मानव शरीर क्या एक देवालय (मंदिर) है??

मानव शरीर  क्या एक देवालय (मंदिर) है??
        ईश्वर ने अपनी माया से चौरासी लाख योनियों की रचना की  लेकिन जब उन्हें संतोष न हुआ तो उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की। 

मनुष्य शरीर की रचना करके ईश्वर बहुत  ही प्रसन्न हुए क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह ईश्वर के साथ साक्षात्कार कर सकता है। 
हमारे ज्ञानवान पाठक जानते हैं कि मानव शरीर एक देवालय है। ईश्वर ने पंचभूतों (आकाश ,वायु ,अग्नि भूमि और जल ) से मानव शरीर का निर्माण कर उसमें भूख-प्यास भर दी। 

आकाश की सूक्ष्म शरीर से, भूमि की हड्डियों, flesh से और अग्नि की body heat के साथ तुलना की गयी है। 

देवताओं ने ईश्वर से कहा कि हमारे रहने योग्य कोई स्थान बताएं जिसमें रह कर हम अपने भोज्य-पदार्थ का भक्षण कर सकें। देवताओं के आग्रह पर जल से गौ और अश्व बाहर आए पर देवताओं ने यह कह कर उन्हें ठुकरा दिया कि यह हमारे रहने के योग्य नहीं हैं। 

जब मानव शरीर प्रकट हुआ तब सभी देवता प्रसन्न हो गए। 

तब ईश्वर ने कहा👉 अपने रहने योग्य स्थानों में तुम प्रवेश करो। 

तब सूर्य नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बन कर, वायु छाती और नासिका-छिद्रों में प्राण बन कर, 

अग्नि मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बन कर, 

दिशाएं श्रोत्रेन्द्रिय (सुनना ) बन कर कानों में, 

औषधियां और वनस्पति लोम (रोम) बन कर त्वचा में, 

चन्द्रमा मन होकर हृदय में, मृत्यु (मलद्वार)  होकर नाभि में और जल देवता वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गए। 

तैंतीस देवता अंश रूप में आकर मानव शरीर में निवास करते हैं। 

उपनिषद् का निम्नलिखित  कथानक मानव शरीर के देवालय होने की पुष्टि करता है :👇

हमारा शरीर भगवान का मंदिर है। यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं  और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं।

आइये देखें मानव शरीर में कौन कौन से देवताओं का वास है और उनके कार्य क्या हैं :👇

संसार में जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में “अप्रकट” रूप से स्थित हैं, किन्तु दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां—बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं। इस सभी इन्द्रियों का टोटल किया जाये तो 14 बनता है।

आइए इन देवताओं के बारे में संक्षेप में जानकारी प्राप्त करें ,इतनी संक्षेप में कि साधारण मनुष्य को भी समझ आ जाये। सभी कठिन शब्दों को सरल करने का प्रयास तो किया है लेकिन जिनका सरलीकरण नहीं किया गया है वह केवल इस लिए कि सरलीकरण के बाद और अधिक  कठिनता देखी  गयी थी।    

1. नेत्रेन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय) के देवता👉 भगवान सूर्य नेत्रों में निवास करते हैं और उनके अधिष्ठाता देवता हैं; इसीलिए नेत्रों के द्वारा किसी के रूप का दर्शन सम्भव हो पाता है । नेत्र विकार में चाक्षुषोपनिषद्, सूर्योपनिषद् की साधना और सूर्य की उपासना से लाभ होता है ।

2. घ्राणेन्द्रिय (नासिका) के देवता👉 नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनीकुमार हैं । इनसे गन्ध का ज्ञान होता है ।

3. श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के देवता👉 श्रोत-कान के अधिष्ठाता देवता दिक् देवता (दिशाएं) हैं । इनसे शब्द सुनाई पड़ता है ।

4. जिह्वा के देवता👉 जिह्वा में वरुण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है ।

5. त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के देवता👉 त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं । इससे जीव स्पर्श का अनुभव करता है ।

6. हस्तेन्द्रिय (हाथों) के देवता👉 मनुष्य के अधिकांश कर्म हाथों से ही संपन्न होते हैं । हाथों में इन्द्रदेव का निवास है ।

