सूतक क्या है?
सूतक क्या है?
सन्तान का जन्म होने के पश्चात् जो घर वालों को कुछ दिनों के लिए कर्म धर्म का पालन करना वर्जित होता है। जैसे पूजा करना, अन्य दान करना इत्यादि। इसी को नाम सूतक है। इसे राजस्थान में 'सावड़' कहते हैं। महाराष्ट्र में 'वृद्धि' कहते हैं तथा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा आदि में 'सूतक' नाम से ही जाना जाता है।
पातक किसे कहते हैं?
जिस तरह जन्म के समय परिवार के सदस्यों पर सूतक लग जाता है उसी तरह परिवार के लिए सदस्य की मृत्यु के बाद सूतक का लग जाता है, जिसे पातक भी कहा जाता है। लेकिन जन्म-मरण दोनों को 'सूतक' शब्द से भी जाना जाता है। गरुण पुराण में सूतक शब्द नहीं प्रयोग करते हुए पातक शब्द का प्रयोग कर दिया गया। तब से लोग सूतक और पातक को अगल अलग मानने लगे। वास्तव में ये दोनों एक है क्योंकि दोनों (जन्म-मरण) में कर्म-धर्म का पालन नहीं किया जाता।
गरुण पुराण के अनुसार जब भी परिवार के किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो घर के सदस्यों को पुजारी को बुलाकर गरुण पुराण का पाठ करवाकर पातक के नियमों को समझना चाहिए। गरुण पुराण के अनुसार पातक लगने के १३वें दिन क्रिया कर के उस दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। इसके बाद मृत व्यक्ति की सभी नई-पुरानी वस्तुओं (सामान), कपड़ों को गरीब और असहाय व्यक्तियों में बांट देना चाहिए।
जन्म पर सूतक में क्या होता है?
किसी के जन्म होने पर परिवार के लोगों पर १० दिन के लिए सूतक लग जाता है। इस दौरान परिवार का कोई भी सदस्य धार्मिक कार्य नहीं करता है। जैसे मंदिर नहीं जाना, पूजा-पाठ नहीं करना। इसके अलावा बच्चे को जन्म देने वाली स्त्री का रसोईघर में जाना या घर का कोई काम करना वर्जित होता है। जब घर में हवन हो जाए उसके बाद वो काम कर सकती है।
जन्म के पश्चात सूतक का वैज्ञानिक तर्क
आजकल हर घर की महिलाओं को परिवार के सदस्यों की जरूरतों को पूरा करना होता था। लेकिन बच्चे को जन्म देने के बाद महिलाओं का शरीर बहुत कमजोर हो जाता है। इसलिए वो काम करने की स्थिति में नहीं होती। इसलिए उन्हें हर संभव आराम की जरूरत होती है। इसलिए सूतक के नाम पर इस समय उन्हें आराम दिया जाता था ताकि वे अपने दर्द और थकान से बाहर निकल पाएं।
बच्चे को संक्रमण का खतरा
जब बच्चे का जन्म होता है तो उसके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी नहीं हुआ होता। वह बहुत ही जल्द संक्रमण के दायरे में आ सकता है, इसलिए १०-३० दिनों की समय में उसे बाहरी लोगों से दूर रखा जाता था, उस बच्चे को घर से बाहर नहीं लेकर जाया जाता है। कुछ लोग सूतक को एक अंधविश्वास मानते है लेकिन इसका उद्देश्य स्त्री के शरीर को आराम देना और शिशु के स्वास्थ्य का ख्याल रखने है।
मृत्यु के पश्चात सूतक या पातक का वैज्ञानिक तर्क
किसी लंबी और घातक बीमारी या फिर दुर्घटना की वजह से या फिर वृद्धावस्था के कारण व्यक्ति की मृत्यु होती है। कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन इन सभी की वजह से संक्रमण फैलने की संभावनाएं बहुत हद तक बढ़ जाती हैं। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि दाह-संस्कार के पश्चात स्रान आवश्यक है ताकि श्मशान घाट और घर के भीतर मौजूद कीटाणुओं से मुक्ति मिल सके।
