पितृ पक्ष: पूर्वजों को श्रद्धांजलि, श्राद्ध, तर्पण और भरणी श्राद्ध का महत्व

पितृ पक्ष: पूर्वजों को श्रद्धांजलि, श्राद्ध, तर्पण और भरणी श्राद्ध का महत्व

जिनकी जड़ों से हम पल्लवित हैं, उन्हीं की छाया में फलते-फूलते हैं।
पितरों को स्मरण करना, स्वयं को स्मरण करना है।
पितृ पक्ष (पूर्णिमा श्राद्ध) :

पितृ पक्ष जिसे श्राद्ध या कानागत भी कहा जाता है, हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह श्राद्ध पूर्णिमा से प्रारंभ होकर 16 दिनों तक चलता है और सर्वपितृ अमावस्या के दिन समाप्त होता है।

इन दिनों में हिंदू अपने पूर्वजों (पितरों) को भोजन-प्रसाद, जल और तर्पण के माध्यम से सम्मान, धन्यवाद और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
महाभारत से पितृ पक्ष का प्रसंग :

महाभारत युद्ध के बाद दानवीर कर्ण स्वर्ग पहुंचे। वहां उन्हें भोजन की जगह सोना-चांदी और रत्न परोसे गए।

उन्होंने जब स्वर्ग के राजा इंद्र से इसका कारण पूछा, तो इंद्र ने बताया कि जीवनभर उन्होंने सोने, चांदी और हीरों का दान तो किया लेकिन कभी अपने पूर्वजों के नाम से भोजन दान नहीं किया।

कर्ण ने उत्तर दिया कि उन्हें अपने पूर्वजों की जानकारी ही नहीं थी, इसलिए ऐसा करना संभव नहीं था।

तब इंद्र ने उन्हें पृथ्वी पर लौटकर 16 दिनों तक भोजन दान और तर्पण करने का अवसर दिया।

इन्हीं दिनों को पितृ पक्ष कहा जाता है। इसी से कर्ण पितृ ऋण से मुक्त हुए।
पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का नियम :

1. मृत्यु तिथि ज्ञात हो – जिस तिथि पर पूर्वज का देहावसान हुआ हो, उसी दिन श्राद्ध करें।

2. मृत्यु तिथि ज्ञात न हो – सर्वपितृ अमावस्या को श्राद्ध करना उचित है।

3. अकाल मृत्यु (दुर्घटना/आत्मदाह आदि) – चतुर्दशी तिथि को श्राद्ध करना चाहिए।
श्राद्ध की पीढ़ी सीमा :- श्राद्ध तीन पीढ़ियों तक किया जाता है 

▪️पिता – वसु के समान
▪️दादा – रुद्र देवता के समान
▪️परदादा – आदित्य देवता के समान

यमराज श्राद्ध पक्ष में सभी आत्माओं को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे अपने परिजनों से तर्पण ग्रहण कर सकें।
श्राद्ध अनुष्ठान के लिए पवित्र स्थान : हिंदू शास्त्रों में कुछ पवित्र स्थान बताए गए हैं जहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व है, जैसे –

▪️गया
▪️काशी
▪️प्रयाग
▪️रामेश्वरम
▪️पुष्कर
▪️बद्रीनाथ

सर्वपितृ अमावस्या / महालया अमावस्या –
यह पितृ पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण दिन है। जिन लोगों को पूर्वजों की पुण्यतिथि ज्ञात नहीं होती, वे इस दिन श्राद्ध करके उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
भरणी श्राद्ध :

भरणी श्राद्ध पितृ पक्ष का एक विशेष दिन है जिसे महाभरणी श्राद्ध भी कहा जाता है।

जिन लोगों ने जीवन में कभी तीर्थयात्रा नहीं की, उनके लिए यह श्राद्ध विशेष लाभकारी माना गया है।

इस दिन किए गए श्राद्ध से ऐसा फल मिलता है मानो गया, काशी, पुष्कर और बद्री-केदार आदि पवित्र तीर्थों पर श्राद्ध किया हो।

भरणी श्राद्ध केवल भरणी नक्षत्र में किया जाता है।

मृत्यु के पहले वर्ष में भरणी श्राद्ध नहीं किया जाता। प्रथम वार्षिक श्राद्ध के बाद ही इसे करना चाहिए।
भरणी श्राद्ध अनुष्ठान :

स्थान – गया, काशी, प्रयाग, रामेश्वरम जैसे पवित्र स्थानों पर करना सर्वोत्तम है।

समय – कुतप मुहूर्त और रोहिणा मुहूर्त शुभ माने गए हैं, इसके बाद दोपहर तक का समय उपयुक्त है।

विधि –
▪️तर्पण करना
▪️कौओं को भोजन कराना (यमराज का दूत माना गया है)
▪️कुत्ते और गाय को भी भोजन कराना शुभ फलदायी है। भरणी श्राद्ध का महत्व :

इसके गुण गया श्राद्ध के समान बताए गए हैं, इसलिए इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

यह महालया अमावस्या के बाद पितृ श्राद्ध अनुष्ठानों में सबसे अधिक महत्व रखता है।

श्रद्धापूर्वक किए गए भरणी श्राद्ध से –
▪️आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
▪️पूर्वज अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं।
▪️घर-परिवार में शांति, सुरक्षा और समृद्धि बनी रहती है। शास्त्रों का कथन :

