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Showing posts from September, 2022

मानव में शुक्राणु में एक आत्मा होती है

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मानव में शुक्राणु में एक आत्मा होती है. डिम्ब अथवा स्त्री के अंडाणु में स्वतंत्र एवं अलग आत्मा विद्यमान होती है. दोनों के संयोग से मानव शरीर की संरचना प्रारंभ होती है. किन्तु मानव शरीर के प्रत्येक अंग के प्रत्येक अणु में स्वतंत्र आत्मा होती है जिसे संचालित करने की ऊर्जा, क्षमता तथा प्रेरणा मस्तिष्क में स्थित ब्रह्माण्ड (का अंश) अथवा सूक्ष्म ऊर्जा जिसे हम भौतिक अथवा वैज्ञानिक रूप से आत्मा मानते हैं, उसके पास रहती है. इसे दूसरे सरल शब्दों में इस प्रकार से समझ सकते हैं कि सूर्य अग्नि तथा अथाह ऊर्जा का एक पिण्ड है जिसके हर बिंदु में अनंत ऊर्जा विद्यमान है. किन्तु यह अनंत ऊर्जा सूर्य के मूलतत्व क्रोड अथवा कोर के बिना शून्य हो जाती है. सूर्य अथवा किसी भी तारे की कोर अपनी मृत्यु के पश्चात अनंत ऋणात्मक ऊर्जा तथा परम घनत्व का पिण्ड बन जाता है जिसे हम वैज्ञानिक रूप से ब्लैकहोल (ब्लैक होल) के नाम से जानते हैं. वह समस्त उत्सर्जित ऊर्जा को पुनः अवशोषित कर पुनः ऊर्जा का स्रोत बनने की प्रक्रिया में रत हो जाता है. इसी प्रकार से मानव शरीर स्थित ब्रह्माण्ड से अनंत ऊर्जा जिससे शरीर के अन्य अवयव संचालित ह...

आत्मा का सफर ऐसे चलता है पूरे 1 साल

आत्मा का सफर ऐसे चलता है पूरे 1 साल मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में एक दिन में 2 सौ योजन यानी 1600 किलोमीटर चलती है। एक योजन 8 किलोमीटर का होता है। इस तरह एक वर्ष में आत्मा यमराज के नगर में पहुंचती है। वैतरणी नदी को छोड़कर यमलोक का मार्ग 86 हजार योजन है। वैतरणी नदी बहुत ही भयानक है जिसे पार कर पाना बहुत ही कठिन है। ऐसा है यमलोक का मार्ग यममार्ग में 16 पुरियां यानी नगर हैं। ये सभी नगर बड़े ही भयानक हैं। इस मार्ग में बहुत कम समय से लिए व्यक्ति की आत्मा को महीने में एक बार ठहरने का अवसर मिलता है। यहां आत्मा अपने पूर्वजन्म के कर्मों और परिवार के लोगों को याद करके दुखी होता रहता है। यमदूतों की यातना से दुखी होकर आगे कैसा शरीर मिलेगा यह सोचकर भी घबराता है। यममार्ग में भयानक नरक यममार्ग में कई नरक हैं, जिनमें कुछ नाम हैं अंधतम, और ताम्रमय। अंधतम कीचड़ और जोंक से भरा है जबकि ताम्रमय तपे हुए तांबे जैसे गर्म है। इस मार्ग से जाते हुए पाप कर्मों को करने वालों की आत्मा दुख पाती है। यमलोक के द्वारपाल यमराज के भवन पर धर्मध्वज नाम का द्वारपाल पहरा देता है। यही चित्रगुप्त को पापी लोगों की ...

मृत्यु विलक्षण एवं भयावह ?

मृत्यु विलक्षण एवं भयावह ? पितृमेध पितृमेध  या  अन्त्यकर्म  या  अंत्येष्टि  या  दाह संस्कार  16  हिन्दू धर्म संस्कारों  में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्येक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। [1] मृत्यु विलक्षण एवं भयावह सामान्यत: मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है, यद्यपि कुछ दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीररूपी बंदीगृह में बन्दी आत्मा की मुक्ति के रूप में ग्रहण करते रहे हैं। मृत्यु का भय बहुतों को होता है; किन्तु वह भय ऐसा नहीं है कि उस समय की अर्थात् मरण-काल की समय की सम्भावित पीड़ा से वे आक्रान्त होते हैं, प्रत्युत उनक...