प्रभु ये मन क्या है? और इसकी प्रकृति क्या है?'

आचार्य ने मुस्कुराते हुए कहा, 'बहुत सारे प्रश्न लाए हो विराट! क्या पता तुम्हें संतुष्ट कर पाऊंगा या नहीं? यह मन हमारे 'स्व' में स्थित होता है। इसका मुख्य कार्य विचारों को उत्पन्न करना होता है और उन विचारों को क्रियान्वित कराना ही इसका स्वभाव होता है। चित्त, बुद्धि और मस्तिष्क इसके मुख्य घटक हैं। ये सारे मिलकर हमारे 'स्व' (आत्म) को आच्छादित कर उसके मूल स्वरूप को परिवर्तित कर देते हैं। यही मन की प्रकृति या स्वभाव है।' मैं मंत्रमुग्ध होकर इन गूढ़ रहस्यों से परिचित होता जा रहा था। 

मैंने मन को और विस्तार से जानने के लिए प्रश्न किया, 'आचार्य इस मन को शून्य कैसे करते हैं?' 'जब हम अपने स्व को ढूंढते हुए प्रश्न करते हैं कि 'मैं कौन हूं?' उस समय मन से जगत के विचार तिरोहित होने लगते हैं और जब बार-बार यह प्रश्न अपने स्व से किया जाता है तो बाकी के सभी विचार मन से निकल जाते हैं और हमारा मन सिर्फ एक विचार पर केंद्रित हो जाता है कि 'वह कौन है?'। धीरे-धीरे इसी बिंदु से मन तिरोहित होकर स्व के ऊपर से अपना आवरण छोड़ देता है और इस प्रश्न 'मैं कौन हूं' के उत्तर के रूप में प्रकाशित हो जाता है।'

गुरुवर की इस व्याख्या ने मेरे मन के सभी प्रश्नों का उत्तर दे दिया था फिर भी मैंने अपना अंतिम प्रश्न उनसे किया, 'प्रभु ये ज्ञान या समदृष्टि क्या है?' 'जब 'मैं' 'स्व' में विलीन हो जाता है तो सारी इच्छाओं का अंत हो जाता है और यही समदृष्टि या ज्ञान कहलाता है', आचार्यवर ने मुस्कुराते हुए मेरी सारी शंकाओं का निराकरण कर दिया।मैं यंत्रवत उनके चरणों में साष्टांग दंडवत करने के लिए लेट गया। उसी समय उन्होंने मेरे मस्तिष्क के बीचोबीच अंगूठा रखा। 
 
एक बिजली का झटका लगा और मेरा पूरा शरीर हवा में झूल गया। मैंने घबराकर उन महान आचार्य की ओर देखा। उनके चेहरे पर वात्सलयमयी मुस्कराहट थी। वे बोले, 'जाओ विराट और अपने प्रारब्ध को जीओ और जिस हेतु तुम्हें शरीर मिला है उन कर्तव्यों का पालन करो।'मैं देख रहा था कि मेरा शरीर हवा में उड़ता हुआ उस पर्वत शिखर से नीचे की ओर आ रहा था फिर एक धड़ाम की आवाज से मैं नीचे जमीन पर गिरा व हड़बड़ाकर जैसे ही आंखें खोलीं तो देखा बिस्तर के पास की छोटी टेबल के ऊपर रखा गिलास नीचे गिरा था। मेरा पूरा शरीर पसीने से लथपथ था। सुबह के चार बज रहे थे।
 
मेरी पत्नी भी उस गिलास के गिरने की आवाज से अचकचाकर उठ बैठी व मुझे उसी हालत में देखकर बोली, 'अरे क्या हुआ! कोई बुरा स्वप्न देखा क्या?''कुछ नहीं, तुम सो जाओ', मैंने अपने आपको संभालते हुए कहा। उस समय मैं अपने उस स्वप्न के बारे में सोच रहा था और तय नहीं कर पा रहा था कि ये स्वप्न था या सच्चाई?उन महान आचार्य के एक-एक शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे। एक बड़ा प्रश्न मेरे जेहन में घूम रहा था कि वो मुझे विराट क्यों कह रहे थे?
 
