🌹पितृ ऋण का वैदिक, ज्योतिष, वैज्ञानिक, मेडिकल साइंस के आधार पर विश्लेषण और उसका निदान (part_1)🌹
इस पार्ट में मैं पितृ ऋण पर लिख रहा हूं। ऋण पांच प्रकार के होते हैं। देव ऋण, पितृ ऋण, गुरु ऋण, लोक ऋण और भूत ऋण।
इनको मैं पांच अलग अलग पार्ट में लिखूंगा।
अभी मै पितृ ऋण को पहले मेडिकल साइंस के आधार पर समझाता हूं। जिसकी कुंडली में यह दोष हो जिसे पितृ ऋण दोष कहते है इसका मतलब ऐसे पुरष के शुक्राणुओं में Y chromosome वाले शुक्राणु कमजोर होते हैं वे स्त्री के ovule को fertilize नहीं कर पाते। उनके X factor या X chromosome वाले शुक्राणु ज्यादा पॉवर फूल होते हैं। इसलिए ऐसे पुरष की सिर्फ कन्याएं है उत्पन होती है। वह बेटा उत्पन नहीं कर पाता। और इसका अगर उल्ट है तो वह पुरष कन्या उत्पन नहीं कर पाता। क्योंकि संतान पुत्र होगा या कन्या यह पुरष के वीर्य पर निर्भर होता है इसमें स्त्री का कोई रोल नहीं होता। क्योंकि स्त्री के ovule में सिर्फ X factor या X chromosome ही होते हैं। अगर XY chromosome मिलें तो पुत्र अगर XX chromosome मिलें तो कन्या उत्पन होती है।
अब जब कोई पुरष अपने पितृ कारक y क्रोमोसोम को आगे नहीं बढ़ा पाता मतलब अपने गोत्र की वृद्धि नहीं कर पाता।
मैने आज तक जब भी किसी की कुंडली का अध्ययन किया है तो सिर्फ इसी आधार पर बताया है कि किसी कि पुत्र संतान नहीं है या आगे नहीं होगी। जो पूर्ण रूप से सत्य हुई है। या उसकी कभी कन्या उत्पन नहीं होगी या उसकी कोई संतान नहीं होगी।
अब उसको पितृ दोष क्यों कहते हैं। हम जब इस संसार में पैदा होते हैं, तो सृष्टि को चलायमान रखने के लिए हमारे शास्त्रों में लिखा है कि हम जिनसे उत्पन हुए है हमें भी उसी प्रकार की संताने उत्पन करके मरना होता है नहीं तो हमारे पर एक कर्ज या ऋण बना रहता है जिसे हमे अगले जन्म में चुकाना रह जाएगा और हमे मुक्ति प्राप्त नहीं होगी। अब हम एक स्त्री और एक पुरष से जन्म लेते हैं तो हमे भी एक पुरष और एक स्त्री को जन्म देना होगा ताकि इस सृष्टि से हमने जो लिया है वह चुकता हो जाए और हम कर्ज मुक्त हो कर इस संसार को छोड़े।
इसका सबंध शिव पुराण की एक कथा से समझाता हूं। जब ब्रम्हा जी सृष्टि का निर्माण कर रहे थे तब वह एक एक करके पुरष तो बना पा रहे थे परन्तु स्त्री नहीं। या मेडिकल साइंस के हिसाब से कहा जाए तो asexual reproduction ही हो रही थी और जिस प्रकार से ब्रम्हा जी सृष्टि बनाना चाहते थे वैसी नहीं बन रही थी। तब ब्रम्हा जी ने भगवान शिव की आराधना की और उनसे अनुरोध किया कि वे स्त्री को उत्पन करे नहीं तो वे मातृ ऋण से मुक्त नहीं हो पाएंगे। तब भगवान शिव ने अपने शरीर से शक्ति को स्त्री रूप में प्रकट किया और स्त्री अस्तित्व में अाई। अगर आधुनिक मेडिकल साइंस के आधार पर कहें तो asexual reproduction के अलावा सेक्सुअल reproduction से भी जीवन की शुरुआत हुई।
उसके बाद ब्रम्हा जी जैसी सृष्टि बनाना चाहते थे वैसी सृष्टि का निर्माण हुआ। जिसको शिव पुराण में मैथुनिक सृष्टि कहा गया। इसीलिए मै हर बार कहता हूं कि शिव पुराण पूरी तरह से आजकल की बायलॉजिकल साइंस ही है। यहां स्त्री और पुरष का मतलब सिर्फ हर प्रकार के जीवों और पेड़ पोधों फूलों में male aur female है।
अब अगर हम कम से कम एक स्त्री और एक पुरष को जन्म ना दे पाएं जैसे अगर हम सिर्फ कन्या को ही जन्म दे पुरष को नहीं तो आने वाली सृष्टि में एक होने वाला अगला पिता नहीं होगा इसलिए उसे पितृ ऋण कहते हैं। इसी प्रकार से अगर हम एक कन्या को जन्म ना दें तो इसे मातृ ऋण कहेंगे। अगर हम बिना संतान उत्पन किए मर गए तो मातृ और पितृ दोनों ऋण हम पर बकाया रह जाएंगे।
इसका निदान आधुनिक समाज के हिसाब से कैसे करना चाहिए। यह मेरी अपनी सोच है। अगर किसी पर पितृ ऋण है तो उसे किसी बेसहारा लड़के को सहारा दे कर उसे एक काबिल व्यक्ति बनाना है। तो उस व्यक्ति का पितृ ऋण उतर जाएगा। अगर मातृ ऋण है तो उसे किसी कन्या का कन्यादान अपने हाथों से करना चाहिए।
