गर्भरक्षक श्रीवासुदेव-सूत्र

•••••गर्भरक्षक श्रीवासुदेव-सूत्र••••••
√•दुर्योधनको छोड़कर उसके सभी भाई मर चुके थे। गदायुद्धमें उसका भी आधा धड़ बेकार हो चुका था। मौतके काले आँचलमें द्रोणपुत्र अश्वत्थामाके लिये कोई स्थान न था, पर महासमरमें पराजित हो जानेकी विभीषिकाने उसे किसीके समक्ष मुख दिखानेयोग्य न रख छोड़ा था। उसके विवेकका सूर्य अस्त हो चुका था। उसका युद्ध-कौशल तथा पितृ-चरणोंकी स्वाभाविक कृपासे प्राप्त दिव्य अस्त्र उसके पास थे। अब वह बिना सेनाका सेनापति और बिना रथका महारथी था। वह अन्धकारमयी रात्रिमें पाण्डव-शिविरमें पहुँच साध्वी द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंकी हत्याकर पुनः दुर्योधनद्वारा तिरस्कृत ही नहीं, प्रत्युत अभिभत्सित हो अस्त-व्यस्त हो चुका था। उसके कलुषित जीवनका दुःखान्त नाटक अभी समाप्त होनेवाला न था; अतः वह वीरवर अर्जुनद्वारा पकड़ा जाकर शोकातुरा कृष्णाके समक्ष उपस्थित किया गया। साध्वी द्रौपदीके सौजन्यने उसकी दहकती हृदयाग्निमें घीका काम किया। भीमसेनकी भर्त्सना तथा अर्जुनद्वारा मणि-मूर्धजोंके लुंचनने उसके धैर्यको तिरोहितकर उसे अधीर ही नहीं, प्रत्युत किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया। वह पाण्डवोंसे प्रतिशोधके लिये चंचल हो उठा। अर्जुनकी पुत्रवधू उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भपर ही पाण्डव- वंशकी पवित्र परम्परा अवलम्बित थी। अश्वत्थामाने गर्भस्थ शिशुको लक्ष्य बनाकर अमोघ ब्रह्मास्त्रका, जिसका प्रतीकार वह स्वयं नहीं जानता था, प्रयोग कर दिया। विश्वजननी प्रकृति काँप उठी। वायुमण्डल क्षुब्ध हो उठा। दिशा और विदिशाओंसे त्राहि-त्राहिके शब्द सुनायी पड़ने लगे। द्वारकेश भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंसे विदा हो अपने रथके पवित्र पावदानपर चरणकमल रख चुके थे। इसी समय भयप्रकम्पिता अनन्याश्रिता उत्तराने आर्तनाद किया। श्रीहरिका दयार्द्र हृदय द्रवित हो उठा, उन्होंने उसके गर्भस्थ शिशुकी रक्षा करते हुए भविष्यके लिये भी गर्भ-रक्षाकी एक समीचीन प्रणाली प्रदर्शित और प्रचलित कर दी।

√•इस विज्ञानके युगमें, जबकि ईश्वर और ईश्वरीय सत्तापर लोगोंको अविश्वास ही नहीं, प्रत्युत सन्देह भी होने लग गया है, मन्त्रों और मन्त्रशक्तियोंपर प्रकाश डालना निरर्थक श्रम ही प्रतीत होता है, किंतु नहीं; ईश्वर नित्य, सत्य, सर्वशक्तिमान् और सम्पूर्ण विश्वके नियामक हैं। उन्हीं विभूतिमान्, सत्. चित्, आनन्दके द्वारा विश्व विकसित और प्रकाशित होता है। ये विभुरूपसे वैज्ञानिकोंक विज्ञानमें, अन्धविश्वासियोंके अन्धविश्वासमें, भक्तोंके अनुरागभरे भावोंमें, प्रेमियोंके प्रेममें तथा नास्तिकोंके नास्तिकवादमें भी भ्रमण करते रहते हैं। वे सर्वशक्तिमान् एवं कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ हैं।

