#भौतिकवादी_विचार_के_अनुसार स्त्री पुरुष के
शारीरिक सम्बन्ध के कारण बच्चे का जन्म होता है -- यह
आधुनिक बायोलॉजी की मान्यता है, इस मान्यता को गीता में "आसुरी" चिन्तन कहा गया है | इस आसुरी विचार के कारण ही इस शास्त्र को "आनुवांशिकी" कहा जाता है, क्योंकि इस मान्यता के अनुसार मनुष्य को सारे जेनेटिक गुण-अवगुण अपने माँ-बाप के वंशों द्वारा ही मिलते हैं |
किन्तु वैदिक विचारधारा के अनुसार बच्चा अपने पूर्वकर्मों के फलस्वरूप जन्म लेता है | अपने कर्मफलों के अनुरूप मेल खाने वाले वंश में ही ईश्वर की कृपा से जन्म लेता है, जिस कारण भ्रम होता है कि माँ-बाप के गुणसूत्र ही बच्चे की जेनेटिक प्रणाली के नियन्ता हैं | माँ-बाप के गुणसूत्र निर्जीव अणु-समूह हैं, आत्मा निकल जाय तो मिट्टी हैं | वे भला जीते-जागते बच्चे को क्या बनायेंगे !! वे केवल सूचनाओं की आणविक पुस्तिका हैं, वे "जीव" नहीं हैं |
जीव है निराकार निष्क्रिय शुद्ध चैतन्य आत्मा का प्रकृति के साथ बद्ध स्वरुप, जिसमें जीव अपने वास्तविक आत्मा को भूलकर चित्त के पटल पर जैसा दिखता रहता है वैसी ही अविद्या पाले रहता है |
प्रकृति के अवयव दो प्रकार के हैं, एक प्रकार में वे हैं जो मृत्यु के बाद भी जीव के साथ रहते हैं और दूसरा मृत्यु के साथ नष्ट हो जाता है और नया जन्म होने पर पुनः प्राप्त होता है | इस नश्वर भाग के दो अनुभाग है, भौतिक स्थूल शरीर, जिसका जीवविज्ञान अध्ययन करता है, और उनके पाँच गुण (रूप रस गन्ध स्पर्श शब्द) जो भौतिक पदार्थों के ही गुण हैं (और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं)|
किन्तु जीव की प्रकृति का दूसरा भाग है "कारण-शरीर" जो 13 करणों से बना है और अनादि काल से लेकर मोक्ष मिलने तक जीव के साथ सदैव जुड़ा रहता है |
"कारण-शरीर" के करणों में ही सारे संस्कार और इच्छाएँ भी छुपे रहते हैं जो बारम्बार जन्म और मृत्यु के कारण बनते हैं, अतः कारण-शरीर कहलाते हैं | जीव जब संसार में आता है तो अपने सारे आनुवांशिक लक्षणों को "कारण-शरीर" में साथ लेकर आता है अतः"कारण-शरीर" के अनुरूप ही DNA की भी बनावट होती है, हालांकि "कारण-शरीर" को डीएनए की तरह आणविक संरचना नहीं कहा जा सकता, "कारण-शरीर" तो अभौतिक है, उसे भौतिक यन्त्रों या इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता | जैसे "मन" को देखना सम्भव नहीं किन्तु प्रभावों के अध्ययन द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध कर सकते हैं, वैसे ही "कारण-शरीर" का भी अध्ययन हो सकता है |
आधुनिक काल में "मन" का जो पाश्चात्य अर्थ पढ़ाया जाता है वह भारतीय वांग्मय का "चित्त" या "कारण-शरीर" है, "मन" तो "Mind" के 13 अवयवों में से एक है | सोच में एक और महत्वपूर्ण अन्तर है, पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यता सेमेटिक मजहबों की इस मान्यता पर आधारित है कि जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, मरने के साथ ही Mind भी मर जाता है | कर्मफल के सिद्धान्त को केवल भारतीय दर्शन मानते हैं | कोई जीव अपने कर्मों का स्वयं फल भोगे यह न्यायसंगत भी है | अतः कर्मफल से मुक्ति पाने के लिए भारतीय धर्म किसी पैगम्बर या रामरहीम या पादरी के क़दमों पर लोटना नहीं सिखाता | जिनको वैदिक कर्मकाण्ड केवल ब्राह्मणों के आडम्बर लगते हैं वे गीता के "भक्ति मार्ग" का सहारा ले सकते हैं जो ब्राह्मण से चाण्डाल तक सभी के लिए समान रूप से खुला है |
पुनर्जन्म के दो प्रमाण हैं, तपस्या द्वारा मृतात्मा का दर्शन