इसके अलावा उस घर में रहने वाले लोगों को संक्रमण का वाहक माना जाता है इसलिए १३ दिन के लिए सार्वजनिक स्थानों से दूर रहने की सलाह दी गई है। जैसा की हम जानते है कि हवन करने से वातावण शुद्ध होता है यह तो वैज्ञानिक भी मानते है। इसलिए घर में हवन होने के बाद, घर के भीतर का वातावरण शुद्ध हो जाता है, संक्रमण की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं, जिसके बाद 'पातक' की अवधि समाप्त होती है।
साभार
मित्रों, शास्त्रीय प्रमाण के अनुसार सूतक कितने प्रकार का होता है तथा किस प्रकार से हमारे ऊपर दुःषाभाव डालता है? सूतक का तात्पर्य है अशौच या अशुद्धि। सूतक से शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की अशुद्धियों होती है। शरीर का सूतक द्रव्य और क्षेत्र के कारण तथा मन राग-द्वेषादी विकारी परिणाम से अशुद्ध होता है इसलिए इस काल में शुभ कार्य करना वर्जित है ।।
क्योंकि एक व्यक्ति कि अशुद्धि से कई व्यक्ति और सम्पूर्ण वातावरण भी प्रभावित हो सकता है। जैसे एक बूंद नींबू के रस से पुरे दूध का स्वरुप परिवर्तित हो जाता है। सूतक भेद के अनुसार पहला है आर्तज अर्थात मृत्यु सम्बन्धी, दूसरा है सौतिक अर्थात प्रसूति सम्बन्धी और तीसरा आर्तव अर्थात ऋतुकाल सम्बन्धी । तत्सन्सर्गज अर्थात सूतक से अशुद्ध व्यक्ति के स्पर्श से भी दोष लगता है ।।
मित्रों, आर्तज अर्थात मृत्यु सम्बन्धी सुतक कैसे और किसके मरण से होता है। जैसे घर में रहने वाले सदस्यों जैसे कुटुम्बी, सेवक और पालतू जानवर के मृत्यु से भी सूतक लगता है। इनके मृत्यु से हुई अशुद्धि को आर्तज सूतक कहते है। अब इसके भी तीन भेद होते हैं, पहला सामान्य मृत्यु अर्थात आयु पूर्ण करके मृत्यु को प्राप्त होना ।।
दूसरा अपमृत्यु अर्थात दुर्भाग्य से जैसे प्राकृतिक आपदा, बाढ़, अग्नि, भूकंप, उल्कापात, बिजली आदि से, सर्पदंश, सिंह, युद्ध एवं दुर्घटना आदि के कारण हुई मृत्यु को अपमृत्यु कहते है। तीसरा आत्मघात से हुई मृत्यु जैसे सती होना, क्रोध वश कुएँ में गिरकर, नदी-तालाब में डूबकर मरना, छत से गिरना, विष खाना, फांसी लगाना, आग लगाना, गर्भपात आदि करवाना आत्महत्या की श्रेणी में ही आता है ।।
मित्रों, इन्ही कारणों से किसी दूसरों के प्राणों का हनन करना हत्या होता है परन्तु ये भी आत्महत्या से हुई मृत्यु की श्रेणी में ही आता है । इसके बाद आता है दूसरा सौतिक सूतक अर्थात प्रसूति सम्बन्धी सूतक। एक घर में रहने वाले सदस्यों कि प्रसूति होने से हुई अशुद्धि को सौतिक सूतक कहते है। इसके भी तीन भेद होते हैं, पहला साव सम्बन्धी सूतक अर्थात गर्भ धारण से तीन-चार माह तक के गर्भ गिरने को स्राव कहते है ।।