उस दिन विद्यालय पहुंचकर मैं उस कक्ष जिसमें आचार्य रजनीश बैठकर बचपन में पढ़ते थे अपने कालखंड में पहुंचा और छात्रों के उस प्रश्न 'सर हम कौन हैं?' का उत्तर उन्हें समझा रहा था। मैं उनको मन, चित्त, बुद्धि, प्रज्ञा आदि कठिन विषयों को सरलीकृत करके समझा रहा था।अचानक सामने की दीवार पर ओशो की एक बहुत बड़ी तस्वीर जिसमें वो अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए थे, पर मेरी नजर अटक गई जिस लिखा हुआ था, 'मैं जो न कभी जन्मा था, न जिसकी कभी मौत हुई।'

क्या है मृत्यु?

 आज मैं अपने इस आर्टिकल में प्राणियों की होने वाली मृत्यु पर बात करने वाले हैं. दोस्तों यह अटल सत्य है कि किसी भी प्राणी के भूत, भविष्य और वर्तमान में कुछ भी निश्चित हो या न हो परंतु प्राणी की मृत्यु अवस्य निश्चित है. यानि जो भी प्राणी इस जगत में उत्पन्न होता है, उसे मृत्यु को अवश्य ही प्राप्त होना होता है. यह मृत्यु क्या है और प्राणियों को यह मृत्यु क्यों प्राप्त होती है और कैसे इस मृत्यु की उत्पत्ति हुई थी ? चलिए जानते हैं अपने इस आर्टिकल में.

दोस्तों आप लोग यह तो जानते ही हैं की परम पिता ब्रह्मा जी सदैव इस सृष्टि और इस सृष्टि पर विचरने वाले सभी प्राणियों की रचना करते हैं. हमारी सृष्टि का इससे पहले कई बार विनाश हो चुका हैऔर कई बार इसकी रचना हो चुकी है.

लेकिन हम उस समय की बात कर रहे हैं, जब पहली बार परमपिता ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की थी. पहली बार इस सृष्टि की और इस सृष्टि की सभी प्राणियों की रचना करने के कई हजार वर्षों के बाद जब परम पिता ब्रह्मा जी ने यह देखा कि प्राणियों की संख्या तो उनकी जन्म की प्रक्रिया के कारण बढ़ती ही चली जा रही है. तो वह इस सोच में डूब गए की यदि इन प्राणियों की संख्या ऐसे ही बढ़ती गई तो इस समस्त प्राणियों के भार से यह पृथ्वी पुनः रसातल में डूब जाएगी. तब ब्रह्माजी पृथ्वी पर भार का संतुलन बनाने के विषय में सोचने लग गए.

परंतु बहुत सोचने के बाद भी परम पिता ब्रह्मा जी को समझ नहीं आया तो उन्हें क्रोध आ गया और उनके क्रोध से अग्नि प्रकट हो गई. तब परम पिता ने उस क्रोधाग्नि से पृथ्वी के समस्त प्राणियों का संघार करने का निर्णय ले लिया. उनके ऐसा निर्णय लेते ही वह अग्नि संपूर्ण दिशाओं में फैल गई. और उसने इस संपूर्ण जगत को जलाना आरंभ कर दिया.

दोस्तों सारे संसार को अग्नि मैं भस्म होता देख सभी देवता चिंतित हो उठे. तब भगवान शिव ब्रह्मा जी के पास आये और उनसे बोले भगवन आप इस प्रकार इस सृष्टि का संघार किस कारण कर रहे हैं. तो ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि देवी पृथ्वी जगत के भार से पीड़ित हो रही थी और उनकी उस पीड़ा ने प्राणियों का विनाश करने के लिए प्रेरित किया है.

तब भगवान शिव ब्रह्मा जी से प्रार्थना की भगवन आपके इस क्रोधाग्नि से प्राणियों के साथ-साथ पेड़-पौधे, पर्वत, नदियां आदि सभी कुछ भस्म हुआ जा रहा है. इसलिए आप इस क्रोधाग्नि को रोकिए और प्राणियों के विनाश का कोई दूसरा उपाय सोचिए.

परमपिता ब्रह्माजी के क्रोधाग्नि से हुई मृत्यु उत्पत्ति : 
 भगवान शिव के इस प्रार्थना सुनकर परमपिता ब्रह्मा जी ने अपनी उस क्रोधाग्नि को पुनः अपने शरीर में समेट लिया. अग्नि को अपने शरीर में वापस समेटते समय परमपिता ब्रम्हा की इंद्रियों से काले, लाल और पीले तीन रंगों की एक स्त्री उत्पन्न हुई. ब्रह्मा जी ने उस स्त्री को मृत्यु कहकर पुकारा और उससे कहा कि मैंने तीनों लोकों का संघार करने की इच्छा से जो क्रोध किया था मेरे उस क्रोधाग्नि से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है. अतः तुम तुम मेरी आज्ञा से जगत के प्राणियों का विनाश करो.