"पितृदेवो भव।"

अर्थात् जैसे देवताओं की पूजा आवश्यक है, वैसे ही पितरों का तर्पण और श्राद्ध भी अनिवार्य है।

गायत्री महात्म्य में वर्णित है:
 
"यः श्राद्धं पितृभ्यः करोति स पितृलोके महीयते"
अर्थ – जो पुत्र सच्चे भाव से पितरों का श्राद्ध करता है, वह स्वयं भी पितृलोक में प्रतिष्ठा पाता है।

कौन कर सकता है पिंडदान
क्या नियम है...? 
पिंडदान की महत्ता की व्यत्पत्ति गरुण पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण और महाभारत के श्लोकों से होती है। 

ज्येष्ठः पुत्रः पितृकर्म कुर्यात् सर्वदा नरः।
अनुपस्थितौ तस्य स्यात् कनिष्ठोऽपि समान् हि॥ 
(गरुड़ पुराण, प्रेतखण्ड, अध्याय 9, श्लोक 12)

ज्येष्ठ पुत्र के जीवित और उपलब्ध होने पर सामान्यतः वही पिंड दान करता है। ज्येष्ठ पुत्र मृत, अनुपस्थित, असमर्थ, या सहमत हो, तो अन्य पुत्र भी यह कर्म कर सकते हैं।
 - विष्णु पुराण (तृतीय अंश, अध्याय 13): 

पुत्रः कुर्यात् पितृकर्मं ज्येष्ठः सर्वदा प्रियः।
असमर्थे च तस्मिन् स्यात् कनिष्ठोऽपि तदाश्रितः॥

याने ज्येष्ठ पुत्र सदा पितृकर्म के लिए प्रिय है। यदि वह "असमर्थ" हो, तो कनिष्ठ पुत्र भी उसका स्थान ले सकता है। 
पिंड दान को दोबारा तब करना शास्त्रसम्मत है, जब पितृदोष निवारण हेतु हो।  

वायु पुराण, अध्याय 105, श्लोक 22

पिण्डदानेन संनादति पुनः कर्म कृते सति।
 दोषनाशं च तृप्तिश्च पितृणां चिरकालिकम्॥

पितृपक्ष- श्राद्ध

 महाभारतम् 1.93.13

श्लोक
तस्मात् पवित्रं दौहित्रमद्यप्रभृति पैतृके ।
भविष्यति न संदेहः पितॄणां प्रीतिवर्धनम् ॥13॥

अनुवाद
इसलिये आज से पितृ-कर्म (श्राद्ध)-में दौहित्र परम पवित्र समझा जायगा। इसमें संशय नहीं कि वह पितरों का हर्ष बढ़ाने वाला होगा।
 महाभारतम् 1.93.14

श्लोक
त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः ।
त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचमक्रोधमत्वराम् ॥14॥
भोक्तारः परिवेष्टारः श्रावितारः पवित्रकाः ।

श्राद्धमें तीन वस्तुएँ पवित्र मानी जायँगी—दौहित्र, कुतप और तिल। साथ ही इसमें तीन गुण भी प्रशंसित होंगे—पवित्रता, अक्रोध और अत्वरा (उतावलेपनका अभाव)। तथा श्राद्ध में भोजन करनेवाले, परोसने वाले और (वैदिक या पौराणिक मन्त्रोंका पाठ) महाभारतम् 1.93.16

श्लोक
सुनानेवाले—ये तीन प्रकार के मनुष्य भी पवित्र माने जायँगे।
दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभवति भास्करे ।
स कालः कुतपो नाम पितॄणां दत्तमक्षयम् ॥. 15॥
दिन के आठवें भाग में जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम "कुतप" काल है।
उसमें पितरों के लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है।

 महाभारतम् 1.93.17

श्लोक
लब्ध्वा पात्रं तु विद्वांसं श्रोत्रियं सुव्रतं शुचिम् ।
स कालः कालतो दत्तं नान्यथा काल इष्यते ॥17॥
उत्तम व्रतका आचरण करनेवाला पवित्र श्रोत्रिय ब्राह्मण श्राद्धका उत्तम पात्र है। वह जब प्राप्त हो जाय, वही श्राद्धका उत्तम काल समझना चाहिये। उसको दिया हुआ दान उत्तम कालका दान है। इसके सिवा और कोई उपयुक्त काल नहीं है।

तिलाः पिशाचाद् रक्षन्ति दर्भा रक्षन्ति राक्षसात् ।
रक्षन्ति श्रोत्रियाः पङ्क्तिं यतिभिर्भुक्तमक्षयम् ॥

तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं, कुश राक्षसों से बचाते हैं, श्रोत्रिय ब्राह्मण पंक्ति की रक्षा करते हैं और यदि यतिगण श्राद्ध में भोजन कर लें तो वह अक्षय हो जाता है।