7. चरणों के देवता👉 चरणों के देवता उपेन्द्र (वामन, श्रीविष्णु) हैं । चरणों में विष्णु का निवास है ।

8. वाणी के देवता👉 जिह्वा में दो इन्द्रियां हैं, एक रसना जिससे स्वाद का ज्ञान होता है और दूसरी वाणी जिससे सब शब्दों का उच्चारण होता है । वाणी में सरस्वती का निवास है और वे ही उसकी अधिष्ठाता देवता हैं ।

9. उपस्थ (मेढ़ू) के देवता👉 इस गुह्येन्द्रिय के देवता प्रजापति हैं । इससे प्रजा की सृष्टि (संतानोत्पत्ति) होती है ।

10. गुदा के देवता👉 इस इन्द्रिय में मित्र, मृत्यु देवता का निवास है । यह मल निस्तारण कर शरीर को शुद्ध करती है ।

11. बुद्धि इन्द्रिय के देवता👉 बुद्धि इन्द्रिय के देवता ब्रह्मा हैं । गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की कामना की गई है इसीलिए यह ‘ब्रह्म-गायत्री’ कहलाती है । जैसे-जैसे बुद्धि निर्मल होती जाती है, वैसे-वैसे सूक्ष्म ज्ञान होने लगता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार भी करा सकता है ।

12. अहंकार के देवता👉 अहं के अधिष्ठाता देवता रुद्र हैं । अहं से ‘मैं’ का बोध होता है।

13. मन के देवता👉 मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा हैं । मन ही मनुष्य में संकल्प-विकल्प को जन्म देता है । मन का निग्रह परमात्मा की प्राप्ति करा देता है और मन के हारने पर मनुष्य निराशा के गर्त में डूब जाता है ।

14. चित्त के देवता👉 प्रकृति-शक्ति, चिच्छत्ति ही चित्त के देवता हैं । चित्त ही चैतन्य या चेतना है । शरीर में जो कुछ भी स्पन्दन (चलन, चेतना) होती है, सब उसी चित्त के द्वारा होती है। 

भगवान ने ब्रह्माण्ड बनाया और समस्त देवता आकर इसमें स्थित हो गए, किन्तु तब भी ब्रह्माण्ड में चेतना नहीं आई और वह विराट् मनुष्य  उठा नहीं। जब चित्त के अधिष्ठाता देवता ने चित्त में प्रवेश किया तो विराट् पुरुष उसी समय उठ कर खड़ा हो गया। इस प्रकार भगवान संसार में सभी क्रियाओं का संचालन करने वाले देवताओं के साथ इस शरीर में विराजमान हैं।

अब मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भगवान द्वारा बनाए गए इस देवालय को कैसे साफ-सुथरा रखे ? इसके लिए निम्न कार्य किए जाने चाहिए:👇

1. नकारात्मक विचारों और मनोविकारों-काम,क्रोध,लोभ,मोह,ईर्ष्या,अहंकार से दूर रहे ।

2. योग साधना, व्यायाम व सूर्य नमस्कार करके अधिक-से-अधिक पसीना बहाकर शरीर की आंतरिक गंदगी दूर करें ।

3. अनुलोम-विलोम व सूक्ष्म क्रियाएं करके ज्यादा-से ज्यादा शुद्ध हवा का सेवन करे ।

4. शुद्ध सात्विक भोजन सही समय पर व सही मात्रा में करके पेट को साफ रखें ।

नीचे दिए गए विवरण को पढ़ते समय आप सोच रहे होंगें कि ऊपर दी गयी जानकारी रिपीट हो रही है। हाँ कुछ तथ्य रिपीट अवश्य हो रहे हैं लेकिन इनका अध्ययन करना लाभदायक ही होगा। 

हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर एक देवालय है। इस देवालय के आठ चक्र और नौ द्वार हैं। अर्थववेद में कहा गया है-

“अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या,तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः”

जिसका अर्थ है कि आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है अर्थात आठ चक्रों और नौ द्वारों से युक्त यह देवों की अयोध्या नामक नगरी है। 

