जन्म मरण चक्र{ बृहदारण्यकोपनिषद्}
      द्वितीय मार्ग शास्त्रों में वह बताया गया जिस मार्ग से मनुष्य पुन: इस लोक में आता है। जिस प्रकार समुद्र का जल ग्रीष्म ऋतु में ऊपर उठता है तथा वर्षा ऋतु में पुन: बरसता है एवं पुन: ग्रीष्म ऋतु में ऊपर उठता है, ये चक्र चलता रहता है। उसी प्रकार कई ऐसी आत्माएँ जो मुक्ती की अवस्था तक नहीं पहुँच पाती वे पुन: पुन: इस लोक में जन्म ग्रहण करती हैं। मरती हैं एवं पुन: जन्म ग्रहण करती हैं। उपनिषदों में उस चक्र का वर्णन भी किया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है—

 ”असौ वाव लोकेाऽग्निऽ : तस्यादित्य एव समित्। तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा: श्रद्धां जुह्वति। तस्या आहुते: सोमो राजा संभवति। 6.2.9

वह अग्नि है,आदित्य उसका समिधा यानि ईंधन है। इस अग्नि में देव श्रद्धा का होम करते हैं। यह सर्वप्रथम आहुति होती है। उस आहुति से सोम की उत्पत्ति होती है। यहाँ चन्द्रलोक मे आगमन होता है। मृत्युपरान्त श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला श्राद्ध ही इस श्रद्धा नामक आहुति का आधार है। एवं शरीर त्याग के उपरान्त आत्मा इसी के आधार पर पुनर्जन्म के प्राकृतिक चक्र में प्रवेश कर पाती है। ”ये अत्यन्त उच्च स्तर पर होने वाली क्रिया है जिसे आध्यात्मिक ध्यानावस्था में ही समझा जा सकता है।

इसके लिये वेद ही प्रमाण हैं। एवं उन तथ्यों को केवल इसलिये नहीं नकारा जा सकता कि आजकल के पैदा हुये झोला छाप समाज सुधारक जो खुद को आध्यात्मिक गुरू बताते हैं एवं ऋषियों को सामान्य मनुष्य कहते हुये उनके शास्त्रों को अप्रमाणिक मानते हैं। इस प्रकार शरीर को त्याग कर चुकी आत्मा का जब पुनर्जन्म होना होता है तो वहाँ से वापस धरती पर जन्म लेने के लिये उसकी गति का प्रथम स्तर है।

द्वितीय स्तर के अनुसार बादल विज्ञान तन्त्र जहाँ भी एक प्राकृतिक यज्ञ होता है जिसमे बादल का कार्य वही है जो अग्नि का होता है उसमें देवता यानि प्राकृतिक् शक्तियाँ सोम की आहुति देते हैंं। ये वही सोम है जो पूर्व के आध्यात्मिक यज्ञ के समय उत्पन्न होता है। इस यज्ञ से वर्षा उत्पन्न होती है।

तृतीय स्तर में  वही वर्षा जब धरती पर पहुँचती है तो यहाँ धरती अग्नि होती है एवं वर्षा की आहुति होती है उससे उत्पन्न होता है अन्न।

चतुर्थ स्तर पर मनुष्य के शरीर में रहने वाली अग्नि में अन्न की आहुति होती है। उत्पन्न होता है तेज।

पंचम स्तर पर उस तेज की स्त्री के शरीर में आहुति होती है तो सन्तान उत्पन्न होती है। इस प्रकार जो आत्मा पूर्व में किसी शरीर को त्याग चुकी थी वह आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक स्तर पर  होने वाले यज्ञों के माध्यम से पुन: शरीर रूप धारण करता है।

ये आत्मा जो आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक स्तर पर होने वाले यज्ञों में गति करता है उसका आधार उसके पूर्व के बन्धु बान्धवों द्वारा श्रद्धा पूर्वक  दिया जाने वाला श्राद्ध पिण्ड, तर्पणादि  है। वही श्रद्धा इस यज्ञ प्रक्रिया की सर्वप्रथम आहुति होती है ।

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