हिंदू-धर्म ग्रंथों, वेदों और पुराणों में कुल 84 लाख योनियों के बारे में बताया गया है।
प्रश्न –> योनियां, अब प्रश्न ये है कि यहाँ "योनि" का अर्थ क्या है?
उत्तर –> अगर सर्व सामान्य भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है कि मादा जीव के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है, उसे हम योनि कहते हैं। इस तरह पशु योनि, पक्षी योनि, कीट योनि, सर्प योनि, मनुष्य योनि, वृक्ष योनि आदि।
वैज्ञानिक भाषा में समझा जाये तो योनि किसी जीव की एक जाति (नस्ल) है, जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जीवों की जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है।
इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु जैसे सूक्ष्मजीव इत्यादि की गणना भी उन्ही 84 लाख योनियों में की जाती है।
हमारे पुराग्रंथों में सृष्टि में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार की 84 लाख योनियां, अर्थात जीव-जंतुओं को अनेक प्रकार से विभाजित किया गया है। योनि रूप विभाजन को मुख्य आधार माना गया है।
योनियों के आधार पर इन्हें दो भागों में बांटा गया है, जिनमें पहला योनिज और दूसरा अयोनिज है।
योनिज –> ऐसे जीव जिनके जन्म के लिए दो जीव नर और योनिजा (मादा) की आवश्यकता होती है और ये जीव जीव नर और मादा के संयोग के उपरांत योनिजा (मादा) जननांग योनि से उत्पन्न होते हैं। योनिज कहे जाते हैं। जैसे मनुष्य गाय भैंस बकरी बंदर चूहा पशु पक्षीआदि।
अयोनिज –> ऐसे जीव जिन्हें उत्पन्न होने के लिए किसी योनिजा (मादा) की आवश्यकता नहीं होती, अयोनिज कहे जाते हैं। पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु जैसे सूक्ष्मजीव सूक्ष्मजीव आदि।
84 लाख योनियाँ
84 लाख योनियाँ की संख्या मुख्यतः गरुड़ पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, योगवाशिष्ठ, और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में पाई जाती है। योनि सिद्धांत बताता है कि आत्मा 84 लाख योनियों या ८.४ मिलियन विभिन्न प्रकार के शरीरों (जीव रूपों) में जन्म ले सकती है।
पद्म पुराण के अनुसार 84 लाख योनियाँ
जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यक:।
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशव:, चतुर लक्षाणी मानव:।। (78:5 पद्मपुराण श्लोक)
पद्म पुराण के इस श्लोक का अर्थ है कि, जलचर प्राणी 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे और वनस्पति 20 लाख, कृमि (सरीसृप) का मतलब है कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, पशु (स्थलीय/थलचर) 30 लाख और शेष 4 लाख मानवीय योनि है।
जलचर जीव-जंतु => 9 लाख
पेड़-पौधे और वनस्पति => 20 लाख
कृमि (कीड़े-मकौड़े) => 11 लाख
पक्षी (नभचर ) => 10 लाख
पशु (स्थलचर) => 30 लाख
मनुष्य, देवता-दैत्य-दानव आदि=> 4 लाख
इस तरह से कुल योनियों की संख्या => 84 लाख
इस तरह से योनियों की कुल संख्या 84 लाख बताई गई है.
प्रश्न –> भारतीय ऋषि मुनियों ने योनी सिद्धांत को क्यों प्रतिपादित दिया?
उत्तर –>
जीवात्मा, परमात्मा का अंश होने के कारण अजर और अमर है परंतु वह अपने शरीर जिसे योनी कहा गया है। उसे जन्म और मृत्यु के द्वारा बदलता रहता है।
उपनिषदों, बृहदारण्यक उपनिषद (4.4.1–5) में आत्मा की योनि यात्रा के बारे में कहा गया है: "यथाकर्म यथाश्रुतं तस्य लोका भवति।"
यह श्लोक बताता है कि जैसा कर्म और जैसा ज्ञान होगा, उसी के अनुसार आत्मा को अगला लोक और योनि प्राप्त होती है। यह दर्शाता है कि आत्मा की यात्रा कर्म और ज्ञान पर निर्भर करती है।
वेद, ऋग्वेद 10.16.3 में प्रत्यक्ष उल्लेख किया गया है: "पुनर् मा मा त्वा पतयतां समग्मन्"
यह श्लोक संकेत करता है कि आत्मा मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेती है, जो वेदों में पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्थापित करता है।
और शरीर के अनुसार ही अपने कर्मों का उपभोग करता रहता है।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार..
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् ।
तैस्तैर अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥
(11-9-28 श्रीमद्भागवतपुराण)
अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परंतु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई अतः मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था।
प्रश्न –> जीवन-मरण या जन्म-मृत्यु चक्र और मोक्ष क्या है?
उत्तर –> जीवात्मा का किसी भी योनि रूपी शरीर को ग्रहण करने या उसमें उत्पन्न होने को उसका 'जन्म' कहा जाता है और जीवात्मा का उस अमुक योनि रूपी शरीर को त्यागने को 'मृत्यु' कहते हैं।
दूसरे शब्दों में हम यह बात इस प्रकार समझ सकते हैं कि आज हमने धोती और कुर्ता पहना और कल हमने कोट पेंट पहना था। क्या जीवात्मा रूपी हम बदल गए ? नहीं , केवल हमारे वस्त्र बदले ठीक उसी प्रकार जो जीवात्मा है वह अपना वस्त्र रूपी शरीर बदलता है जिसे हम योनी कहते हैं ।
मोक्ष का वास्तविक अर्थ 84 लाख योनियों वाले इस जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना ही मोक्ष है। ऐसी मान्यता है कि मोक्ष प्राप्ति के उपरांत जीवात्मा का आगे या भविष्य में किसी अन्य योनि में जन्म नहीं होता।
प्रश्न –> अब कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि वस्त्र बदलने से हम थोड़े ही बदल जाते हैं। हम तो वही रहते हैं।
उत्तर –> आपने बिल्कुल सही कहा कि वस्त्र बदलने पर भी आप अर्थात मनुष्य रूपी जीवात्मा तो वही रहती है। अपने अनजाने में ही अपने प्रश्न का उत्तर भी हमें दे दिया, अब आप ही बताइए कि जब आप या मानव रूपी जीवात्मा पुलिस के वस्त्र पहन लेती है तो सिपाही कहलाती है, एक सैनिक के वस्त्र पहन लेती है तो सैनिक कहलाती है, एक वकील के वस्त्र पहन लेती है तो वकील कहलाती है और यदि वह एक डॉक्टर के वस्त्र पहन लेती है तो डॉक्टर कहलाती है।
इसी प्रकार जब जीवआत्मा हाथी का शरीर धारण करती है तो हाथी कहलाती है, चींटी का शरीर धारण करती है तू चींटी कहलाती है, गाय का शरीर धारण करती है तो गाय कहलाती है और मनुष्य का शरीर धारण करती है तो मनुष्य या मानव कहलाती है।
प्रश्न –> अब प्रश्न यह उठता है कि जो भी जीव 84 लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है। वह जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है। अर्थात उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी।
उत्तर –> ऐसा नहीं है कि जो भी जीव 84 लाख योनियों में जन्म और मरण की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। वह जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाएगा, अर्थात उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है।
ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या 80,00,00 (अस्सी लाख) बताई गयी है।
अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है। विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।
प्रश्न –> एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है?
उत्तर –> इसका उत्तर है - नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक अच्छी अर्थात आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है।
ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की।
ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सिर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई।
विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राज थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे।
महाभारत में तो अनेक उदाहरण मिलते हैं।
महाभारत की कृष्ण लीला में अर्थात द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में यमलार्जुन नमक एक जुड़वा वृक्ष को उखाड़ कर मोक्ष प्रदान किया था। "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो पिछले जन्म मे 'नलकुबेर' और 'मणिग्रीव' नामक दो यक्ष भाई थे। जिन्हे नारद जी ने वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप दिया था।
महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ।
महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय धर्मराज युधिष्ठिर के साथ एक कुत्ते का जिक्र आया है। जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।
अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
अब आप सोच रहे होंगे कि यमलार्जुन नामक वृक्ष की कहानी क्या है? तो हम आपको बता दें ।
महाभारत की कृष्ण लीला में अर्थात द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में यमलार्जुन नमक एक जुड़वा वृक्ष को उखाड़ कर मोक्ष प्रदान किया था। वे "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों थे। दिनेश संयुक्त रूप से यमला अर्जुन बोला गया है। ये "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों पिछले जन्म मे 'नलकुबेर' और 'मणिग्रीव' नामक दो यक्ष भाई थे और नारद मुनि के शाप के कारण दोनों वृक्ष बन गए थे ।
एक बार की बात है हाथियों के राजा गजेंद्र अपने समूह के साथ घूमने निकले थे और इसी दौरान उन्हें जोर की प्यास लगी। अपनी प्यास बुझाने के लिए वो एक विशाल तालाब के तट पर पहुंचे और वहाँ जल ग्रहण किया। इसके बाद उस तालाब में मौजूद कमल के फूलों की खुशबु से मंत्रमुग्द होकर वो सरोवर में जल क्रीडा के लिए उतर गया। इसी तालाब में मौजूद एक मगरमच्छ (जिसे ग्राह भी कहते हैं) ने गजेंद्र यानी उस हाथी का एक पैर दबोच लिया। गजेंद्र को जब दर्द का एहसास हुआ तो पहले उसने मगरमच्छ से अपने आप को छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसके सभी प्रयास असफल रहे। इस बीच मौजूद अन्य हाथियों ने भी गजेंद्र को ग्राह के चंगुल से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया लेकिन सभी उसमें नाकामयाब रहे। काफी समय बीत जाने के बाद गजेंद्र की सारी शक्तियां जब यथावत रह गयी तो उसने मोक्ष प्राप्ति के लिए श्री हरी विष्णु जी की आराधना करनी शुरू कर दी और एक स्तोत्र का जाप किया जिसे गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र कहा जाता है। गजेंद्र के स्तोत्र पाठ से खुश होकर विष्णु जी उस सरोवर पर आते हैं और अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह यानी की उस मगरमच्छ के सिर को काट देते हैं। अब आप जान चुके होंगे कि किस प्रकार से गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई।

नारद जी ने श्राप क्यों दिया?
