विलोम विवाह

आपने बहुत गहन और संवेदनशील प्रश्न पूछा है – “विलोम विवाह” (अर्थात उच्च वर्ण–निम्न वर्ण के बीच विवाह) पर। इसे हमारे धर्मशास्त्रों, पुराणों और आचार-ग्रंथों में बहुत स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है।


१. शास्त्रों में विलोम विवाह का स्थान

  1. मनुस्मृति (अध्याय ३)

    • इसमें वर्ण संकर (मिश्रण) को विस्तार से बताया गया है।
    • अनुलोम विवाह (उच्च वर्ण पुरुष और निम्न वर्ण स्त्री) को यद्यपि स्वीकार किया गया, पर इसे भी आदर्श नहीं माना।
    • विलोम विवाह (निम्न वर्ण पुरुष और उच्च वर्ण स्त्री) को धर्मविरुद्ध, अपवित्र और समाज में अव्यवस्था फैलाने वाला बताया गया।
  2. महाभारत, शांतिपर्व

    • कहा गया है कि जब वर्णव्यवस्था का उल्लंघन होता है, तब वर्णसंकर उत्पन्न होता है और धर्म धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है।
  3. पराशर स्मृति

    • अनुलोम विवाह में भी केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही अनुमति दी गई, पर विलोम विवाह को पूरी तरह निषिद्ध कहा गया।

२. शास्त्रों की दृष्टि से विलोम विवाह क्यों अनुचित माना गया?

  1. धार्मिक दृष्टि से

    • स्त्री को ‘कुल की लक्ष्मी’ और ‘वंश की वाहिका’ कहा गया है। यदि वह उच्च वर्ण से निम्न वर्ण में जाती है, तो शास्त्र इसे कुल–अवमूल्यन मानते हैं।
    • संतान के धर्मकर्म पर प्रभाव पड़ता है क्योंकि उसे न तो पूर्णतः उच्च वर्ण की शिक्षा मिल पाती है, न निम्न की परंपरा पूरी तरह निभती है।
  2. सामाजिक दृष्टि से

    • समाज में असमानता, तिरस्कार और आपसी टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
    • शास्त्रों में कहा गया कि “वर्णसंकर” से पितरों को तर्पण नहीं मिलता, यज्ञादि कर्म बाधित होते हैं।
  3. गुण-पराक्रम की दृष्टि से

    • शास्त्रों का मानना था कि प्रत्येक वर्ण के गुण व स्वभाव भिन्न हैं।
    • “निम्न कोटि की जातियों का पराक्रम उच्च कोटि के समान नहीं हो सकता” – यह कथन वर्णधर्म पर आधारित था, क्योंकि उच्च वर्ण का जीवन शिक्षा, संयम और तप पर आधारित था, जबकि निम्न वर्ण का जीवन सेवा और श्रम पर।

३. विलोम विवाह से संभावित हानियाँ

  1. धार्मिक हानियाँ

    • यज्ञोपवीत, श्राद्ध, संतान संस्कार आदि में व्यवधान।
    • संतान का धर्म अस्पष्ट होना।
  2. सामाजिक हानियाँ

    • समाज की स्वीकृति न मिलना, तिरस्कार का सामना करना।
    • आपसी वैचारिक मतभेद और पारिवारिक कलह।
  3. वंशगत हानियाँ

    • संतान में पहचान का संकट – न पूर्णतः पिता की परंपरा, न माँ की।
    • समाज में स्थान निश्चित न होना।

४. विलोम विवाह से संभावित लाभ (यदि आधुनिक दृष्टिकोण से देखें)

  1. सामाजिक समानता

    • जातिगत भेदभाव को तोड़ने में यह भूमिका निभा सकता है।
    • समाज धीरे-धीरे एकरूप हो सकता है।
  2. मानवता की दृष्टि से

    • यह प्रेम, करुणा और पारस्परिक सहयोग को बढ़ा सकता है।
    • व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पसंद से विवाह करता है, न कि जातिगत बंधनों से।
  3. संतान की दृष्टि से

    • कभी-कभी ऐसी संतान बहुगुणी और बहुसंस्कारी हो सकती है।
    • आधुनिक शिक्षा और अवसर मिलने पर वह सामाजिक भेद को पाट सकती है।

५. संतुलन की दृष्टि से

  • शास्त्रों ने विलोम विवाह को निषिद्ध माना क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य समाज की व्यवस्था और धर्म की रक्षा था।
  • परंतु वर्तमान युग (कलियुग) में लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता को महत्व देते हैं।
  • यदि ऐसे विवाह में धार्मिक आचरण, संस्कार और सदाचार नष्ट नहीं होते, तो समाज में इसके दुष्प्रभाव कम हो सकते हैं।

निष्कर्ष

  • शास्त्रों की दृष्टि से विलोम विवाह अनुचित है, क्योंकि यह धर्म और सामाजिक व्यवस्था के विपरीत है।
  • आधुनिक दृष्टि से इसमें कुछ लाभ भी हो सकते हैं, विशेषकर जातिगत भेदभाव को कम करने में।
  • किंतु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि – क्या ऐसे विवाह में धर्म, संस्कार और कुल-मर्यादा की रक्षा हो पा रही है या नहीं।

क्या आप चाहेंगे कि मैं आपको मनुस्मृति और पराशर स्मृति से श्लोक सहित विलोम विवाह पर लिखे गए मूल शास्त्रीय प्रमाण भी दूँ?

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