सीता रावण की पुत्री
🌹'जब मै अज्ञान से अपनी कन्या के ही स्वीकार की इच्छा करूं तब मेरी मृत्यु हो."🌹
-#अद्भुत_रामायण 8-12 .
रावण की इस स्वीकारोक्ति के अनुसार सीता रावण की पुत्री सिद्ध होती है।अद्धुतरामायण मे ही सीता के आविर्भाव की कथा इस कथन की पुष्टि करती है -
दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण ,लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था (देवों और असुरों की प्रतिद्वंद्विता शत्रुता में परिणत हो चुकी थी। वे एक दूसरे से आशंकित और भयभीत रहते थे । उत्तरी भारत मे देव-संस्कृति की प्रधानता थी। ऋषि-मुनि असुरों के विनाश हेतु राजाओं को प्रेरित करते थे और य़ज्ञ आदि आयोजनो मे एकत्र होकर अपनी संस्कृति के विरोधियों को शक्तिहीन करने के उपाय खोजते थे।ऋषियों के आयोजनो की भनक उनके प्रतिद्वंद्वियों के कानों मे पडती रहती थी,परिणामस्वरूप पारस्परिक विद्वेष और बढ जाता था)।एक दिन उसकी अनुपस्थिति मे रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें घायल कर उनका रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया।कलश को उसने मंदोदरी के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है,सावधानी से रखे।
कुछ समय पश्चात् रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया।रावण की उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ पी लिया।लक्ष्मी के आधारभूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव पडा।मन्दोदरी मे गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे ।अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने,कुरुश्क्षेत्र जाकर उस भ्रूण को धरती मे गाड दिया और सरस्वती नदी मे स्नान कर चली आई।
हिन्दी के प्रथम थिसारस(अरविन्द कुमार और कुसुम कुमार द्वारा रचित) मे भी सीता को रावण की पुत्री के रूप मे मान्यता मिली है ।
अद्भुतरामायण मे सीता को सर्वोपरि शक्ति बताया गया है,जिसके बिना राम कुछ करने मे असमर्थ हेंदो अन्य प्रसंग भी इसी की पुष्टि करते हैं --
(1) रावण-वध के बाद जब चारों दिशाओं से ऋषिगण राम का अभिनन्दन करने आये तो उनकी प्रशंसा करते हुये कहाकि सीतादेवी ने महान् दुख प्राप्त किया है यही स्मरण कर हमारा चित्त उद्वेलित है।सीता हँस पडीं,बोलीं,"हे मुनियों,आपने रावण-वध के प्रति जो कहा वह प्रशंसा परिहास कहलाती है।------ किन्तु उसका वध कुछ प्रशंसा के योग्य नही।"इसके पश्चात् सीता ने सहस्रमुख-रावण का वृत्तान्त सुनाया।अपने शौर्य को प्रमाणित करने के लिये,राम अपने सहयोगियों और सीता सहित पुष्पक मे बैठकर उसे जीतने चले।
सहस्रमुख ने वायव्य-बाण से राम-सीता के अतिरिक्त अन्य सब को उन्हीं के स्थान पर पहुँचा दिया।राम के साथ उसका भीषण युद्ध हुआ और राम घायल होकर अचेत हो गये.।तब सीता ने विकटरूप धर कर अट्टहास करते हुये निमिष मात्र मे उसके सहस्र सिर काट कर उसका अंत कर दिया। सीता अत्यन्त कुपित थीं ,हा-हाकार मच गया।ब्रह्मा ने राम का स्पर्श कर उन्हें स्मृति कराई। वे उठ बैठे। युद्ध-क्षेत्र मे नर्तित प्रयंकरी महाकाली को देख वे कंपित हो उठे।ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि राम सीता के बिना कुछ भी करने मे असमर्थ हैं।(वास्तव में ही सीता-परत्याग के पश्चात् राम का तेज कुण्ठित हो जाता है ।भक्तजन भी के बाद के जीवन की चर्चा नहीं करते । वास्तविक सीता के स्थान पर स्वर्ण-मूर्ति रख ली जाती है