एक बार नलकूबर और मणिग्रीव नामक दोनों भाई मद्यपान में स्त्रियों के साथ जल-क्रीड़ा कर रहे थे। मद्यपान के कारण इन्हें अपने वस्त्रों की भी सुधि नहीं थी। वे कब नग्न हो गए उन्हें पता ही नहीं चला। उसी समय नारद मुनि विचरण करते हुए उस स्थान से गुजरे। नारद मुनि को आता देखकर स्त्रियों ने तो वस्त्र पहन लिए पर नलकूबर और मणिग्रीव मद्यपान के कारण नग्न ही खड़े रहे l महान वैष्णव के आगे सभ्यता का परिचय नहीं देने और नग्न अवस्था मे ही रहने के कारण नारद जी ने उन दोनों को वृक्ष बन जाओ कहकर श्राप दे दिया। परक्युकि वृक्ष बिना किसी कपडे के कई वर्षो तक धूप, ताप, वर्षा आदि सहन करते है l
- इसके बाद दोनों भाइयो ने नारद मुनि से क्षमा मांगी l महान वैष्णव होने के नाते नारद मुनि को उन पर दया आयी और उन्होंने कहा की तुम्हारा शाप तो ऐसे ही रहेगा पर तुम्हारा यही शाप तुम्हारे लिए वरदान साबित होगा l भगवान कृष्ण स्वयं तुम्हारा उद्दार करेंगे l
- बाद मे कृष्ण ने उखल से बंधे होने के बावजूद दोनों वृक्षों को गिरा दिया और दोनों भाई मुक्त हुए l साथ ही साथ आध्यात्मिक जगत मे मधु कंठ और स्निग्ध कंठ बने l
इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने यह भी बताया है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है।
प्रश्न –> सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके?
उत्तर –> तो उत्तर है - हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन 84,00,000 योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही 84,00,000 योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है।
इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को 3 भागों में बांटा गया है, जिनमें जलचर, थलचर और नभचर प्राणी होते हैं. पद्म पुराण के एक श्लोक में इनके बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है. जानते हैं 84 लाख योनियों के बारे में विस्तार से.
पद्म पुराण के अनुसार
84 लाख योनियों का गणनासूत्र
मनुष्य की योनि में कब मिलत है जन्म
पुराणों में कुल 84 लाख योनियों में मनुष्य की योनि को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है. मान्यता है कि एक आत्मा का कर्मगति के अनुसार 30 लाख बार वृक्ष की योनि में जन्म होता है. इसके बाद 9 लाख बार जलचर प्राणियों के रूप में जन्म होता है, 10 लाख बार कृमि योनि में, 11 लाख बार पक्षी की योनि में, 20 लाख बार पशु की योनि में जन्म लेने के बाद अंत में कर्मानुसार गौ का शरीर प्राप्त करके आत्मा को मनुष्य की योनि प्राप्त होती है.
इसके बाद 4 लाख बार आत्मा मानव की योनि में ही जन्म लेती हैं. इसके बाद उसे पितृ या देव योनि प्राप्त होती है. यह सभी क्रम कर्मानुसार चलते हैं. जब आत्मा मनुष्य योनि में आकर नीच कर्म करने लगता है तो उसे पुन: नीचे की योनियों में जन्म मिलने लगता है, जिसे वेद-पुराणों में दुर्गति कहा गया है.
कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।
चौरासी लाख योनियों का रहस्य
हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है। कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।
अब प्रश्न ये है कि यहाँ "योनि" का अर्थ क्या है? अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।
आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है।
अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है।
हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र
एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है - नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो। इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।
हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है। हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है।
कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।
पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:
जलज नवलक्षाणी, स्थावर लक्षविंशति।
कृमयो: रुद्रसंख्यकः, पक्षिणाम् दशलक्षणं।
त्रिंशलक्षाणी पशवः, चतुरलक्षाणी मानव।
अर्थात,
जलचर जीव - ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष - २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) - ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी - १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु - ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य - ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।
जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है। जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय - ७००००० (सात लाख)
जलकाय - ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय - ७००००० (सात लाख)
वायुकाय - ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय - १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) - १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
त्रि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) - १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० + २००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००
अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों
पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था।
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मनुष्य जन्म 84 लाख योनियों का लेखा जोखा
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार #जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाता है। अब यहां कई सवाल कई उठते हैं: -
1. पहला यह कि ये योनियां क्या होती है?
2. दूसरा यह कि जैसे कोई बीज आम का है तो वह मरने के बाद भी तो आम का ही बीज बनता है? क्या फिर मनुष्य को भी मरने के बाद मनुष्य ही बनना चाहिए, पशु को मरने के बाद पशु ही बनना चाहिए? क्या मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेतीं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि 84 लाख की धारणा महज एक मिथक-भर है?
3. तीसरा सवाल यह कि क्या सचमुच ही एक आत्मा या जीवात्मा को 84 लाख योनियों में भटकने के बाद ही मनुष्य जन्म मिलता है?
तो चलिये, आज इनको समजने का प्रयास करते हैं...
योनियां क्या होती हैं
उक्त योनियों में कई प्रकार के उप-प्रकार भी होते हैं। योनियां जरूरी नहीं कि 84 लाख ही हों। वक्त से साथ अन्य तरह के जीव-जंतु भी उत्पन्न हुए हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में लगभग 1 करोड़ 04 लाख योनियां मानी गई हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक राबर्ट एम मे के अनुसार दुनिया में 87 लाख प्रजातियां है। उनका अनुमान है कि कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, पौधा-पादप, जलचर-थलचर सब मिलाकर जीव की 87 लाख प्रजातियां हैं। गिनती का थोड़ा-बहुत अंतर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व ऋषि-मुनियों ने बगैर किसी साधन और आधुनिक तकनीक के यह जान लिया था कि योनियां 84 लाख के लगभग हैं।
जीवन यात्रा के क्रम विकास का सिद्धांत:
गर्भविज्ञान के अनुसार क्रम विकास को देखने पर मनुष्य जीव सबसे पहले एक बिंदु रूप होता है, जैसे कि समुद्र के एककोशीय जीव। वही एकको शीय जीव बाद में बहुकोशीय जीवों में परिवर्तित होकर क्रम विकास के तहत मनुष्य शरीर धारण करते हैं। स्त्री के गर्भावस्था का अध्ययन करने वालों के अनुसार जंतुरूप जीव ही स्वेदज, जरायुज, अंडज और उद्भीज जीवों में परिवर्तित होकर मनुष्य रूप धारण करते हैं। मनुष्य योनि में सामान्यतः जीव 9 माह और 9 दिनों के विकास के बाद जन्म लेने वाला बालक गर्भावस्था में उन सभी शरीर के आकार को धारण करता है, जो इस सृष्टि में पाए जाते हैं। गर्भ में बालक बिंदु रूप से शुरू होकर अंत में मनुष्य का बालक बन जाता है अर्थात वह 83 प्रकार से खुद को बदलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो पहले वह पीठ के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठवंशीय जंतु की तरह। बाद में वह छाती के बल सोता है, फिर वह अपनी गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है, जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है, फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता है। अंत में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है। भय, आक्रामकता, चिल्लाना, अपने नाखूनों से खरोंचना, ईर्ष्या, क्रोध, रोना, चीखना आदि क्रियाएं सभी पशुओं की हैं, जो मनुष्य में स्वतः ही विद्यमान रहती हैं। यह सब उसे क्रम विकास में प्राप्त होता है।
सनातन धर्मानुसार, सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार..
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् ।
तैस्तैर अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥
(11-9-28 श्रीमद्भागवतपुराण)
अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परंतु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई अतः मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था।
योग के 84 आसन योग के 84 आसन भी इसी क्रम विकास से ही प्रेरित हैं। एक बच्चा वह सभी आसन करता रहता है, जो कि योग में बताए जाते हैं। उक्त आसन करने रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता। वृक्षासन से लेकर वृश्चिक आसन तक कई पशुवत आसन हैं। मत्स्यासन, सर्पासन, बकासन, कुर्मासन, वृश्चिक, वृक्षासन, ताड़ासन आदि अधिकतर पशुवत आसन ही है। जैसे कोई बीज आम का है तो वह मरने के बाद भी तो आम का ही बीज बनता है तो फिर मनुष्य को भी मरने के बाद मनुष्य ही बनना चाहिए। पशु को मरने के बाद पशु ही बनना चाहिए। क्या मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेतीं?
प्रश्न : मनुष्य मरने के बाद मनुष्य और पशु मरने के बाद पशु ही बनता है?
