सूर्य कवच स्तोत्र

🚩🚩🚩🌹🙏सूर्य कवच स्तोत्र🙏🌹🚩🚩🚩

                            अथ् विनियोग :
ॐ अस्य श्री सूर्य-कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टप् छन्दः, श्री सूर्यो देवता: । आरोग्य च विजय प्राप्त्यर्थं, अहम्, पुत्रो श्री, पौत्रो श्री, गोत्रे जन्मौ, श्रीसूर्य-कवच-पाठे विनियोगः।

                            अर्थ एवं विधान : 

(अपने शुद्ध दाएँ हाथ में आचमनी में जल भरकर लें, बाएँ हाथ से दायीं भुजा को स्पर्श करते हुए निम्न प्रकार से विनियोग करें )

“इस श्री सूर्य कवच के ऋषि ब्रह्मा हैं, छन्द अनुष्टुप् है एवं श्री सूर्य देवता हैं । आरोग्य एवम् विजय की प्राप्ति हेतु मैं – पुत्र श्री – पौत्र श्री –गोत्र में जन्मा हुआ~ श्री सूर्य -कवच के पाठ के निमित्त स्वयं को नियोजित करता हूँ ”

ऐसा कहकर आचमनी के जल को~ हाथ को सीधा अर्थात् ऊपर की ओर रखते हुए ही~तीन बार थोड़ा-थोड़ा करके पृथ्वी पर छोड़ दें । उसके बाद निम्नलिखित श्री सूर्य कवच का अपने अभीष्ट अंगों को स्पर्श करते हुए जाप करें ।

                            श्रीसूर्यध्यानम्

               रक्तांबुजासनमशेषगुणैकसिन्धुं
               भानुं समस्तजगतामधिपं भजामि।
               पद्मद्वयाभयवरान् दधतं कराब्जैः
               माणिक्यमौलिमरुणाङ्गरुचिं त्रिनेत्रम्॥

                            श्री सूर्यदेवप्रणामः

               जपाकुसुमसङ्काशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
               ध्वान्तारिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥

                           । याज्ञवल्क्य उवाच ।

               श्रुणुष्व मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचं शुभम् ।
               शरीरारोग्यदं दिव्यं सर्व सौभाग्यदायकम् ॥१॥

               याज्ञवल्क्य जी बोले- हे मुनि श्रेष्ठ! सूर्य के शुभ कवच को सुनो, जो शरीर को आरोग्य देने वाला है तथा संपूर्ण दिव्य सौभाग्य को देने वाला है।

               दैदिप्यमानं मुकुटं स्फ़ुरन्मकरकुण्डलम् ।
               ध्यात्वा सहस्रकिरणं स्तोत्रमेतदुदीरयेत्॥२ ॥

               चमकते हुए मुकुट वाले डोलते हुए मकराकृत कुंडल वाले हजार किरण (सूर्य) को ध्यान करके यह स्तोत्र प्रारंभ करें।

               शिरो मे भास्करः पातु ललाटे मेSमितद्दुतिः ।
               नेत्रे दिनमणिः पातु श्रवणे वासरेश्वरः ॥३ ॥

               मेरे सिर की रक्षा भास्कर करें, अपरिमित कांति वाले ललाट की रक्षा करें। नेत्र (आंखों) की रक्षा दिनमणि करें तथा कान की रक्षा दिन के ईश्वर करें।

               घ्राणं धर्म धृणिः पातु वदनं वेदवाहनः ।
               जिह्वां मे मानदः पातु कंठं मे सुरवंदितः ॥ ४ ॥

               मेरी नाक की रक्षा धर्मघृणि, मुख की रक्षा देववंदित, जिव्हा की रक्षा मानद् तथा कंठ की रक्षा देव वंदित करें।

               स्कंधौ प्रभाकरं पातु वक्षः पातु जनप्रियः ।
               पातु पादौ द्वादशात्मा सर्वागं सकलेश्वरः ॥५ ॥