श्राद्ध कहां न करें?
श्राद्ध कर्म कुछ स्थानों पर वर्जित माना जाता है, क्योंकि ये स्थान अशुद्ध या अनुपयुक्त माने जाते हैं। निम्नलिखित स्थानों पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए:अशुद्ध स्थान:  शौचालय, रसोईघर, या ऐसी जगह जहाँ स्वच्छता न हो।  
कूड़े-कचरे या गंदगी वाली जगह पर श्राद्ध वर्जित है।
अन्य के घर या भूमि:  बिना अनुमति के किसी और के घर, खेत, या जमीन पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
श्मशान घाट:  यद्यपि श्मशान घाट मृत्यु से संबंधित कर्मों के लिए उपयोग होता है, लेकिन श्राद्ध कर्म के लिए यह उपयुक्त नहीं माना जाता, सिवाय कुछ विशेष परिस्थितियों के।
अपवित्र नदियाँ या जलाशय:  ऐसी नदियाँ या तालाब जहाँ पानी गंदा या प्रदूषित हो, वहाँ तर्पण या श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
सार्वजनिक या भीड़-भाड़ वाले स्थान:  बाजार, सड़क, या ऐसी जगह जहाँ लोग अक्सर आते-जाते हों, वहाँ श्राद्ध करना अनुचित है।
वृक्षों के नीचे (कुछ विशेष को छोड़कर):  बरगद, पीपल, या तुलसी जैसे पवित्र वृक्षों को छोड़कर, अन्य सामान्य वृक्षों के नीचे श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
निषिद्ध स्थानों पर:  शास्त्रों में जिन स्थानों को अपवित्र माना गया हो, जैसे कि जहाँ अनैतिक कार्य होते हों, वहाँ श्राद्ध वर्जित है।
ध्यान देने योग्य बातें:  श्राद्ध हमेशा शुद्ध, पवित्र, और शांत स्थान पर करना चाहिए।  
यदि अनिश्चितता हो, तो किसी विद्वान आचार्य से सलाह लेना उचित है।

श्राद्ध कहां करना चाहिए?
हिंदू धर्म में श्राद्ध कर्म पितरों की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है। श्राद्ध करने के लिए कुछ विशेष स्थान शास्त्रों में बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:पवित्र तीर्थ स्थल:  गया (बिहार): गया को श्राद्ध के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है, विशेषकर फल्गु नदी के तट पर। यहाँ पिंडदान और श्राद्ध कर्म विशेष फलदायी माने जाते हैं।
हरिद्वार (उत्तराखंड): गंगा नदी के किनारे, विशेष रूप से हर की पौड़ी पर श्राद्ध कर्म करना शुभ माना जाता है।
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश): त्रिवेणी संगम (गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन) पर श्राद्ध कर्म अत्यंत पुण्यदायी होता है।
काशी (वाराणसी): गंगा के घाटों, विशेष रूप से मणिकर्णिका और दशाश्वमेध घाट पर श्राद्ध कर्म करना महत्वपूर्ण है।
पुष्कर (राजस्थान): पुष्कर झील के किनारे श्राद्ध कर्म करने की परंपरा है।
कुरुक्षेत्र (हरियाणा): यहाँ सरस्वती नदी के तट पर श्राद्ध कर्म शुभ माना जाता है।
पवित्र नदियों के किनारे:  गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, सरयू आदि पवित्र नदियों के तट पर श्राद्ध करना उत्तम माना जाता है।
घर पर:  यदि तीर्थ स्थल पर जाना संभव न हो, तो घर में स्वच्छ और पवित्र स्थान पर श्राद्ध कर्म किया जा सकता है। दक्षिण दिशा की ओर मुख करके श्राद्ध करना शुभ होता है।
मंदिर या पूजा स्थल:  किसी पवित्र मंदिर या घर के पूजा स्थल पर भी श्राद्ध कर्म किए जा सकते हैं, विशेष रूप से जहाँ पितरों की पूजा की परंपरा हो।
विशिष्ट स्थानों पर:  शास्त्रों के अनुसार, गौशाला, तुलसी के पौधे के पास, या बरगद के वृक्ष के नीचे भी श्राद्ध कर्म करना पुण्यदायी माना जाता है।
ध्यान देने योग्य बातें:  श्राद्ध कर्म हमेशा शुद्ध और पवित्र स्थान पर करना चाहिए।  
स्थान का चयन करते समय शास्त्रों और पंडितों के मार्गदर्शन का पालन करें।  
यदि तीर्थ स्थान पर जाना संभव न हो, तो घर पर ही विधिपूर्वक श्राद्ध किया जा सकता है।