उत्तर : क्रम विकास के हिन्दू और वैज्ञानिक सिद्धांत से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है, लेकिन हिन्दू धर्मानुसार जीवन एक चक्र है। इस चक्र से निकलने को ही 'मोक्ष' कहते हैं। माना जाता है कि जो ऊपर उठता है, एक दिन उसे नीचे भी गिरना है, लेकिन यह तय करना है उक्त आत्मा की योग्यता और उसके जीवट संघर्ष पर।
यदि यह मान लिया जाए कि कोई पशु आत्मा पशु ही बनती है और मनुष्य आत्मा मनुष्य तो फिर तो कोई पशु आत्मा कभी मनुष्य बन ही नहीं सकती। किसी कीड़े की आत्मा कभी पशु बन ही नहीं सकती। ऐसा मानने से बुद्ध की जातक कथाएं अर्थात उनके पिछले जन्म की कहानियों को फिर झूठ मान लिया जाएगा। इसी तरह ऐसे कई ऋषि-मुनि हुए हैं जिन्होंने अपने कई जन्मों पूर्व हाथी-घोड़े या हंस के होने का वृत्तांत सुनाया। ...तो यदि यह कोई कहता है कि मनुष्यात्माएं मनुष्य और पशु-पक्षी की आत्माएं पशु या पक्षी ही बनती हैं, वे सैद्धांतिक रूप से गलत हैं। हो सकता है कि उन्हें धर्म की ज्यादा जानकारी न हो।
दरअसल, उक्त प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए हमें कर्म-भाव, सुख-दुख और विचारों पर आधारित गतियों को समझना होगा। सामान्य तौर पर 3 तरह की गतियां होती हैं-
1. उर्ध्व गति,
2. स्थिर गति और
3. अधो गति।
प्रत्येक जीव की ये 3 तरह की गतियां होती हैं। यदि कोई मनुष्यात्मा मरकर उर्ध्व गति को प्राप्त होती है तो वह देवलोक को गमन करती है। स्थिर गति का अर्थ है कि वह फिर से मनुष्य बनकर वह सब कार्य फिर से करेगा, जो कि वह कर चुका है। अधोगति का अर्थ है कि अब वह संभवतः मनुष्य योनि से नीचे गिरकर किसी पशु योनि में जाएगा या यदि उसकी गिरावट और भी अधिक है तो वह उससे भी नीचे की योनि में जा सकता है अर्थात नीचे गिरने के बाद कहां जाकर वह अटकेगा, कुछ कह नहीं सकते। 'आसमान से गिरे और लटके खजूर पर आकर ऐसा भी उसके साथ हो सकता है। ... इसीलिए कहते हैं कि मनुष्य योनि बड़ी दुर्लभ है और इसे जरा संभालकर ही रखें।
कम से कम स्थिर गति में रहें।
#84_लाख_योनियों_के_प्रकार जानिए...
84 लाख योनियां अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग बताई गई हैं, लेकिन हैं सभी एक ही। अनेक आचार्यों ने इन 84 लाख योनियों को 2 भागों में बांटा है। पहला योनिज तथा दूसरा आयोनिज अर्थात 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न प्राणी योनिज कहे गए और जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया। इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को 3 भागों में बांटा गया है-
1. #जलचर: जल में रहने वाले सभी प्राणी।
2. #थलचर : पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।
3. #नभचर: आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।
उक्त 3 प्रमुख प्रकारों के अंतर्गत मुख्य प्रकार होते हैं अर्थात 84 लाख योनियों में प्रारंभ में निम्न 4 वर्गों में बांटा जा सकता है।
1. #जरायुज: माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।
2. #अंडज अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अंडज कहलाते हैं।
3. #स्वदेज: मल-मूत्र, पसीने आदि से उत्पन्न क्षुद्र जंतु स्वेदज कहलाते हैं।
4. #उद्भिज : पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी उद्भिज कहलाते हैं।
पदम् पुराण के एक श्लोकानुसार...
जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यकः। पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशवः, चतुर लक्षाणी मानवः ।। -(78:5 पद्मपुराण)
अर्थात जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख मानवीय नस्ल के। कुल 84 लाख।
आप इसे इस तरह समझें
पानी के जीव-जंतु- 9 लाख
पेड़-पौधे- 20 लाख
कीड़े-मकौड़े- 11 लाख
पक्षी- 10 लाख
पशु- 30 लाख
देवता-मनुष्य आदि- 4 लाख
कुल योनियां 84 लाख।
'प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प' ग्रंथ में शरीर रचना के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण किया गया है जिसके अनुसार
1. एक शफ (एक खुर वाले पशु) खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।
2. द्विशफ (दो खुर वाले पशु)- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।
3. पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृंगाल आदि।
प्रश्न: क्या सचमुच 84 लाख योनियों में भटकना होता है?
उत्तर : ऊपर हमने एक प्रश्न कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य और पशु मरने के बाद पशु ही बनता है? का उत्तर दिया था। उसके उत्तर में ही उपरोक्त प्रश्न का आधा जवाब मिल ही गया होगा। इससे पूर्व क्रम विकास में भी इसका जवाब छिपा है। दरअसल, पहले गतियों को अच्छे से समझें फिर समझ में आएगा कि हमारे कर्म, भाव और विचार को क्यों उत्तम और सकारात्मक रखना चाहिए।
क्रम विकास 2 तरह का होता है- एक चेतना (आत्मा) का विकास, दूसरा भौतिक जीव का विकास। दूसरे को पहले समझें। यह जगत आकार-प्रकार का है। अमीबा से विकसित होकर मनुष्य तक का सफर ही भौतिक जीव विकास है। इस भौतिक शरीर में जो आत्मा निवास करती है।
प्रत्येक जीव की मरने के बाद कुछ गतियां होती हैं, जो कि उसके घटना, कर्म, भाव और विचार पर आधारित होती हैं। मरने के बाद आत्मा की 3 तरह की गतियां होती हैं-
1. उर्ध्व गति,
2. स्थिर गति और
3. अधो गति।
इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है। वेदों, उपनिषदों और गीता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की 8 तरह की गतियां मानी गई हैं। ये गतियां ही आत्मा की दशा या दिशा तय करती हैं।
इन 8 तरह की गतियों को मूलतः 2 भागों में बांटा गया है-
1. अगति,
2. गति।
अधो गति में गिरना अर्थात फिर से कोई पशु या पक्षी की योनि में चला जाना, जो कि एक चक्र में फंसने जैसा है।
1. # अगति : अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है और उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।
2. #गति : गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है।
-अगति के प्रकार :
अगति के 4 प्रकार हैं- 1. क्षिणोदर्क, 2. भूमोदर्क, 3. अगति और 4. दुर्गति ।
1. क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुनः पुण्यात्मा के रूप में मृत्युलोक में आता है और संतों-सा जीवन जीता है।
2. भूमोदर्क : भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।
3. अगति : अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।
4. दुर्गति : गति में वह कीट-कीड़ों जैसा जीवन पाता है।
गति के प्रकार :
गति के अंतर्गत 4 लोक दिए गए हैं:
1. ब्रह्मलोक,
2. देवलोक,
3. पितृलोक और
4. नर्कलोक।
जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।
पुराणों के अनुसार आत्मा 3 मार्गों के द्वारा उर्ध्व या अधोलोक की यात्रा करती है। ये 3 मार्ग हैं-
1. अर्चि मार्ग,
2. धूम मार्ग और
3. उत्पत्ति-विनाश मार्ग।
1. #अर्चि_मार्ग_ब्रह्मलोक अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए है।
2. #धूममार्ग_पितृलोक धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है। सूर्य की किरणों में एक 'अमा' नाम की किरण होती है जिसके माध्यम से पितृगण पितृ पक्ष में आते-जाते हैं।
3. #उत्पत्ति_विनाश मार्ग उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। यह यात्रा बुरे सपनों की तरह होती है।
जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्यागकर उत्तर कार्यों के बाद यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे उपरोक्त 3 मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए प्राप्त हो जाता है।
शुक्ल कृष्णे गती होते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ।। -गीता
भावार्थ : क्योंकि जगत के ये 2 प्रकार के शुक्ल और कृष्ण अर्थात #देवयान और #पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।) जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परम गति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी) फिर वापस आता है अर्थात जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।। 2611
#कठोपनिषद अध्याय 2 वल्ली 2 के 7वें मंत्र में यमराजजी कहते हैं कि अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शास्त्र, गुरु, संग, शिक्षा, व्यवसाय आदि के द्वारा सुने हुए भावों के अनुसार मरने के पश्चात कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं, वे मनुष्य का और जिनके पुण्य कम तथा पाप अधिक होते हैं, वे पशु-पक्षी का शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्यधिक होते हैं, स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्ष, लता, तृण आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अंतिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस जीव के जीन्स से मिल जाते हैं, उसी ओर ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आता है।
'पूर्व योनि तहस्त्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया।
आहारा विविधा मुक्ताः पीता नानाविधाः। स्तना...।
स्मरति जन्म मरणानि न च कर्म शुभाशुभं विन्दति।।' -गर्भोपनिषद्
अर्थात उस समय गर्भस्थ प्राणी सोचता है कि अपने हजारों पहले जन्मों को देखा और उनमें विभिन्न प्रकार के भोजन किए, विभिन्न योनियों के स्तनपान किए तथा अब जब गर्भ से बाहर निकलूंगा, तब ईश्वर का आश्रय लूंगा। इस प्रकार विचार करता हुआ प्राणी बड़े कष्ट से जन्म लेता है, पर माया का स्पर्श होते ही वह गर्भज्ञान भूल जाता है। शुभ-अशुभ कर्म लोप हो जाते हैं। मनुष्य फिर मनमानी करने लगता है और इस सुरदुर्लभ शरीर के सौभाग्य को गंवा देता है।
#विकासवाद के सिद्धांत के समर्थकों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक हीकल्स के सिद्धांत 'आंटोजेनी रिपीट्स फायलोजेनी' के अनुसार चेतना गर्भ में एक बीज कोष में आने से लेकर पूरा बालक बनने तक सृष्टि में या विकासवाद के अंतर्गत जितनी योनियां आती हैं, उन सबकी पुनरावृत्ति होती है। प्रति 3 सेकंड से कुछ कम के बाद भ्रूण की आकृति बदल जाती है। स्त्री के प्रजनन कोष में प्रविष्ट होने के बाद पुरुष का बीज कोष 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16, 16 से 32, 32 से 34 कोषों में विभाजित होकर शरीर बनता है
प्राणी मनुष्य के रूप में क्यों जन्म लेता है?
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हिन्दू धर्म में कुल
चौरासी लाख योनियों का वर्णन है। अर्थात किसी प्राणी की आत्मा इन में से किसी भी योनि में जन्म ले सकती है। वो किस योनि में जन्म लेगी और किसमें नहीं, ये उस प्राणी के पूर्व जन्में में किये गए कर्मों के आधार पर निश्चित होता है। इन सभी योनियों में मनुष्य योनि सर्वोत्तम मानी गयी है। तो आइये जानते हैं कि हम मनुष्य योनि में कब और क्यों जन्म लेते हैं।
किन्तु इससे पहले हम मनुष्य योनि पर आएं, ये जान लेना आवश्यक है कि मनुष्य योनि ना पहली है और ना ही अंतिम। किन्तु ये अवश्य है कि मनुष्य की योनि हमें कई जन्मों के पुण्य कर्मों के संचित प्रभाव से ही मिलती है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद भी हमारे पाप कर्म हमें पुनः अधम योनि में धकेल सकते हैं।
महाभारत अनुशासन पर्व में विस्तार पूर्वक मनुष्य के कर्मों के आधार पर नियत की गयी योनियों के बारे में बताया गया है। उस संवाद में महर्षि व्यास ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मनुष्य की योनि सर्वोत्तम है और ये हमें बहुत कठिनाइयों से मिलती है। इसलिए हमें सदैव ये ध्यान रखना चाहिए कि हम पहले ही सर्वोत्तम योनि में है और हमें उससे भी उत्तम कर्म करने चाहिए।
वास्तव में प्राणी मनुष्य योनि में जन्म क्यों लेता है?