अब शास्त्रों में मातृ ऋण का कोई उलेख नहीं है यह मैने अपनी तरफ से लिखा है। यह इसलिए नहीं है क्योंकि स्त्री के हाथ में नहीं है कि संतान कन्या होगी कि पुत्र यह सिर्फ पुरष पर निर्भर करता है।
🌹मृत व्यक्ति अपने पुत्रादि द्वारा प्रदत्त श्राद्ध पिण्डादि के द्वारा गति करता है। अत: स्वयं ही अपनी आसक्तियों को न त्याग कर सकने वाले व्यक्ति के पारलौकिक हित के लिये उसके पुत्र तथा सम्बन्धी दिवंगत आत्मा की शान्ति के हेतु जो श्राद्ध दानादि करते हैं, उससे भी मृत व्यक्ति को लाभ अवश्य होता है, अतएव श्राद्ध क्रिया तथा पिण्ड दानादि कर्म ”निर्हण” नाम से जाने जाते हैं क्योंकि उनसे प्रेत की कुछ अशुद्धियाँ एव निर्बलताओं का निर्हार हो जाता है तथा उसे तृप्ति एवं शान्ति का अनुभव होता है, चाहे वह जहाँ भी हो जिस स्थिति में हो।
उत्तम प्रकार यज्ञदानरूप इत्यादि कर्मों को करने वालों की शरीरस्थ वैश्वानराग्नि संस्कारयुक्त हो जाती है। यहाँ संस्कारयुक्त हो जाने से तात्पर्य है कि— मनुष्य के द्वारा नित्य प्रति किये जाने वाले कर्मों का जो प्रभाव हमारी आत्मा पर पड़ता है। उसे संस्कार स्थापित होना कहा जाता है। तो हमारे शरीर में विराजमान आत्मा के कारण ही शरीर में सारी इन्द्रियाँ क्रियाशील होती हैं। अत: जो हमारे शरीर की वैश्वानराग्नि है वह भी उसी आत्मा के कारण प्रज्वलित है। इस कारण वैश्वारग्नि के संस्कारयुक्त होेने से तात्पर्य है कि आत्म का संस्कारित होना।
इस प्रकार शुभ कर्मों से संस्कारित वैश्वानराग्नि व आत्मा शरीर छूट जाने के उपरान्त सौरमण्डल के वैश्वानराग्नि में सम्मिलित हो जाती है। यहाँ सौमण्डल की वैश्वानराग्नि से तात्पर्य है कि जिस प्रकार हमारा शरीर है एवं उसमें वैश्वानराग्नि विद्यमान है उसी प्रकार हमारा सौरमण्डल भी एक शरीर है। एवं उसमें स्थित अग्नि सौरमण्डल की वैश्वानराग्नि कही जाती है। अत: शरीर में स्थित वैश्वानराग्नि सौरमण्डल की वैश्वानराग्नि में सम्मिलित हो जाती है।
इस सौरमण्डल को वैदिक विज्ञान के शब्दकोश के अनुसार सूर्यसंवत्सर भी कहा जाता है। इस सौर मण्डल से आगेे का जो स्थान है उसे परमेष्ठी मण्डल कहा जाता है, उस स्थान में सोमतत्त्व की प्रचुरता है इसीलिये कई विद्वान् उसे चन्द्रलोक भी कहते हैं। किन्तु चन्द्रलोक कहने का अर्थ यह नहीं है कि वह परमेष्ठी मण्डल हमारे चन्द्रमा के लोक के समान है। वैसे कई वेद विरोधी उस परमेष्ठी मण्डल को चन्द्रलोक कहते हुये सूर्य से परे हमारे चन्द्रमा की कल्पना कर बैठते हैं।
इस प्रकार सूर्य से परे जो परमेष्ठी मण्डल है उससे परे स्वयंभू मण्डल कहा है। इस मार्ग को देवयान कहा जाता है। इस मार्ग से आत्मा की गति हेतु मार्ग है अग्नि, ज्योति (सूर्य) दिवस, शुक्लपक्ष, उत्तरायन के छ: मास। ये वस्तुत: काल विशेष नहीं हैं वरन् उन उन तत्त्वों के अधिष्ठाता देवता हैं। इस मार्ग से जाने वाले उत्तम कोटि के जीव स्वर्ग लोक में देवों के साथ आनन्दभोग करके ऊपर बताये गये मानस पुरुष के सत्य लोक या ब्रह्मलोक या स्वयम्भू मण्डल तक पहुँच जाते हैं।
परन्तु जो लोग आत्मज्ञान से परे अथवा विद्या की कामना ने करके मात्र यन्त्रवत् इष्टापूर्तादि सामाजिक सेवा के कार्य में जीवनयापन करते हैं वे धूमादि मार्ग से चन्द्रमा तक जाते हैं और पुन: एक निश्चत समय के उपरान्त इस लोक में जन्म लेते हैं—
” अथ य इमे ग्रामे इष्टापूर्त्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसंभवन्ति धूमाद्रात्रिम्ं रात्रेरपरपक्षम्, अपरपक्षाद्यान्, षड्माँसास्तान्….. ततो पितृलोकम्, पितृलोकादाकाशम्, आकाशाच्चन्द्रमसम्।” छान्दोग्यापनिषद् 5.10.3,4
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