               जो अपने स्कंध (भूजा) से प्रकाशित होते हैं, वह सूर्य भगवान मेरे स्कंध को सुरक्षित रखें। जो अपने वक्ष (छाती) से लोगों को प्रिय होते हैं, वह सूर्य भगवान मेरी छाती को सुरक्षित रखें। जो अपने द्वादश (दो बाहुओं) से विश्व में व्याप्त होते हैं, वह सूर्य भगवान मेरे पाँवों को सुरक्षित रखें। जो सर्वत्र सम्पूर्ण विश्व के ईश्वर हैं, वह सूर्य भगवान मुझे सम्पूर्ण शरीर में सुरक्षित रखें।

               सूर्यरक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्जपत्रके ।
               दधाति यः करे तस्य वशगाः सर्वसिद्धयः ॥६ ॥

               सूर्य रक्षात्मक इस स्तोत्र को भोजपत्र में लिखकर जो हाथ में धारण करता है तो संपूर्ण सिद्धियां उसके वश में होती हैं।

                सुस्नातो यो जपेत्सम्यक् योSधीते स्वस्थ मानसः ।
                स रोगमुक्तो दीर्घायुः सुखं पुष्टिं च विंदति ॥७ ॥

                स्नान करके जो कोई स्वच्छ चित्त से कवच पाठ करता है। वह रोग से मुक्त हो जाता है, दीर्घायु होता है, सुख तथा यश प्राप्त होता है।

॥इति श्री माद्याज्ञवल्क्यमुनिविरचितं सूर्यकवचस्तोत्रं संपूर्णं॥
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#आदित्यह्रदयस्तोत्र!! 
     आदित्य ह्रदय स्तोत्र अगस्त्य ऋषि की रचना है और भगवान सूर्य को समर्पित यह स्तोत्र शक्ति और बुद्धि का संचार करने वाला है यह स्तोत्र मुनि अगस्त्य ने, जब भगवान् श्री राम युद्ध से थककर खड़े थे, तब श्री राम से कहा था।
इस स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन सुबह सूर्योदय के समय में करना सबसे अच्छा माना जाता है। 

विनियोगः
ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्य ऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदयभूतो भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्न तया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जय सिद्धौ च विनियोगः।।

ध्यानम्-
नमस्सवित्रे जगदेक चक्षुसे,
जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे,
त्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणे,
विरिञ्चि नारायण शङ्करात्मने।।

।। अथ आदित्य हृदय स्तोत्रम ।।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ।।१।।

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्या ब्रवीद्रामम् अगस्त्यो भगवान् ऋषिः ।।2।।

उधर थककर चिंता करते हुए श्री राम जी रणभूमि में खड़े थे, उतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने आ गया। यह देखकर अगस्त्य मुनि श्री राम चंद्र जी के पास गए और इस प्रकार बोले।।

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि ।।3।।

आदित्य हृदयं पुण्यं सर्वशत्रु विनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम् ।।4।।

सभी के हृदय में रमण करने वाले ( बसने वाले ) हे महाबाहो ( लम्बी भुजाओं वाले ) राम ! यह गोपनीय स्तोत्र सुनो। इस स्तोत्र के जप से तुम अवश्य ही शत्रुओं पर विजय पाओगे।। यह आदित्य ह्रदय स्तोत्र परम पवित्र और सभी शत्रुओं का विनाश करने वाला है। इसके जप से सदा ही विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय तथा परम कल्याणकारी स्तोत्र है।।

सर्वमङ्गल माङ्गल्यं सर्व पाप प्रणाशनम्।
चिन्ताशोक प्रशमनम् आयुर्वर्धन मुत्तमम् ।।5।।

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुर नमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ।।6।।

 यह सभी मंगलों में भी मंगल और सभी पापों का नाश करने वाला यह स्तोत्र चिन्ता और शोक को मिटाने वाला और आयु को बढ़ाने वला है।। जो अनंत किरणों से शोभायमान ( रश्मिमान ), नित्य उदय होने वाले ( समुद्यंत ), देवों और असुरों दोनों के द्वारा नमस्कृत हैं, तुम विश्व में अपनी प्रभा ( प्रकाश ) फैलाने वाले संसार के स्वामी ( भुवनेश्वर ) भगवान् भास्कका पूजन करो।। 

