विष्णु के अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं है

🌹•विष्णु के अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं है अष्टाविंशद्वय= २८ नक्षत्रों से युक्त नीलवर्ण आकाश का विष्णु  तामसरूप है। यह देखा जाता दिखायी पड़ता तथा इससे इसके आलोक में पार्थिव वस्तुएँ देखी जाती हैं। इससे यह पशु है। वृक्ष, लता, गुल्म, वीरुध, तृण तथा गिरि-यह ६ भेदों वाला मुख्य (उद्भिद) रूप भी विष्णु का है। खन् + अच् + यत्= मुख्य भूमि को खन कर/ चीर कर निकला हुआ प्राणी/वनस्पति समुदाय मुख्य वा उद्भिद है। विष्णु के इन नाना रूपों को नमस्कार कर मैं श्री महाराज जी के सम्मुख भक्तिभाव से नत होता हूँ।

√• एक सदाशिव है तो एक शिव है। एक महाविष्णु है तो एक विष्णु है। एक ब्रह्म है तो एक ब्रह्मा है। सदाशिव, महाविष्णु एवं ब्रह्म का वर्णन करना किसी के लिये भी शक्य नहीं है। जो पुरुष स्त्री के साथ ऊंचे स्थान एकान्त में अपरिग्रह वृत्ति से रहता हुआ पत्नी को ज्ञान कथा सुनाता, समाधि लगाता ऐसा पुरुष शिव है। उसे प्रणाम । जो पुरुष द्वीप द्वीपान्तर में सबसे दूर समुद्र से घिरे व दुर्गम स्थान में पत्नी सहित रहते हुए योगनिद्रा में लीन रहता तथा समस्त जगत् के कल्याण का उपक्रम करता, वह विष्णु है। उसे मेरा सादर प्रणाम । जो पुरुषों चारों वेदों को जानता, भूमि पर कमल की पंखुड़ियों के आसन पर बैठ कर धर्म पर प्रवचन करता और स्त्री वियुक्त होता, वह ब्रह्मा है। उसे मेरा महाप्रणाम ! इस सृष्टि में ऐसे अनेक पुरुष सतत विद्यमान रहते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी पुत्रहीना/ बाँझ है। विष्णु के पास ऐश्वर्य एवं टाठवाट खूब है। शिव को भार्या पार्वती सपुरा है। शिव के पास कुछ है ही नहीं, सर्वाभाव है निष्कर्ष यह कि संतानहीन धनी होते हैं तथा पुत्रवान् लोग दरिद्र / धनहीन होते हैं। ब्रह्मा की स्त्री ब्रह्माणी उनके साथ ही नहीं रहती। उसे ब्रा की विद्वत्ता से चिढ़ है। तात्पर्य यह कि विद्वान पुरुषों की पलियों पति से असन्तुष्ट रहती हैं। यह सब लोक सत्य है। अतएव असाधारण बनना होना ठीक नहीं सामान्य स्तर का जीवन जीने वाले साधारण लोग वे हैं जिनके पास थोड़ा धन थोड़े पुत्र पुत्री, थोड़े मित्र बान्धव, थोड़ा ज्ञान बुद्धि है तथा जिनकी पत्नी थोड़ी पढ़ी लिखी एवं थोड़ी सुन्दर है। ऐसे सामान्य श्रेणी के लोगों को मेरा प्रणाम ।

√• जो सब के भीतर भाव बन कर व्याप रहा है तथा जिसमें सब लोग समाहित हैं, वह विष्णु है। फिर भी यह नित्य शान्त है, इसलिये यह शिव है। यह हर क्षेत्र में बढ़ा चढ़ा एवं बड़प्पन से युक्त है, इसलिये ब्रह्मा है। त्रिदेव को मेरा प्रणाम । 

√•जो मुझमें है, वह माया है। मयि या सा माया मुझमे विष्णु है, अतः विष्णु ही माया है। माया शून्य है। यह नवरूपों में अभिव्यक्त होती है। ये रूप अंक हैं। जो इन रूपों / अंकों को जानता है, वह अंकविद् सांख्यशास्त्री है। संख्या रूप विष्णु को मेरा प्रणाम !