दूसरा पात सम्बन्धी सूतक अर्थात गर्भ धारण से पांच-छः मास तक के गर्भ गिरने को गर्भ पात कहते है। तीसरा प्रसूति सम्बन्धी सूतक अर्थात गर्भ धारण से सातवें से दशवें मास में माता के उदर से शिशु के बहार आने को प्रसूति या जन्म कहते है। अब तीसरा सूतक आर्तव अर्थात ऋतुकाल सम्बन्धी सूतक कहा जाता है। सामान्यतः बारह वर्ष से पचास वर्ष तक स्त्रियों का प्रत्येक माह में रक्त स्राव होता है ।।
मित्रों, इससे होने वाली अशुद्धि को आर्तव सूतक कहते है। इसे रजो दर्शन, रजो धर्म, मासिक धर्म भी कहते है। इस अवस्था में स्त्री को रजस्वला कहा जाता है, इसके भी २ भेद होते हैं। पहला प्राकृतिक स्राव अर्थात नियमित रूप से निश्चित तिथियों में होने वाला रक्तस्राव जो तीन दिन तक होता है उसे प्राकृतिक साब कहा जाता है। दूसरा स्त्रियों को रोगादिक विकार से नियमित काल के पहले रक्त स्राव होना या नियमित काल के बाद रक्त स्राव होना ।।
इस प्रकार अन्य कारणों से असमय में होने वाला रक्त स्राव विकृत साव कहलाता है। चौथा होता है तत्सन्सर्गज सूतक अर्थात अशुद्ध व्यक्ति के स्पर्श से जैसे उनका स्पर्श, उठना, बैठना, भोजन करना, शयन करना आदि से होने वाली अशुद्धि तत्सन्सर्गज सूतक कहलाती है। इसके भी तीन भेद होते हैं, पहला मृत व्यक्ति के स्पर्श से सूतक हो जाता है ।।
मित्रों, शमशान भूमि में अर्थी ले जाने से, साथ में जाने से, श्मशान भूमि में जाने वाले व्यक्ति के स्पर्श से एवं मरण सूतक से अशुद्ध व्यक्तियों के संसर्ग से होने वाली अशुद्धि। दूसरा प्रसूता स्त्री और बालक के स्पर्श से और प्रसूता स्त्री द्वारा उपयोग कि गयी वस्तु का स्पर्श प्रसूति सूतक से अशुद्ध व्यक्तियों का संसर्ग करने से होने वाली अशुद्धि । तीसरा रजस्वला स्त्री का स्पर्श या उसके द्वारा उपयोग की गयी वस्तु को स्पर्श करने से होने वाली अशुद्धि ।।
इस प्रकार इतने कारणों से सूतक लगती है, परन्तु अशुद्धि का काल कितना होगा इसके बारे में विभिन्न शास्त्रों, आचार्यों, विद्वानों एवं लोक परंपरा के अनुसार मत-मतान्तर है जो अपने क्षेत्र की परम्परानुसार मानना चाहिए। सूतक वृद्धि एवं हानि से युक्त होता है, यह जन्म सम्बन्धी दस दिन तथा मरण सम्बन्धी बारह दिन का होता है ।।
मित्रों, प्रसूति स्थान की शुद्धि सूतक काल से लेकर एक मास में होती है जबकि गोत्रीजन की शुद्धि सूतक काल के बाद स्नान मात्र से हो जाती है। कुटुम्बीजनों की सूतक से शुद्धि १२ दिन बाद होती है। इसके बाद ही वो भगवान का अभिषेक, पूजन तथा पात्रदान आदि कर सकते है। प्रसूता स्त्री ४५ दिन में शुद्ध मानी जाती है, रजस्वला तीन दिन बाद शुद्ध होती है परन्तु धार्मिक कार्य हेतु पांचवे दिन के बाद ही शुद्ध मानी जाती है ।।
परन्तु शास्त्र कहता है, कि पर पुरुष के साथ व्यभिचार रत स्त्री जीवन पर्यन्त शुद्ध नहीं मानी जाती है। मित्रों, उपरोक्त अशुद्धि काल की सामान्य स्थिति है परन्तु सूतक किस-किस को लगेगा कितनी पीढ़ी तक लगेगा, कितने दिन तक लगेगा। इसके बारे में परम्परानुसार ग्रंथों में जो उल्लेख मिलता है उनमें कुछ भेद है। जिसका पालन लोकरीति के अनुसार करना चाहिए ।।