वाल्मीकि रामायम के उत्तर काण्ड ,एकादश सर्ग मे उल्लेख है कि पहले समुद्रों सहित सारी पृथ्वी दैत्यों के अधिकार मे थी।विष्णु ने युद्ध मे दैत्यों को मार कर इस पर आधिपत्य स्थापित कियाथा।ब्रह्मा की तीसरी पीढी मे उत्पन्न विश्रवा का पुत्र दशग्रीव बडा पराक्रमी और परम तपस्वी था।विष्णु के भय से पीडित अपना लंका-निवास छोड कर रसातल को भागे राक्षस कुल का रावण ने उद्धार किया और लंका को पुनः प्राप्त किया।सुन्दर काण्ड के दशम् सर्ग मे उल्लेख है कि हनुमान ने राक्षस राज रावण को तपते हुये सूर्य के समान तेज और बल से संपन्न देखा ।रावण स्वरूपवान था ।हनुमान विचार करते हैं ,'अहा इस राक्षस राज का स्वरूप कैसा अद्भु है!कैसा अनोखा धैर्य है ,कैसी अनुपम शक्ति है और कैसा आश्चर्यजनक तेज है !यह संपूर्ण राजोचित लक्षणों से युक्त है ।
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सुन्दर स्त्रियों से घिरा रावण कान्तिवान नक्षत्रपति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था
।राजर्षियों,ब्रह्मर्षियों,दैत्यों ,गंधर्वों और राक्षसों की कन्यायें स्वेच्छा से उसके वशीभूत हो उसकी पत्नियाँ बनी थीं ।वहाँ कोई ऐसी स्त्री नहीं थी ,जिसे बल पराक्रम से संपन्न होने पर भी रावण उसकी इच्छा के विरुद्ध हर लाया हो ।वे सब उसे अपने अलौकिक गुणों से ही उपलब्ध हुई थीं ।उसकी अंग-कान्ति मेघ के समान श्याम थी।शयनागार मे सोते हुये रावण के एक मुख और दो बाहुओं का ही उल्लेख है ।श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न रावण परम तपस्वी ,ज्ञान-विज्ञान मे निष्णात कलाओं का मर्मज्ञ और श्रेष्ठ संगीतकार था उसके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण ही ,उसकी मृत्यु के समय राम ने लक्ष्मण को उसके समीप शिक्षा लेने भेजा था। ,यह उल्लेख भी बहुत कम रचनाकारों ने किया है ।।उसके द्वारा रचित स्तोत्रो में उसके भक्ति और निष्ठा पूर्ण हृदय की झलक मिलती है ।चिकित्सा-क्षेत्र मे भी उसकी विलक्षण गति थी ।
रामायण के अनुसार रावण ने कभी सीता को पाने का प्रयत्न नहीं किया मानस में धनुष-यज्ञ में वह उपस्थित था पर उसने धनुष को हाथ नहीं लगाया ।दोनों ही महाकाव्यों में वह सीता के समीप अकेले नहीं अपनी रानियों के साथ जाता है ।यह उल्लेख भी है कि रावण ने सीता को इस प्रकार रखा जैसे पुत्र अपनी माता को रखता है ।इस उल्लेख से रावण की भावना ध्वनित है । वाल्मीकि रामायण के 'सुन्दरकाण्ड' में वर्णित है कि रात्रि के पिछले प्रहर में छहों अंगों सहित वेदों के विद्वानऔर श्रेष्ठ यज्ञों को करनेवालों के कंठों की वेदपाठ-ध्वनि गूँजने लगती थी ।इससे लंका के वातावरण का आभास मिलता है ।
मन्दोदरी का मनोहर रूप और कान्ति देख ,हनुमान उन्हें भ्रमवश सीता समझ बैठे थे ।सीता और मन्दोदरी की इस समानता के पीछे महाकवि का कोई गूढ़ संकेतार्थ निहित है ।हनुमान ने राम से कहा था ,'सीता जो स्वयं रावण को नहीं मार डालती हैं इससे जान पडता है कि दशमुख रावण महात्मा है ,तपोबल से संपन्न होने के कारण शाप के अयोग्य है ।' वाल्मीकि ने रावण को रूप-तेज से संपन्न बताते हुये उसके तेज से तिरस्कृत होकर हनुमान को पत्तों में छिपते हुये बताया है ।
'रक्ष' नामकरण के पीछे भी एक कथा है -समुद्रगत जल की सृष्टि करने के उपरांत ब्रह्मा ने सृष्टि के जीवों से उसका रक्षण करने को कहा ।कुछ जीवों ने कहा हम इसका रक्षण करेंगे ,वे रक्ष कहलाये और कुछ ने कहा हम इसका यक्षण(पूजन) करेंगे ,वे यक्ष कहलाये(वाल्मीकि रामायण ,उत्तर काण्ड ,सर्ग 4)।कालान्तर में रक्ष शब्द का अर्थह्रास होता गया और अकरणीय कृत्य उसके साथ जुड़ते गये ।अत्युक्ति और अतिरंजनापूर्ण वर्णनों ने उसे ऐसा रूप दे दिया क लोक मान्यता में वह दुष्टता और भयावहता का प्रतीक बन बैठा ।