√•शून्य से एक दो तीन चार पाँच छः सात आठ नौ का जन्म होता है। शून्य पिता है। इसके नौ पुत्र हैं। इन नौ पुत्रों से अनेक पौत्र पैदा हुए हैं। संख्यात्मक विश्व का इतना ही इतिहास है। अब मैं पिता पुत्र के नामार्थों का चिन्तन करता हूँ।

 √••१. शून्य का अर्थ- शुन् (गतौ तुदा. पर शुनति) + क्विप् + यत्= शून्य (उकारस्य उकारः)। 

√•चलने योग्य स्थान, जहाँ निर्बाध रूप से चला जा सके, वह शून्य है। निर्बाध गति वहीं होती है जहाँ अवरोध न हो। अवरोध का अभाव रिक्त स्थान में ही होता है। खाली जगह, जहाँ कुछ भी न हो, हवा तक न हो, वह शून्य है। अकाश में कुछ नहीं है, हवा भी नहीं है। हवा तो अन्तरिक्ष में है। आकाश निर्बाध गति का स्थान है। अवकाश होने से यह आकाश है तथा रिक्त होने से इसे शून्य कहते हैं।

 √••२. एक का अर्थ - शून्य का ज्येष्ठ पुत्र एक है। इण् (गतौ अदा पर एति) + कन् = एक, जो बिना रुके हुएचलता है, शाश्वत गतिधारी ।

 √•प्रकाश का एक लाल गोला क्षितिज में एक नियत स्थान से प्रकट होता है, धीरे-धीरे चलता, ऊपर उठता, आगे बढ़ता, दूसरे विपरीत क्षितिज की ओर बढ़ता और अन्ततः एक नियत स्थान पर क्षितिज में लुप्त हो जाता। सदैव ऐसा होता रहता है। इस चलते रहने पाले गोले का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। इसके समान और दूसरा कोई नहीं है। यह सूर्य ही एक है। यह आकाश में अकेले इस तरह प्रकाश विखेरता हुआ विचरता है। आकाश से इसका जन्म होता है और किरण देता है। इसलिये यह आकाश के समान कोणरहित वर्तुल गोल है।

√•वेद कहता है...
"एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध 
एक: सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः ।
 एकैवोषा: सर्वमिदं वि भाति
 एक वा इदं वि बभूव सर्वम् ॥"
      ( ऋग्वेद ८/५८/२)

 √•अग्नि एक ही है। वह बहुत रूपों में प्रज्जवलित होता है। सूर्य एक है। वह अनेक रूपों में हर स्थान से देखा जाता है। ऊषा एक ही है। वह इन सब रूपों को प्रकाशित करती है। यह सब एक ही हुआ ! एकाय नमः ।

 √•३. द्वौ (दो) का अर्थ- (दारणे द्वरति) + क्विप् = द्वि [रलोपः] ।

 √•सूर्य पूर्व के क्षितिज से उदित होकर चलता हुआ, आकाश को फाड़ता हुआ, वाम (उत्तर) और दक्षिण भाग में आकाश को अलग करता हुआ पश्चिम के क्षितिज में अस्त होता है। उसका यह कार्य द्वि = दारण है। इस दारण कर्म के फलक-उत्तरायन एवं दक्षिणायन हैं। विराट् पुरुष अपने स्वरूप का दारण संकल्प से करता है। वाम भाग स्त्री तथा दक्षिण भाग पुरुष कहलाता है।

 आकाश = विराट् पुरुष।
 उत्तर अयन= स्त्री भाग। 
दक्षिण अयन = पुरुष भाग।
 द्वि + औ = द्वौ = दो की संख्या।
 यह शून्य का पुत्र है जो 'एक' के पश्चात् उत्पन्न हुआ है [ द्वौ पुंलिंग, द्वे स्त्री एवं नपुंस् लिंग] ।

√•वेद कहता है...

 "द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः । 
अथैकं चक्रं यद् गुहा तदद्धातय इद् विदुः॥"
 (ऋग्वेद १०/८५/१६, अथर्व. १४ । १।१६ )

 √• उन दो चक्रों को ब्रह्मवेत्ता लोग सूर्य की अयन गति के रूप में जानते हैं। उस एक चक्र सूर्य को जो कि गोपनीय है, उसे सत्यानुगामी विद्वान् ही जानते हैं। द्वाभ्यामयनाभ्यां नमः । 