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुर गणान् लोकान् पाति गभस्तिभिः ।।7।।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ।।8।।

सभी देवता इनके रूप हैं, ये देवता ( सूर्य ) अपने तेज और किरणों से जगत को स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ये ही अपनी किरणों ( रश्मियों ) से देवता और असुरगण आदि सभी लोकों का पालन करते हैं।। ये ही ब्रह्मा, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, समय, यम, चन्द्रमा, वरुण आदि को प्रकट करने वाले हैं।।

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वह्निः प्रजाप्राणः ऋतुकर्ता प्रभाकरः ।।9।।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुः हिरण्यरेता दिवाकरः ।।10।।

ये पितरों, वसु, साध्य, अश्विनीकुमारों, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण और ऋतुओं को जन्म देने वाले प्रभा के पुंज हैं। इनके नाम आदित्य, सविता ( जगत को उत्पन्न करने वाले ), सूर्य (सर्व व्याप्त), खग, पूषा, गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश, भानु, हिरण्येता, दिवाकर और।।

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्ति-र्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भुः त्वष्टा मार्ताण्डको‌ऽशुमान् ।।11।।
हिरण्यगर्भः शिशिरः तपनो भास्करो रविः ।
अग्निगर्भो‌दितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः ।।12।।

हरिदश्व, सहस्रार्चि, सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले ), मरीचिमान (किरणों से सुशोभित ), तिमिरोमन्थन (अंधकार का नाश करने वाले ), शम्भु, त्वष्टा, मार्तन्डक, अंशुमान, हिरण्यगर्भ, शिशिर ( स्वाभाव से सुख प्रदान करने वाले ), तपन ( गर्मी उत्पन्न करने वाले ), भास्कर, रवि, अग्निगर्भ, अदितीपुत्र, शङ्ख, शिशिरनाशन (शीत का करने वाले ) और।।

व्योमनाथ स्तमोभेदी ऋग्यजुःसाम-पारगः ।
धनावृष्टि-रपां मित्रो विन्ध्यवीथी प्लवङ्गमः ।।13।।
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।14।।

व्योमनाथ, तमभेदी, ऋग यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र ( जल उत्पन्न करने वाले ), विन्ध्यवीथिप्लवंग (आकाश में तीव्र गति से चलने वाले ), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल ( जिनका भूरा रंग है ), सर्वतापन (सभी को तप देने वाले ), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सब की उत्पत्ति के कारण ) हैं।।

नक्षत्र ग्रह ताराणाम् अधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्-नमोऽ‌स्तु ते ।।15।।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ।।16।।

नक्षत्र, ग्रह और तारों के अधिपति, विश्वभावन ( विश्व की रक्षा करने वाले ), तेजस्वियों में भी तेजस्वी और द्वादशात्मा को नमस्कार है।। पूर्वगिरि उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों ( तारों और ग्रहों ), के स्वामी तथा दिन के अधिपति को नमस्कार है।।

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।।17।।
नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः ।।18।।

जो जय के रूप हैं, विजय के रूप है, हरे रंग के घोड़ों से युक्त रथ वाले भगवान् को नमस्कार है। सहस्रों किरणों से प्रभावान आदित्य भगवान को बारम्बार नमस्कार है।। उग्र, वीर तथा सारंग सूर्य देव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेज वाले मार्तण्ड को नमस्कार है।।

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्य-वर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ।।19।।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नाया मितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ।। 20।।

आप ब्रम्हा, शिव विष्णु के भी स्वामी हैं, सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं। सबको स्वाहा करने वाली अग्नि स्वरुप हे रौद्र रूप आपको नमस्कार है।। अज्ञान, अंधकार के नाशक, शीत के निवारक तथा शत्रुओं के नाशक आपका रूप अप्रमेय है। कृतघ्नों का नाश करने वाले देव और सभी ज्योतियों के अधिपति को नमस्कार है।।

