दिशाओं की उत्पत्ति की कथा

यह कथा वराह पुराण में वर्णित है । 

कथा का विषय है :-
दशमी तिथि का माहात्म्य 
दिशाओं की उत्पत्ति की कथा

यह कथा मुनिवर महातपा प्रजापाल राजा को सुना रहे है । भगवान शिव का एक नाम महातपा भी है । 

भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम कर हम इस कथा को प्रारम्भ करते है । 

मुनिवर महातपा राजा प्रजापाल से कहते हैं - 
राजन् ! अब जिस प्रकार भगवान् श्रीहरि के कानों से दिशाएँ उत्पन्न हुईं, वह कथा मैं कहता हूँ, तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो। 

आदिसर्ग के आरम्भ में ब्रह्माजी को सृष्टि करते हुए यह चिन्ता हुई कि 'मेरी उत्पन्न प्रजा का आधार क्या होगा ?' अतः उन्होंने संकल्प किया कि 'अब आभ्यन्तर-स्थान उत्पन्न हों।'
उनके इस प्रकार विचार करते ही उन परम प्रभु के कानों से दस तेजस्वी कन्याओं का प्रादुर्भाव हुआ। 

राजन् ! उनमें वे पूर्वा, दक्षिणा, पश्चिमा, उत्तरा, ऊर्ध्वा और अधरा- ये छः कन्याएँ तो मुख्य मानी गयीं। साथ ही उन कन्याओं के मध्य में और चार कन्याएँ, जो परम सुन्दर रूपवाली गम्भीर भावों वाली तथा महा भाग्यशालिनी थीं, उत्पन्न हुईं। उस समय उन सभी कन्याओंने बड़ी नम्रता के साथ शुद्धस्वरूप ब्रह्माजी से प्रार्थना की :- 

देवेश्वर ! आप प्रजा के पालक हैं। हमें स्थान देने की कृपा
कीजिये। स्थान ऐसा चाहिये, जहाँ हम सभी अपने पतियों के साथ सुखपूर्वक निवास कर सकें। अव्यक्तजन्मा प्रभो! हमें आप महान् भाग्यशाली पति प्रदान करने की कृपा करें।'

ब्रह्माजी बोले - कमनीय कटिभाग से शोभा पाने वाली दिशाओ ! यह ब्रह्माण्ड सौ करोड़ का विस्तारवाला है। इसके अन्तर्गत तुम संतुष्ट होकर यथेष्ट स्थानों पर निवास करो। मैं शीघ्र ही तुम्हारे अनुरूप सुन्दर एवं नवयुवक पतियों का भी निर्माण करके देता हूँ। तदनन्तर इच्छानुसार तुम सभी अपने-अपने स्थान पर चली जाओ।

राजन् ! जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार कहा तो वे सभी कन्याएँ इच्छित स्थानों को चल पड़ीं। फिर उन प्रभु ने उसी क्षण महान् पराक्रमी लोकपालों की रचनाकर एक बार उन कन्याओं को पुनः अपने पास वापस बुलाया। उनके आ जाने पर लोक पितामह ब्रह्माजी ने उन कन्याओं का उन लोकपालों के साथ विवाह कर दिया। 

उत्तम व्रत का पालन करनेवाले राजन् ! उस अवसर पर उन परम प्रभु ने पूर्वा नाम वाली कन्या का विवाह इन्द्र के साथ, आग्नेयीदिक् का अग्निदेव के साथ, दक्षिणा का यम के साथ, नैऋत्री का निर्ऋति के साथ, पश्चिमा का वरुण के साथ, वायव्यीदिक् का वायु के साथ, उत्तरा का कुबेर के साथ तथा ईशानीदिक् का भगवान् शंकर के साथ विवाह का प्रबन्ध कर दिया। ऊर्ध्व दिशा के अधिष्ठाता वे स्वयं बने और अधोलोक की अध्यक्षता उन्होंने शेषनाग को दी। इस प्रकार उन दिशाओं को पति प्रदान करने के बाद ब्रह्माजी ने उनके लिये दशमी तिथि निर्धारित कर दी। वही तिथि उन्हें अत्यन्त प्रिय बन गयी। 

राजन् ! जो उत्तम व्रत का पालक पुरुष दशमी तिथि के दिन केवल दही खाकर व्रत करता है, उसके पाप का नाश करने के लिये वे देवियाँ सदा तत्पर रहती हैं। जो मनुष्य मन को वश में करके दिशाओं के जन्मादिसे सम्बन्ध रखने वाले इस प्रसङ्ग को सुनता है, वह इस लोक में प्रतिष्ठा पाता है और अन्त में ब्रह्माजी का लोक प्राप्त करता है, इसमें कोई संशय नहीं।

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