इसके मुख्यतः दो कारण हैं:
- प्रारब्ध का भोग: प्रारब्ध का अर्थ होता है देव अथवा भाग्य। जैसा कि पहले बताया गया है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के संचित कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न योनियों में जाता है। मनुष्य योनि में वो अपने पुण्य कर्मों के कारण आता है। वास्तव में जब प्राणी अपने प्रारब्ध के फल को भोगते हुए उस सीमा पर पहुँच जाता है जब वो एक जीवन में मोक्ष को प्राप्त कर सकता हो, तब वो अंततः मनुष्य योनि पाता है। मनुष्य योनि और अन्य योनियों में जो मुख्य अंतर है वो है चेतना का। हममे प्रबल चेतना होती है जो पशु या अन्य योनि में नहीं होती। मनुष्य अपनी चेतना का उपयोग कर अपने प्रारब्ध को बदल भी सकता है। हालाँकि हमें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण जो हमारा प्रारब्ध है वो तो है हीं, किन्तु हमारे इस जन्म के कर्म भी ये निर्धारित करते हैं कि हम शरीर का त्याग कर मुक्त होंगे अथवा पुनः अधम योनि में गिरेंगे।
- मोक्ष प्राप्ति का प्रयास: मनुष्य योनि में जन्म लेने का मुख्य उद्देश्य है अपनी चेतना का पूर्ण उपयोग कर मोक्ष को पाना। ऐसा नहीं है कि मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही रह कर पाया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब पशु योनि से भी सीधे प्राणियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। किन्तु मनुष्य बनकर मोक्ष पाना जितना सरल है उतना किसी और योनि के प्राणी के रूप में नहीं है। इसका सबसे सरल उपाय है भौतिक सुविधाओं का त्याग कर भगवत भक्ति द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना। हालाँकि मनुष्य योनि में जन्म लेने का अर्थ निश्चित मोक्ष प्राप्त करना नहीं है। वास्तव में जितने लोग भी मनुष्य योनि में जन्म लेते हाँ उनमें से विरले ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु फिर भी मनुष्य योनि से मोक्ष की ओर जाना अन्य योनियों से सहज है।
मनुष्य योनि में रहते हुए यदि हमने वास्तव में ईश्वर को प्राप्त कर लिया तब तो मोक्ष मिल सकता है किन्तु यदि ऐसा नहीं हुआ तो हमें उसके लिए फिर से प्रयास करने हेतु पुनः जन्म लेना पड़ता है। अब यदि इस जन्म में हमने अच्छे कर्म किये हैं तो अगला जन्म भी हमें मनुष्य योनि में ही मिलेगा। किन्तु यदि हमने पाप कर्म अधिक किये हैं तो हम पुनः अधम योनि में गिर जायेंगे जहाँ से हमें पहले पुनः मनुष्य योनि तक पहुँचने का प्रयास करने पड़ेगा। जीवन मरण का ये चक्र निरंतर चलता रहता है। जब हम उतना पुण्य कर्म संचित कर लेते हैं कि हमें मोक्ष प्राप्त हो जाये, तब ही हम उस जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो पाते हैं।
हम अच्छे कर्म कर रहे हैं या बुरे, इसका पता कैसे चलता है?
वास्तव में हमारे सभी कर्मों के कुल चौदह साक्षी होते हैं। ये हैं - सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म। इनमें से सूर्य रात्रि में और चन्द्रमा दिन में नहीं रहते। अग्नि भी सदैव नहीं रहती। उसी प्रकार रात, दिन एवं संध्या भी हर समय नहीं रहती। तो इन १४ साक्षियों में ६ हर समय उपस्थित नहीं रहते तो उनसे हमारे कुछ कर्म छूट सकते हैं।
किन्तु बांकी ८ - आकाश, वायु, इन्द्रियां, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म, ये हर समय उपस्थित रहते हैं जिनसे कुछ भी छूटना। इसीलिए प्राणियों को कभी भी पाप कर्म करते समय ये नहीं समझना चाहिए कि उस समय उन्हें कोई भी नहीं देख रहा। वास्तव में इन ८ साक्षियों से हमारे कोई कर्म बच ही नहीं सकते।
मृत्यु के पश्चात आत्मा की गति किस प्रकार निर्धारित होती है?
मृत्यु के पश्चात प्राणी की मुख्यतः दो गतियां बताई गयी हैं:
- अगति: इस गति में मनुष्य को मोक्ष नहीं मिलता और उसे पुनः जन्म लेना पड़ता है। अगति मुख्यतः चार प्रकार की होती है:
- क्षिणोदर्क: इसमें जीव पुण्यात्मा बनकर पुनः मृत्युलोक में आता है और भगवत्भजन में अपना जीवन बिताता है।
- भूमोदर्क: इसमें जीव सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन प्राप्त करता है।
- अगति: इसमें जीव मनुष्य योनि से नीचे, अर्थात अधम योनि (पशु इत्यादि) में चला जाता है।
- दुर्गति: इसमें प्राणी सबसे निष्कृष्ट योनि (कीड़े-मकौड़े) प्राप्त करता है।
- गति: इसमें जीव को अपने कर्मों के अनुसार किसी एक लोक में जाना होता है। ये लोक भी चार हैं:
- ब्रह्मलोक: ये सर्वोत्तम लोक है जहाँ केवल सिद्ध व्यक्ति, जिन्होंने सच्चे मन से भगवान का ध्यान किया हो, वही जा सकते हैं। ये सर्वोच्च लोक है जो मोक्ष के सबसे निकट है।
- देवलोक: यहाँ सच्चरित्र एवं पुण्य कर्म करने वाले व्यक्ति जाते हैं। उन्हें देवताओं का सानिध्य प्राप्त होता है। इसे ही स्वर्ग लोग भी कहा जाता है।
- पितृलोक: सामान्य व्यक्ति, जिनका पुण्य कर्म उनके पाप कर्म से अधिक है, अपने पित्तरों के पास इस लोक में जाते हैं।
- नर्कलोक: पाप कर्म करने वाले व्यक्ति को सबसे निष्कृष्ट नर्क लोक प्राप्त होता है जहाँ उन्हें अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं।
- इन चार लोकों में जाने के लिए तीन मार्ग होते हैं:
- अर्चि मार्ग: ब्रह्मलोक एवं देवलोक जाने के लिए।
- धूम मार्ग: पितृलोक जाने के लिए। ऐसी मान्यता है कि सूर्य की असंख्य किरणों में "अमा" नाम की एक किरण होती है जिसके माध्यम से प्राणी पितृलोक जाते हैं और पित्तर पृथ्वीलोक आते हैं।
- उत्पत्ति विनाश मार्ग: नर्कलोक जाने के लिए।
तो हम सभी को ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए कि हमनें मनुष्य योनि में जन्म लिया है। इस सर्वश्रेष्ठ योनि का लाभ उठाते हुए हमें भी मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
84 लाख योनियाँ (८.४ मिलियन जीवन रूप) का उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथों में आत्मा के जन्म-मरण के चक्र और कर्मफल के सिद्धांत को समझाने के लिए किया गया है। यह संख्या प्रतीकात्मक है, जो जीवन के विविध रूपों की विशालता और आत्मा की यात्रा को दर्शाती है। आइए इसे विस्तार से समझें।
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मनुष्य योनि को क्यों माना गया है सर्वश्रेष्ठ
सभी योनियों में से मानव योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गरुड़ पुराण के अनुसार भी "चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करके जीव को मानव जन्म प्राप्त होता है।" यह कथन जीवन के विविध रूपों और आत्मा की यात्रा को दर्शाता है।
क्योंकि 52 अरब वर्ष एवं 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मानव शरीर मिलता है। इसलिए मानव तन को दुर्लभ माना जाता है। क्योंकि इतनी योनियों में एक मनुष्य योनि ही है जिसमें विवेक और ज्ञान जैसा दुर्लभ गुण पाया जाता है।
योनियों का वर्गीकरण
गरुड़ पुराण और अन्य ग्रंथों में योनियों को चार प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है, प्रत्येक में २.१ मिलियन (२१ लाख) योनियाँ हैं:
1. उद्भिज्ज (Udbhijja): बीज से उत्पन्न होने वाली योनियाँ, जैसे पौधे और वृक्ष।
2. स्वेदज (Svedaja): पसीने से उत्पन्न होने वाली योनियाँ, जैसे कीड़े-मकौड़े।
3. अंडज (Andaja): अंडे से उत्पन्न होने वाली योनियाँ, जैसे पक्षी और सरीसृप।
4. जारायुज (Jarayuja): गर्भ से उत्पन्न होने वाली योनियाँ, जैसे पशु और मनुष्य।
3.