श्राद्ध पक्ष का ज्योतषीय आधार 

सैद्धान्तिक रूप में श्राद्ध पक्ष ऐसे समय आता है, जब सूर्य विषवत् रेखा को पार कर 23 सितंबर को दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करते है। 23 सितंबर को सूर्य के दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करने के साथ ही देवताओं की रात्रि एंव असुरों का दिन प्रारंभ हो जाता है। पौराणिक ग्रंथों में देव एंव असुरों के छह-छह महीने के दिन और रात माने गये है। सूर्य जब 21 मार्च से 23 सिंतबर तक उत्तरी गोलार्ध में भ्रमण करते है, तब देव लोक में (उत्तरी ध्रुव पर) दिन एंव असुर लोक (दक्षिणी ध्रुव पर) में रात्रि का अंधकार पसरा रहता है। सूर्य जब 23 सितंबर से 21 मार्च तक दक्षिणी गोलार्ध में भ्रमण करते है, तब देव लोक में रात्रि एंव असुर लोक में दिन का प्रकाश रहता है। इस प्रकार देव लोक एंव असुर लोक में दिन और रात विपरीत बने रहते है। सूर्य सिद्धान्त में भी कहा गया है कि जब सूर्य सायन मेष से सायन कन्या तक छह राशियों (21 मार्च से 23 सितंबर तक) में रहते है, तब उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले देवता लोग उसको एक ही बार उदित हुआ देखते है। अर्थात् तब छह महीने तक वहां एक बार भी सूर्य अस्त नहीं होता और जब सूर्य सायन तुला से सायन मीन तक छह राशियों (23 सितंबर से 21 मार्च तक) में रहता है, तब दक्षिणी ध्रुव पर असुर लोग उसको निरन्तर छः महीने तक उदित हुआ देखते है। गोलार्ध परिवर्तन करते समय सूर्य 23 सितंबर व 21 मार्च को विषवत् रेखा पर होते है। उस समय पूरी पृथ्वी पर दिन और रात बराबर हो जाते है। सूर्य देव तब असुरों को क्षितिज पर उदित होते दिखाई पडते है। 23 सितंबर को सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करते समय देवताओं को अस्त होते हुए एंव असुरों को उदित होते हुए दिखाई पडते है। यह देवताओं का सायंकाल एंव असुरों का प्रातःकाल का समय रहता है। इसी प्रकार 21 मार्च को सूर्य उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करते समय देवताओं को अस्त होते हुए एंव असुरों को उदित होते हुए दिखाई पडते है। यह देवताओं का सायंकाल एंव असुरों का प्रातःकाल का समय रहता है।

श्राद्ध का अधिकारी पित्तर किसके हाथ से श्राद्ध ग्रहण करते है, यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। शास्त्रानुसार श्राद्ध करने का प्रथम उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र का बनता है। यद्यपि पुत्र के अभाव में पुत्री का पुत्र (दोहता) भी नाना-नानी व मामा आदि का श्राद्ध करने का अधिकारी होता है। यद्यपि पुत्री को अपने मां-बाप का श्राद्ध करने का अधिकार नहीं दिया गया है, क्योंकि विवाहोपरान्त पुत्री का कुल, गोत्र आदि सब बदल जाते है। इसके साथ ही विवाहित पुत्री के घर पर भी श्राद्ध करना निषिद्य माना गया है।

श्राद्ध का समय _
श्राद्ध काल धर्मशास्त्रों में जो पाँच प्रकार के श्राद्ध बताये गये है। इन श्राद्धों को दिन के अलग-अलग समय पर सम्पन्न करने का विधान भी रखा गया है। जैसे पूर्वार्द्ध के समय अन्वष्टका नामक श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिए। यह श्राद्ध मातृ के निमित्त सम्पन्न किया जाता है। जबकि पिता आदि के निमित्त किया जाने वाला एकोदिष्ट नामक श्राद्ध मध्यांह के समय पर सम्पन्न करना चाहिए। प्रातःकाल के समय पर आम्युदयिक नामक श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। आम्युदयिक नामक यह श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध के अन्तर्गत आता है, जो पारिवारिक वृद्धि के निमित्त सम्पन्न किया जाता है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पित्तरों के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते है, उनके लिए श्राद्ध का समय मध्यांह काल श्रेष्ठ है, क्योंकि मध्यांह में सूर्यदेव अपनी पूर्ण तेजस्वता पर रहते है। सूरज की सप्त रश्मियों में 'श्रद्ध' नामक एक रश्मि भी मानी गई है। इस रश्मि के माध्यम से ही सूर्य देव श्राद्ध के अन्न से रस को सोखकर उसे पित्तरों तक पहुंचाकर उन्हें तृप्ति प्रदान कराते है। अतः पित्तरों का श्राद्ध मध्यांह काल में करना श्रेष्ठ माना गया है।

श्राद्ध में तर्पण का महत्व  
श्राद्ध कर्म के समय सबसे पहले पित्तरों को तर्पण दिया जाए। तर्पण के निमित्त एक स्वच्छ थाली या बर्तन में थोडा सा स्वच्छ जल भरकर उसमें थोडा सा कच्चा दूध मिलाया जाता है, फिर उसमें थोडे से काले तिल और जौ के दाने डाले जाते है। इसमें पुष्प की पंखुडियां भी डाली जा सकती है। तत्पश्चात् श्राद्धकर्ता को अपने दोनों हाथों से अंजलि बनाकर और दोनों अंगूठों से कुश मूल को पकड कर पूर्वाभिमुख हो थाली के पानी से 'ॐ नमः सूर्याय नमः' मन्त्र का उच्चारण करते हुए देवों को जलांजलि से जल अर्पण करना चाहिए। दक्षिणामुख होकर पित्तरों के निमित्त उनका नाम, गोत्र लेकर क्रमशः तीन-तीन बार जलांजलि प्रदान करनी चाहिए। श्राद्ध तिथि के दिन अगर संभव हो सके तो एक छोटा सा हवन भी सम्पन्न कर लेना चाहिए। अन्यथा कंडे में आग सुलागकर पित्तरों के निमित्त उसमें घी व लौंग युक्त बतासे, जलीय भोजन के साथ आहुतियां डाल लेनी चाहिए। श्राद्ध वाले दिन पांच पत्तलों पर कौआ, कुत्ता, गाय, अतिथि देव और चीटियों के निमित्त पंचबलि भी अवश्य निकालनी चाहिए और उन्हें उनके पात्रों तक अवश्य पहुंचा देना चाहिए। इसके बाद ही ब्राह्मण को भोजन करना एंव उसे वस्त्र एंव दक्षिणा देकर प्रणाम करना चाहिए। ब्रह्मदेव को भी अपने आथित्य सत्कार से प्रसन्न होकर अपने यजमान को सपरिवार सहृदय होकर आर्शीवाद देना चाहिए।