√•सर्वगुणसम्पन्न, वेद और वेदांगोंके मर्माधिकारी ज्ञाता, भगवान् महाविष्णुके अंशावतार, पुराणेतिहासके रचयिता, मुनिपुंगव कृष्णद्वैपायन व्यासद्वारा लिखित प्रत्येक अक्षर अपना विशेष महत्त्व रखता है। श्रीमद्भागवत- महापुराण ऐसे चमत्कारी मन्त्रों-स्तोत्रोंका एक महान् आकरग्रन्थ है। उसके श्रवणसे राजा परीक्षित्‌को जो दिव्यगति प्राप्त हुई, वह प्रायः सर्वविदित है। इस पुराणसे जहाँ अलभ्य पारमार्थिक लाभकी प्राप्ति होती है, वहाँ इसके प्रभावसे कोई क्षुद्र सांसारिक विपत्ति टल जाय, इसमें आश्चर्य क्या? श्रीमद्भागवतमें भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यासने सांसारिक त्रिविध तापोंसे छुड़ाकर परम-पथ-प्रदर्शनका सर्वोच्च तथा सर्वजनसुलभ उपदेश किया है।

√•सन्त-मुखोद्‌गीर्ण प्रत्येक अक्षर महामन्त्रवत् होता है और उन्हीं महामन्त्रोंसे लोकका कल्याण सम्भव है। वैसे ही एक महामन्त्रको आज पाठकोंके समक्ष उपस्थित करनेका प्रयास किया जाता है। वह श्रीमद्भागवतोक्त श्रीवासुदेवसूत्र-प्रतिपादक महामन्त्र इस प्रकार है-

"अन्तःस्थः सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरो हरिः ।
 स्वमाययावृणोद् गर्भ वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥"
               (१।८।१४)

√•'समस्त प्राणियोंके हृदयमें आत्मारूपसे स्थित योगेश्वर श्रीहरिने कुरुवंशकी वृद्धिके लिये उत्तराके गर्भको अपनी माया (के कवच) से ढक दिया।'

√•उपर्युक्त मन्त्र (श्लोक) में उन कुलवधुओंके लिये सच्चा आश्वासन सन्निहित है, जिन्हें गर्भ तो रहता है; किंतु पूर्ण प्रसव नहीं हो पाता, बीचमें ही खण्डित हो जाता है। यह उन महिलाओंके लिये भी कल्पवृक्षके समान प्रत्यक्ष फलदाता है, जिनको बच्चा सर्वांगपूर्ण पैदा होता है, किंतु जीवित नहीं रहता। इस महामन्त्रका गर्भस्थ शिशुके मनपर भी बड़ा चमत्कारी प्रभाव पड़ता है। उसके संस्कार बदल जाते हैं। उसको ऊपरी बाधा- जैसे स्कन्दादिक पुरुषसंज्ञक ग्रह, पूतनादिक मातृग्रह, भूत-प्रेत तथा जादू-टोने आदिका भय नहीं रहता। जितने भी प्रकारकी बाधा मानव-बुद्धि अनुमान कर सकती है, वे सब-की-सब भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ईश्वरीय तेजके समक्ष अकिंचित्कर हो जाती हैं। इस महामन्त्रके प्रभावसे सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णके दिव्यातिदिव्य आयुध उस महिलाके गर्भकी रक्षा करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक श्रीवासुदेव-सूत्रको धारण करती हैं। यह सूत्र बड़ा ही उग्र, अतः सद्यः फलदाता है। इसका रहस्य अत्यन्त गोपनीय एवं प्रभावोत्पादक है।

√•अमोघ ब्रह्मास्त्र, जिसके निवारणका कोई भी उपाय न था, भगवान् श्रीकृष्णके तेजके सामने आकर शान्त हो गया। उनकी अहैतुकी कृपाने जिस प्रकार विराट-पुत्री उत्तराके गर्भकी रक्षा करते हुए 'कुरुतन्तु' की रक्षा की, उसी प्रकार वह श्रीवासुदेव-सूत्रको धारण करनेवाली नारियोंके गर्भ और उनके गर्भस्थ शिशुओंकी भी रक्षा करती है।