5. आध्यात्मिक उद्देश्य और अर्थ
८४ लाख योनियाँ एक प्रतीकात्मक दर्शन है, जो आत्मा की अनंत संभावनाओं वाले जन्म चक्र को दर्शाती है।
केवल मनुष्य योनि में ही विवेक, ज्ञान और मोक्ष का अवसर मिलता है।
इसलिए शास्त्र बार-बार कहते हैं:
> "नरत्वं दुर्लभं लोके" — मानव जन्म दुर्लभ है।
यदि आप चाहें तो मैं गरुड़ पुराण या उपनिषदों के इन श्लोकों का संस्कृत मूल पाठ, हिन्दी भावार्थ, अथवा चित्र सहित चार्ट भी दे सकता हूँ।
84 लाख योनियों (जीवों के जन्म रूपों) का वर्णन हिंदू दर्शन में आत्मा की यात्रा और कर्म के सिद्धांत को समझाने हेतु किया गया है। हालांकि वेदों में इसका स्पष्ट संख्यात्मक वर्णन नहीं मिलता, लेकिन पुराणों, उपनिषदों और धर्मशास्त्रों में इस संख्या का उल्लेख हुआ है। आइए इसे क्रमवार विस्तार से समझते हैं।
1. 84 लाख योनियाँ: अर्थ और परंपरा
संख्या का स्रोत:
"84 लाख" का अंक प्रतीकात्मक है और यह बताता है कि आत्मा 84 लाख विभिन्न प्रकार के शरीरों (जीव रूपों) में जन्म ले सकती है।
यह संख्या अधिकतर गरुड़ पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, योगवाशिष्ठ, और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में आई है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार:
"चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करके जीव को मानव जन्म प्राप्त होता है।"
2. योनियों का वर्गीकरण (गरुड़ पुराण और अन्य ग्रंथों के अनुसार)
योनि वर्ग
प्रजातियाँ
अनुमानित संख्या
जलचर (मत्स्य, मगर, केकड़ा आदि)
मछलियाँ, जलीय जीव
9,00,000
स्थावर (जड़ जीवन)
वृक्ष, पौधे, वनस्पतियाँ
20,00,000
कीट-पतंगे
कीड़े, मक्खियाँ, मधुमक्खियाँ
11,00,000
पक्षी
चिड़ियाँ, गिद्ध, हंस आदि
10,00,000
पशु
गाय, बकरी, सिंह, हाथी आदि
30,00,000
मनुष्य
विभिन्न जातियाँ और संस्कार
4,00,000
योगवाशिष्ठ सार: “84 लाख योनियों में केवल मनुष्य योनि ही ऐसी है जो मोक्ष का साधन बन सकती है।”
3. उपनिषदों में आत्मा की योनि यात्रा
बृहदारण्यक उपनिषद (4.4.1–5):
“यथाकर्म यथाश्रुतं तस्य लोका भवति।” (जैसा कर्म और जैसा ज्ञान होगा, उसी के अनुसार आत्मा को अगला लोक और योनि प्राप्त होती है।)
यह बताता है कि कर्म ही जीव के अगले जन्म को तय करता है — चाहे वह उच्च योनि (देव, मानव) हो या नीच (पशु, कीट)।
आत्मा वासनाओं के अनुसार भटकती है और तभी पुनर्जन्म होता है।
4. वेदों में प्रत्यक्ष उल्लेख?
ऋग्वेद, यजुर्वेद, आदि में 84 लाख योनियों का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है, परंतु पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता, और कर्म सिद्धांत की जड़ें मौजूद हैं:
ऋग्वेद 10.16.3:
“पुनर् मा मा त्वा पतयतां समग्मन्” (हे जीव, तू फिर से लौट, जन्म ले।)
यह संकेत करता है कि आत्मा मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेती है।
5. आध्यात्मिक उद्देश्य और अर्थ
84 लाख योनियाँ = आत्मा के संभावित अनुभवों की विविधता।
इनमें से केवल मनुष्य योनि ही ऐसी मानी जाती है जहाँ आत्मा कर्म करके मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
तुलनात्मक दृष्टिकोण
वेद = > पुनर्जन्म का उल्लेख है, पर योनियों की संख्या नहीं दी गई।
उपनिषद = > आत्मा के कर्मानुसार योनियों में भ्रमण का दर्शन
पुराण = > 84 लाख योनियाँ का संख्यात्मक विवरण
लोक परंपरा = > मनुष्य जन्म दुर्लभ और मोक्ष का साधन
निष्कर्ष:
84 लाख योनियाँ आत्मा के कर्मानुसार योनियों में भ्रमण का एक प्रतीकात्मक दर्शन है। ये 84 लाख योनियाँ आत्मा के कर्मानुसार आत्मा की अनंत संभावनाओं वाले जन्म चक्र को दर्शाने वाला वृहत चक्र है।
केवल मनुष्य योनि में ही आत्मा को विवेक और ज्ञान के आधार पर अच्छे कर्म करके मोक्ष का अवसर मिलता है। जबकि अन्य योनियाँ कर्मभोग की स्थिति होती हैं, जहाँ आत्मा सिर्फ भोगती है — वहाँ स्वतंत्र संकल्प नहीं होता।
इसलिए शास्त्र बार-बार कहते हैं:
"नरत्वं दुर्लभं लोके" — मानव जन्म दुर्लभ है।
#गजेन्द्र_मोक्ष
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गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का वर्णन हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रंथ “श्रीमद्भागवत ” के तीसरे अध्याय में मिलता है। इस स्तोत्र में कुल 33 श्लोक दिए गए हैं, इनका जाप या पाठ करना ख़ासा महत्वपूर्ण माना गया है। इस स्तोत्र में एक हाथी का मगरमच्छ के साथ हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। हिन्दू धर्म को मानने वाले इस प्रमुख स्तोत्र का जाप जीवन में किसी भी प्रकार की परेशानियों से तत्काल मुक्ति के लिए करते हैं। आज इस लेख के माध्यम से हम आपको गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से जुड़ी महत्वपूर्ण तथ्यों और साथ ही उसके हिंदी अर्थ एवं लाभों के बारे में भी बताने जा रहे हैं।
●कैसे हुई गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति
सबसे पहले यह जान लेना बेहद आवश्यक है कि आखिर गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई कैसे। इस संदर्भ में हम यहाँ एक पौराणिक कथा का जिक्र करने जा रहे हैं जिसमें इस स्तोत्र की उत्पत्ति का जिक्र मिलता है। एक बार की बात है हाथियों के राजा गजेंद्र अपने समूह के साथ घूमने निकले थे और इसी दौरान उन्हें जोर की प्यास लगी। अपनी प्यास बुझाने के लिए वो एक विशाल तालाब के तट पर पहुंचे और वहाँ जल ग्रहण किया। इसके बाद उस तालाब में मौजूद कमल के फूलों की खुशबु से मंत्रमुग्द होकर वो सरोवर में जल क्रीडा के लिए उतर गया। इसी तालाब में मौजूद एक मगरमच्छ (जिसे ग्राह भी कहते हैं) ने गजेंद्र यानी उस हाथी का एक पैर दबोच लिया। गजेंद्र को जब दर्द का एहसास हुआ तो पहले उसने मगरमच्छ से अपने आप को छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसके सभी प्रयास असफल रहे। इस बीच मौजूद अन्य हाथियों ने भी गजेंद्र को ग्राह के चंगुल से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया लेकिन सभी उसमें नाकामयाब रहे। काफी समय बीत जाने के बाद गजेंद्र की सारी शक्तियां जब यथावत रह गयी तो उसने मोक्ष प्राप्ति के लिए श्री हरी विष्णु जी की आराधना करनी शुरू कर दी और एक स्तोत्र का जाप किया जिसे गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र कहा जाता है। गजेंद्र के स्तोत्र पाठ से खुश होकर विष्णु जी उस सरोवर पर आते हैं और अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह यानी की उस मगरमच्छ के सिर को काट देते हैं। अब आप जान चुके होंगे कि किस प्रकार से गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई।
नियंत्रित कर और ह्रदय से स्थिर होकर वो गजेंद्र अपने पिछले जन्म में याद किये गए सर्वोच्च और बार-बार जाप करने किये जाने वाले निम्न स्तोत्र का जाप करने लगा।
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
अर्थ: गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी का मनन करते हुए कहा कि, जिनके मात्र प्रवेश करने से ही शरीर और मस्तिष्क चेतन की तरह व्यवहार करने लगते हैं, ॐ द्वारा लक्षित और पूरे शरीर में प्रकृति और पुरुष के रूप में प्रवेश करने वाले उस सर्व शक्तिमान देवता का मैं मन ही मन मनन करता हूँ।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥
अर्थ: वो जिनके सहारे ही ये संपूर्ण संसार टिका हुआ है, जिनसे ये संसार अवतरित हुआ है, जिन्होनें इस प्रकृति की रचना हुई है और जो खुद उसके रूप में प्रकट हैं, लेकिन इसके वाबजूद भी वो इस प्रकृति से सर्वोपरि और श्रेष्ठ हैं। ऐसे अपने आप और बिना किसी कारण के भगवान् की मैं शरण लेता हूँ।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥
अर्थ: अपने संकल्प शक्ति के बल पर अपने ही स्वरूप में रचित और सृष्टि काल में प्रकट एवं प्रलय में अप्रकट रहने वाले और इस शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त कार्य कारण रुपी संसार को जो बिना कुंठित दृष्टि के साक्ष्य रूप में देखते रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होते, चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी आप रक्षा करें।
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।
अर्थ: बीतते समय के साथ तीनों लोकों और ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर और पंचभूतों से लेकर महत्वपूर्ण सभी कारणों के उनकी परमकरूणा स्वरूप प्रकृति में मग्न हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेर और घोर अंडकार रूपेण प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार से परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापी भगवान सभी दिशाओं में प्रकाशित करते हैं, वो ईश्वर मेरी रक्षा करें।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥
अर्थ: विभिन्न नाट्य रूपों में अभिनय करने वाले और उस अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार से साधारण लोग भी नहीं पहचान पाते, उसी तरह से सत्त्व प्रधान देवता और महर्षि भी जिनके स्वरूप को नहीं जान पाते, ऐसे में कोई साधारण जीव उनका वर्णन कैसे कर सकता है। ऐसे दुर्गम चरित्र वाले देवता मेरी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥
अर्थ: अशक्ति से मुक्त, सभी प्राणियों में आत्मबुद्धि प्रदान करने वाले, सबके बिना कारण हित और अतिशय साधु स्वभाव ऋषि मुनि जन जिनके परम स्वरूप को देखने की इच्छा के साथ वन में रहकर अखंड ब्रह्मचर्य तमाम अलौकिक व्रतों का विधिवत पालन करते हैं, ऐसे प्रभु ही मेरी गति हैं।
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥
अर्थ: वो जिनका हमारी भांति ना तो जन्म होता है और ना जिनका अहंकार में कोई काम होता है, जिनके निर्गुण रूप का ना तो कोई नाम है और ना कोई रूप, इसके बावजूद भी वो समय के साथ इस संसार की सृष्टि और प्रलय के लिए अपनी इच्छा से जन्म को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥
अर्थ: उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को मेरा नमन है। उस प्राकृत, आकार रहित और अनेक रूप वाले अद्भुत भगवान् को मेरा बार बार नमन है।
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