श्राद्ध कब न करें ? 

पूर्वजों की मृत्यु के प्रथम वर्ष में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। 

पूर्वान्ह में, शुक्ल पक्ष के दौरान, रात्रि के समय और अपने जन्म दिन के असवर पर श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। 

इसी प्रकार चतुर्दशी तिथि को भी श्राद्ध नही करना चाहिए। इस तिथि को मृत्यु को प्राप्त हुए पित्तरों का श्राद्ध दूसरे दिन अमावस्या तिथि को सम्पन्न करने का शास्त्रीय विधान है।

कूर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति अग्नि, विष आदि के द्वारा आत्महत्या करके अपनी जान देता है, उसके निमित्त श्राद्ध, तर्पण आदि करने का विधान नही है।

श्राद्ध में क्या करें ? 

दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर ससत्कार अपने घर या अपनी कुल देवी अथवा कुल देवता के स्थान पर, ब्रह्म देव (ब्राह्मण) को आमन्त्रित करके उन्हें सुस्वादु भोजन कराएं। भोजन कराने के बाद ब्रह्मदेव को वस्त्र, दक्षिणा आदि दान देकर उनका आर्शीवाद ग्रहण करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन से पूर्व पितृ तर्पण और पितृ श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने का विधान है। 
इस पितृ श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन से पूर्व पांच अलग-अलग पत्तलों के ऊपर पंचबलि निकाल कर उन्हें क्रमशः गाए, कौए, कुत्ते, चीटियों और अतिथि को खिलाना चाहिए। ब्रह्म भोज में गऊग्रास भी आवश्यक रूप में निकालना चाहिए। पंचबलि के बाद अग्नि में भोज्य सामग्री, सूखे आंवले, मुनक्का आदि की तीन आहूतियां प्रदान करके अग्निदेव को भोग लगाना चाहिए। इससे अग्निदेव प्रसन्न होते है। श्राद्ध के अन्न को अग्निदेव ही सूक्ष्म रूप में पित्तरों तक पहुंचाने का माध्यम बनते है। श्राद्ध कर्म में एक हाथ से पिंडदान करें और आहुतियां प्रदान करें, जबकि तर्पण के समय अपने दोनों हाथों से जलांजलि बनाकर तर्पण करना चाहिए। तर्पण के समय अपना मुंह दक्षिण की तरफ रखे। कुश तथा काले तिल के साथ जल को दोनों हाथों में भरकर और आकाश की ओर ऊपर उठाकर जलांजलि दी जानी चाहिए। यही तर्पण है। ऐसी जलांजलि कई बार प्रदान की जाती है अर्थात् अंजलि में जल भरकर उसे बार-बार जल में गिराना चाहिए। पित्तरों का निवास आकाश तथा दिशा दक्षिण की ओर माना गया है। अतः श्राद्ध और तर्पण में पित्तरों के निमित्त सम्पूर्ण कार्य आकाश की ओर मुंह करके ही सम्पन्न किए जाने चाहिए। श्राद्ध कर्म केवल अपरान्ह काल में ही सम्पन्न करने चाहिए।