√•••श्रीवासुदेव-सूत्रकी निर्माण-विधि - इस महाभाग वैष्णव-सूत्रको जिस भाग्यवतीके लिये बनाना हो, उसे और बनानेवालेको भी अच्छी तरह ज्ञात हो जाना चाहिये कि 'नादेवो ह्यर्चयेद्देवमिति देवविदो विदुः ।'- देववत् हुए बिना देवताकी अर्चना नहीं करनी चाहिये, ऐसा वेदज्ञोंका कथन है। इसलिये साधकको देवकी उपासना प्रारम्भ करनेके पूर्व उचित है कि वह अपनेको भी देववत् बना ले अर्थात् नित्य- नैमित्तिक कर्मों एवं आहाराचारादिकोंका विधिवत् सुधार कर ले। इस सूत्रको धारणकर मनमाना स्वार्थानुकूल आहाराचार करते रहनेसे सूत्र और उसके अधिदेवका उपहास होता है, फलतः वांछित फलकी प्राप्ति नहीं होती। भगवान् यद्यपि उपहासानुपहासकी ओर ध्यान नहीं देते, फिर भी सच्चे आत्मनिवेदनकी अपेक्षा तो है ही। सूत्र-निर्माण- कर्ता यदि श्रीकृष्ण-मन्त्रका जापक, अप्रतिग्रही, कर्मनिष्ठ द्विज हो तो सफलता अवश्यम्भावी समझी जाती है।

√•जिस महिलाके लिये सूत्रका निर्माण करना हो, उसे सुधौत शुद्ध वस्त्र पहनाकर भगवान्‌के चरणोदक और तुलसीदलकी प्रसादी दे, तत्पश्चात् श्रीगणेश- गौरीका पूजन और नवग्रहोंकी यथाशक्ति शान्ति कराकर पूर्वाभिमुखी खड़ी कर दे। केसरिया रेशमके डोरे (अभावमें कुमारी कन्याद्वारा काते केसरिया रंगमें रंगे हुए कच्चे सूत) से उसको सात बार आपादमस्तक नाप ले। डोरा इतना लम्बा होना चाहिये कि बीचमें गाँठ न पड़ने पाये। कच्चा सूत अपेक्षाकृत अधिक कोमल होता है, टूटनेका भय रहता है; अतः वहुत सावधानी अपेक्षित होती है। समूचे तागेकी सात तह कर लेनी चाहिये। उपर्युक्त मन्त्रके आदिमें प्रणव (ॐ) तथा अन्तमें अग्निप्रिया (स्वाहा) बीज लगाकर इक्कीस बार जप करके मालाकी गाँठकी भाँति गाँठें लगाता जाय। इस प्रकार इक्कीस गाँठ लगाकर सूत्रकी विधिवत् वैष्णव- मन्त्रोंसे प्राण-प्रतिष्ठा और उसका पूजन करे। तत्पश्चात् शुभग्रहावलोकित वेलामें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका ध्यान करते हुए उनसे गर्भिणी और गर्भकी रक्षाकी प्रार्थनाकर उस सूत्रको वामहस्तमूल, गले अथवा अत्यन्त पीड़ाके समय नाभिके नीचे कमरमें बाँध दे। यदि इस वैष्णव श्रीवासुदेव-सूत्रका निर्माण और बन्धन विधिवत् हो गया तो गर्भ नष्ट नहीं हो सकता। यह लेखकके पूर्वजों और स्वयं लेखकद्वारा भी अनुभूत है।