अर्थ: स्वयं प्रकाश और सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत् शत् नमन। वैसे देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से भी परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमन।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
अर्थ: विवेक से परिपूर्ण पुरुष के द्वारा सभी सत्त्व गुणों से पूर्ण, निवृति धर्म के आचरण से मिलने वाले योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रुपी प्रभु को मेरा नमन है।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
अर्थ: अपने सभी गुणों को स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके अत्यंत और तमोगुण को अपनाकर मूढ़ से जाने जाने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से पूर्ण ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमन है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥
अर्थ: शरीर के इंद्रिय आदि के समुदाय रूप और सभी पिंडों के ज्ञाता, सबों के स्वामी और साक्षी स्वरूप देव आपको मेरा नमन। सभी के अंतर्यामी, प्रकृति के परम कारण लेकिन खुद बिना कारण प्रभु को मेरा शत शत नमन।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥
अर्थ: सभी इन्द्रियों और उसके विषयों के जानकार, सभी प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़-प्रपंच और सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले और सभी विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले देव आपको मेरा नमन।
नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥
अर्थ: सबके कारण लेकिन खुद बिना कारण होने पर भी बिना किसी परिणाम होने की वजह से, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको मेरा बार बार नमन है। सभी वेदों और शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूपी और श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति देवता को मेरा नमस्कार है।
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
अर्थ: वो जो त्रिगुण रूपो में छिपी हुई ज्ञान रुपी अग्नि हैं, उन गुणों में हलचल होने पर जिनके मन मस्तिष्क में संसार को रचने की बाह्य वृति उत्पन्न हो उठती है और आत्मा तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से भी ऊपर उठे महाज्ञानी महत्माओं में जो खुद प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसे ईश्वर को मेरा नमन।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
अर्थ: मेरे जैसे शरणागत पशु के सामान जीवों की अविद्यारूप फांसी को हमेशा के लिए पूर्ण रूप से काट देने वाले परम दयालु और दया दिखने में कभी भी आलस ना करने वाले नित्य मुक्त प्रभु को मेरा नमन है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में अंतर्यामी रूप में प्रकट रहने वाले सर्व नियंता अनंत परमात्मा आपको मेरा नमन।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
अर्थ: शरीर, पुत्र, मित्र, घर और संपत्ति सहित कुटुंबियों में अशक्त लोगों के द्वारा कठिनता से मिलने वाले और मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरंतर चिंतित ज्ञानस्वरूप, सर्व समर्थ ईश्वर को मेरा नमस्कार।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥
अर्थ: वो जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से मनन करने वाले लोग अपनी मनचाही इच्छा पूर्ण कर लेते हैं अपितु उन्हें विभिन्न प्रकार के अयाचित भोग और अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वैसे अत्यंत दयालु प्रभु मुझे इस विपदा से हमेशा के लिए बाहर निकालें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥
अर्थ: वो जिनके एक से अधिक भक्त जो मुख्य रूप से एकमात्र उसी भगवान् के शरण में हैं। धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ की लालसा नहीं रखते। जो केवल उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्र का गुणगान करते हुए आनंदमय समुद्र में गोते लगाते रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
अर्थ: उस अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वमान्य, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी प्रकट होने पर भक्तियोग द्वारा प्राप्त, अत्यंत निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यंत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित लेकिन सभी के आदिकारक और सभी तरफ से परिपूर्ण उस भगवान् की मैं स्तुति में हूँ।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥
अर्थ: ब्रह्मा सहित सभी देवता, चारों वेद और समस्त चर अचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यंत छुद्र अंशों से रचयित हैं।
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥
अर्थ: जिस तरह से जल रहे अग्नि की लपटें और सूरज की किरणें हर बार निकलती हैं और फिर से अपने कारण में लीन हो जाती है, उसी भांति बुद्धि, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर, ये सभी गुणों को प्राप्त शरीर जिस स्वयं प्रकाश परमात्मा से अवतरित होता है और फिर से उन्हें में लीं हो जाता है।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥
अर्थ: वो भगवान् जो ना तो देवता हैं, ना असुर, ना मनुष्य और ना ही मनुष्य से नीचे किसी अन्य योनि के प्राणी। ना ही वो स्त्री हैं, ना पुरुष और ना ही नपुंसक और ना ही वो कोई ऐसे जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणी में समावेश हो। वो ना तो गुण हैं और ना कर्म, वो ना ही कार्य हैं और ना ही कारण। इन सभी योनियों का निषेध होने पर जो बचता है वही उनका असली रूप है। ऐसे प्रभु मेरा उद्धार करने के लिए आए।
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥
अर्थ: मैं अब इस मगरमच्छ के चंगुल से मुक्त होने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता, इसकी वजह ये हैं की मैं सभी तरफ से अज्ञानता से ढके इस हाथी के शरीर का क्या करूँ। मैं आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले अज्ञानता से युक्त इस हाथी के शरीर से मुक्त होना चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नहीं होता बल्कि ईश्वर की दया और ज्ञान से उदय होता है।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥
अर्थ: इस तरह से मोक्ष के लिए लालायित में संसार के रचियता, स्वयं संसार के रूप में प्रकट लेकिन संसार से परे, संसार से एक खिलौने की भांति खेलने वाले, संसार में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापी एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री हरी का केवल नमन करता हूँ और उनकी शरण में हूँ।
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥
अर्थ: वो जिन्होनें भगवद्शक्ति रूपी योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, समस्त योगी, ऋषि अपने योग के द्वारा अपनी शुद्ध ह्रदय में जिसे प्रकट देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मेरा नमन है।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
अर्थ: वो जिनके ती गुणे शक्तियों का राग रूप वेग असह्य है और जो सभी इन्द्रियों के विषय रूप में महसूस हो रहे हैं, तथापि वो जिनकी इन्द्रियां समस्त विषयों में ही रची बसी रहती हैं। ऐसे लोगों को जिनका मार्ग मिलना भी संभव नहीं है, वैसे शरणागत एवं अपार शक्तिशाली भगवान् आपको मेरा बारंबार नमन।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥
अर्थ: वो जिनकी अविद्या नाम के शक्ति के कार्यरूप से ढँके हुए अपने रूप को ये जीव समझ नहीं पाता, ऐसे अपार महिमा वाले प्रभु की मैं शरण में हूँ।
श्री शुकदेव उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥
अर्थ: श्री शुकदेव जी कहते हैं कि, वो जिसने पूर्व प्रकार से भगवान् के भेदरहित सभी निराकार स्वरूप का वर्णन किया था, उस गजराज के करीब जब ब्रह्मा और साथ ही अन्य कोई देवता नहीं आये जो अपने विभिन्न प्रकार के विशेष विग्रहों को ही अपना रूप मानते हैं, ऐसे में साक्षात् विष्णु जी, जो सभी के आत्मा होने के कारण सभी देवताओं के रूप हैं, वहां प्रकट हुए।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥
अर्थ: उस गजराज को इस प्रकार से दुखी देखकर और उसके पढ़े गए स्तुति को सुनकर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार प्रभु इच्छानुसार वेग वाले गरुड़ की पीठ पर सवार होकर सभी देवों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वो गज था।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥
अर्थ: सरोवर के अंदर महाबलशाली ग्राह द्वारा जकड़े और दुखी उस गज ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को देख अपनी सूँड में पहले से ही उनकी पूजा के लिए रखे कमल के फूल को श्री हरी पर बरसाते हुए कहा “सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा प्रणाम “सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा नमन। “
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥
अर्थ: पीड़ित गज को देखकर श्री हरी भगवान विष्णु गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये और बेहद दयालु होकर ग्राह सहित उस गज को भी तुरंत ही सरोवर से बहार ले आये और देखते ही देखते अपने चक्र से ग्राह की गर्दन काट दी और गज को उस पीड़ा से बहार निकाल लिया।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र जाप के लाभ
ऐसी मान्यता है की श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति बड़े से बड़े कर्ज से मुक्ति पा सकता है। पौराणिक कथा गज और ग्राह की कहानी पर आधारित इस स्तोत्र को शुकदेव जी ने लिखा था। हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नियमित रूप से सूर्योदय के पूर्व उठकर स्नान ध्यान करने के बाद यदि इस स्तोत्र का जाप किया जाय तो इससे आपको जीवन में किसी भी प्रकार के कर्ज से मुक्ति मिल सकती है। कर्ज से मुक्ति पाने के लिए गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र को सर्वाधिक फायदेमंद माना गया है। यदि भी किसी प्रकार के कर्ज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो इस स्तोत्र का जाप जरूर करें।
हम आशा करते हैं की गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र पर आधारित हमारा ये लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा, हम आपके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं !
अगर आप घर में सुख समृद्धि और शांति बनाए रखना चाहती हैं, तो गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप आपके लिए बेहद लाभदायक है।
हिन्दू धर्म के अनुसार विभिन्न मन्त्रों और स्तोत्रों के जाप से घर में सुख शांति तो आती ही है कई समस्याओं से छुटकारा भी मिलता है।
मन्त्रों का जाप वास्तव में मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है और कई पापों से मुक्ति दिलाकर मनोकामनाओं की पूर्ति भी करता है।
जब बात आती है स्तोत्र के जाप की तो कई ऐसे मन्त्र और स्तोत्र गीता में बताए गए हैं जिनसे घर में शांति आने के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरती है।
ऐसे ही स्तोत्रों में से एक है गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप करना। पुराणों के अनुसार इस स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति कर्ज से मुक्त हो जाता है और साथ ही किसी भी संकट से मुक्ति मिलती है।
हिंदू धर्म के प्रथम ग्रंथ ”श्रीमद्भगवद गीता” के दूसरे,तीसरे और चौथे अध्याय में गजेंद्र स्तोत्र का वर्णन है। इसमें कुल 33 श्लोक दिए गए हैं। इस स्तोत्र में हाथी और मगरमच्छ के साथ हुए युद्ध का वर्णन किया गया है।
कर्ज से मुक्ति
●यदि गजेन्द्र मोक्ष का पाठ नियमित रूप से ब्रह्म मुहूर्त में किया जाए तो किसी भी बड़े से बड़े कर्ज से मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि कर्ज से मुक्ति पाने का सबसे बड़ा उपाय इस स्तोत्र का पाठ करना है। यह ऐसा अमोघ उपाय है जिससे बड़ा से बड़ा कर्ज भी शीघ्र उतर जाता है।
●संकटों से मुक्ति
कहा जाता है कि गजेंद्र मोक्ष का पाठ किसी भी बड़ी से बड़ी बाधा से बाहर निकालने में मदद करता है। ऐसा माना जाता है कि यदि व्यक्ति इस स्तोत्र का पाठ करता है तो स्वयं भगवान् विष्णु उसकी बाधाओं को हर लेते हैं और उसके लिए कठिन काम भी आसान हो जाते हैं।
●लड़ाई झगड़ों से मुक्ति
यदि पति -पत्नी के बीच लड़ाइयां होती हैं तब भी इस स्तोत्र का पाठ अत्यंत फलदायी होता है। इस स्तोत्र के पाठ से बड़ी से बड़ी लड़ाइयों से छुटकारा पाया जा सकता है।
●पितरों की मुक्ति का मार्ग
इस स्तोत्र का पाठ पितरों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और उनके स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता है। इस स्तोत्र के जाप को मुक्ति का धाम माना जाता है।
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🙏गाय चौरासी लाख योनियों में अंतिम योनि -
इसलिए बचाना है।
गाय को🙏यजुर्वेद के दूसरे भाग शुक्ल यजुर्वेद में गाय और कृषि विज्ञान के महत्व को समझाते हुए यागवल्क्य ऋषि कहते हैं, कि आत्मा चौरासी लाख योनियों में विचरते हुए पेड़-पौधे, कीट-पतंग और पशु-पक्षी आदि की योनियों से गुजरती हुई, सबसे अंत में गाय की योनि में प्रवेश करती है और गाय का जीवन जीती है।
गाय की योनि में आकर आत्मा इतनी विकसित हो चुकी होती है कि वह अगले जन्म में आसानी से मनुष्य की योनि में प्रवेश कर जाती है। यानि गाय का शरीर पशु के रुप में आत्मा का अंतिम शरीर होता है। गाय पशु और मनुष्य के बीच की एक 'कड़ी' है। गाय में आकर आत्मा उस जगह पर आ खड़ी होती है, जहां से उसके लिए अगले जन्म में मनुष्य योनि में आना आसान हो जाता है। अर्थात गाय का शरीर आत्मा के लिए एक सीढी है, पशु से मनुष्य बनने के लिये।यही कारण रहा है कि भगवान श्रीकृष्ण को गाय अति प्रिय रही है और उन्होंने सदेव गाय की रक्षा और सेवा की है। और इसीलिए लिए हमारे हिंदू धर्म में गाय को इतना महत्व दिया जाता है।
उसकी पूजा करके स्वागत करते हुए उस आत्मा को धन्यवाद दिया जाता है, कि धन्य है तू जो गाय तक आ पहुंची है। उसे संबल दिया जाता है, कि हम भी एक समय वहीं थे जहां आज तू खड़ी है। अब तेरा अगला जन्म मनुष्य का है, हम तेरी पूरी मदद करेंगे, ताकि तू मनुष्य रूप में आकर स्वयं को मुक्त कर सके। घर, आश्रम और गौ-शालाओं में गंगा, गीता या सरस्वती आदि नाम देकर उसका व्यक्तित्व निर्मित किया जाता रहा है ताकि उसे अपने होने का भाव बना रहे, वह स्वयं को हमारे परिवार का हिस्सा समझने लगे जो उसके मनुष्य जन्म में सहयोगी हो।
बेटी के साथ ही गाय की बछिया भी बड़ी होती जाती थी और दोनों में खूब प्रेम हो जाता अतः बेटी के साथ ही गाय को भी विदा कर दिया जाता ताकी बेटी को लगे कि पीहर का कोई उसके साथ है और वह जीवन भर उसकी देखभाल कर सके।
गाय को रोटी देकर उसे रोटी के स्वाद से परिचित करवाना शुरू कर दिया जाता, ताकि रोटी का यह स्वाद उसे मनुष्य योनि में आने के लिए आकर्षित करता रहे। रोटी का स्वाद, रोटी की खुश्बू उस आत्मा को घर में खींचेगी और वह कोरी और पवित्र आत्मा हमारे घर में मनुष्य के रूप में जन्म ले सकेगी।
यही कारण है कि हमारे धर्म में गाय को रोजाना रोटी देने का नियम है। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब गाय को अपना पूरा जीवन जीने दिया जाएगा। वह अपनी स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हो, न कि उसकी हत्या हो? गाय तक आते-आते आत्मा का जो विकास हुआ है, उस विकास को आगे गति देने के लिए हमें गाय को उसका पूरा जीवन जीने में उसकी मदद करनी होगी।
उसकी उम्र पूरी हो, वह अधूरा जीवन नहीं जिये। उसकी हत्या करने से उसकी मनुष्य योनि में प्रवेश करने की यात्रा बाधित होगी क्योंकि गाय का 'पूरा' जीवन जीने के बाद ही उसका मनुष्य योनि में प्रवेश होगा। यदि उसकी हत्या होती है तो वह फिर से पशु योनि में लौट जायेगी, और हो सकता है वह दूसरे हिंसक पशु में लौट जाये? इसलिए गाय की हत्या नहीं होनी चाहिए।
गाय का वध करके हम एक आत्मा का पशु योनि से मनुष्य योनि में प्रवेश करने का मार्ग अवरूद्ध कर रहे होते हैं। गाय को बचाकर हम एक आत्मा की पशु से मनुष्य बनने में मदद करते हैं। इसके बदले में वह अपने दूध से हमें पोषण देती है और गौमूत्र तथा गोबर से हमारी खेती को सुदृढ़ बनाते हुए बछड़े के रूप में दूसरी आत्मा को जन्म देकर अपना ऋण चुकाकर जाती है।
🙏🐂 जय गौ माता 🐂🙏
पुनर्जन्म सिद्धान्त समीक्षा :-
प्रश्न :- पुनर्जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :- आत्मा और इन्द्रियों का शरीर के साथ बार बार सम्बन्ध टूटने और बनने को पुनर्जन्म या प्रेत्याभाव कहते हैं ।
प्रश्न :- प्रेत किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जब आत्मा और इन्द्रियों का शरीर से सम्बन्ध टूट जाता है तो जो बचा हुआ शरीर है उसे शव या प्रेत कहा जाता है ।
प्रश्न :- भूत किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जो व्यक्ति मृत हो जाता है वह क्योंकि अब वर्तमान काल में नहीं है और भूतकाल में चला गया है इसी कारण वह भूत कहलाता है ।
प्रश्न :- पुनर्जन्म को कैसे समझा जा सकता है ?
उत्तर :- पुनर्जन्म को समझने के लिये आपको पहले जन्म और मृत्यु के बारे मे समझना पड़ेगा । और जन्म मृत्यु को समझने से पहले आपको शरीर को समझना पड़ेगा ।
प्रश्न :- शरीर के बारे में समझाएँ ।
उत्तर :- शरीर दो प्रकार का होता है :- (१) सूक्ष्म शरीर ( मन, बुद्धि, अहंकार, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ ) (२) स्थूल शरीर ( ५ कर्मेन्द्रियाँ = नासिका, त्वचा, कर्ण आदि बाहरी शरीर ) और इस शरीर के द्वारा आत्मा कर्मों को करता है ।
प्रश्न :- जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :- आत्मा का सूक्ष्म शरीर को लेकर स्थूल शरीर के साथ सम्बन्ध हो जाने का नाम जन्म है । और ये सम्बन्ध प्राणों के साथ दोनो शरीरों में स्थापित होता है । जन्म को जाति भी कहा जाता है ( उदाहरण :- पशु जाति, मनुष्य जाति, पक्षी जाति, वृक्ष जाति आदि )
प्रश्न :- मृत्यु किसे कहते हैं ?
उत्तर :- सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच में प्राणों का सम्बन्ध है । उस सम्बन्ध के टूट जाने का नाम मृत्यु है ।
प्रश्न :- मृत्यु और निद्रा में क्या अंतर है ?
उत्तर :- मृत्यु में दोनों शरीरों के सम्बन्ध टूट जाते हैं और निद्रा में दोनों शरीरों के सम्बन्ध स्थापित रहते हैं ।
प्रश्न :- मृत्यु कैसे होती है ?
उत्तर :- आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर को पूरे स्थूल शरीर से समेटता हुआ किसी एक द्वार से बाहर निकलता है । और जिन जिन इन्द्रियों को समेटता जाता है वे सब निष्क्रिय होती जाती हैं । तभी हम देखते हैं कि मृत्यु के समय बोलना, दिखना, सुनना सब बंद होता चला जाता है ।
प्रश्न :- जब मृत्यु होती है तो हमें कैसा लगता है ?
उत्तर :- ठीक वैसा ही जैसा कि हमें बिस्तर पर लेटे लेटे नींद में जाते हुए लगता है । हम ज्ञान शून्य होने लगते हैं । यदि मान लो हमारी मृत्यु स्वाभाविक नहीं है और कोई तलवार से धीरे धीरे गला काट रहा है तो पहले तो निकलते हुए रक्त और तीव्र पीड़ा से हमें तुरंत मूर्छा आने लगेगी और हम ज्ञान शून्य हो जायेंगे और ऐसे ही हमारे प्राण निकल जायेंगे ।
प्रश्न :- मृत्यु और मुक्ति में क्या अंतर है ?