श्राद्ध विधान महत्व _

श्राद्ध विधान हमारे शास्त्रों में तीन सौ पैंसठ दिन तक चलने वाले श्राद्धों का उल्लेख हुआ है। इसके अलावा कुछ अनेक सम्प्रदायों में '96' तरह के श्राद्ध करने की परंपरा भी हजारों वर्षों तक जारी रही है। विष्णु पुराण और याज्ञवल्क्य संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों में पितृपूजा अर्थात् श्राद्ध कर्म पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है। राजा और प्रजा, दोनों के लिए ही विभिन्न अवसरों पर श्राद्ध कर्म द्वारा अपने पित्तरों का प्रसन्न कर उनका आर्शीवाद लेते रहने का विधान बताया गया है। विष्णु पुराण और याज्ञवल्क्य संहिता में लिखा है कि देश में कोई महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किया जाए या परिवार में ही कोई शुभ, मांगलिक कार्य सम्पन्न किया जाने वाला हो, तो इन सभी अवसरों पर सर्वप्रथम ब्राह्मण भोजन के रूप में पित्तरों के निमित्त श्राद्ध कर्म अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। इससे पित्तरों का आर्शीवाद तो मिलता ही है, वह शुभ एंव मांगलिक कार्य भी निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता है। इसके साथ ही उन शुभ कार्यों की शुभता भी सदैव बनी रहती है। उत्सव, त्यौहार व मांगलिक शुभ कार्यो के समय ही नही, बल्कि इनके अतिरिक्त परिवार में नये शिशु के आगमन या उनके नामकरण संस्कार के अवसर पर, घर में मुण्डन संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार आदि सम्पन्न किए जाने के अवसर जैसे सभी शुभ अवसरों पर भी पित्तरों की स्मृति स्वरूप 'श्राद्ध कर्म' सम्पन्न कर लेना प्रत्येक दम्पत्ति का आवश्यक कर्त्तव्य एंव कर्म माना गया है। इससे पित्तरों का आर्शीवाद सदैव बना रहता है। जिस दिन बच्चों की वर्षगांठ मनाई जाए या विवाह जैसा मांगलिक कार्य सम्पन्न होने जा रहा हो, घर में किसी विशिष्ट अतिथि का आगवन हो, आकाश में कोई विशेष घटना दिखाई पडे, तो भी इन सबसे पहले पितृपूजा रूप में श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना अति शुभ रहता है। इनसे पित्तर और प्रेत योनि को प्राप्ति हुई आत्माएं अशांत नहीं होती। इन अवसरों के अतिरिक्त भी जब रात और दिन बराबर हो, जिस दिन सूर्य देव उत्तरायण छोडकर दक्षिणायन अर्थात् दक्षिणायान छोडकर उत्तरायन की ओर गति कर रहे हो, जिस दिन सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण पडे, या फिर अंतरिक्ष में कोई विशेष घटना घटित होने वाली हो, जिस दिन सूर्य किसी नयी राशि में प्रवेश कर रहे हो, ऐसे सभी अवसरों पर भी सर्वप्रथम पितृ शान्ति के निमित्त श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना अति शुभ माना गया है। श्राद्ध कर्म करने का विधान अन्य अवसरों के लिए भी बताया गया है। जैसे जब किसी व्यक्ति को कोई बुरा स्वप्न दिखाई पडे या स्वप्न के दौरान उसे कोई मृत व्यक्ति अथवा अपने मृत पिता-माता या कोई अन्य सगा-संबन्धी दिखाई दे, तो भी उन्हें पित्तरों की आत्मिक शान्ति के लिए श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर लेना उत्तम रहता है। श्राद्ध करने का विधान कई अन्य अवसरों के लिए भी रखा गया है। जैसे जब घर में नया अनाज भरा जाए या परिवार में नया अन्न खाना शुरू किया जाए, संक्रान्ति तिथि का दिन हो शुरू हो, वर्षारम्भ में जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करने वाले हो, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि, गुरूवार, मंगलवार, रिक्ता तिथि, गजच्छाया, संवत्सर के दिन, वैशाख शुक्ल तृतीय, श्रावण मास कृष्णपक्ष की एकादशी, माघ मास की अमावस्या, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि आदि के दिन भी श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने की प्राचीन परंपरा व विशेष महत्वता रही है। इन सभी अवसरों पर सम्पन्न किए जाने वाले श्राद्ध कर्मों की अपनी-अपनी विशेषताएं एंव अपने-अपने महत्व माने गये है। ऐसे अवसरों पर काम्य श्राद्ध करने का विशेष महत्व माना गया है।

श्राद्ध कर्म क्यूँ करे ? 

पार्वणं चेति विशेयं गोष्ठयां शुद्धयर्थमष्टमम् ।। कर्मागं नवम् प्रोक्तं दैविकं दशम् स्मृतम्। यात्रास्त्रेकादशं प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम्।। 
इन श्राद्धों को नित्य श्राद्ध, तर्पण और पंच महायज्ञ आदि के रूप में प्रतिदिन ही 'पित्तर शान्ति' के लिए सम्पन्न किया जाना चाहिए। नैमित्तिक श्राद्ध को 'एकोदिष्ट' श्राद्ध भी कहा गया है। मृत्यु के बाद एक मृतक के लिए यही श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है। यह श्राद्ध किसी व्यक्ति के निमित्त ही सम्पन्न होता है। प्रतिवर्ष मृत्यु तिथि पर भी 'एकोदिष्ट श्राद्ध' ही सम्पन्न किया जाता है।

देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सहित सभी प्राणियों को एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही पडता है और कुछ न कुछ समय के लिए प्रेत योनि में व्ययतीत करना ही पडता है। इसके उपरान्त या तो उन मृतात्माओं को अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि लोकों में जाकर यातनाएं सहनी पडती है या फिर कुछ समय उपरान्त वह मृतात्माएं पुनः संसार में आकर पुनर्जन्म धारण कर लेती है। इस पुनर्जन्म या प्रेत योनि के मध्य उन प्रेतात्माओं को कुछ काल तक पित्तर योनि में भी रहता पडता है। अतः मृत्यु को प्राप्त हुए पित्तरों की आत्मिक शान्ति व प्रेत योनि से मुक्ति के उद्देश्य से ही विविध श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने पडते है। 'श्राद्ध' का वास्तविक भावार्थ ही है, 'प्रेत' या 'पित्तर' योनि को प्राप्त हुए पितृजनों की आत्मिक शान्ति के निमित्त जो कार्य सम्पन्न किए जाए व उन पितृजनों को श्रद्धापूर्वक भोज्य पदार्थ अर्पित किया जाए, वह सब 'श्राद्ध कर्म' के अन्तर्गत ही आते है। शास्त्रकारों ने मृत्यु बाद दशगात्र और षोडशी सपिण्डन तक मृतक को 'प्रेत' की संज्ञा प्रदान की है। क्योंकि इस अवधि तक मृतात्मा निरन्तर अपने पुत्रजनों के आसपास ही भटकती रहती है। सपिण्डन श्राद्ध के बाद ही उस प्रेतात्मा का भटकना बंद होता है और वह अपने अन्य पित्तरों में सम्मिलित हो पाती है।