विज्ञान के अनुसार मनुष्य का जन्म माता-पिता के संयोग से संभव हो पाता है। 

लेकिन क्या केवल संयोग से ही मनुष्य की रचना हो जाती हैं, बिलकुल नहीं ! इसके लिए देवी-देवताओं का सहयोग भी होता है। 33 कोटी के देवी-देवता जैसे कि सूर्य, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, चन्द्र आदि हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।

हमारी माता के गर्भ में ये देव अपने एक-एक अंश से बच्चा पैदा करने और उसका पालन पोषण करने में सहयोग करते हैं। 

ज़रा कल्पना करें कि अगर वायुदेव माँ के गर्भ में न पहुंच पाए तो क्या गर्भ में जीवन संभव हो सकता है। यही बात जल की है,यही बात अग्नि आदि देवों के बारे में भी लागू होती है। इन सभी देवों को एक-एक करके समझने के लिए तो विज्ञान और अध्यात्म की बैकग्राउंड होनी चाहिए ,अग्निदेव का अर्थ यह कदापि न लिया जाए कि माँ के गर्भ में कोई स्टोव या भट्टी स्थापित है और वह बच्चे के लिए खाना पका रही है। बेसिक साइंस का ज्ञान बताता है कि भोजन का पचना (digestion),उससे रक्त का बनना, एनर्जी का पैदा होना एक प्रकार का combustion/ burning/ignition process है। 

अथर्ववेद के 5वें कांड में लिखा है: 
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सूर्य मेरी आँखें हैं, वायु मेरे प्राण हैं,अन्तरिक्ष मेरी आत्मा है और पृथ्वी मेरा शरीर है। इस तरह दिव्यलोक का सूर्य, अंतरिक्ष लोक की वायु और पृथ्वी लोक के पदार्थ क्रमशः मेरी आँखें और प्राण स्थूल शरीर में आकर रह रहे है और हाथ जो तीनों लोकों के सूक्ष्म अंश हैं, हमारे शरीर में अवतरित हुए हैं। इसीलिए ज्ञानी मनुष्य मानव शरीर को ब्रह्म मानता है क्योंकि सभी देवता इसमें वैसे ही रहते हैं जैसे गोशाला में गायें रहती हैं। माँ के गर्भ में 33 देवता अपने-अपने सूक्ष्म अंशों से रहते हैं परन्तु यह गर्भ तभी स्थिर (ठोस) होने लगता है जब परमात्मा अपने अंश से गर्भ में जीवात्मा को अवतरित करते हैं उस समय सभी देवता गर्भ में उस परमात्मा की स्तुति करते हैं और उसकी रक्षा व् वृद्धि करते है सभी देवता प्रार्थना करते हैं कि- हे जीव ! आप अपने साथ अन्य जीवों का भी कल्याण करना,परन्तु जन्म के समय के कठिन कष्ट के कारण मनुष्य इन बातों को भूल जाता है।

वेद का मंत्र हमें यह स्मरण दिलाता है मैं अमर अथवा अदम्य शक्ति से युक्त हूँ। हमारा शरीर ऐसा दिव्य और मनोहारी मनुष्य शरीर होता है। तभी तो उपनिषदों में ऋषियों का अमर संदेश गूंजता है: अहं ब्रह्मास्मि तत्वमसि, इसी तरह सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। अतः देवता यह घोषणा करते हैं कि सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का ही अंश है इसलिए हम सभी को इसी भगवानमय दृष्टि से एक दूसरे को देखना चाहिए। इस वाक्य को पढ़कर आज के मानव पर घृणा तो आती है कि हमारे वेद, पुराण, उपनिषद ,देवता क्या शिक्षा देते हैं, कैसे इतने परिश्रम से सृष्टि की स्थापना करते हैं,लेकिन मानव महामानव और देवमानव बनने के बजाय दैत्यमानव बनने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शायद उस मानव को यह नहीं मालूम की सृष्टि के नियम, विधाता की अदालत में एक-एक प्राणी के एक-एक कर्म का लेखा लिखा जा रहा है। कर्म अपने कर्ता को ढूंढ ही निकालता है, सज़ा या इनाम मिल कर ही रहते हैं। कर्म की थ्योरी इतनी मजबूत है कि इससे तो देवता क्या भगवान तक भी बच नहीं पाए।
।।हर हर महादेव।।
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🌹पंचभूतानि संयम्य ध्यात्वा गुणविधि क्रमात्।
मात्राः पञ्च चतस्रश्च त्रिमात्रा द्विसतत: परम्।।
एकमात्रममात्रं हि द्वदशान्तं व्यवस्थितम्।
स्थित्यां स्थाप्यामृतो भूत्वा व्रतं पाशुपतं चरेत्।।
(पद्मपुराणान्तर्गते शिवगीतयां 3/22/,23)