√•सूत्रको बाँधकर किसी भी अशौच (जैसे जनन- मरण)-से सम्बन्धित घरोंमें नहीं जाना चाहिये। सूत्रको नित्यशः भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए सुगन्धित धूपसे धूपित-सुवासित करते रहना चाहिये। भगवच्चरणोंकी कृपासे प्रसवका समय सकुशल प्राप्त होनेपर सूत्रको कमरसे खोलकर बाहुमूल या गलेमें बाँध देना चाहिये। बच्चेका नाल-छेदन और स्नान हो जानेके पश्चात् सूत्रको धूप देकर बच्चेके गलेमें पहना देना चाहिये। सवा महीनेके पश्चात् बच्चेके लिये  
नवीन सूत्रका निर्माण कराकर बाँध देना चाहिये। पुराने सूत्रका आभार मानना चाहिये और भगवन्नाम- कीर्तन करते हुए अपराधके लिये क्षमा-याचना करके उसे किसी तीर्थ या देवसरितामें विसर्जित कर देना चाहिये। गर्भवती तथा गर्भस्थ शिशुकी रक्षाके लिये श्रीमद्भागवतके षष्ठ स्कन्धके आठवें अध्यायमें वर्णित श्रीनारायणवर्मका नित्यशः पाठ करना चाहिये। यदि यह न हो सके तो शुद्ध हृदयसे किसी भी श्रीकृष्ण- मन्त्रका अधिकाधिक जप करना चाहिये। बाल-कृष्ण (भगवान्) का चरणोदक तथा नैवेद्योपहार गर्भवती, परिवारवालों तथा पास-पड़ोसके बाल-गोपालोंमें सस्नेह वितरण करना चाहिये।

√•श्रीवासुदेव-सूत्र गर्भपीड़ित महिलाओंका कष्ट हरता है। यह एक अक्षय वैष्णव-कवच है।🌹


एक प्रश्न ज्योतिषियों से अक्सर पूछा जाता है कि 'जब एक ही समय पर विश्व में कई बच्चे जन्म लेते हैं, तो उनकी जन्मकुंडली एक जैसी होने के बावजूद उनका जीवन भिन्न कैसे होता है?' ज्योतिष पर विश्वास नहीं करने वालों के लिए यह प्रश्न ब्रह्मास्त्र की तरह है। यह प्रश्न बड़े से बड़े ज्योतिष के जानकार की प्रतिष्ठा ध्वस्त करने की सामर्थ्य रखता है।
 
जब इस ब्रह्मास्त्ररूपी प्रश्न का प्रहार मुझ पर किया गया, तब मैंने ढाल के स्थान पर ज्योतिष शास्त्ररूपी अस्त्र से इसे काटना श्रेयस्कर समझा। इसे प्रश्न के संबंध में मैंने बहुत अनुसंधान किया। कई वैज्ञानिकों के ब्रह्मांड विषयक अनुसंधानों के निष्कर्षों की पड़ताल की। कई सनातन ग्रंथों को खंगाला और अपने कुछ वर्षों के ज्य‍ोतिषीय अनुभव को इसमें समावेशित करने के उपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि किसी जातक के जीवन निर्धारण में केवल उसके जन्म-समय की ही नहीं, अपितु गर्भाधान-समय एवं प्रारब्ध (पूर्व संचित कर्म) की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
 
इस प्रकार ज्योतिष तीन आयामों पर आधारित है। ये 3 आयाम हैं- 1. प्रारब्ध, 2. गर्भाधान-समय, 3. जन्म-समय। इन्हीं 3 महत्वपूर्ण आयामों अर्थात जन्म-समय, गर्भाधान-समय और प्रारब्ध के समेकित प्रभाव से ही जातक का संपूर्ण जीवन संचालित होता है। किसी जातक की जन्म पत्रिका के निर्माण में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है, वह है 'समय'। जन्म-समय को लेकर भी ज्योतिषाचार्यों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान शिशु के रोने को जन्म का सही समय मानते हैं, तो कुछ नाल-विच्छेदन को सही ठहराते हैं।
 
खैर; यहां हमारा मुद्दा जन्म-समय नहीं है। किसी भी जातक की जन्म पत्रिका निर्माण के लिए उसके जन्म का सही समय ज्ञात होना अति-आवश्यक है। अब जन्म-समय तो ज्ञात किया जा सकता है किंतु गर्भाधान का समय ज्ञात नहीं किया जा सकता। इसलिए हमारे शास्त्रों में 'गर्भाधान-संस्कार' के द्वारा बहुत सीमा तक उस समय को ज्ञात करने की व्यवस्था है।
 