उत्तर :- जीवात्मा को बार बार कर्मो के अनुसार शरीर प्राप्त करे के लिये सूक्ष्म शरीर मिला हुआ होता है । जब सामान्य मृत्यु होती है तो आत्मा सूक्ष्म शरीर को लेकर उस स्थूल शरीर ( मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ) से निकल जाता है परन्तु जब मुक्ति होती है तो आत्मा स्थूल शरीर ( मनुष्य ) को तो छोड़ता ही है लेकिन ये सूक्ष्म शरीर भी छोड़ देता है और सूक्ष्म शरीर प्रकृत्ति में लीन हो जाता है । ( मुक्ति केवल मनुष्य शरीर में योग समाधि आदि साधनों से ही होती है )
प्रश्न :- मुक्ति की अवधि कितनी है ?
उत्तर :- मुक्ति की अवधि 36000 सृष्टियाँ हैं । 1 सृष्टि = 8640000000 वर्ष । यानी कि इतनी अवधि तक आत्मा मुक्त रहता है और ब्रह्माण्ड में ईश्वर के आनंद में मग्न रहता है । और ये अवधि पूरी करते ही किसी शरीर में कर्मानुसार फिर से आता है ।
प्रश्न :- मृत्यु की अवधि कितनी है ?
उत्तर :- एक क्षण के कई भाग कर दीजिए उससे भी कम समय में आत्मा एक शरीर छोड़ तुरंत दूसरे शरीर को धारण कर लेता है ।
प्रश्न :- जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :- ईश्वर के द्वारा जीवात्मा अपने सूक्ष्म शरीर के साथ कर्म के अनुसार किसी माता के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है और वहाँ बन रहे रज वीर्य के संयोग से शरीर को प्राप्त कर लेता है । इसी को जन्म कहते हैं ।
प्रश्न :- जाति किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जन्म को जाति कहते है । कर्मों के अनुसार जीवात्मा जिस शरीर को प्राप्त होता है वह उसकी जाति कहलाती है । जैसे :- मनुष्य जाति, पशु जाति, वृक्ष जाति, पक्षी जाति आदि ।
प्रश्न :- ये कैसे निश्चय होता है कि आत्मा किस जाति को प्राप्त होगा ?
उत्तर :- ये कर्मों के अनुसार निश्चय होता है । ऐसे समझिए ! आत्मा में अनंत जन्मों के अनंत कर्मों के संस्कार अंकित रहते हैं । ये कर्म अपनी एक कतार में खड़े रहते हैं जो कर्म आगे आता रहता है उसके अनुसार आत्मा कर्मफल भोगता है । मान लो आत्मा ने कभी किसी शरीर में ऐसे कर्म किये हों जिसके कारण उसे सूअर का शरीर मिलना हो । और ये सूअर का शरीर दिलवाने वाले कर्म कतार में सबसे आगे खड़े हैं तो आत्मा उस प्रचलित शरीर को छोड़ तुरंत किसी सूअरिया के गर्भ में प्रविष्ट होगी और सूअर का जन्म मिलेगा । अब आगे चलिये सूअर के शरीर को भोग जब आत्मा के वे कर्म निवृत होंगे तो कतार में उससे पीछे मान लो भैंस का शरीर दिलाने वाले कर्म खड़े हो गए तो सूअर के शरीर में मरकर आत्मा भैंस के शरीर को भोगेगा । बस ऐसे ही समझते जाइए कि कर्मों की कतार में एक के बाद एक एक से दूसरे शरीर में पुनर्जन्म होता रहेगा । यदि ऐसे ही आगे किसी मनुष्य शरीर में आकर वो अपने जीवन की उपयोगिता समझकर योगी हो जायेगा तो कर्मो की कतार को 36000 सृष्टियों तक के लिये छोड़ देगा । उसके बाद फिर से ये क्रम सब चालू रहेगा ।
प्रश्न :- लेकिन हम देखते हैं एक ही जाति में पैदा हुई आत्माएँ अलग अलग रूप में सुखी और दुखी हैं ऐसा क्यों ?
उत्तर :- ये भी कर्मों पर आधारित है । जैसे किसी ने पाप पुण्य रूप में मिश्रित कर्म किये और उसे पुण्य के आधार पर मनुष्य शरीर तो मिला परंतु वह पाप कर्मों के आधार पर किसी ऐसे कुल मे पैदा हुआ जिसमें उसे दुख और कष्ट अधिक झेलने पड़े । आगे ऐसे समझिए जैसे किसी आत्मा ने किसी शरीर में बहुत से पाप कर्म और कुछ पुण्य कर्म किए जिस पाप के आधार पर उसे गाँय का शरीर मिला और पुण्यों के आधार उस गाँय को ऐसा घर मिला जहाँ उसे उत्तम सुख जैसे कि भोजन, चिकित्सा आदि प्राप्त हुए । ठीक ऐसे ही कर्मों के मिश्रित रूप में शरीरों का मिलना तय होता है ।
प्रश्न :- जो आत्मा है उसकी स्थिति शरीर में कैसे होती है ? क्या वो पूरे शरीर में फैलकर रहती है या शरीर के किसी स्थान विशेष में ?
उत्तर :- आत्मा एक सुई की नोक के करोड़वें हिस्से से भी अत्यन्त सूक्ष्म होती है और वह शरीर में हृदय देश में रहती है वहीं से वो अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा स्थूल शरीर का संचालन करती है । आत्मा पूरे शरीर में फैली नही होती या कहें कि व्याप्त नहीं होती । क्योंकि मान लें कोई आत्मा किसी हाथी के शरीर को धारण किये हुए है और उसे त्यागकर मान लो उसे कर्मानुसार चींटी का शरीर मिलता है तो सोचो वह आत्मा उस चींटी के शरीर में कैसे घुसेगी ? इसके लिये तो उस आत्मा की पर्याप्त काट छांट करनी होगी जो कि शास्त्र विरुद्ध सिद्धांत है, कोई भी आत्मा काटा नहीं जा सकता । ये बात वेद, उपनिषद्, गीता आदि भी कहते हैं ।
प्रश्न :- लोग मृत्यु से इतना डरते क्यों हैं ?
उत्तर :- अज्ञानता के कारण । क्योंकि यदि लोग वेद, दर्शन, उपनिषद् आदि का स्वाध्याय करके शरीर और आत्मा आदि के ज्ञान विज्ञान को पढ़ेंगे तो उन्हें सारी स्थिति समझ में आ जायेगी और लेकिन इससे भी ये मात्र शाब्दिक ज्ञान होगा यदि लोग ये सब पढ़कर अध्यात्म में रूचि लेते हुए योगाभ्यास आदि करेंगे तो ये ज्ञान उनको भीतर से होता जायेगा और वे निर्भयी होते जायेंगे । आपने महापुरुषों के बारे में सुना होगा कि जिन्होंने हँसते हँसते अपने प्राण दे दिए । ये सब इसलिये कर पाए क्योंकि वे लोग तत्वज्ञानी थे जिसके कारण मृत्यु भय जाता रहा । सोचिए महाभारत के युद्ध में अर्जुण भय के कारण शिथिल हो गया था तो योगेश्वर कृष्ण जी ने ही उनको सांख्य योग के द्वारा ये शरीर, आत्मा आदि का ज्ञान विज्ञान ही तो समझाया था और उसे निर्भयी बनाया था । सामान्य मनुष्य को तो अज्ञान मे ये भय रहता ही है ।
प्रश्न :- क्या वास्तव में भूत प्रेत नहीं होते ? और जो हम ये किसी महिला के शरीर मे चुड़ैल या दुष्टात्मा आ जाती है वो सब क्या झूठ है ?
उत्तर :- झूठ है । लीजिए इसको क्रम से समझिए । पहली बात तो ये है कि किसी एक शरीर कां संचालन दो आत्माएँ कभी नहीं कर सकतीं । ये सिद्धांत विरुद्ध और ईश्वरीय नियम के विरुद्ध है । तो किसी एक शरीर में दूसरी आत्मा का आकर उसे अपने वश में कर लेना संभव ही नही है । और जो आपने बोला कि कई महिलाओं में जो डायन या चुड़ैल आ जाती है जिसके कारण उनकी आवाज़ तक बदल जाति है तो वो किसी दुष्टात्मा के कारण नहीं बल्कि मन के पलटने की स्थिति के कारण होता है । विज्ञान की भाषा में इसे Multiple Personality Disorder कहते हैं जिसमें एक व्यक्ति परिवर्तित होकर अगले ही क्षण दूसरे में बदल जाता है । ये एक मान्सिक रोग है ।
प्रश्न :- पुनर्जन्म का साक्ष्य क्या है ? ये सिद्धांतवादी बातें अपने स्थान पर हैं पर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण क्या हैं ?
उत्तर :- आपने ढेरों ऐसे समाचार सुने होंगे कि किसी घर में कोई बालक पैदा हुआ और वह थोड़ा बड़ा होते ही अपने पुराने गाँव, घर, परिवार और उन सदस्यों के बारे में पूरी जानकारी बताता है जिनसे उसका प्रचलित जीवन में दूर दूर तक कोई संबन्ध नहीं रहा है । और ये सब पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । सुनिए ! होता ये है कि जैसा आपको ऊपर बताया गया है कि आत्मा के सूक्ष्म शरीर में कर्मो के संस्कार अंकित होते रहते हैं और किसी जन्म में कोई अवसर पाकर वे उभर आते हैं इसी कारण वह मनुष्य अपने पुराने जन्म की बातें बताने लगता है । लेकिन ये स्थिति सबके साथ नहीं होती । क्योंकि करोड़ों में कोई एक होगा जिसके साथ ये होता होगा कि अवसर पाकर उसके कोई दबे हुए संस्कार उग्र हो गए और वह अपने बारे में बताने लगा ।
प्रश्न :- क्या हम जान सकते हैं कि हमारा पूर्व जन्म कैसा था ?
उत्तर :- महर्षि दयानंद सरस्वति जी कहते हैं कि सामान्य रूप में तो नहीं परन्तु यदि आप योगाभ्यास को सिद्ध करेंगे तो आपके करोंड़ों वर्षों का इतिहास आपके सामने आकर खड़ा हो जायेगा । और यही तो मुक्ति के लक्षण हैं ।
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