मित्रों, कुटुम्बी जन अर्थात ३ पीढ़ी तक के बंधुओं को मृत्यु एवं प्रसूति का सूतक कमशः १२ दिन एवं १० दिन ही लगता है। चौथी से दशवी पीढ़ी तक यह सूतक १-१ दिन कम होता जाता है और दशवीं पीढ़ी का सूतक मात्र स्नान से ही निवृत्त हो जाता है। अब थोड़ी सी बात कर लेते हैं, कि ये सूतक आखिर लगता ही क्यों है ? किसी भी प्राणी की जब मृत्यु होती है, तब वह भय एवं पीड़ा से आतंकित होता है ।।
अति पीड़ा के इन क्षणों में शरीर की स्थित्ति अति उत्तेजित होती है । जिस से मस्तिष्क, हृदय, नाडी तंत्र प्रभावित होता है। इस प्रक्रिया में विकारी तत्त्व प्रभावित होने के साथ पसीना एवं मल मूत्र भी निष्काषित होता है। इस प्रक्रिया में कई विकारी तत्व रोग के कीटाणु भी शरीर से उत्सर्जित होते है। आभा मंडल विकृत होने के साथ वायोप्लाज्मा "organic Chemical" के कारण विकृत हो जाता है ।।
मित्रों, प्राणांत के बाद व्यक्ति के मरण स्थान पर बायोप्लाज्मा विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा के रूप में विद्यमान रहता है। जिसका अपघटन तीन दिन में होता है, इसलिए तीन दिन की विशेष अशुद्धि मानी गयी है। मृत शरीर में असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते है जिनका नाश शव जलने से होता है। अतः यह विशेष हिंसा का कारण माना गया है। इसलिए यह सूतक देहांत के बाद से १२ दिन तक माना गया है ।।
यही स्थिति प्रसूति के समय माता की होती है। प्रसव के समय उनकी मानसिक स्थिति विकृत हो जाती है। आर्त-रौद्र स्थितियों से नकारात्मक उर्जा उत्पन्न होती है। प्रसव के समय शारीरिक उत्तेजना से विकारी पदार्थ पसीने के साथ उत्सर्जित होते है। विकृत आभा मंडल की विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा अपघटित होने में तीन दिन लगते है। अतः सौरी "प्रसव स्थल का कार्यकाल तीन दिन का माना गया है ।।
आयुर्वेद के अनुसार प्रसव के समय झिल्ली तथा नाल के कुछ अवयव गर्भाशय में अशुद्धि के रूप में रह जाते है। जो दोषमुक्त रक्त साव के साथ तीन दिन तक बाहर निकलते रहते है। इसके बाद गर्भाशय के स्राव का वर्ण कुछ पीलापन लिए होता है जो गर्भाशय के दोष के रूप में दस दिन तक रिसता है। इस दोष को रजस्वला के रक्तस्त्राव के सामान ही अशुद्ध माना गया है ।।
जिस प्रकार रजस्वला स्त्री तीसरे दिन के बाद चौथे दिन शुद्ध होती है, उसी प्रकार प्रसूता ग्यारहवें दिन शुद्ध होती है। इसके बाद गर्भाशय को पूर्व स्थिति में आने में छः सप्ताह का समय लगता है। इसलिए प्रसूता की प्रसूता अवस्था आयुर्वेद के साथ साथ एलोपैथी भी छः सप्ताह मानता है ।।
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सिख धर्म 'सूतक' और 'पातक' के पालन को मना करता है: जन्म और मृत्यु के कारण होने वाली अशुद्धता
डॉ अमृत कौर
सूतक शब्द की जड़ें कालिख और परसूत है जिसका अर्थ है जन्म लेना या छुड़ाना। पातक शब्द का मूल 'पात' है जिसका अर्थ है उखाड़ फेंकना या समाप्त करना।
हिंदू शास्त्रों के अनुसार सूतक का अर्थ है बच्चे के जन्म के कारण होने वाली अशुद्धता या अनुष्ठान अशुद्धता और पालक का अर्थ है किसी व्यक्ति की मृत्यु के कारण होने वाली अशुद्धता या अनुष्ठान अशुद्धता।