अब यह तथ्य वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा स्पष्ट हो चुका है कि माता-पिता का पूर्ण प्रभाव बच्चे पर पड़ता है, विशेषकर मां का, क्योंकि बच्चा मां के पेट में 9 माह तक आश्रय पाता है। आजकल सोनोग्राफी और डीएनए जैसी तकनीक इस बात को प्रमाणित करती है। अत: जिस समय एक दंपति गर्भाधान कर रहे होते हैं, उस समय ब्रह्मांड में नक्षत्रों की व्यवस्था और ग्रह स्थितियां भी होने वाले बच्चे पर अपना पूर्ण प्रभाव डालती हैं। इस महत्वपूर्ण तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे शास्त्रों में गर्भाधान के मुहूर्त की व्यवस्था है।
 
गर्भाधान का दिन, समय, तिथि, वार, नक्षत्र, चंद्र-स्थिति, दंपतियों की कुंडलियों का ग्रह-गोचर आदि सभी बातों का गहनता से परीक्षण के उपरांत ही गर्भाधान का मुहूर्त निकाला जाता है। अब यदि किन्हीं जातकों का जन्म इस समान त्रि-आयामी व्यवस्था में होता है (जो असंभव है); तो उनका जीवन भी ठीक एक जैसा ही होगा, इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है।
 
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमें इन तीन आयामों में से केवल एक आयाम अर्थात जन्म-समय ज्ञात नहीं होता, दूसरा आयाम अर्थात गर्भाधान-समय सामान्यत: हमें ज्ञात नहीं होता किंतु उसे ज्ञात किया जा सकता है, परंतु तीसरा आयाम अर्थात प्रारब्ध न तो हमें ज्ञात होता है और न ही सामान्यत: उसे ज्ञात किया जा सकता है। इसलिए इस समूचे विश्व में एक ही समय जन्म लेने वाले व्यक्तियों का जीवन एक-दूसरे से भिन्न पाया जाता है।
 
मेरे देखे ज्योतिष मनुष्य के भविष्य को ज्ञात करने वाली पद्धति का नाम है। ये पद्धतियां भिन्न हो सकती हैं एवं इन्हें देश, काल व परिस्थिति अनुसार समय-समय पर अद्यतन (अपडेट) करने की भी आवश्यकता है। एक सिद्धयोगी भी किसी व्यक्ति के बारे में उतनी ही सटीक भविष्यवाणी कर सकता है जितनी कि एक जन्म पत्रिका देखने वाला ज्योतिषी या हस्तरेखा विशेषज्ञ कर सकता है और यह भी संभव है कि इन तीनों में योगी सर्वाधिक प्रामाणिक साबित हो।
 
'ज्योतिष' एक समुद्र की भांति अथाह है। इसमें जितने गहरे उतरेंगे, आगे बढ़ने की संभावनाएं भी उतनी ही बढ़ती ही जाएंगी। जब तक भविष्य है, तब तक 'ज्योतिष' भी है। अत: ज्योतिष के संबंध में क्षुद्र और संकुचित दृष्टिकोण अपनाकर केवल अपने अहं की तुष्टि के लिए प्रश्न उठाने पर इसके विराट स्वरूप को समझकर जीवन में इसकी महत्ता को स्वीकार करना संदेह की अपेक्षा अधिक लाभप्रद है।