पाने की सिद्धि अर्जित करना, जो मिल जाने पर भी दूसरों को प्रमाणिक नहीं लगेगी | अतः दूसरा प्रमाण ही सबके लिए प्रामाणिक हो सकता है, बशर्ते पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँच की जाय - ज्योतिष, कर्मफल, परलोक, आत्मा का पुनर्जन्म, आदि का प्रमाण केवल ज्योतिष ही दे सकता है जिस कारण इसे वेद की आँख कहा गया है | जन्मकुण्डली भविष्य को प्रभावित करती है, किन्तु पिछले कर्मफलों से बनती है, और जन्मकुण्डली के अनुसार ही DNA सक्रीय होता है | जन्मकुण्डली में जो बातें सक्रीय नहीं हैं वे DNA में भी निष्क्रिय रहती हैं |
ईसाई पन्थ में ज्योतिष को काला जादू कहकर प्रतिबन्धित किया गया है जिसका प्रभाव ईसाइयों के आधुनिक विज्ञान पर भी पड़ा है | यूरोप के सभी विषविद्यालयों में बाइबिल की Theology के अनुसार गॉड को सिद्ध करने पर ही Thesis पर डिग्री मिलती थी, पुनर्जागरण के बाद धीरे-धीरे सांसारिक विद्याओं पर भी थीसिस लिखे जाने लगें , किन्तु ज्योतिष से घृणा आजतक है जिस कारण बहुत से ईसाई देशों और अमरीका के बहुत से राज्यों में आज भी ज्योतिष पर पाबन्दी है, हालांकि चर्च की पकड़ ढीली हो जाने के कारण अब इस पाबन्दी को सख्ती से लागू नहीं किया जाता |
DNA के तेरह संरचनात्मक विभाग होते हैं जो तेरह प्रमुख फेनोटाइप-समुच्चय बनाते हैं -- तेरह करण | उदाहरण के लिए एक करण को लें -- "कर्ण इन्द्रिय"| ध्वनि को सुनने और उसकी प्रोसेसिंग करके पहचानने वाले जैविक पुर्जे "कर्ण इन्द्रिय" नहीं है | इस व्यापक शारीरिक प्रणाली में स्थूल शरीर के अवयवों से लेकर मष्तिष्क के ही नहीं बल्कि चित्त के मनोवैज्ञानिक अवयव एवं genes आदि भी अपनी भूमिका निभाते हैं , परन्तु वास्तविक "कर्ण इन्द्रिय" उन सबसे पृथक एक
अभौतिक तत्व है जो अमर है और उसका अधिष्ठाता देवता एकादश रुद्रों में से एक है | अभौतिक "कर्ण इन्द्रिय" में ही कान से सम्बन्धित समस्त सूचनाओं (श्रवण सम्बन्धी क्षमताओं, लक्षणों, खामियों और रोगों तथा संगीत आदि सुनने की वासनाओं) का भण्डार होता है जिसे साथ लेकर जीव नए शरीर में आता है |
सामान्य मनुष्यों में माता-पिता के शारीरिक सम्बन्ध के फलस्वरूप सन्तान पैदा होने का भ्रम ईश्वर कराते हैं, किन्तु प्राचीन युगों में यज्ञ से सीधे सन्तान उत्पन्न होने के बहुत से आख्यान मिलते हैं, जिनमें अन्तिम थे द्रौपदी और उनके भाई जो यज्ञकुण्ड से सीधे निकले थे | कुन्ती को भी देवताओं से पुत्र मिले थे, देवताओं के दिव्य शरीर होते हैं, भौतिक नहीं |
कलियुग एकमात्र ऐसा युग है जिसमें वैदिक जेनेटिक्स की ये धाराएं अवरुद्ध हो जाती हैं | अभौतिक "कर्ण इन्द्रिय" द्वारा ही भौतिक डीएनए के श्रवण- सम्बन्धी समस्त संरचनाओं, उनके कार्यों, लक्षणों तथा प्रक्रियाओं का निर्धारण होता है | अभीतक केवल कान जैसे शारीरिक अंगों के निर्माण में आवश्यक विभिन्न प्रोटीनों को बनाने में डीएनए की भूमिका पर ही बल रहा है जिस कारण डीएनए के "कर्ण इन्द्रिय" वाले विशाल विभाग का अध्ययन लगभग नहीं के बराबर किया गया है | डीएनए के भौतिक "कर्ण इन्द्रिय" वाले विभाग में कई हज़ार जीन्स हैं (जब सम्पूर्ण डीएनए के 1.1% प्रोटीन सम्बन्धी भाग में लगभग बीस हज़ार जीन्स हैं तो सम्पूर्ण डीएनए के तेरह करणों में से एक "कर्ण" में एक-डेढ़ लाख जीन्स हो सकते हैं)| किन्तु प्रोटीन बनाने को छोड़ दें तो श्रवण सम्बन्धी जीन्स के बारे में नगण्य जानकारी है |
DNA का एक भी अणु जंक नहीं है, वरना प्रकृति करोड़ों वर्षों से उनको बचाकर क्यों रखती ? जंक वे वैज्ञानिक हैं जो ब्रह्मा जी की सृष्टि को जंक कहते हैं | तब जेनेटिक्स के अध्ययन की वैदिक पद्धति कैसी होनी चाहिए ? कैसे उन 98% से अधिक अज्ञात जीन्स की पहचान हो सकती है ?
कैसे "श्रवण" इन्द्रिय कार्य करती है और कैसे उससे सम्बन्धित जीन्स का पता लगाया जा सकता है।
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