तप्त चामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमो‌ऽभि निघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ।। 21।।
नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ।। 22।।

आपकी प्रभा तप्त स्वर्ण के समान है आप ही हरि ( अज्ञान को हरने वाले ), विश्वकर्मा ( संसार की रचना करने वाले ), तम ( अँधेरा ) के नाशक, प्रकाशरूप और जगत के साक्षी आपको नमस्कार है।
हे रघुनन्दन, भगवान् सूर्य देव ही सभी भूतों का संहार, रचना और पालन करते हैं। यही देव अपनी रश्मि (किरणों ) से तप ( गर्मी ) और वर्षा हैं।।

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः । 
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्नि होत्रिणाम् ।। 23।। 
वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च । 
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः ।।24।। 

यही देव सभी भूतों में अन्तर्स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं, यही अग्निहोत्री कहलाते हैं और अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।
ये ही वेद, यज्ञ और यज्ञ से मिलने वाले फल हैं, यह देव सम्पूर्ण लोकों की क्रियाओं का फल देने वाले हैं।।

फलश्रुति

एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । 
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्-नावशीदति राघव ।।25।। 
पूजयस्वैन मेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् । 
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ।।26।।

राघव! विपत्ति में, कष्ट में, कठिन मार्ग में और किसी भय के समय जो भी सूर्य देव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं सहना ( भोगना ) पड़ता।
तुम एकाग्रचित होकर इन जगतपति देवादिदेव का पूजन करो, इसका ( आदित्य हृदय स्तोत्र ) तीन बार जप करने से तुम अवश्य ही युद्ध में विजय पाओगे।।

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि । 
एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम् ।।27।। 
एतच्छ्रुत्वा महातेजाः नष्टशोको‌ऽभवत्-तदा । 
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ।।28।।

हे महाबाहो ! इसी क्षण तुम रावण का वध कर सकोगे, इस प्रकार मुनि अगस्त्य जिस प्रकार आये थे उसी प्रकार लौट गए।
तब इस प्रकार [अगस्त्य मुनि का उपदेश ] सुनकर महातेजस्वी राम जी का शोक दूर हो गया, प्रसन्न और प्रयत्नशील होकर।।

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान् । 
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ।।29।। 
रावणंप्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत् । 
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतो‌ऽभवत् ।।30।।

परम हर्षित और शुद्धचित्त होकर उन्होंने भगवान सूर्य की ओर देखते हुए तीन बार आदित्य ह्रदय स्तोत्र का तीन बार जप किया।
तत्पश्चात राम जी ने धनुष उठाकर युद्ध के लिए आये हुए रावण को देखा और उत्साह से भरकर सभी यत्नो से रावण के निश्चय किया।।

अथ रविरवदन्-निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः । 
निशिचरपति सङ्क्षयं विदित्वा सुरगण मध्यगतो वचस्त्वरेति।।३१।।

तब देवताओं के मध्य में खड़े हुए सूर्य देव ने प्रसन्न होकर श्री राम की ओर देखकर निशाचराज ( राक्षस के राजा ) के विनाश का समय निकट जानकर प्रसन्नता पूर्वक कहा "अब जल्दी करो"।।

।। इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मिकीये आदिकाव्ये युद्दकाण्डे पञ्चाधिक शततम सर्गः।। 
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#आदित्यहृदयस्तोत्र।।{हिन्दी अनुवाद सहित}
           वाल्मीकि रामायण के अनुसार “आदित्य हृदय स्तोत्र” अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान् श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति हेतु दिया गया था। 