मय दानव की हेमा अप्सरा से उत्पन्न पुत्री मन्दोदरी से रावण ने विवाह किया था ।मन्दोदरी की बड़ी बहिन का नाम माया था ।अमेरिका की 'मायन कल्चर 'का मय दानव और उसकी पुत्री माया से संबद्धता,तथा रक्षसंस्कृति और 'मय संस्कृति' के अदुभुत साम्य को देख कर दोनों की अभिन्नता बहुत संभव लगती है ।वहाँ की आश्चर्यजनक नगर-योजना.और विलक्षण भवन निर्माण कला इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
'मायन कल्चर' की नगर व्यवस्था ,प्रतीक-चिह्न ,वेश-भूषा आदि लंका के वर्णन से बहुत मेल खाते है ।मय दानव ने ही लंका पुरी का निर्माण किया था ।उनकी जीवन- पद्धति और मान्यताओं मे भी काफी-कुछ समानतायें है।रक्ष ही नहीं उसका स्वरूप भारतीय संस्कृति से भी साम्य रखता है । मीलों ऊँचे कगारों के बीच बहती कलऋता (कोलरेडो) नदी और ग्रैण्ड केनियन की दृष्यावली इस धरती की वास्तविकतायें हैं ।संभव है यही वह पाताल पुरी हो जहाँ दानवों को निवास प्राप्त हुआ था ।
तमिल भाषा की कंब रामायण मे उल्लेख हुआ है कि मन्दोदरी रावण की मृत्यु से पूर्व ही उसकी छाती पर रोती हुई मर गई,वह विधवा और राम की कृपाकाँक्षिणी नहीं हुई।वहाँ यह भी उल्लेख है कि रावण ने सीता को पर्णकुटी सहित पञ्चवटी से उठा लिया,उसका स्पर्श नहीं किया।रामेश्वर मे शिव स्थापना के समय विपन्न और पत्नी-वंचित राम का अनुष्ठान पूर्ण करवाने,रावण सीता को लाकर स्वयं उनका पुरोहित बना था। कार्य पूर्ण होने पर वह सीता को वापस ले गया। ये सारे प्रसंग सुविदित हैं।
प्राकृत के राम-काव्य 'पउम चरिय ' और संस्कृत के 'पद्मचरितम्' मे शूर्पनखा का नाम चंद्रनखा है।इन काव्यों मे भी लोकापवाद के भय से राम सीता को त्याग देते हैं।सीता के पुत्रों को युवा होने के पश्चात् परित्याग की घटना सुन कर क्रोध आता है,वे राम पर आक्रमण करते हैं।राम ने अपने जीवन काल मे ही चारों भाइयों के आठों पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्यों का स्वामी बना दिया था।लक्ष्मण ने आज्ञा-भंग का अपराध स्वयं स्वीकार कर जल-समाधि ले ली थी।सीता का जो रूप बाद मे अंकित किया गया,वह इन प्रसंगों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। किसी भी रचनाकार ने उन्हे रावण की पुत्री स्वीकार नहीं किया।कारण शायद यह हो कि इससे राम के चरित्र को आघात पहुँचता।नायक की चरित्र-रक्षा के लिये घटनाओं मे फेर-बदल करने से ले कर शापों ,विस्मरणों ,तथा अन्य असंभाव्य कल्पनाओं का क्रम चल निकला।उसका इतना महिमा-मंडन कि वह अलौकिक लगने लगे और और प्रति नायक का घोर निकृष्ट अंकन।अतिरंजना ,चमत्कारोंऔर अति आदर्शों के समावेश ने मानव को देवता बना डाला और भक्ति के आवेश ने कुछ सोचने-विचारने की आवश्यता समाप्त कर दी कि जो है सो बहुत अच्छा।
वेदों ने 'चरैवेति चरैवेति' 'कह कर मानव
बुद्धि के सदा सक्रिय रहने की बात कही हैं पर यहाँ जो मान लिया उसे ही अंतिम सत्य कह कर आगे विचार करने से ही इंकार कर दिया जाता है । कान बंद कर वहाँ से चले आओ ,आलोचना (निन्दा?) सुनने से ही पाप लगेगा ) आगे विचार करना तो दूर की बात है।भारतीय चिन्ता-धारा अपने खुलेपन के लिये जानी जाती है इसीलिये वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त न रह कर जो विवेक सम्मत है उसे आत्मसात् करती चलती है ।फिर यह दुराग्रह क्यों ?लोक में यही सन्देश जाता है कि राम ने रावण द्वारा अपहृत सीता को त्याग दिया ।पत्नी की दैहिक शुद्धता की बात उठने पर यही उदाहरण सामने रखा जाता है ,जब राम जैसे सामर्थ्यवान तक संदेह के कारण पत्नी का परित्याग कर देते हैं तो हम साधारणजनों की क्या बिसात ।
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