दोस्तों ब्रह्मा जी यह बात सुनकर मृत्यु बहुत दुखी हुई और यह कहती हुई रोने लगी- मैं पाप और अधर्म से डरती हूं और फिर एक स्त्री होकर यह अहितकारक और कठोर कार्य कैसे कर सकती हूं.

रोती हुई मृत्यु की आंखों से जो आंसू टपक पड़े उन्हें परमपिता ब्रम्हा जी ने अपनी हथेली में ले लिया और मृत्यु को समझाते हुए बोले – हे मृत्यु तुम मेरी आज्ञा का पालन करो. इससे तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा. मैंने जो तुम्हारे आंखों से निकले आंसुओं के जिन बूंदों को अपनी हथेली में ले लिया है वह व्याधियां बन कर उन प्राणियों का विनाश करेगी और उसके पश्चात तुम उन प्राणियों के प्राणों को हर लेना. इससे तुम्हें अधर्म नहीं, धर्म की प्राप्ति होगी और सनातन धर्म तुम्हें सदा ही पवित्र बनाए रखेगा. दोस्तों परमपिता ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर मृत्यु ने उनका यह आदेश स्वीकार कर लिया और तभी से इस जगत के सभी प्राणियों मृत्यु को प्राप्त होने लगे.

हिन्दुओं में जयंतियों को बड़ा शुभ माना जाता है, वहीं पुण्यतिथियों को कम तरज़ीह दी जाती है. हिन्दुओं के ज़्यादातर त्योहार किसी भगवान के जन्म या किसी राक्षस के मरने के बारे में होते हैं. जैसे भगवान राम, कृष्ण और हनुमान के बर्थडे मनाए जाते हैं, वैसे ही दुर्गा माता के हाथों महिषासुर का मरना, भगवान राम का रावण को मारना सेलीब्रेट किया जाता है. भगवान का जन्म हो या राक्षस का मरना, ये दोनों इवेंट पॉज़िटिविटी वाले माने गए हैं.

ईसाइयों में त्योहारों का कंसेप्ट ज़रा अलग होता है. वो जीसस क्राइस्ट के मरने का मातम गुड फ्राइडे के नाम से मनाते हैं. शिया मुस्लिम भी मुहम्मद साहब के दामाद के मरने का मातम मुहर्रम के नाम से मनाते हैं.

ऐसा इसलिए क्योंकि दुनिया भर के हिन्दू जन्म को शुभ और मृत्यु को मनहूस मानते हैं. रामायण को महाभारत से ज़्यादा पूजा जाता है क्योंकि रामायण में राम के जन्म की बात कही गई है, वहीं महाभारत में कृष्ण के जन्म का कहीं ज़िक्र नहीं है. ज़्यादा मान-सम्मान भागवत पुराण को दिया जाता है जिसमें कृष्ण के जन्म का वर्णन है.

हर धर्म के लोग कम से कम एक दिन तो गुज़र चुके अपनों को याद करते हैं. हिन्दुओं में ये पितृपक्ष के 14वें दिन होता है, जब गुजर चुके लोगों के लिए रस्में की जाती हैं. लेकिन एक अंतर है. ईसाई धर्म और इस्लाम में माना जाता है कि मरे हुए लोगों ने अपनी पूरी ज़िंदगी जी ली, वो बस आखिरी फैसले का इंतज़ार कर रहे हैं. वहीं हिन्दू धर्म में मौत के बाद पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं. फिर भी दूसरे धर्मों की तुलना में हिन्दू रीति रिवाज़ मरे हुए लोगों से कम ताल्लुक़ रखते हैं.

ईसाई धर्म और इस्लाम में मौत को तवज्जो दी जाती है, तभी कब्र और मक़बरे बनाए जाते हैं. ज़्यादातर हिन्दू कम्युनिटीज़ लाश का कोई भी हिस्सा घर के अंदर या आस-पास भी नहीं रखतीं. वो हर चीज़ जो मुर्दों को छू जाए, उसे अपवित्र और मनहूस मानते हैं. पहले हिन्दू आश्रमों में गुरुओं की लाश को दफ़नाया जाता था और उसके ऊपर एक तुलसी का पौधा लगा दिया जाता है. हो सकता है कि ये प्रथा बौद्धधर्म से आई हो, जहां लोग महान गुरुओं का अंतिम संस्कार करने के बाद उनके कुछ अवशेष जैसे दांत, बाल या हड्डी अपने पास रख लेते हैं.