सूतक और पातक का पालन करने वाले सिख अज्ञानी हैं। उपरोक्त चर्चा यह स्पष्ट करती है कि सिख धर्म हमें सभी प्रकार के अंधविश्वासों से दूर रहने की आज्ञा देता है। सिख धर्म अपने आप में एक अनूठा और आधुनिक धर्म है जो अन्य सभी धर्मों से अलग है। इन पवित्र ग्रंथों के अनुसार सूतक की अवधि अमर्थात चह मत जो सभी सगे सम्बन्धिों को अपवित्र करता है, जातक की जाति पर निर्भर करता है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के लिए इस अपवित्राए की अवधि लगातार 11 दिन, 13 दिन, 17 दिन और 30 दिन है।
मनुस्मृति के अनुसारविनी व्यक्ति की मृत्यु के कारण होने वाली अशुद्धता पितु पक्ष में सीधे वंश में सभी व्यक्तियों को प्रभावित करती है जो सात पीढ़ी ऊपर और सात पीड़ी नीचे हैं। दूसरे शब्दों में जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो एक और उसके (1) पिता (ii) दादा-दादी (1) पिता के दादा-दादी (IV) उसके दादा-दादी के दादा-दादी (V) परदादा अपने परदादा के पिता (vi) अपने परदादा के परदादा और (vi) अपने परदादा के परदादा के परदादा। दूसरी ओर, यह मलिनता उसके (1) पुत्र (4) पौत्र (1) उसके पुत्र के पौत्र (IV) उसके पौत्र के पौत्र (V) उसके पौत्र के प्रपौत्र से चिपक जाती है (Vi) अपने परपोते के परपोते और (vil) अधने परपोते के परपीते के परपीते।
लघु अत्रे संहिता के अनुसार जब कोई व्यक्ति परिवार में मृत्यु या पुत्र के जन्म के बारे में सुनता है तो वह जहां कहीं भी होता है, पानी में डूब जाता है। (अध्याय 5)
इसका मतलब यह है कि जब कोई व्यक्ति परिवार में मृत्यु या पुत्र के जन्म के बारे में सुनता है. चाहे वह कहीं भी हो, भले ही वह विदेश में हो. पूरे कपड़े पहने हुए पानी में डूब जाना चाहिए क्योंकि सूतक और पालक रहते हुए भी उससे चिपके रहते हैं। एक विदेशी देश
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्मृतियों हिन्दुओं के वे धार्मिक ग्रंथ हैं जिन्हें तपस्वियों ने अपने पूर्वजों के उपदेशों की स्मृतियों के आधार पर लिखा है। ये पवित्र ग्रंथ कई हजार साल पुराने हैं। वे असंख्य हैं लेकिन इनमें से मुख्म 31 स्मृतियों में मनुस्मृति, लघुस्मृति, अत्रे, वृद्ध अत्रे, विष्णु, लघुहरीत और वृद्ध हरीत शामिल हैं।
हिंदू धर्म में मुख्म मृत्यु अनुष्ठानों में से एक सिर मुंडवाना है की अवधि अर्थात परिवार अत्रे स्मृति शास्त्र के अनुसार पातक में मृत्यु के कारण जो अशुद्धता होती है यह इस प्रकार है: ब्राह्मण 10 दिन, क्षत्रिय 12 दिन, वैश्य 15 दिन और शूद्र 30 दिन। कुछ स्मृतियों में इन जातियों की अपवित्रता की अवधि क्रमशः 12 दिन 13 दिन, 17 दिन और 30 दिन बताई गई है।
जिसमें मृतक का बेटा अपना सिर मुंडवाता है। इसके बिना अन्य मृत्यु अनुष्ठान शुरू नहीं किए जा सकते। ऐसा माना जाता है कि सिर मुंडवाने कसे वह रास्ता साफ हो जाता है जिससे मृतक की आत्मा की यात्रा करनी पड़ती है। कभी-कभी, परिवार में एक से अधिक पुरुष सदस्य अपना सिर मुंडवा लेते हैं। लेकिन वर्तमान में कार्यालय जाने वाले व्यक्ति इस अनुष्ठान का पालन नहीं करते हैं। ब्राह्मण मृत व्यक्ति के घर में भौजन करना पाप मानते हैं।