√•४. त्रि (तीन) का अर्थ-तृ (तृ) (पारगतौ तरति) + क्विप्= त्रि (तृ)।
 इसका अर्थ है- आरपार की गति । सूर्य पूर्व से निकल कर पश्चिम की ओर अस्त होने के लिये कभी धीरे-धीरे चलता है, कभी तीव्रगति से चलता है तो कभी मध्यमगति (न तीव्र, न मन्द) से चलता है। मन्द गति से आकाश को पार करते समय दिन बड़ा होता है, फलतः रात छोटी होती है। तीव्र गति से व्योम का मापन करने से दिन छोटा होता और रात बड़ी होती है। सम गति से चलने पर दिन रात समान होते हैं। चैत्र एवं आश्विन मासों वा वसन्त एवं शरद ऋतुओं में समगति, ग्रीष्म में मन्द गति तथा शीत ऋतुओं में शीघ्र गति होती है। इस प्रकार सूर्य के शीघ्र, मन्द, सम- ये तीन पाद हैं। शून्य से तीन की उत्पत्ति इस प्रकार है।

 √•वेद कहता है ...

" त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।
 अतो धर्माणि धारयन् ॥"
        (ऋगवेद १।२२।१८)

√•विष्णु (सूर्य) अपने तीन पादों (गतियों)- शीघ्र मन्द एवं सम से आकाश को पार करता है। धर्मो (नियमों) में आबद्ध यह विश्व रक्षक सूर्य इस प्रकार निर्भय होकर चलता रहता है। [ अत् सातत्य गमने अतति इति अतः = शाश्वत गति] । त्रिभ्यः नमः ।

 √•५. चतुर् (चार) का अर्थ- चत् (चतति-ते याचने) + उरच् =चतुर ।
 चतुर का अर्थ है- याचक, भिखारी। जो कार्य कुछ न करे और उपभोग्य धन/वस्तु दूसरे से ऐंठ ले। ऐसा करके वह स्वयं वस्तुवान् बन जाय वह चतुर है। याचक आगे से माँगता है, पीछे से माँगता है, बायें से माँगता है, दायें से माँगता है। सूर्य की उपस्थिति में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण की दिशाएँ नीचे से लेकर ऊपर तक अर्थात् पूर्णतः सूर्य से प्रकाश लेती और स्वयं प्रकाशवती हो जाती है। बिना धन के दूसरे का धन लेकर ये धनी बनती हैं। इसलिये चतुर हैं । अर्थात् दिशाएँ चार (संख्या में) मुख्यतः हैं। चार की उत्पत्ति शून्य से होती है।
 चतुर् + जस् = चतस्त्रः (स्त्रीलिंग), चत्वारः (पुंलिंग) चत्वारि (नपुंसकलिंग)।

 √•वेद मन्त्र है ...
 "तव  चतस्र: प्रदिशस्तव द्यौस्तव पृथिवी तवेदमुग्रोर्वन्तरिक्षम् ।
तवेदं  सर्वमात्मन्वद् यत् प्राणत् पृथिवीमनु॥” 
        (अथर्ववेद ११/२/१०)

√•हे उग्र (सूर्य) ! चारों फैली हुए दिशाएँ तेरी हैं, द्युलोक तेरा है, पृथिवी तेरी है, यह विस्तृत अन्तरिक्ष तेरा है, यह सब जगत् तेरी सत्ता के कारण सात्मक हो रहा है और जो पृथिवी पर के प्राणी जीवन जी रहे हैं, वह भी तेरा है । चतुर्भ्यः नमः ।

√•६. पञ्च (पाँच) का अर्थ- पचि (पञ्च) (विस्तारे पञ्चयति-ते) + कनिन्= पञ्चन् । 

√•जिसका प्रकाश फैला हुआ है, हमारे सामने, पीछे, दायें, बायें एवं ऊपर सिर पर किन्तु नीचे नहीं। पैर तले अंधेरा तो होता ही है। पैर शूद्र है । शूद्र के नीचे प्रकाश नहीं होता। प्रकाश (ज्ञान) पर शूद्र का अधिकार नहीं है। अग्र, पश्च, वाम, दक्षिण, ऊर्ध्व- इन दिशाओं में प्रकाश होने से सूर्य को पञ्च (मुख) कहते हैं। संख्या पाँच को सूर्य का घर मान लिया गया। सूर्य हिंसन कर्म करता है, अतः पाँच सिंह मान्य है। पञ्चन् + सु = पञ्च=पाँच की संख्या। यह शून्य से इस प्रकार उत्पन्न होती है।

√•यह मन्त्र है...