जब मुस्लिम शासकों ने खुद के लिए मक़बरे बनवाने शुरू किए तो कई हिन्दू राजाओं ने भी डिमांड की कि इसी तरह उनका भी अंतिम संस्कार किया जाए, उस जगह मंडप और छतरियां बनवा दी जाएं. हमें ऐसी प्रैक्टिस राजस्थान में दिखती है. ये प्रैक्टिस आज भी जारी है. महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी जैसे हिन्दू नेताओं के अंतिम संस्कार वाली जगह पर मक़बरे बनाए गए हैं. ब्राह्मणवाद और जातिवाद को छोड़ते हुए बहुत सी हिन्दू कम्युनिटीज़, मुर्दों को दफ़नाने और उनके लिए मक़बरे वनवाने जैसी प्रैक्टिस करती हैं. जैसा कि द्रविड़ों में पॉपुलर रहीं जयललिता की समाधि बनाई गई है.

1400 साल बाद भी शिया इस्लाम में इमाम हुसैन का शोक जारी है. 2000 साल बाद भी बहुत सी कम्युनिटीज़ जीसस को सूली पर चढ़ाने का प्ले करती हैं. इसके विपरीत शिव को स्मरणकंटक और यमनकंटक कहते हैं, मैमोरी और मृत्यु के विनाशक.

हिन्दू धर्म में मौत की यादों को कुछ ऐसा माना जाता है जो आत्मा की प्रगति, ज्ञान और मुक्ति को रोक देती हैं. मौत के डर से मानसिक बदलाव आते हैं. जो सिर्फ़ योग से दूर किए जा सकते हैं. इसलिए अंतिम संस्कार के बाद पीछे मुड़कर श्मशान की तरफ़ देखने से मना किया जाता है. पास्ट को भूलना ही पड़ता है. इससे पता चलता है कि दूसरे धर्म इतिहास में बीती घटनाओं को ज़्यादा तवज्जो देते हैं, जबकि हिन्दू धर्म में पौराणिक कथाओं का ज़्यादा महत्व है.

आजकल, जब दुनिया ‘न्याय’ के नाम पर बदले की मांग रखने लगी है, पास्ट में घटी गलत चीज़ों के बारे में बात करना एक बड़ा राजनीतिक हथियार बन गया है. इससे रैलियों के लिए भीड़ इकट्ठा हो जाती है, ये लोगों को बांधे रखता है. उदाहरण के तौर पर बार-बार होलोकॉस्ट का जिक्र करते हुए, यहूदी लोगों को काफ़ी राजनीतिक फ़ायदे मिलते हैं. वैसे ही सिख भी ब्रिटिश सरकार को शर्मिंदा करने के लिए ‘जलियांवाला बाग’ और भारतीय सरकार को शर्मिंदा करने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ को याद करते हैं. अब कई हिंदू मुस्लिमों के खिलाफ़ रैली निकालने के लिए ‘गुलामी के हज़ार साल’ जैसी बातें किए जा रहे हैं. इस तरह से प्रज़ेंट को शेप देने के लिए पास्ट का इस्तेमाल किया जाता है.

मौत हमें जकड़ कर रखती है. आगे बढ़ने से रोके रखती है. जन्म, फिर से जन्म, या किसी गुरु को मान कर इसी जीवन में नया जन्म मिलना, इन सबको अच्छा माना जाता है. हिन्दू परंपराओं में पास्ट भूलकर आगे की तरफ़ ध्यान देना बेहतर माना जाता है. सबसे शुभ दिशा पूर्व है, जहां से सूरज उगता है. सबसे शुभ ओरिएंटेशन उत्तर है जहां कभी दिशा और जगह न बदलने वाला ध्रुव तारा है. पश्चिम को सूरज के ढलने और दक्षिण को मौत और अशुभ चीज़ों से लिंक किया जाता है. पास्ट मौत है और मौत एक जाल है जो हमें मुक्ति से दूर करता है.