सिख धर्म में न तो बच्चे का जन्म और न ही परिवार में मृत्यु को किसी भी तरह के अपवित्रता का कारण माना जाता है। मनुस्मृति के अध्याय 5 में सूतक और पातक के कई सिद्धांतों को सूचीबद्ध किया गया है। इसमे शामिल है। दस दिन के बाद ब्राह्मण, बारह के बाद क्षत्रिय, पंद्रह के बाद वैश्य और एक महीने के बाद एक शूद्र शुद्ध हो जाता है। (अध्याय 5, श्री 83)
चूंकि मृत्यु के कारण यह अशुद्धता (सभी) सपिन्दों के लिए निर्धारित है. [1] वैसे ही इसे जन्म पर (धारण) उन लोगों द्वारा किया जाएगा जो पूरी तरह से शुद्ध होने की इच्छा रखते हैं। (अध्याय 5. श्री 67)
(या जबकि) मृत्यु के कारण अशुद्धता सभी (सपिंडों) के लिए आम है, जो केवल माता-पिता पर जन्म (गिरने) के कारण होती है (या) यह केवल माता पर गिरेगा, और पिता स्नान करने से युद्ध हो जाएगा (अध्याय 5. श्री 62)
यह सधिन्दों में मृत्यु के कारण अशुद्धता (यह) दस दिन, (मा) हड्डियों को एकत्र किए जाने तक (या) केवल तीन दिन या एक दिन के लिए ठहराया जाता है। (अध्याय 5, श्री 59)
जो मनुष्य (सपिंडा) रिश्तेदार की मृत्यु के बारे में सुनता है, या दस दिन (अशुद्धता बीतने के बाद) के बाद पुत्र के जन्म के बारे में सुनता है. वह अपने वस्त्रों को पहनकर स्नान करके पवित्र हो जाता है। अध्या श्री 77)
जब (एक बच्चा) दांत माले गर जाता है, या कि दांत निकलने से पहले (संस्कार) मुंडन (कुदकरण) वा (दीक्षा कर), सभी रिश्तेदार (बच्चे) अयुद्ध हो जाते हैं, और जन्म पर (एक बच्चे का वही (नियम) निर्धारित है। (अध्याय 5, श्री 58)
(मृत्यु होने पर) जिन बच्चों का मुंडन (कुड़ाकर्मण) नहीं किया गया है, (सपिंडा) को एक (दिन और) रात में पचित्र घोषित किया जाता है (मृत्यु पर) जिन्होंने मुण्डन प्राप्त किया है (लेकिन दीक्षा नहीं, कानून) तीन दिनों के बाद शुद्धिकरण (होता है) का आदेश देता है। (अध्याय 5 बी67)
वह जो सुन सकता है कि दूर देश में रहने वाले (एक रिस्तेदार) की मृत्यु हो गई है, दस से पहले उसकी मृत्यु के बाद दिन बीत चुके हैं। शेष दस (दिन और) रातों की अवधि के लिए अशुद्ध होगा। (अध्याय 5. एसएच 75)
रहे, लेकिन अगर एक साल बीत गया (मृत्यु के बाद से, तो यह केवल यदि दस दिन बीत गए, ती वह तीन (दिन और रातों में अशुद्ध स्नान करने से ही पवित्र हो जाता है। (अध्याय 5 श्री 761
यदि कोई शिशु (जिसके दांत नहीं हैं। या (वयस्क रिश्तेदार जो सपिडा नहीं है, किसी दूर देश में मर जाता है, तो व्यक्ति अपने कपड़ों में स्नान करने के बाद एक बार शुद्ध हो जाता है। (अध्याय 5, श्री 78) सूतक और पातक के अलावा मनु ने कुता अन्य जमुद्धियों को सूचीबद्ध किया है।
जिस ब्राह्मण ने मनुष्य की ही को छू लिया है. जिस पर च लगी रहती है, वह स्नान करने से पवित्र हो जाता है। अगर वहीं से मुक्त हो, पानी की चुस्की लेने से और गाय को छूने (बाद में) या सूरज को देखने से। (अध्याय 5. एसएच 87)।
सिख धर्म सुल्क' और पाटक में विश्वास को त्याग देता है और उन्हें शुद्ध अंधविश्वास मानता है। सिसा गुरुओं ने स्पष्ट किया है कि यह कल्पना करना कि जन्म और मृत्यु किसी भी अशुद्धि का कारण है. विशुद्ध रूप से अंधविश्वास पर आधारित है। श्री गुरु नानक देव जी ने घोषणा की है किः