 स्तोत्र का नित्य पाठ जीवन के अनेक कष्टों का एकमात्र निवारण है. इसके नियमित पाठ से मानसिक कष्ट, हृदय रोग, तनाव, शत्रु कष्ट और असफलताओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
इस स्तोत्र में सूर्य देव की निष्ठापूर्वक उपासना करते हुए उनसे विजयी मार्ग पर ले जाने का अनुरोध है। आदित्य हृदय स्तोत्र सभी प्रकार के पापों , कष्टों और शत्रुओं से मुक्ति कराने वाला, सर्व कल्याणकारी, आयु, उर्जा और प्रतिष्ठा बढाने वाला अति मंगलकारी विजय स्तोत्र है। 

विनियोग:- ॐ अस्य आदित्यह्रदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषि: अनुष्टुप्छन्दः आदित्यह्रदयभूतो भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः। 

पूर्व पिठिता
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ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् । 
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्। येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । 
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥

सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम् । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥5॥

मूल -स्तोत्र
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रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् । 
पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन:। 
एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभि: ॥7॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: । महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: । वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥9॥

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान् । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥10॥

हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान् । 
तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्॥11॥

हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि:।
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥

आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:। कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: । 
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥16॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: । 
नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥17॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: । 
नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे । 
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने। 
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥20॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु: । 
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥22॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: । 
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥23॥

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च । 
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥24॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । 
कीर्तयन् पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम् । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥27॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा ॥ धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान् ॥28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् । त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम् । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥
।।सम्पूर्ण ।।
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हिंदी अनुवाद
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1,2 उधर श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।

3 सबके ह्रदय में रमन करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो ! वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।

4,5 इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदय’ यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय कि प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है । यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।

6 भगवान् सूर्य अपनी अनंत किरणों से सुशोभित हैं। ये नित्य उदय होने वाले, देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्द, प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं। तुम इनका रश्मिमंते नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताये नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराये नमः इन मन्त्रों के द्वारा पूजन करो।

7 संपूर्ण देवता इन्ही के स्वरुप हैं। ये तेज़ की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित समस्त लोकों का पालन करने वाले हैं।

8,9 ये ही ब्रह्मा, विष्णु शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर , वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रकाश के पुंज हैं।

10,11,12,13,14,15 इनके नाम हैं आदित्य(अदितिपुत्र), सविता(जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य(सर्वव्यापक), खग, पूषा(पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश्य, भानु(प्रकाशक), हिरण्यरेता(ब्रह्मांड कि उत्पत्ति के बीज), दिवाकर(रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व, सहस्रार्चि(हज़ारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़ों वाले), मरीचिमान(किरणों से सुशोभित), तिमिरोमंथन(अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू, त्वष्टा, मार्तण्डक(ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान, हिरण्यगर्भ(ब्रह्मा), शिशिर(स्वभाव से ही सुख प्रदान करने वाले), तपन(गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर, रवि, अग्निगर्भ(अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख, शिशिरनाशन(शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ(आकाश के स्वामी), तमभेदी, ऋग, यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथिप्लवंगम (आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल(भूरे रंग वाले), सर्वतापन(सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन(जगत कि रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी और द्वादशात्मा हैं। इन सभी नामो से प्रसिद्द सूर्यदेव ! आपको नमस्कार है।

16 पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरी अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।

17 आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से भी प्रसिद्द हैं, आपको नमस्कार है।

18 उग्र, वीर, और सारंग सूर्यदेव को नमस्कार है । कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।

19 आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी है।सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमंडल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरुप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।

20 आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं । आपका स्वरुप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, संपूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।

21 आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरी और विश्वकर्मा हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।

22 रघुनन्दन ! ये भगवान् सूर्य ही संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं । ये अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं।

23 ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।

24 देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।

25 राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।

26 इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो। इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे ।

27 महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे वैसे ही चले गए ।

28,29,30 उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की और देखते हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की और देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढे । उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया ।

31 उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की और देखा और निशाचरराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – ‘रघुनन्दन ! अब जल्दी करो’ ।
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