मन्त्रदोषाः (Mantra Doṣaḥ)
मन्त्रदोषाः (Mantra Doṣaḥ)
वेद-विहित मन्त्र जप में शुद्धता अत्यावश्यक मानी गई है। मन्त्र के प्रत्येक अक्षर में परमदैवी चैतन्य निहित होता है। अतः यदि जप में किसी प्रकार की त्रुटि या असावधानी हो जाए, तो वह मन्त्रदोष कहलाता है। शास्त्रों में ऐसे नौ प्रमुख दोष बताए गए हैं—
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(१) अभक्ति-दोषः —
मन्त्र को केवल अक्षर-समूह या वर्णों की परम्परा मात्र समझना तथा उसमें ईश्वर-भाव, श्रद्धा, भक्ति का अभाव रखना अभक्ति-दोष कहलाता है।
(२) अक्षरभ्रान्ति-दोषः —
मन्त्र के अक्षरों में उलट-फेर करना, या एकाधिक अक्षर बढ़ा देना अथवा घटा देना अक्षरभ्रान्ति-दोष कहलाता है।
(३) लुप्त-दोषः —
यदि मन्त्र के किसी वर्ण का उच्चारण रह जाए या लुप्त हो जाए, तो वह लुप्त-दोष होता है।
(४) ह्रस्व-दोषः —
जहाँ दीर्घ वर्ण होना चाहिए, वहाँ ह्रस्व उच्चारण कर देना ह्रस्व-दोष कहलाता है।
(५) दीर्घ-दोषः —
जहाँ ह्रस्व वर्ण होना चाहिए, वहाँ दीर्घ रूप में कहना दीर्घ-दोष कहलाता है।
(६) कथन-दोषः —
जाग्रत अवस्था में अपने मन्त्र को किसी अन्य व्यक्ति को बताना कथन-दोष माना गया है।
(७) छिन्न-दोषः —
संयुक्त वर्णों में से किसी एक वर्ण का छूट जाना छिन्न-दोष कहलाता है।
(८) स्वप्नकथन-दोषः —
स्वप्न में भी यदि साधक अपना मन्त्र किसी को बता दे, तो वह स्वप्नकथन-दोष माना जाता है।
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(९) मन्त्र-चैतन्य का रहस्य —
यदि साधक मन्त्र के प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते समय परमानन्द का अनुभव करे और उसे चेतन देवस्वरूप संविद्-तत्त्व मानकर जप करे, तो वह शीघ्र मन्त्र-सिद्धि प्राप्त करता है; क्योंकि—
“संविदेव मन्त्रः” — मन्त्र स्वयं संवित् (चैतन्य) स्वरूप है।
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