"पञ्च दिशो दैवीर्यज्ञमवन्तु देवीरपामति दुर्मति बाधमानाः ।
 यज्ञपतिमाभजन्ती अस्थात् ॥
 रायस्पोषे रायस्पोषे अधियज्ञो।।"
           ( यजुर्वेद १७/५४)

 √•अमति एवं दुर्मति का नाश करती हुई, यज्ञपति (सूर्य) को स्वीकार करती हुई (का सम्मान करती हुई), दिव्य पाँच दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण एवं ऊर्ध्व, धन की पुष्टि करें तथा आत्मिक धन (अन्तःकरण) की पुष्टि करें। पञ्चभ्यः नमः ।

 √•७. षट् (छः) का अर्थ-सो (हिंसायम् स्याति) + क्विप्= पष् ।

√• जो मारक प्रभावापन्न, क्षतिकारक, पीडादायक तथा अमित्र है, वही षट् (षष् + सु) है। रोग और शत्रु पीड़ा देते हैं, दैहिक एवं मानसिक आघात पहुँचाते हैं और निर्बल होने पर मार डालते हैं। कुण्डली में जो भाव शत्रु वा रोग के लिये है, उसे ही पट की संज्ञा दी गयी । षट् = ६ छः की संख्या। यह संख्या ल होगा, वहाँ अवरोध विरोध वैमनस्य अशांति ताप दुःख होगा ही । ६ मुख वाला देवता कार्तिकेय पडानन मारक बन बैठा है। सूर्य स्वयं अग्नि होने से हिंसक है।

 √•षडैश्वर्य युक्त देवता दुःख देता, दुख लेता (हरता) है। इसलिये यह षण्मय शून्य से होती है। षट् = अशुभ । 

√•इन्दो ! न तेभिः मन्त्र है ९. अष्ट ( पूर्णता का ह्रास है, वह अष्ट (अ संज्ञक होने से में शून्य नहीं होन है। संख्या आठ इसमें कोई सन्दे

"षड् जाता भूता प्रथमजर्तस्य सामानि षडहं वहन्ति । 
षड्योगं सीरमनु साम साम षडाहुर्द्यावापृथिवी: षडुर्वीः ॥”
        (अथर्ववेद ८ । ९ । १६)

√• जाताः भूताः षट्= उत्पन्न हुए भूत (प्राणी) विघ्न युक्त हैं। 

√•द्यावापृथिवीः षट् = नीचे से लेकर ऊपर तक, पृथ्वी से द्युलोक पर्यन्त स्थान अवरोधमय है। 

√•प्रथमजः सामसाम उर्वी: षट् = सर्वप्रथम उत्पन्न प्रशांतिमयी विस्तृत दिशाएँ मारक प्रभावापन्न हैं। 

√•अहम् वहन्ति (वहन्ती) सामानि षट् = अहंकार से युक्त सामगान भी कष्टदायक/नेष्ट हैं। 

√•सीरम् अनु-योगम् षट्= बन्धन से युक्त होना, ताप कर है। 

√•आहुः ऐसा कहा जाता है, प्रतिपादित किया गया है।

√• ८. सप्त (सात का अर्थ- सप् (पूजायाम् सम्बन्धे च) + तनिन् = सप्तन् । सपति यः यत्र यस्मिन् वा स सप्तन् । सप्तन् + सु = सप्त।

√• जहाँ सम्मान का भाव हो, सम्बन्ध स्थापित किया जाय वह स्थान, वस्तु काल सप्त कहा जाता है। लग्न भाव से सामने १८०अंश पर कलत्र / पति भाव है। इसका नाम सप्त है। क्योंकि इस भाव में स्त्री का पुरुष से वा पुरुष का स्त्री से शारीरिक संबंध-संश्लेष परिश्लेष परिरंभ संगम संयोग होता है। इस भाव में स्त्री का पुरुष के प्रति सम्मान होता है तथा पुरुष का स्त्री के प्रति पूज्य भाव होता है। यह लग्न से गिनने पर ७ आता है। इसलिये सप्त = ७। यह अंक भी शून्य से उत्पन्न होता है।

√•यह मन्त्र है ...

