अर्धनारेश्वर_पूर्णब्रह्म

#अर्धनारेश्वर_पूर्णब्रह्म!! 
शिवमहापुराण;-शंकर: पुरुषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी।
          अर्थात्–समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं।

      सृष्टि में तीन तत्व है-ऋण-धन-बीज जिसके जीवंत नाम है-पुरुष,स्त्री और बीज या इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रान, न्युट्रान। यो भी इसी प्राचीन कथाओं में पाओगे की ईश्वर और ईश्वरी के युगलावस्था को एकल ब्रह्म कहा है उसका मतलब है शिव या शक्ति भी अकेले है तो पूर्ण ब्रह्म नही है । जीव की जन्म यात्रा में महत्त्व स्वरूप भी दो या ज्यादा भागमे जब विभाजित हो जाता है और जब कर्म उपासना से जीव ब्रह्म भावको प्राप्त करने लगता है तब विभाजित अंश एक हो जाते है । दोनो के मिलनसे ही पूर्ण ब्रह्मत्व प्राप्त कर महाब्राह्म में विलीन हो सकता है। यही ही जीवकी पूर्ण मुक्ति मोक्ष। 

किसी भी प्रयोजन हेतु ब्रह्म भी अपनी अर्द्धशक्ति को साथ लाते है जैसे विष्णु के साथ उनकी पत्नी लक्ष्मी तब उन्ही के पृथ्वी रूप राम-सीता व कृष्ण-राधा या रुक्मणी है क्योकि ईश्वर को चतुर्थ धर्म का स्वयं पालन करते हुए समाज की चतुर्थ धर्म पालन का ज्ञान देना और प्रचारित करना पड़ता है उसके जाने के बाद उस सिद्धांत के अनेक आचार्य विवाहित या अविवाहित हो सकते है। पर इसमें कोई संदेह नही है उन्हें भी पूर्ण आत्मा स्वरूप होना ही पड़ता है। तंत्रमार्ग में भैरव ओर भैरवी स्वरूप बनकर उपासना का भी यही हेतु है। 

     सर्व प्रथम ब्रह्मा ने चार मानस पुत्र –सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार बनाए जो योग साधना में लीन हो गये। 

पुनः संकल्प से नारद, भृगु, कर्म, प्रचेतस, पुलह, अन्गिरिसि, क्रतु, पुलस्त्य, अत्रि, मरीचि --१० प्रजापति बनाए..वे भी साधना लीन रहे। 

पुनः संकल्प द्वारा..९ पुत्र- भृगु, मरीचि, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, दक्ष, पुलह। 
एवं -९ पुत्रियां --ख्याति, भूति , सम्भूति, प्रीति, क्षमा, प्रसूति आदि उत्पन्न कीं। 

यद्यपि ये सभी संकल्प द्वारा संतति प्रवृत्त थे परन्तु कोई निश्चित, सतत स्वचालित प्रक्रिया व क्रम नहीं था ( सब एकान्गी थे--प्राणियों व वनस्पतियों में भी ), अतः ब्रह्मा का जीव-सृष्टि सृजन कार्य का तीब्र गति से प्रसार नहीं होरहा था अतः सृष्टि क्रम समाप्त नही हो पा रहा था | ब्रह्मा चिंतित व गंभीर समस्या के समाधान हेतु मननशील थे, कि वे इस प्रकार कब तक मानवों, प्राणियों को बनाते रहेंगे, कोइ निश्चित स्वचालित प्रणाली होनी चाहिए कि जीव स्वयं ही उत्पन्न होता जाये एवं मेरा कार्य समाप्त हो। 

चिन्तित ब्रह्मा ने पुनः प्रभु का स्मरण किया व तप किया--तब अर्ध-नारीश्वर ( द्विलिन्गी) रूप में रूद्रदेव जो शम्भु- महेश्वर व माया का सम्मिलित रूप था, प्रकट हुए, जिसने स्वयम-

--क्रूर-सौम्या; शान्त-अशान्त; श्यामा-गौरी; शीला-अशीला आदि ११ नारी भाव एवम ११ पुरुष भावों में विभक्त किया। रुद्रदेव के ये सभी ११-११ स्त्री-पुरुष भाव सभी जीवों में समाहित हुए, ये ११-स्थायी भाव.....जो अर्धनारीश्वर भाव में उत्पन्न हुए क्रमश:-
१. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, 
५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, 
९.निर्वेद,. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
       इस प्रकार काम सृष्टि का प्रादुर्भाव एवं लिंग चयन हुआ। उसी प्रकार ब्रह्मा ने भी स्वयम के दायें-बायें भाग से मनु व शतरूपा को प्रकट किया, जिनमे रुद्रदेव के ११-११ नर-नारी- भाव समाहित होने से वे प्रथम मानव सृष्टि की रचना शुरू हुई ।

महादेव के अर्धनारेश्वर स्वरूप का यजन पूजन दाम्पत्य सुख , धन , धान्य, ऐश्वर्य प्रदान करता है । ब्रह्मचारी साधक , साधु , योगी अपनी प्रबल शक्तिसे विभाजित आत्म शक्ति को आकर्षित करके पूर्ण आत्मा स्वरूप धारण करके ब्रह्म में विलीन हो जाते है। 

            ~अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र~
1- चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय ।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय 
नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी सुशोभित हो रहे हैं । भगवान शंकर जटा धारण किये हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केशपाश सुशोभित हो रहे हैं । ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।
 
2- कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारज:पुंजविचर्चिताय ।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय 
नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।

पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी और कुंकुम का लेप लगा है और भगवान शंकर के शरीर में चिता-भस्म का पुंज लगा है । पार्वतीजी कामदेव को जिलाने वाली हैं और भगवान शंकर उसे नष्ट करने वाले हैं, ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है ।।
 
3- चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणीनूपुराय ।
हेमांगदायै भुजगांगदाय 
नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।
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