श्राद्ध किसे कहते हैं?

श्रद्धया दीयते यत्रः
 तर्च्छाद्ध परिचक्षते ।

अर्थात्ः- मृत पित्तरों की आत्मिक शान्ति व उनकी आत्मिक तृप्ति के लिए जो पुत्र अपने प्रिय भोज्य पदार्थ किसी विप्र आदि को श्रद्धापूर्वक भेंट करते है, ब्राह्मण को सेवन कराते है, उसी अनुष्ठान को 'श्राद्ध' कहा जाता है। यही पित्तरों की तृप्ति का एक मात्र साधना (मार्ग) है। 

एक अन्य ग्रंथ 'काव्यायन स्मृति' में भी एक जगह आया है- 'श्राद्ध वा पितृयज्ञ स्यात्' 

अर्थात्ः- पितृयज्ञ का ही एक अन्य नाम 'श्रद्ध' कर्म है।

जीवन से संबन्धित उपरोक्त कुछ ऐसी समस्याएं है, जिनका समुचित उत्तर दे पाना सहज रूप में संभव नही होता। ऐसे व्यक्तियों को अपने जीवन में द्वन्द्व भरा आचरण निभाना पडता है। यद्यपि इस प्रकार की प्रतिकूल घटनाओं और उन समस्याओं के 'सूत्र' कुछ उनकी जन्म कुंडलियों में देखे जा सकते है। उनके ऐसे दुःख-दुर्भाग्य के सूत्र उनके प्रारब्ध में, उनके पूर्व जीवन से संबंधित रहते है। क्योंकि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में निर्मित हुई ग्रह स्थितियां एक तरह से उसके प्रार्रब्ध व पूर्व कर्मों को ही प्रकट करने का कार्य करते है। ऐसी समस्त घटनाओं व उनके संयोग के पीछे व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों को ही जिम्मेदार माना जाता है। वैदिक जीवन में इसे ही 'पितृदोष' या 'पितृश्राप' के रूप में देखा गया है। जीवन से संबन्धित ऐसी समस्त समस्याओं, जीवन की ऐसी परेशानियों और पीडाओं के लिए हमारे प्राचीन ऋषि- मुनियों और ज्योतिष मर्मज्ञों ने व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों, पूर्व जीवन के किसी श्राप से ग्रस्त रहने (पितृश्राप पीडित रहने) को एक प्रमुख कारण के रूप में स्वींकार किया है।

पितृपक्ष (महालय)
7 सितम्बर से 21 सितंबर 2025

भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिन पितरों का तर्पण एवं विशेष दिन श्राद्ध करने का शास्त्रीय विधान है, इससे पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है व घर में सुख-शांति बढ़ती है। श्रुति के अनुसार
पूर्वान्हो वै देवानां मध्यान्हो मनुष्याणमपरान्हः पितृणाम्।

अर्थात अपरान्ह पितरों का समय होता है। इसलिए जिस तिथि को श्राद्ध दिन हो, यदि वह तिथि अपरान्ह व्यापिनी हो तब श्राद्ध करना चाहिए। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि १८ घटि से २४ घटि के बीच व्याप्त रहने वाली तिथि में उस दिन संबंधित तिथि श्राद्ध होता है। यदि उस दिन १८ घटी से २४ घटी के बीच दो तिथियां व्याप्त हों तो दोनों तिथियों का श्राद्ध उसी दिन करना चाहिए। उदाहरण के लिए किसी दिन सूर्योदय के समय सप्तमी तिथि है तथा पंचांग में उस तिथि का समाप्तिकाल १८ घटी ३१ पल लिखा है तो सप्तमी अपरान्ह व्यापिनी है तथा अष्टमी भी इसलिए दोनों तिथियों के श्राद्ध एक ही दिन होंगे। अतः उस दिन सप्तमी के साथ-साथ अष्टमी का भी श्राद्ध होगा।

सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध नोमी के दिन करना चाहिए।

सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी को करना चाहिए।

युद्ध या दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त का श्राद्ध चतुर्दशी को करना चाहिये।
अमावस्या को सभी पितृ कार्य किए जा सकते हैं।