“सप्त दिशो नाना सूर्याः सप्त होतार ऋत्विजः। 
देवा आदित्या ये सप्त तेभिः सोमाभि रक्ष इन्द्रयेन्दो परिस्रव ॥ " 
      ( ऋग्वेद ९ । ११४ । ३) 

√•दिशः नाना सूर्याः सप्त = सभी दिशाएँ तथा सूर्य के नाना रूप (भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में रहने से सूर्य के नाना प्रभाव) परस्पर सम्बन्धित हैं वा आदरणीय हैं।

 √•होतार: ऋत्विजः सप्त = यज्ञ करने वाला यजमान और यज्ञ को कराने वाले पुरोहित परस्पर सम्बन्धित हैं वा पूज्य हैं।

√• ये देवाः आदिजाः (ते) सप्त= जो देवगण आदित्य गण हैं, वे सब परस्पर सम्बन्धित हैं तथा पूज्य है।

√•इन्दो ! इन्द्रय परिस्रव= हे इन्दु ! हमें प्रभुतासम्पन्न करो, अमृत की वर्षा करो।
 नः तेभिः सोमभिः रक्ष =हमारी, उस सोम के द्वारा रक्षा करो, पालन करो ।

√•९. अष्ट (आठ) का अर्थ- अंश् (विभाजने विखण्डने वा अंशयति-ते) + कनिन् = अष्टन् । 
अपूर्णकारक, पूर्णता का ह्रास करने वाला, विखण्डक विनाशक क्षारक दुःखद आपत्कर नेष्ट अनिष्टप्रद, अशुभ जो है, वह अष्ट (अष्टन् + सु) है। जिस भाव की अष्टसंज्ञा होती है, उसमें ये सब गुण स्वतः आ जाते हैं। अष्ट संज्ञक होने से कुण्डली का अष्टम भाव अशुभ हो गया है। अष्ट की उत्पत्ति शून्य से होती है। इसके रूप में केवल अर्धशून्य होता है। यह विशेषता है। इसलिये यह स्वयं में अपूर्ण (विखण्डित) है। संख्या आठ वा अष्टम राशि से जिस ग्रह का प्रत्यक्ष सम्बन्ध हुआ, वह ग्रह भी अशुभ हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। इसका रूप यह है।

√•यह मन्त्र है...

 “अष्टचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्रपुरो नि पश्चा। 
अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः सः केतुः ॥ " 
       ( अथर्ववेद ११ । ४ । २२)

 

√•  सहस्र- अक्षरम् एक नेमि प=बलवती, अक्षयशील तथा गतिशील नेमि (परिधि)।

 √• वर्तत (वर्तते)= विद्यमान है। 

√•प्रपुर: निपश्चा= बहुत आगे एवं बहुत पीछे की ओर, अनादि एवं अनन्त, आद्यन्तविहीन ।

 √•अर्धेन = (अपनी) समृद्धि / ऐश्वर्य / वर्चस्व । [ऋध् (समृद्धौ ऋध्यति ऋध्नोति) + णिच् + अच् = अष्ट चक्रम = मारक दमनकारी चक्र अर्ध समृद्ध सम्पन्न] |

√•विश्वम् भुवनम् जजान = सम्पूर्ण भुवनों को उत्पन्न किया है।

√•यद् अस्य अर्धम् - जो इस (विराट् पुरुष) का ऐश्वर्यमय स्वरूप है।

 √•स कतमः = वह अति सुख स्वरूप /
 आनन्दमय है।

 √•केतु : वह विज्ञानमय ज्ञानस्वरूप है।

√•१०. नव का अर्थ- नु (स्तुतौ नौति) + कनिन् = नवन्। 

√•जो सदा स्तुतियोग्य है, स्तुतियों का आगार है, स्तुति का केन्द्र है, जो सदैव प्रसन्न है तथा सबको प्रसन्नता/तुष्टि देता है, वह नव (नवन् + सु) परमतत्व सर्वोपरि ईश्वर है। 

√•वा (वादि गतौ) + ड=व = वायु बाहु, निवास, वस्त्र, तरंग, राहु नव जहाँ वायु नहीं, जिसका निवास नहीं, जो वस्त्रहीन है, जिसमें तरंग हलचल नहीं, नहीं राहु (अन्धकार) नहीं, जो भुजाविहीन है, ऐसा व्यापक तत्व ही नव है।

 √•नव का अर्थ है, जो आज है जैसा आज है वही उसी रूप में वैसा ही कल (पहले) या, कल (बाद में) रहेगा। जिसमें तनिक भी परिवर्तन नहीं होता वही शाश्वत तत्व ही नव कहलाता है। इसकी उत्पत्ति भी शून्य से होती है। यह शून्य का अन्तिम पुत्र है। इसका अनुज कोई नहीं। इसका अनुगमन कोई नहीं कर सकता। इस अननुगम्य तत्व का स्वरूप यह ऐसा है। वेद मन्त्र है ...