वेद के अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। 

वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। 

उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म।

यह क्रम इस प्रकार चलता है- 

जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है।

व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।

जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ‍ब्राह्मी चेतना।

1. जागृत अवस्था : अभी यह आलेख पढ़ रहे हो तो जागृत अवस्था में ही पढ़ रहे हो? ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में भी नहीं रहते। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो स्वप्न की अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।
अधिकतर लोग स्वप्‍न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न अवस्था : जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
यह ऐसा है कि भीड़भरे इलाके से सारी ट्रेफिक लाइटें और पुलिस को हटाकर स्ट्रीट लाइटें बंद कर देना। ऐसे में व्यक्ति को झाड़ का ‍हिलना भी भूत के होने को दर्शाएगा या रस्सी का हिलना सांप के पीछे लगने जैसा होगा। हमारे स्वप्न दिनभर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।

3. सुषुप्ति अवस्था : गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।
सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।

4. तुरीय अवस्था : चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।
यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।

5. तुरीयातीत अवस्था : तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।
इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की ज़रूरत नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सबकुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना : तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सि‍द्ध योगी की अवस्था है।

7. ब्राह्मी चेतना : भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।

हिंदू धर्म के अनुसार बहुत सी धार्मिक पुस्तकें हैं जिनमें जन्म व मृत्यु से जुड़ी सभी बातें स्पष्ट रूप से बताई गई है। उन धर्म ग्रंथों में ऐसा बताया जाता है कि इस दुनिया में चार युग है जिसके अनुसार यह दुनिया विचरण करती है। वेदों के अनुसार चार युग बताये गये है सतयुग त्रेतायुग द्वापरयुग और सबसे अंत में कलयुग आता है जिसमें आज हम जी रहे हैं वह है कलयुग। 

ऐसा माना जाता है कि कलयुग में एक आत्मा का जन्म 45 बार होता है और उसकी उम्र 100 साल तक की होगी । क्‍या आप जानते हैं एक आत्मा किस युग में कितनी बार जन्म लेती है। आज हम आपको बताने वाले हैं कि कलयुग का अंत किस तरह से होगा और किस तरह से होगा इसका पुनर्जन्म। कहते हैं तुरंत हमें हमारे युग से जुड़ी हर बात का वृतांत स्पष्ट रुप से किया गया है जिसके अनुसार ही हर युग में उसके कर्म और प्रभाव होते हैं। तो चलिए आज हम आपको बताते हैं कैसे होगा कलयुग कब और कैसे होगी नई शुरुआत।

महर्षि व्यास जी के अनुसार सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलयुग ये चार युग हैं, जो देवताओ के बारह हज़ार दिव्य वर्षो के बराबर होते हैंI समस्त चतुर्युग एक से ही होते हैंI आरम्भ सत्ययुग से होता है अंत में कलयुग होता हैI किसी भी जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं, जो पूर्णत: अपरिवर्तनीय हैं, अर्थात् किसी भी युग में इनमे कोई बदलाव नही किया जा सकता।

ब्रह्माजी क्रत्युग में जिस प्रकार सृष्टि का आरम्भ करते हैं, वैसे ही कलयुग में उसका उपसंहार करते हैंI सतयुग, द्वापरयुग, कलयुग हर युग में कोई न कोई भगवान जन्म जरूर लेते है। ग्रंथों में ऐसा भी बताया गया है कि इस कलयुग में भी भगवान का अवतार होगा लेकिन उससे पहले धरती पर पाप का घड़ा भर जाएगा। ऐसा कहा जाता है कि कलयुग की उम्र 432000 साल की है तब तक धरती पर पाप दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाएगा। और अंत में होगा भगवान का अवतार कल्कि रूप में।

ग्रंथों में बताया गया है कि भगवान कल्कि रूप में अवतार लेंगे और धरती पर से पाप का विनाश करेंगे जिस तरह से उन्होंने पाप का विनाश द्वापर युग में किया था। कलयुग के चरम सीमा पर धरती का विनाश हो जायेगा। उसी के बाद होगा दोबारा से सतयुग का आरंभ जिसने फिर से भगवान प्रकट होंगे और उसी युग में सतयुग की लीला भगवान द्वारा दोबारा से रची जाएगी। ग्रंथो में इस बात का पूरा व्रतांत दिया गया है।

ग्रंथों में यह भी बताया गया है कि भगवान कल्कि केवल तीन दिनों में पृथ्वी से समस्त अधर्मियों का नाश कर देंगे। माना जाता है कि कलियुग में अंतिम समय में बहुत मोटी धारा से लगातार वर्षा होगी, जिससे चारों ओर पानी ही पानी हो जाएगा। समस्त पृथ्वी पर जल हो जाएगा और प्राणियों का अंत हो जाएगा। इसके बाद एक साथ बारह सूर्य उदय होंगे और उनके तेज से पृथ्वी सूख जाएगी।


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