पाँचों भूतों में संयम करने पर पाँचों भूतों उत्पन्न उनके गुण जैसे- पृथ्वी में गन्ध, आकाश में शब्द, याग्निक तेजमें रूप, जल में रस रूप स्वाद,वायु में स्पर्श का ध्यान करते हुए उनके आश्रय स्थान जैसे जल में ही शब्द स्पर्श रस रूपादि आर्द्रता के आश्रय में रहते हैं;

शुष्कता में इनके लक्षण नही पाये जाते।
तेज में तीन गुण- शब्द स्पर्श और रूप पाये जाते हैं।
वायु में-शब्द और स्पर्श तथा आकाश में शब्द है।
इस हेतु वैशेषिक दर्शन के 2/1/1से 5 तक में द्रष्टव्य है।

"रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी।
"रूपरस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धा:।
"तेजो रूपस्पर्शवत् ।
"स्पर्शवान् वायुः ।
"त आकाशे न विद्यते ।

इस प्रकार पाँच भूतों में गुणों की मात्रा-चार,तीन,दो और एक की अभिव्यक्ति होती है।इन सबका कारण है एकमात्र
अहङ्कार जिनसे यह सभी उत्पन्न हैं।इसकी पुष्टि श्रीमद्भागवत 3/26/23,1/2~

महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणा भगवद्वीर्य सम्भवात् ।
क्रियाशक्तिरहंकारस्त्रिविधः सम्पद्यत्।।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भव ।।

कृपया अर्थ और विस्तार भागवत में देखें।
उत्पन्न क्रम श्रुतियों में इस प्रकार है~

"तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः।आकाशादवायुः।
वायोरग्नि:। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।पृथिव्या ओषधयः।
ओषधीभ्योsन्नम्।अन्नात्पुरुषः।
(तैत्तरीय.2/1)

आत्मा से आकाश,आकाश से वायु,वायु से अग्नि,अग्नि से जल,जल से पृथिवी,पृथिवी से ओषधी,ओषधी से अन्न और अन्न से पुरुष,पुरुष से बीज और बीजसे देहरूप जगत की उत्पत्ति हुई है।इन सबका उत्पन्नकर्त्ता एकमात्र अहङ्कार है।

जिस क्रम से इस जगत के तत्त्वों की उत्पत्ति होती है उसी के उलटे क्रम से लय की क्रिया भी होती है।

पृथ्वी को जलमे,जल को अग्नि में,अग्नि को वायु में,वायु को आकाश में लय करे।पाँचों भूतों को अहङ्कार में ,अहङ्कार को महत्तत्त्व(प्रधान प्रकृति)में, महत्तत्त्व को माया में और माया को एकमात्र आधारभूत परमात्मा में लय करे।मृत्यु के पश्चात् इनका लय स्वतः ही अपने कारण में होता है जो भोग के निमित्त पुनः ये अव्यक्त से व्यक्त हो जाते हैं(गी2/28,6/18)।

जब स्थूल देह में रहते हुए ही योग विधि से लय कर देने पर "दिव्यदेह"की प्राप्ति हो जाती है।उस दिव्यदेह को परम् आत्म में लय होने से आत्मामय अर्थात् आत्म मय होकर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

मृत्यु की अवस्था में लयावस्था स्वतः तो हो जाती है परन्तु
दिव्यदेह के स्थान पर कर्मसंस्कारो के प्रारब्ध मिल जाते हैं
जिनके द्वारा कर्मसंस्कारों के प्रारब्ध को भोगने के लिए पुनः देह की प्राप्ति हो जाती है।इस प्रकार से घट चक्र की भाँति जन्म मृत्यु का संसार चक्र बार बार जन्म और बार बार् मृत्यु के कष्टों को परवश में भोगने को बाध्य होना पड़ता है।

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