जे कर सुतक मन्त्रिया सब ताई सूतक हो।
गोहे अताई लकरी और कीरा हो।
जेंटे दाने एन के जिया बज न कोए।
पहली पानी जियों है जीत हरिया सब कोई।
सूतक कीओ कर राखियां सूतक पवई स्सो।
नानक सूतक एव न उतराई जियान उतरे थो ||1||औ
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, ५8472)
इसका अर्थ यह है कि यदि कोई अपवित्रता की अवधारणा को स्वीकार करता है तो हर जगह अपविकता है। गोबर और लकड़ी में कीड़े होते हैं। मकई के सभी अनाज में जीवन होता है। पहला, जल में ही. जीवन है जिससे बाकी सब कुछ हरा-भरा हो जाता है। शुद्धता कैसे बनी रह सकती है? यह हमारी रसोई को छूता है। इस प्रकार अर्थात् अन्धविश्वास में लिप्त होकर अशुद्धता को दूर नहीं किया जा सकता।
केवल आध्यात्मिक जान ही इसे थो सकता है।
मन का सूतक लोभ है जिल्ह्वा सूतक कुर।
अखित सूतक वैखना पर तारिया पर धन रूप।
कची सूतक कन्न पाई लाईतबारी खाही।
नानक हंसा आदमी बढ़े जाम पुर जाही ||2||
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृह 472)
अर्थात लोभ से मन अशुद्ध होता है, असत्य से जीभ अशुद्ध होती है, दूसरे की पत्नी और उसके धन को देखने से आंशी अशुद्ध होती हैं. दूसरों की निन्दा सुनने से कान अशुद्ध होते हैं और जो व्यक्ति हुन सभी कुल्लों से अपवित्र होते हैं वे नरक में जाते हैं। मौत के शहर से बंधे और बंधे हुए, भले ही वे हंसों की तरह सुंदर हों।
सबो सूतक भरम है दुजाई लगाय
जमान मरना हुकम है भनई अवाई जाएं
खाना पीना पचितर है दिनों रिजक संभाही
नानक जिन्ही गुरुमुख बुझिया तिन्हा सूतक नहीं ||3||
(श्री गुरु ग्रंथ साहिन, पृष्ठ 472)
श्री गुरु नानक देव जी घोषणा करते हैं कि सभी प्रकार की अशुद्धियाँ अंधविश्वास और द्वैत से उत्पन होती हैं। जन्म और मृत्यु ईश्वर की आज्ञा से होते हैं। उनकी मर्जी से ही हम इस दुनिया में आते हैं और यहां से चले जाते हैं। पीने और खाने की चीजें शुद्ध हैं क्योंकि भगवान सभी को पोषण देते हैं। गुरुमुखाँ अर्थात गुरुमुखी व्यक्तियों से अशुद्धता नहीं चिपकती क्योंकि वे इन तथ्यों को समझते हैं।
श्री गुरु अमर दास जी ने घोषणा की है किः
मन का सूतक दूजा भाओ।
भरे भूले आओ जाओ ||1||
मनमुख सूतक कब न जाए।
जिचार सबद नाभिजय हर काई ||1||
सबो सूतक जेता मोह आकार।
मार मार जामई वरो वार ||2||
सूतक अगन पौनई पानी माही।
सूतक भोजन जेता किती ||3||
सूतक करम न पूजा हो।
नम रेट मैन निर्मल हो। ||4||
सतगुर सेवई सूतक जाए।
मराई ना जन्माई काल ना खाए ||5||
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 229)
इसका अर्थ है कि द्वैत का प्रेम मन का प्रदूषण है। संदेह से मोहग्रस्त होकर लोग पुनर्जन्म में आते हैं और चले जाते हैं। मनमुखों (स्व-इस्छुक व्यक्तियों) के मन का प्रदूषण तब तक दूर नहीं होगा जब तक वे सबंद और भगवान के नाम पर ध्यान नहीं देते। सभी निर्मित प्राणी भावनात्मक लगाव से दूषित होते हैं, वे मरते हैं और बार-बार मरने के लिए ही जन्म लेते हैं। मनमुख के लिए अग्नि, वायु और जल प्रदूषित होते हैं और वे जो भोजन करते हैं वह भी प्रदूषित होता है। कोई भी कर्मकांड या देवताओं की पूजा करने से उस व्यक्ति के मन को शुद्ध नहीं
