चेतना का प्रवाह ऊपर की शुद्धता से नीचे के स्थूल रूपों तक उतरता है।
यह विवरण सांख्य दर्शन की तत्त्व-उत्पत्ति पर आधारित है।। यह चित्र बताता है कि चेतना की यात्रा कैसे शुद्ध पुरुष से प्रारंभ होकर पदार्थ तक पहुँचती है। सबसे ऊपर दो मूल तत्व हैं पुरुष और प्रकृति। पुरुष शुद्ध चेतना है: अकर्ता, निष्क्रिय, केवल साक्षी। प्रकृति मूल ऊर्जा है, जिसमें तीन गुण: सत्त्व, रजस और तमस सदैव संतुलन में रहते हैं। पुरुष का केवल देखना ही प्रकृति में हलचल पैदा करता है, जिससे सबसे पहले महत (ब्रह्मांड की प्रथम जागरूकता) उत्पन्न होती है। महत का ही विकसित रूप है बुद्धि, जो विवेक, निर्णय, पहचान और जानने की क्षमता का स्रोत है। बुद्धि से आगे प्रकट होता है अहंकार, वह शक्ति जो चेतना में “मैं” और “मेरा” की अनुभूति पैदा करती है अहंकार बुरा नहीं होता; यह वही द्वार है जिससे पूरी प्रकृति बाहर आती है। यही अहंकार तीन धाराओं में विभाजित होकर पूरा जगत रचता है। सत्त्व-प्रधान अहंकार प्रकाश और स्पष्टता से युक्त होकर पाँच ज्ञानेंद्रियों (श्रवण–ध्वनि, दृष्टि–रूप, रसना–स्वाद, घ्राण–गंध, स्पर्श–स्पर्श) और पाँच कर्मेंद्रियों (वाणी, हाथ, पैर, उत्सर्ग, प्रज...