सन्यासियों का श्राद्ध आज
*********
हिंदू धर्म में सन्यासी पितरों का श्राद्ध बेहद महत्व रखता है। जिन परिवारों के सदस्य माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची या अन्य पितृ पूर्वज जीवित रहते हुए सन्यासी बन गए थे, उनके श्राद्ध की तिथि शास्त्रों में विशेष रूप से निर्धारित की गई है। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक कुल 16 श्राद्ध होते हैं। इन श्राद्धों में अपने पितरों और पूर्वजों का पिंडदान, तर्पण और अन्य विधियां करना आवश्यक माना गया है।
शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष की कुछ तिथियां निश्चित की गई हैं। जैसे सौभाग्यवती माता स्त्रियों का श्राद्ध एक निर्धारित तिथि को किया जाता है, वैसे ही सन्यासी पितरों का श्राद्ध भी निश्चित तिथि को करने का विधान है।
श्राद्ध पक्ष की सभी तिथियां विशेष महत्व रखती हैं। गरुड़ पुराण और शकुन शास्त्र में भी इसे स्पष्ट किया गया है। जो व्यक्ति अपने पितृ पूर्वज का विधिपूर्वक श्राद्ध नहीं करता, उसके जीवन में दुख, आर्थिक हानि, पारिवारिक कलह और अन्य संकट बने रहते हैं।

सन्यासी पितरों का श्राद्ध
==================
सन्यासी पितरों का श्राद्ध केवल अश्विन कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को करना चाहिए। साल 2025 में यह तिथि 18 सितंबर, बृहस्पतिवार है। इस दिन 11:00 बजे से पहले विधिपूर्वक पिंडदान और तर्पण करने से सन्यासी पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है और वे वंशजों पर सदैव आशीर्वाद बनाए रखते हैं।
विशेष जानकारी के अनुसार, जिन पितृ पूर्वजों ने जीवन रहते सन्यास लिया और पिंडदान कर दिया, उनका श्राद्ध नहीं करने पर दोष नहीं माना गया है। लेकिन यदि विधिपूर्वक द्वादशी तिथि को श्राद्ध किया जाता है, तो यह उनके मोक्ष और वंशजों के कल्याण के लिए अत्यंत लाभकारी होता है।

श्राद्ध की विधि और महत्वपूर्ण जानकारी
============================
श्राद्ध की तिथि : अश्विन कृष्ण पक्ष की द्वादशी।
साल 2025 में तिथि : 18 सितंबर, बृहस्पतिवार।
समय : 11:00 बजे से पहले।
विधि : पिंडदान, तर्पण और अन्य शास्त्रानुसार अनुष्ठान।
लाभ : सन्यासी पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है और वंशजों पर आशीर्वाद बना रहता है।

पितृपक्ष के दिनों में सात्विक भोजन करना चाहिए। यहाँ कुछ सुझाव दिए गए हैं:

शाकाहारी भोजन: पितृपक्ष में मांसाहारी भोजन नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, आप शाकाहारी विकल्प जैसे कि सब्जियाँ, फल, दालें, और अनाज चुन सकते हैं।

बिना लहसुन और प्याज का भोजन: पितृपक्ष में लहसुन और प्याज का सेवन भी वर्जित माना जाता है। आप इन्हें अपने भोजन से बाहर रख सकते हैं।

ताज़े फल और सब्जियाँ: ताज़े फल और सब्जियाँ एक अच्छा विकल्प हो सकते हैं।

दालें और अनाज: दालें और अनाज जैसे कि चावल, गेहूं, और जौ भी पितृपक्ष में उपयुक्त हो सकते हैं।

बिना मिर्च और मसालेदार भोजन: पितृपक्ष में सात्विक भोजन करने के लिए, आप मिर्च और मसालेदार भोजन से बच सकते हैं।

इन सुझावों का पालन करके, आप पितृपक्ष के दौरान एक संतुलित और सात्विक आहार ले सकते हैं।

पितृपक्ष में श्राद्धकर्म करने के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करें:

1. पितरों का तर्पण: पितृपक्ष के दौरान पितरों को जल अर्पित करना चाहिए। इसके लिए गंगा जल या शुद्ध जल का उपयोग करें।
2. तिल और कुश का उपयोग: श्राद्धकर्म में तिल और कुश का विशेष महत्व है। तिल को पवित्र माना जाता है और कुश का उपयोग पितरों को अर्घ्य देने के लिए किया जाता है।
3. पिंडदान: पिंडदान करना श्राद्धकर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके लिए चावल, जौ, और तिल का मिश्रण तैयार करें और पितरों को अर्पित करें।
4. भोजन और दान: श्राद्धकर्म के दौरान ब्राह्मणों को भोजन कराना और दान देना चाहिए। इससे पितरों को तृप्ति मिलती है।
5. सात्विक भोजन: श्राद्धकर्म करने वाले व्यक्ति को सात्विक भोजन करना चाहिए और मांसाहारी भोजन से बचना चाहिए।
6. ब्रह्मचर्य का पालन: श्राद्धकर्म के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
7. पितृपक्ष के नियमों का पालन: पितृपक्ष के दौरान पशु-पक्षियों की सेवा करनी चाहिए और मांगलिक कार्यों से बचना चाहिए।

श्राद्धकर्म करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है।

Comments

Popular posts from this blog

आहार के नियम भारतीय 12 महीनों अनुसार

वेद-शास्त्रों का परिचय

the yuga