किया जा सकता है जो भ्रम से ग्रस्त है। नाम के साथ जुड़ने पर मन बेदाग हो जाता है, प्रभु का नाम। सच्चे गुरु की सेवा करने से प्रदूषण का नाश होता है और फिर मृत्यु का भक्षण नहीं होता है और इस तरह जन्म और मृत्यु के कष्टों को सहन नहीं करना पड़ता है।
कबीर साहब ने चोषणा की है।
जल है सूतक थाल है सूतक सूतक ओपत होई।
जनमें सूतक मुए फन सूतक सूतक परज बिगोई।
कहो
रे पांडिया कौन पवित्रा।
ऐसा जियान जपहू मेरे मीता ||1||
नैन्तु सूतक बैहु सूतक सूतक सरवानी होई।
उठ बैठा सूतक लगा सूतक पराई रसोई ||2||
फसन की बिध सभा को जाना छुटान की इक कोई।
कही कबीर राम रिदाई बिचारे सूतक तीनै न हो ||3||41||
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृ० 331)
कबीर साहब ने स्पष्ट किया है कि यदि जन्म और मृत्यु से अपवित्रता उत्पन्न होती है तो जल और भूमि में भी मलिनता है अर्थात् यह हर जगह मौजूद है क्योंकि जन्म और मृत्यु लगातार हो रही है। सारा विश्व हर क्षण अपवित्र हो रहा है। मुझे बताओं, हे पहिल्हे धार्मिक विद्वाना मुझे बताओं कोन शुद्ध और शुद्ध है। ऐसे आध्यात्मिक ज्ञान पर ध्यान लगाओं, हे मेरे मित्रश आंखों से दिखाई देने वाले जीत ही नहीं मर रहे हैं, बल्कि हमारी वाणी आदि से जीव भी मर रहे हैं। तो इसका अर्थ है कि जीभ, कानों में मलिनता है और हम अपने में अशुद्ध हो रहे हैं। बैठने और खड़े होने की क्रिया। यहां तक कि किचन भी अपवित्र हो गया है।
कबीर साहेब ने समझाया है कि अपवित्रता के अंधविश्वास में कैसे फँसना तो सभी जानते हैं लेकिन इससे बचना सायद ही कोई जानता हो। जो लोग अपने हृदय में प्रभु का ध्यान करते हैं, वे अपवित्र नहीं होते। इस "लोक में कबीर साहेब ने समझाया है कि यदि जन्म और मृत्यु चर्च को दूषित करते हैं तो दुनिया में कोई भी स्थान पवित्र नहीं है क्योंकि जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है।
ऐषों असंख्य उदाहरण हैं जिनमें सिख गुरुओं ने हमें सूतक और पालक में विश्वास करने से मना किया है। श्री गुरु नानक देव जी ने भाई मरदाना जी के दाह संस्कार के बाद उनके आजीवन अनुमाई संगत को करह प्रसाद यानि पवित्रा प्रसाद वितरित किया। अभी तक सिखों के बीच एक परंपरा है कि एक व्यक्ति के दाह संस्कार के बाद सभी लोग एक गुरुद्वारे में जाते हैं जहां अरदास (प्रार्थना) के बाद करह प्रसाद वितरित किया जाता है।
सूतक और पातक का पालन करने वाले सिख अज्ञानी हैं। उपरोक्त चर्चा यह स्पष्ट करती है कि सिख धर्म हमें सभी प्रकार के अंधविश्वासों से दूर रहने की आशा देता है। सिख धर्म अपने आप में एक अनूठा और आधुनिक धर्म है जो अना सभी धर्मों से अलग है। *डॉ अमृत कौर सेवानिवृत्त हैं। प्रोफेसर, पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला, पंजाब, भारत।
[1]। सविन्द का अर्थ है सात पीढी ऊपर और सात पीढी नीचे सौधे वंश में रिश्तेदार।
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