#जुड़वां_बच्चों_का_ज्योतिष और मेडीकल साइंस के आधार पर उनकी कुंडलियों का अध्ययन ( पार्ट वन):-
  जुड़वां बच्चे दो प्रकार के हो सकते हैं। पहली प्रकार है homozygous मतलब मां के एक ही ovule या एग फर्टिलाइज हुआ बाद में वहीं दो हिस्सों में बंट गया। दूसरा प्रकार है किसी कारण वश मां कि दोनों ओवरी से एक साथ दो एग रिलीज हुए और दोनों फर्टिलाइज हो गए। इस केस में जुड़वां बच्चे हीटरोजीगोस कहलाते हैं। 
   इस लेख में मैं पहला केस बता रहा हूं होमोजीगोस वाला। 
   ऐसे दो बच्चों की जन्म कुण्डली में सिर्फ चंद्र की डिग्री में लगभग 0.01 डिग्री का ही अंतर होता है बाकी सारी ग्रहादशा और जन्म नक्षत्र चरण डिग्री लगभग बराबर होती है। लेकिन अब किन्हीं भी दो व्यक्तियों का भाग्य आयु बिल्कुल बराबर तो हो नहीं सकता। इस केस में साधारण ज्योतिष के सूत्र काम नहीं करते। ऐसी जन्म कुंडली का विशेष अध्ययन करना पड़ता है और बहुत मेहनत लगती है। इसलिए मैं ऐसे केस मैं लगभग आतिरिक्त चार्ज लेता हूं। 
   ऐसे बच्चों कि जन्म कुंडली के अध्ययन के लिए मैं बच्चों कि मां और उनके नाना नानी और दादा, दादी का अध्ययन भी करता हूं।  तब जा कर ऐसे बच्चों का भाग्य बताया जा सकता है। 
    ऐसे बच्चे रंग रूप में लगभग बिल्कुल बराबर होते है लेकिन उनका भाग्य अलग अलग होता है। जुड़वां बच्चों का ज्योतिष समझने के लिए मनु स्मृति का अध्ययन बहुत जरूरी है । मनु स्मृति असल में अनुवाशिंक सिद्धांत को बताता है जबकि राजनैतिक कारणो से आज तक मनु स्मृति का प्रचार प्रसार सिर्फ जाती व्यवस्था के लिए हमारी संस्कृति के दुश्मनों ने किया है। 
     इसको मैं अब मेडिकल साइंस द्वारा बताता हूं। मान लिया नाना का सेक्स क्रोमोसोम है x1,y1 और नानी का सेक्स क्रोमोसोम है x2,x3 मान लिया उनकी बेटी हुई मतलब जुड़वां बच्चों की मां। तो उनकी बेटी के सेक्स क्रोमोसोम होंगे x1,x2 या x1,x3 दोनों कॉम्बिनेशन में कोई एक। अब मान लें जुड़वां बच्चों की मां x1,x2 क्रोमोसोम वाली है। 
       अब ऐसी मां के होमोजीगौस जुड़वां बच्चे होते है। और बच्चों के पिता के सेक्स क्रोमोसोम हैं। X4,y4  जिसमे x4 उसको अपनी मां मतलब जुड़वां बच्चों के दादी से मिला है और y4 उसको अपने बाप मतलब जुड़वां बच्चों के दादा से मिला है। 
       अब अगर ऐसे बच्चे या तो दोनों लड़के होंगे या लड़कियां। अगर दोनों लड़के हुए तो उनके क्रोमोसोम होगे एक के x1,y4 दूसरे के होंगे x2,y4। 
        अगर दोनो लडकीयां हुई तो पहली के क्रोमोसोम होंगे x1,x4 दूसरी लड़की के होंगे x2,x4
        अब अगर homozygous बच्चे अगर लड़के हैं  तो आप ऊपर क्रोमोसोम से देख सकते है कि एक लड़का नाना और दादा का मिक्सचर होगा। दूसरा नानी और दादा का। 
        अगर जुड़वां बच्चों में दोनों लड़किया हुई तो पहली लड़की नाना और दादी और दूसरी लड़की नानी और दादी की मिक्सचर होगी। 
  यह सारे सूत्र हमारी मनु स्मृति में लिखे हुए हैं। बस भाषा फर्क है। 
    इस प्रकार से फिर चन्द्र की डिग्री का 0.01 डिग्री के अंतर मात्र से ऐसे दो जुड़वा बच्चों का भविष्य देखा जा सकता है। 
      दूसरे किसी लेख में मै heterozygous जुड़वां बच्चों के बारे में लिखूंगा। उनमें दोनो बच्चे लड़के या दोनों लड़कियां या एक लड़का एक लड़की हो सकते हैं। लेकिन यह केस जो मैने इस लेख में लिखा है homozygous इसमें दोनों लड़के या दोनों लड़कियां हो सकती है।


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