"नव भूमी समुद्रा उच्छिष्टेऽधि श्रिता दिवः।
आसूर्यो भात्युच्छिष्टेऽहोरात्रे अपि तन्मयि ॥" 
      (अथर्ववेद ११ । ७ । १४

 √•भूमी: = भूमिः भवन्त्यस्मिन् भूतानि = स्थान, भाव, पृथ्वी अवकाश (आकाश), परमेश। 

√•नव = शाश्वत् ।

√• समुद्राः = सम्पूर्ण जल राशि [सम् + उद् + रा + क], सम्पूर्ण आनन्द [ सह + मुद् + रक्]। 

√•उच्छिष्टे = प्रलय काल आने पर ।

√•अधि = ब्रह्म तत्व में ।

 √•श्रिताः = आश्रय पाते हैं, समाहित हो जाते हैं। 

√•दिवः = आकाश में विद्यमान चमकते हुए प्रकाशमान ग्रह नक्षत्रादि पिण्ड ।

 √•उच्छिष्टे सूर्यः आभाति = प्रलय काल में सूर्य प्रकाशित होता रहता ।

√•अहोरात्रे अपि (आभाति) = दिनरात (सर्वदा) प्रकाशित होता रहता है। 

√•तत् मयि (आभाति)= वही मुझमें भी प्रकाशित है। 

 √••मन्त्रार्थ - भूमि शाश्वत है। सम्पूर्ण जलराशि शाश्वत है। स्वर्गीय पिण्ड शाश्वत हैं। प्रलय में ये बझ में स्थित होते हैं। प्रलय में भी सूर्य प्रकाशित होता है। वह सूर्य (ज्ञान) सर्वदा मुझमें रहे। श्री महाराज जी ने अंकों के अर्थ की अच्छा की इच्छा पूरी होना ही है। यह लेख उसी इच्छा का फल है। अंक जितने हैं, उतने ही ग्रह हैं। ये अंक अखिल जगत् का शासन ग्रह बन कर कर रहे हैं। शून्य से अंक निकले हैं। शून्य से यह प्रादुर्भूत हुए हैं। किन्तु भाव बारह रचे गये हैं, मास बारह रचे गये हैं, राशियाँ बारह रची गई हैं। ऐसा क्यों ? इसके पीछे क्या विज्ञान है ? अब मैं इसी तथ्य का अनुसन्धान अंकों के रूपायतन से करता हूँ। प्रत्येक अंक शून्य से जायमान है। इसलिये यह देखना है कि उस प्रत्येक अंक में शून्य तत्व की मात्रा कितनी है।

अंक                       अंकस्थ शुन्य तत्व
१                            एक
२                          एक+आधा
३                          एक+आधा+आधा
४                          एक+आधा
५                           एक+आधा
६                          एक+आधा+आधा
७                           एक
८                            आधा
९                           एक
योग=आठ एक +आठ आधा
       = ८×१+८×१/२
        =८+४
        =१२

√•इन नवों अंकों में शून्य तत्व की विद्यमानता का योग १२ है । अतएव १२ शून्यों से १२ भावों की सिद्धि होती है।

√• इकाई/अकेली गिनती को अंक कहते हैं। अंक नव ही क्यों हैं ? इससे कम वा अधिक क्यों नहीं हैं ? इसमें भी रहस्य है। मनुष्य न महीने ही गर्भ में रहता है। दसवाँ मास पूर्ण होने के पहले गर्भ से बाहर आ जाता है। इस प्राकृतिक अवस्था के कारण अंक नव ही हैं। नव के आगे की गिनती को संख्या कहते हैं। अंकशास्त्र सीमित है। क्योंकि, अंक सीमित मात्र नव ही हैं। संख्या शास्त्र असीमित है। कारण कि, संख्याएँ असीमित हैं। अंकशास्त्र को आंकिकी तथा संख्या शास्त्र को सांख्यिकी कहते हैं। इन दोनों को मिलाकर सांख्यशास्त्र/दर्शन बनता है। इसमें सृष्टि एवं प्रलय का ज्ञान समाहित है। सांख्य प्रवर्तक कपिल मुनि को मेरा प्रणाम ! 

√•अंकों के लेखन की एक वैज्ञानिक ऋषि पद्धति है। यह पूर्णतः भारतीय है। यह संक्रमित होकर यूरोप महाद्वीप में पहुँची। वहाँ से विकृत होकर पुनः यहाँ संक्रामक रोग की तरह फैल गई है। अंग्रेजी अंकन प्रणाली भारतीय नागरी प्रणाली की विकृत/परिवर्तित रूपरेखा है। विद्युतीय/इलेक्ट्रानिक प्रणाली में ये अंक सरल रेखा द्वारा कोणीय आकृतियों में व्यक्त किये जाते हैं। 

√•इन नवों अंकों का योग १+२+३ + ४ + ५ + ६ + ७ + ८ + ९ = ४५ है ।
 ४५ = ४+५ = ९ पूर्ण ।
 पूणाय नमः ।

√•ये अंक शून्य से निकलते हैं, शून्य में स्थित हैं तथा इनमें शून्य विद्यमान है। चित्र से स्पष्ट है- एक में एक शून्य, दो में एक शून्य और आधा शून्य, तीन में एक शून्य और दो आधे शून्य, चार में एक शून्य और एक आधा शून्य, पाँच में एक शून्य और एक आधा शून्य, छः में एक शून्य और दो आधे शून्य, सात में एक शून्य, आठ में केवल आधा शून्य तथा नउ में एक शून्य है। आधा शून्य मात्र होने से आठ का अंक अपूर्णता के कारण अशुभ है। यह अंक मृत्यु / हानिप्रद है। चित्र से यह भी स्पष्ट है- २, ५ में, ३, ६ में: ७, ९१ में कुछ समानता है। ८, ४ किसी अन्य से मिल नहीं रखते। इन नवों अंकों में संसार का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित है। इसे जानना सबके लिये शक्य नहीं है। सभी नवों अंक बराबर हैं। कोई अंक किसी अन्य अंक से कम या अधिक नहीं है। व्यवहार में भिन्न-भिन्न प्रभाव रखने से ये असमान गिने / माने जाते हैं। किन्तु वास्तविक रूप से, ० = १ २ = = ३ = ४ = ५ = ६ = ७८ = ९ । यही वेदान्तशास्त्र है। जो इस सत्य को जानता है, वह वेदान्ती है। वेद = ज्ञान अन्त = पराकाष्ठा । वेदान्त = ज्ञान की पराकाष्ठा वेदान्त अव्यवहार्य विषय है। वेदान्ती तत्व की चर्चा में मौन हो जाता है। अल्पज्ञानी बकवास करता है। ब्रह्मज्ञानी शान्त रहता है। ब्रह्मवेत्ता एवं वेदान्ती एक ही हैं। कलियुग में वेदान्त पढ़ने पढ़ाने वाले वेदान्तियों के विषय में व्यास का यह वचन है...

 "कली वेदान्तिनो भान्ति फाल्गुने बालका इव।" 

√•वेदान्ती नित्य समादरणीय हैं।
         "वेदान्तिने नमः।"

√• ये सभी अंक नवग्रहों के बीज हैं। १ में मंगल, २ में राहु, ३ में शनि, ४ में चन्द्रमा, ५ में सूर्य, ६ में बुध, ७ में शुक्र, ८ में केतु ९ में गुरु की सुगन्ध विद्यमान रहती है। ९ अंक हैं। १२ भाव हैं। ज्योतिषशास्त्र का सारा खेल ९ और १२ के बीच ही खेला जाता है। ९ + १२ = २१ । २१ = २+१=३। पुनः १२ -९= ३ ।

 √•इस खेल में त्रिनेत्र शिव/त्रिविक्रम विष्णु प्रधान तत्व है। जो इस तत्व को जानता है, वह ब्रह्मज्ञानी इस खेल में दक्ष होता है। ऐसा व्यक्ति सृष्टि के रहस्य को आत्मसात कर लेता है। ऐसे खिलाड़ी श्री महाराज जी को मेरा प्रणाम ।

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